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Serious *महफिल-ए-ग़ज़ल*

क्या आपको ग़ज़लें पसंद हैं..???

  • हाॅ, बेहद पसंद हैं।

    Votes: 12 85.7%
  • हाॅ, लेकिन ज़्यादा नहीं।

    Votes: 2 14.3%

  • Total voters
    14

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,152
115,976
354
अच्छा लगता है

सूरज के साथ सुबहें
चंदा के साथ रातें
अपनों के साथ बातें..

हवा के साथ बहना
खुशबू के साथ रहना
पानी सा बहते रहना..

राहों सी सोच रखना
मिट्टी सी खुशबू रखना
गंगा सा निश्छल रहना..

मन में मौज रखना
आंसू सा नमक रखना
दुख हो तो रो लेना..

फसलों सा सदा बढ़ना
फूलों सा सदा खिलना
बच्चों सा हंस देना..

तूफां में संभल जाना
अपनों से जुड़े रहना
और जीना सीख लेना...

अच्छा लगता है....
वाह! बहुत खूब भाई,,,,,
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,152
115,976
354
बहुत रोया वो हम को याद कर के।
हमारी ज़िंदगी बरबाद कर के।।

पलट कर फिर यहीं आ जाएँगे हम,
वो देखे तो हमें आज़ाद कर के।।

रिहाई की कोई सूरत नहीं है,
मगर हाँ मिन्नत-ए-सय्याद कर के।।

बदन मेरा छुआ था उस ने लेकिन,
गया है रूह को आबाद कर के।।

हर आमिर तूल देना चाहता है,
मुक़र्रर ज़ुल्म की मीआ'द कर के।।

________परवीन शाकिर
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,152
115,976
354
बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना।
मैं समुंदर देखती हूँ तुम किनारा देखना।।

यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर,
जाते जाते उस का वो मुड़ कर दोबारा देखना।।

किस शबाहत को लिए आया है दरवाज़े पे चाँद,
ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना।।

क्या क़यामत है कि जिन के नाम पर पसपा हुए,
उन ही लोगों को मुक़ाबिल में सफ़-आरा देखना।।

जब बनाम-ए-दिल गवाही सर की माँगी जाएगी,
ख़ून में डूबा हुआ परचम हमारा देखना।।

जीतने में भी जहाँ जी का ज़ियाँ पहले से है,
ऐसी बाज़ी हारने में क्या ख़सारा देखना।।

आइने की आँख ही कुछ कम न थी मेरे लिए,
जाने अब क्या क्या दिखाएगा तुम्हारा देखना।।

एक मुश्त-ए-ख़ाक और वो भी हवा की ज़द में है,
ज़िंदगी की बेबसी का इस्तिआ'रा देखना।।

_________परवीन शाकिर
 

Mr. Perfect

"Perfect Man"
1,434
3,733
143
Waahh The_InnoCent bhai what a shayri_______

बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना।
मैं समुंदर देखती हूँ तुम किनारा देखना।।

यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर,
जाते जाते उस का वो मुड़ कर दोबारा देखना।।

किस शबाहत को लिए आया है दरवाज़े पे चाँद,
ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना।।

क्या क़यामत है कि जिन के नाम पर पसपा हुए,
उन ही लोगों को मुक़ाबिल में सफ़-आरा देखना।।

जब बनाम-ए-दिल गवाही सर की माँगी जाएगी,
ख़ून में डूबा हुआ परचम हमारा देखना।।

जीतने में भी जहाँ जी का ज़ियाँ पहले से है,
ऐसी बाज़ी हारने में क्या ख़सारा देखना।।

आइने की आँख ही कुछ कम न थी मेरे लिए,
जाने अब क्या क्या दिखाएगा तुम्हारा देखना।।

एक मुश्त-ए-ख़ाक और वो भी हवा की ज़द में है,
ज़िंदगी की बेबसी का इस्तिआ'रा देखना।।

_________परवीन शाकिर
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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Waahh The_InnoCent bhai what a shayri_______
बहुत बहुत शुक्रिया भाई आपकी इस खूबसूरत प्रतिक्रिया के लिए,,,,,,
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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ग़ज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखाएँगे।
रोएँगे बहुत लेकिन आँसू नहीं आएँगे।।

कह देना समुंदर से हम ओस के मोती हैं,
दरिया की तरह तुझ से मिलने नहीं आएँगे।।

वो धूप के छप्पर हों या छाँव की दीवारें,
अब जो भी उठाएँगे मिल जुल के उठाएँगे।।

जब साथ न दे कोई आवाज़ हमें देना,
हम फूल सही लेकिन पत्थर भी उठाएँगे।।

_________बशीर बद्र
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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मचल के जब भी आँखों से छलक जाते हैं दो आँसू,
सुना है आबशारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।।

खुदारा अब तो बुझ जाने दो इस जलती हुई लौ को,
चरागों से मज़ारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।।

कहू क्या वो बड़ी मासूमियत से पूछ बैठे है,
क्या सचमुच दिल के मारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।।

तुम्हारा क्या तुम्हें तो राह दे देते हैं काँटे भी,
मगर हम खांकसारों को बड़ी तकलीफ़ होती है।।

________गुलज़ार
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा,
न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत,
जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है.
शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही,
और जब आया ख़्यालों को एहसास न था.
आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन,
मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था.
चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी,
दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा,
बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली,
लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी.
मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है.
पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर,
लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको,
बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था.
चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल,
और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें,
मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है.
वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा,
जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने,
इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी.

________गुलज़ार
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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शाम से आँख में नमी सी है।
आज फ़िर आपकी कमी सी है।।

दफ़न कर दो हमें कि साँस मिले,
नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है।।

वक्त रहता नहीं कहीं छुपकर,
इसकी आदत भी आदमी सी है।।

कोई रिश्ता नहीं रहा फ़िर भी,
एक तस्लीम लाज़मी सी है।।

_______गुलज़ार
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,152
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रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है
रात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहीं
कांच का नीला सा गुम्बद है, उड़ा जाता है
ख़ाली-ख़ाली कोई बजरा सा बहा जाता है
चाँद की किरणों में वो रोज़ सा रेशम भी नहीं
चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती है,
और सन्नाटों की इक धूल सी उड़ी जाती है,
काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी,
हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता है।

________गुलज़ार
 
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