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Serious *महफिल-ए-ग़ज़ल*

क्या आपको ग़ज़लें पसंद हैं..???

  • हाॅ, बेहद पसंद हैं।

    Votes: 12 85.7%
  • हाॅ, लेकिन ज़्यादा नहीं।

    Votes: 2 14.3%

  • Total voters
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The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,147
115,946
354
आओ कोई तफरीह का सामान किया जाए / क़तील


आओ कोई तफरीह का सामान किया जाए
फिर से किसी वाईज़ को परेशान किया जाए॥

बे-लर्जिश-ए-पा मस्त हो उन आँखो से पी कर
यूँ मोह-त-सीबे शहर को हैरान किया जाए॥

हर शह से मुक्क्दस है खयालात का रिश्ता
क्यूँ मस्लिहतो पर इसे कुर्बान किया जाए॥

मुफलिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
अब खुल के मज़रो पर ये ऐलान किया जाए॥

वो शक्स जो दीवानो की इज़्ज़त नहीं करता
उस शक्स का चाख-गरेबान किया जाए॥

पहले भी 'कतील' आँखो ने खाए कई धोखे
अब और न बीनाई का नुकसान किया जाए॥
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,147
115,946
354
बेचैन बहारों में क्या-क्या है जान की ख़ुश्बू आती है
जो फूल महकता है उससे तूफ़ान की ख़ुश्बू आती है

कल रात दिखा के ख़्वाब-ए-तरब जो सेज को सूना छोड़ गया
हर सिलवट से फिर आज उसी मेहमान की ख़ुश्बू आती है

तल्कीन-ए-इबादत की है मुझे यूँ तेरी मुक़द्दस आँखों ने
मंदिर के दरीचों से जैसे लोबान की ख़ुश्बू आती है

कुछ और भी साँसें लेने पर मजबूर-सा मैं हो जाता हूँ
जब इतने बड़े जंगल में किसी इंसान की ख़ुश्बू आती है

कुछ तू ही मुझे अब समझा दे ऐ कुफ़्र दुहाई है तेरी
क्यूँ शेख़ के दामन से मुझको इमान की ख़ुश्बू आती है

डरता हूँ कहीं इस आलम में जीने से न मुनकिर हो जाऊँ
अहबाब की बातों से मुझको एहसान की ख़ुश्बू आती है
 

Mr. Perfect

"Perfect Man"
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3,733
143
Fantastic shubham bhai______

आओ कोई तफरीह का सामान किया जाए / क़तील


आओ कोई तफरीह का सामान किया जाए
फिर से किसी वाईज़ को परेशान किया जाए॥

बे-लर्जिश-ए-पा मस्त हो उन आँखो से पी कर
यूँ मोह-त-सीबे शहर को हैरान किया जाए॥

हर शह से मुक्क्दस है खयालात का रिश्ता
क्यूँ मस्लिहतो पर इसे कुर्बान किया जाए॥

मुफलिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत
अब खुल के मज़रो पर ये ऐलान किया जाए॥

वो शक्स जो दीवानो की इज़्ज़त नहीं करता
उस शक्स का चाख-गरेबान किया जाए॥

पहले भी 'कतील' आँखो ने खाए कई धोखे
अब और न बीनाई का नुकसान किया जाए॥
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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354
जुस्तुजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने।
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने।।

सब का अहवाल वही है जो हमारा है आज,
ये अलग बात कि शिकवा किया तन्हा हम ने।।

ख़ुद पशीमान हुए ने उसे शर्मिंदा किया,
इश्क़ की वज़्अ को क्या ख़ूब निभाया हम ने।।

कौन सा क़हर ये आँखों पे हुआ है नाज़िल,
एक मुद्दत से कोई ख़्वाब न देखा हम ने।।

उम्र भर सच ही कहा सच के सिवा कुछ न कहा,
अज्र क्या इस का मिलेगा ये न सोचा हम ने।।

______शहरयार
 

VIKRANT

Active Member
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3,377
159
जुस्तुजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने।
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने।।

