ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो रह-ए-आम तक न पहुँचे।
मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत तिरे नाम तक न पहुँचे।।
मैं नज़र से पी रहा था तो ये दिल ने बद-दुआ दी,
तिरा हाथ ज़िंदगी भर कभी जाम तक न पहुँचे।।
वो नवा-ए-मुज़्महिल क्या न हो जिस में दिल की धड़कन,
वो सदा-ए-अहल-ए-दिल क्या जो अवाम तक न पहुँचे।।
मिरे ताइर-ए-नफ़स को नहीं बाग़बाँ से रंजिश,
मिले घर में आब-ओ-दाना तो ये दाम तक न पहुँचे।।
नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है,
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे।।
ये अदा-ए-बे-नियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक,
मगर ऐसी बे-रुख़ी क्या कि सलाम तक न पहुँचे।।
जो नक़ाब-ए-रुख़ उठा दी तो ये क़ैद भी लगा दी,
उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे।।
उन्हें अपने दिल की ख़बरें मिरे दिल से मिल रही हैं,
मैं जो उन से रूठ जाऊँ तो पयाम तक न पहुँचे।।
वही इक ख़मोश नग़्मा है 'शकील' जान-ए-हस्ती,
जो ज़बान पर न आए जो कलाम तक न पहुँचे।।
_______'शकील' बदायूनी