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वो फूल जो मिरे दामन से हो गए मंसूब,
ख़ुदा करे उन्हें बाज़ार की हवा न लगे।।
ख़ुदा करे उन्हें बाज़ार की हवा न लगे।।
वो फूल जो मिरे दामन से हो गए मंसूब,
ख़ुदा करे उन्हें बाज़ार की हवा न लगे।।
बेहतरीन ग़ज़ल। एक जमाना था इसको सुने बिना दिन नहीं गुजरता था।रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
कुछ तो मिरे पिंदार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ
किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ
इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिर्या से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जाँ मुझ को रुलाने के लिए आ
अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आख़िरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ..
बहुत सुंदरबहुत अच्छे भाई क्या खूब लिखा है
ये रात ये दिल की धड़कन .. ये बढ़ती हुई बेताबी..
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एक जाम के खातिर जैसे ..बेचैन हो कोई शराबी...
Fantastic shubham bhai_____