सब का अहवाल वही है जो हमारा है आज,
ये अलग बात कि शिकवा किया तन्हा हम ने।।

ख़ुद पशीमान हुए ने उसे शर्मिंदा किया,
इश्क़ की वज़्अ को क्या ख़ूब निभाया हम ने।।

कौन सा क़हर ये आँखों पे हुआ है नाज़िल,
एक मुद्दत से कोई ख़्वाब न देखा हम ने।।

उम्र भर सच ही कहा सच के सिवा कुछ न कहा,
अज्र क्या इस का मिलेगा ये न सोचा हम ने।।


______शहरयार
Amazing bro. :applause: :applause: :applause:
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है।
उस का इल्ज़ाम-ए-तग़ाफ़ुल पे कुछ इंकार तो है।।

हर फ़रेब-ए-ग़म-ए-दुनिया से ख़बर-दार तो है,
तेरा दीवाना किसी काम में हुश्यार तो है।।

देख लेते हैं सभी कुछ तिरे मुश्ताक़-ए-जमाल,
ख़ैर दीदार न हो हसरत-ए-दीदार तो है।।

माअ'रके सर हों उसी बर्क़-ए-नज़र से ऐ हुस्न,
ये चमकती हुई चलती हुइ तलवार तो है।।

सर पटकने को पटकता है मगर रुक रुक कर,
तेरे वहशी को ख़याल-ए-दर-ओ-दीवार तो है।।

इश्क़ का शिकवा-ए-बेजा भी न बे-कार गया,
न सही जौर मगर जौर का इक़रार तो है।।

तुझ से हिम्मत तो पड़ी इश्क़ को कुछ कहने की,
ख़ैर शिकवा न सही शुक्र का इज़हार तो है।।

इस में भी राबता-ए-ख़ास की मिलती है झलक,
ख़ैर इक़रार-ए-मोहब्बत न हो इंकार तो है।।

क्यूँ झपक जाती है रह रह के तिरी बर्क़-ए-निगाह,
ये झिजक किस लिए इक कुश्ता-ए-दीदार तो है।।

कई उन्वान हैं मम्नून-ए-करम करने के,
इश्क़ में कुछ न सही ज़िंदगी बे-कार तो है।।

सहर-ओ-शाम सर-ए-अंजुमन-ए-नाज़ न हो,
जल्वा-ए-हुस्न तो है इश्क़-ए-सियहकार तो है।।

चौंक उठते हैं 'फ़िराक़' आते ही उस शोख़ का नाम,
कुछ सरासीमगी-ए-इश्क़ का इक़रार तो है।।

_______'फ़िराक़' गोरखपुरी
 

Mr. Perfect

"Perfect Man"
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143
Waahh gajab shubham bhai______

कुछ न कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है।
उस का इल्ज़ाम-ए-तग़ाफ़ुल पे कुछ इंकार तो है।।

हर फ़रेब-ए-ग़म-ए-दुनिया से ख़बर-दार तो है,
तेरा दीवाना किसी काम में हुश्यार तो है।।

देख लेते हैं सभी कुछ तिरे मुश्ताक़-ए-जमाल,
ख़ैर दीदार न हो हसरत-ए-दीदार तो है।।

माअ'रके सर हों उसी बर्क़-ए-नज़र से ऐ हुस्न,
ये चमकती हुई चलती हुइ तलवार तो है।।

सर पटकने को पटकता है मगर रुक रुक कर,
तेरे वहशी को ख़याल-ए-दर-ओ-दीवार तो है।।

इश्क़ का शिकवा-ए-बेजा भी न बे-कार गया,
न सही जौर मगर जौर का इक़रार तो है।।

तुझ से हिम्मत तो पड़ी इश्क़ को कुछ कहने की,
ख़ैर शिकवा न सही शुक्र का इज़हार तो है।।

इस में भी राबता-ए-ख़ास की मिलती है झलक,
ख़ैर इक़रार-ए-मोहब्बत न हो इंकार तो है।।

क्यूँ झपक जाती है रह रह के तिरी बर्क़-ए-निगाह,
ये झिजक किस लिए इक कुश्ता-ए-दीदार तो है।।

कई उन्वान हैं मम्नून-ए-करम करने के,
इश्क़ में कुछ न सही ज़िंदगी बे-कार तो है।।

सहर-ओ-शाम सर-ए-अंजुमन-ए-नाज़ न हो,
जल्वा-ए-हुस्न तो है इश्क़-ए-सियहकार तो है।।

चौंक उठते हैं 'फ़िराक़' आते ही उस शोख़ का नाम,
कुछ सरासीमगी-ए-इश्क़ का इक़रार तो है।।


_______'फ़िराक़' गोरखपुरी
 
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