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Romance मोहब्बत का सफ़र [Completed]

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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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प्रकरण (Chapter)अनुभाग (Section)अद्यतन (Update)
1. नींव1.1. शुरुवाती दौरUpdate #1, Update #2
1.2. पहली लड़कीUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19
2. आत्मनिर्भर2.1. नए अनुभवUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9
3. पहला प्यार3.1. पहला प्यारUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9
3.2. विवाह प्रस्तावUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9
3.2. विवाह Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21
3.3. पल दो पल का साथUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6
4. नया सफ़र 4.1. लकी इन लव Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15
4.2. विवाह Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18
4.3. अनमोल तोहफ़ाUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6
5. अंतराल5.1. त्रिशूल Update #1
5.2. स्नेहलेपUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10
5.3. पहला प्यारUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24
5.4. विपर्ययUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18
5.5. समृद्धि Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20
6. अचिन्त्यUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24, Update #25, Update #26, Update #27, Update #28
7. नव-जीवनUpdate #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5
 
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इस अपडेट मे सबकुछ वैसा ही था जैसे परिवार के लोगों का वर्षों बाद रि - युनियन होता है। और नो डाऊट बहुत ही इमोशनल था।
खासतौर पर बहुत दिनों बाद गैबी की याद तरो-तजा हो गई जिसे उसके फैमिली ने कभी ढंग से प्यार नही किया , जो प्यार की तलाश मे भारत आ गई और जिसकी मौत बहुत बहुत ही दुखद थी।
गैबी के मां-बाप का आना , गांव से बुजुर्ग चाचा चाची का आना और आश्चर्यजनक रूप से गेल और मरी का राॅबिन के साथ इस वैवाहिक उत्सव मे आना आश्चर्यजनक और बहुत ही सुखद था।
सच कहूं तो मै गेल और मरी के बारे मे भुल ही गया था। याद था तो सिर्फ यह कि अमर और उसकी पत्नी ने एक फिरंगी जोड़े के साथ वाइफ स्वैपिंग किया था लेकिन उस जोड़े का नाम हमने कभी सीरियस लिया ही नही।
यह देखकर भी बहुत अच्छा लगा कि गेल और मरी आखिरकार मां-बाप बने , भले ही असलियत कुछ और ही हो।

अगर सम्भव हो तो राॅबिन और आभा यह अवश्य जाने कि उनके रगों मे एक ही बाप का खून दौड़ रहा है । वो असलियत मे भाई-बहन ही है । एक सगे रिश्ते को आप समाज का भय दिखाकर दूर नही कर सकते और वो तब जब लड़के समझदार हों।

बहुत बहुत खुबसूरत अपडेट avsji भाई।
आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग अपडेट।
 
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Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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हा हा... ई तौ कमाल बाय... बहुत नीक... बहुतै नीक!”
बहुतै नीक लाग अवधी पढ़ी के।

सुंदर....
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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इस अपडेट मे सबकुछ वैसा ही था जैसे परिवार के लोगों का वर्षों बाद रि - युनियन होता है। और नो डाऊट बहुत ही इमोशनल था।

जी भाई - यह एक तरह का recap भी था, अभी के सफ़र का। धन्यवाद पसंद करने के लिए! :)

खासतौर पर बहुत दिनों बाद गैबी की याद तरो-तजा हो गई जिसे उसके फैमिली ने कभी ढंग से प्यार नही किया , जो प्यार की तलाश मे भारत आ गई और जिसकी मौत बहुत बहुत ही दुखद थी।
गैबी के मां-बाप का आना , गांव से बुजुर्ग चाचा चाची का आना और आश्चर्यजनक रूप से गेल और मरी का राॅबिन के साथ इस वैवाहिक उत्सव मे आना आश्चर्यजनक और बहुत ही सुखद था।
सच कहूं तो मै गेल और मरी के बारे मे भुल ही गया था। याद था तो सिर्फ यह कि अमर और उसकी पत्नी ने एक फिरंगी जोड़े के साथ वाइफ स्वैपिंग किया था लेकिन उस जोड़े का नाम हमने कभी सीरियस लिया ही नही।
यह देखकर भी बहुत अच्छा लगा कि गेल और मरी आखिरकार मां-बाप बने , भले ही असलियत कुछ और ही हो।

गैबी की कहानी वाक़ई दुःखद है। लेकिन, अगर दो पल प्यार के मिलें, तो वो बिना प्यार वाले पूरे जीवन पर भारी हैं। गैबी को अमर और उसके परिवार से बहुत प्यार मिला। शायद इसी कारण से उसकी अम्मा भी अमर को प्रेम और आदर से देखने लगीं।
गेल और मरी के लिए "फिरंगी" शब्द सही है - दरअसल, फ्राँस के लोगों के लिए ही अरबी लोगों ने फ्रंग / फरंग शब्द रखा था, जो बाद में भारत में फिरंग कहा जाने लगा। समय बीतने पर प्रत्येक 'गोरे' को इसी शब्द से जाना जाने लगा :)
वो दोनों हमेशा से ही अमर और मिष्टी (आभा) के संपर्क में रहें हैं। दोनों आभा के 'गॉड पैरेंट्स' भी हैं, जैसे अमर और डेवी रॉबिन के हैं/थे।

अगर सम्भव हो तो राॅबिन और आभा यह अवश्य जाने कि उनके रगों मे एक ही बाप का खून दौड़ रहा है । वो असलियत मे भाई-बहन ही है । एक सगे रिश्ते को आप समाज का भय दिखाकर दूर नही कर सकते और वो तब जब लड़के समझदार हों।

हाँ - ठीक भी है। लेकिन अभी भी रॉबिन और आभा - दोनों ही किशोरवय ही हैं।
देखते हैं!

