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Serious *महफिल-ए-ग़ज़ल*

क्या आपको ग़ज़लें पसंद हैं..???

  • हाॅ, बेहद पसंद हैं।

    Votes: 12 85.7%
  • हाॅ, लेकिन ज़्यादा नहीं।

    Votes: 2 14.3%

  • Total voters
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The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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वो फूल जो मिरे दामन से हो गए मंसूब,
ख़ुदा करे उन्हें बाज़ार की हवा न
लगे।।
 

Mr. Perfect

"Perfect Man"
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3,733
143
Fantastic shubham bhai_____

वो फूल जो मिरे दामन से हो गए मंसूब,
ख़ुदा करे उन्हें बाज़ार की हवा न
लगे।।
 

Peacelover

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रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ

इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिर्या से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आख़िरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ..
बेहतरीन ग़ज़ल। एक जमाना था इसको सुने बिना दिन नहीं गुजरता था।
 

Peacelover

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बहुत अच्छे भाई क्या खूब लिखा है

ये रात ये दिल की धड़कन .. ये बढ़ती हुई बेताबी..
.
एक जाम के खातिर जैसे ..बेचैन हो कोई शराबी...
बहुत सुंदर
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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दिल से तिरा ख़याल न जाए तो क्या करूँ।
मैं क्या करूँ कोई न बताए तो क्या करूँ।।

उम्मीद-ए-दिल-नशीं सही दुनिया हसीं सही,
तेरे बग़ैर कुछ भी न भाए तो क्या करूँ।।

दिल को ख़ुदा की याद तले भी दबा चुका,
कम-बख़्त फिर भी चैन न पाए तो क्या करूँ।।

दिन हो कि रात एक मुलाक़ात की है बात,
इतनी सी बात भी न बन आए तो क्या करूँ।।

जो कुछ बना दिया है तिरे इंतिज़ार ने,
अब सोचता हूँ तू इधर आए तो क्या करूँ।।

दीदा-वरान-ए-बुत-कदा इक मशवरा तो दो,
काबा झलक यहाँ भी दिखाए तो क्या करूँ।।

_______'हफ़ीज़' जालंधरी
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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दिल को वीराना कहोगे मुझे मालूम न था।
फिर भी दिल ही में रहोगे मुझे मालूम न था।।

साथ दुनिया का मैं छोड़ूँगा तुम्हारी ख़ातिर,
और तुम साथ न दोगे मुझे मालूम न था।।

चुप जो हूँ कोई बुरी बात है मेरे दिल में,
तुम भी ये बात कहोगे मुझे मालूम न था।।

लोग रोते हैं मेरी बद-नज़री का रोना,
तुम भी इस रौ में बहोगे मुझे मालूम न था।।

तुम तो बे-सब्र थे आग़ाज़-ए-मोहब्बत में 'हफ़ीज़'
इस क़दर जब्र सहोगे मुझे मालूम न था।।

_______'हफ़ीज़' जालंधरी
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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दोस्ती का चलन रहा ही नहीं।
अब ज़माने की वो हवा ही नहीं।।

सच तो ये है सनम-कदे वालो,
दिल ख़ुदा ने तुम्हें दिया ही नहीं।।

पलट आने से हो गया साबित,
नामा-बर तू वहाँ गया ही नहीं।।

हाल ये है कि हम ग़रीबों का,
हाल तुम ने कभी सुना ही नहीं।।

क्या चले ज़ोर दश्त-ए-वहशत का,
हम ने दामन कभी सिया ही नहीं।।

ग़ैर भी एक दिन मरेंगे ज़रूर,
उन के हिस्से में क्या क़ज़ा ही नहीं।।

उस की सूरत को देखता हूँ मैं,
मेरी सीरत वो देखता ही नहीं।।

_______'हफ़ीज़' जालंधरी
 
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