इतने अच्छे कमेंट के बाद कुछ कहने को बचता नहीं, फिर भी
दो बातें
गोस्वामी जी का सहारा लेती हूँ,...
निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं।
( अपनी रचना कैसी भी हो, हर किसी को अच्छी लगती है। लेकिन दूसरें की रचना पढ़कर हर्षित होने वाले बहुत विरले ही उत्तम पुरुष हैं )
आप उन विरले लोगो में हैं, जिन्हे दूसरे की रचना अच्छी लगती है।
दूसरी बात, कथा के कथ्य पर तो बहुत लोग चर्चा कर लेते हैं, कहानी क्या कह रही है, क्या लिखा गया लेकिन उसके शिल्प पर प्रकाश डालने वाले उसके क्राफ्ट को समझने वाले और उसे कह पाने वाले भी विरले ही होते हैं , और आप उन विरले लोगों में हैं। अच्छा गाना हम सबको अच्छा लगता है लेकिन विज्ञ ही उसके सुर ताल को समझने वाले होते हैं।
आप ने जैसे गारी की बात की, उसके सामजिक सरोकार की बात की, शादी के बिसरते जा रहे रीत रिवाजो की बात की ग्रामीण माहौल में महिलाओ के बीच खुलेपन की बात की और ये वो बिल्डिंग ब्लाक है, वो ईंट गारा चूना जिनसे कहानी का यह भवन खड़ा हुआ, जो बनने के बाद दिखता तो नहीं पर कहानी को शेप देता है,
गारी अब सबसे ज्यादा विलुप्त हो रहे लोकगीतों में हैं लेकिन उसकी परम्परा में कुछ अलिखित नियम से है जो मैंने इस भाग में ध्यान देकर फॉलो किया। जैसे शादी ब्याह में जब औरते इकट्ठा होती है ( अब लेडीज संगीत ने सब संगीत गायब कर दिया ) तो पहले पांच गाने देवता के होते थे और बाद में शादी और अंत आते आते खुल के गारिया, लेकिन रस्म रिवाज की गारी में भी पहले थोड़ी हलकी ज्यादा शराफत वाली गालियां , इसलिए इसमें भी पहली गारी हलकी फुलकी है " आनंद की बहिना बिके कोई ले लो " और फिर धीरे धीरे माहौल गर्माता है , कभी गाने वालियां जोश में आ जाती हैं तो कभी सुनने वाला उकसाता है, तो कभी दोनों, ... और मिर्ची वाले पार्ट में गारी होने एक्स्ट्रीम पर पहुँचती है।
दूसरी बात खाने खाते समय जो गारी गयी जाती है, अक्सर स्त्रियां ओट में होती हैं। शादी में भात के समय के गाने में स्त्रियाँ किसी कमरे में या आस पास बैठ के बिना सामने आये, और इस कहानी में भी गुड्डी की मम्मी और चंदा भाभी किचेन में ओट में है , दूत की तरह गुड्डी है।
फ्लैश बैक के प्रसंग मैंने गुड्डी और आनंद के रोमांस के पूर्वराग को उजागर करने के लिए डाला, और इसमें एक प्रसंग था बीड़ा -अक्षत फेंकने का,... हर बार पहल गुड्डी ने ही किया, रसगुल्ला खिलाने से शुरू कर के, जो छेड़ छड़ से शुरू हुआ लेकिन धीरे धीरे परवान चढ़ा पर एक बार आनंद ने भी सायास अपनी मन की बात कहंने की कोशिश की,...
" लेकिन मैंने तय कर लिया था जाने के पहले उससे कह दूंगा अपनी बात। और वो विदाई के समय मिली,...
और मैंने वो बीड़ा अक्षत दिखाया, उसने मुस्करा के पूछा, .. अब तक सम्हाल के रखे हो, कब तक रखोगे। हिम्मत कर के जो मैंने दस बार रिहर्सल किया था बोल दिया,
"जब तुम दुबारा इसी छत से बीड़ा मारोगी तब तक,...."
वो ज्यादा समझदार थी मुझसे, बोली,... ज्यादा सपने नहीं देखने चाहिए, बाद में तकलीफ होती है।
और बात उसकी सही थी, शादी ब्याह में इस तरह की मुलाकात, दोस्ती, अक्सर कुछ दिनों में धुंधला जाती है ,और बाद में जैसे किताबों में रखे फूल कुछ बातें याद दिला देते हैं उसी तरह से, ...
लेकिन गुड्डी, गुड्डी थी।
" इसी छत " वाली बात जुडी है कहानी के पहले भाग में ही इस बात का जिक्र आता है की आनंद बाबू के भाभी की शादी गुड्डी की मम्मी के घर से हुयी थी और आगे जब गुड्डी और आनंद बाबू की शादी तय हुयी तो एक शर्त थी शादी गाँव से होगी, तीन दिन की बरात।
यानी इसी छत से अक्षत फेंकने वाली बात पूरी होगी।
इस लिए मेरे लिए कहानी लिखने में टाइम लगे लेकिन उसका शिल्प महत्वपूर्ण है और खुशी तब होती है जब कोई कथ्य के साथ उसके क्राफ्ट को भी समझता है अप्रिशिएट करता है।
एक बार फिर से आभार, नमन धन्यवाद और अनुरोध की आप इसी तरह इस कथा यात्रा में साथ देते रहेंगे।