बहुत बहुत खुबसूरत अपडेट avsji भाई।
आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग अपडेट।

बहुत बहुत धन्यवाद संजू भाई :)
 

avsji

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Supreme
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बहुतै नीक लाग अवधी पढ़ी के।

सुंदर....

धन्यवाद भाई। इस कहानी में तो अंग्रेजी, हिंदी, पुर्तगाली, अवधी, बंगाली - न जाने कितनी ही भाषाओं के शब्दों का इस्तेमाल कर दिया है। :)
बड़ी मेहनत हो गई, लेकिन पाठक बड़े कम रहे! खैर, बस अब शादी का प्रकरण - दो या तीन और अपडेट! फिर समाप्त!
फिर "श्राप" शुरू।
 

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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धन्यवाद भाई। इस कहानी में तो अंग्रेजी, हिंदी, पुर्तगाली, अवधी, बंगाली - न जाने कितनी ही भाषाओं के शब्दों का इस्तेमाल कर दिया है। :)
बड़ी मेहनत हो गई, लेकिन पाठक बड़े कम रहे! खैर, बस अब शादी का प्रकरण - दो या तीन और अपडेट! फिर समाप्त!
फिर "श्राप" शुरू।
अवधी मेरे जन्म स्थान की बोली है, और मैं इसे सही से बोल नही पता, इसका मुझे दुख है। मगही मेरे बाल्य काल की जगह की है, तो कुछ ढंग से बोल लेता हूं, और भोजपुरी का भी ऐसा ही है।

वैसे अब हम भी चाहते हैं की अब श्राप भी सही से चालू हो
 

avsji

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Supreme
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Please update... Bhai.

Avsji Bhai please update dijiye....

बस भाई! दो मिनट में इस कहानी के आखिरी अपडेट्स आ रहे हैं।
:) :) साथ बने रहने के लिए धन्यवाद!
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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नव-जीवन - Update #2


हमारी तरफ़ गर्मियों के मौसम में शादियाँ कम ही होती हैं। अगर लोगों की कोई मजबूरी न हो, तो नहीं करते हैं। कारण? मौसम! हमारी तरफ़ गर्मियों का मौसम बेहद उमस भरा रहता है। इस कारण से थकावट बहुत होती है, और मज़ा नहीं आता। ऊपर से भोजन भी जल्दी खराब हो जाता है! ऐसी गर्मी के नुकसान बहुत से हैं, लेकिन लाभ कम। लतिका और मेरी शादी भी देर से हो सकती थी, लेकिन अम्मा अब और देर नहीं मानने वाली थीं। वो चाहती थीं कि मैं अब विवाह बंधन में बंध ही जाऊँ! और जब लतिका के साथ ही ऐसा संयोग बैठा था, तो यही शुभ था। और शुभ काम में देर नहीं होनी चाहिए - यह अम्मा का मन्त्र था। इसी मन्त्र के कारण माँ और पापा का विवाह भी झटपट हो गया था। लिहाज़ा, अब हमारी शादी भी झटपट होने वाली थी। झटपट, लेकिन बिना किसी कमियागिरि के!

लतिका और मेरी शादी का “पर्व” पूरे पारम्परिक उल्लास और व्यवस्था के साथ शुरू हुआ। वो सब कुछ देख कर मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे गैबी के साथ हुई मेरी शादी की पुनरावृत्ति हो गई हो! पूरे गाँव में सभी मेरी शादी को ले कर खुश दिखाई दे रहे थे। गाँव के अधिकतर लोगों को हमारे परिवार से बहुत लाभ मिला था। इसलिए जहाँ वो सभी पहले केवल हमारे शुभचिंतक थे, अब हमारी ख़ुशी में वो एक तरह से हिस्सेदार भी बन गए थे। सभी चाहते थे कि मेरा परिवार बन जाए। गाँव और आस पास के कुछ गाँवों के विकास के लिए यह आवश्यक था कि मेरा जीवन स्थिर हो। इसलिए भी लोग इस बात को ले कर खुश दिख रहे थे। वैसे भी, यह शादी कोई छोटी मोटी नहीं होने वाली थी, और उस कारण से बहुत से लोगों को कुछ समय के लिए ही सही, रोज़गार मिलने वाला था। गैबी के साथ और अब लतिका के साथ मेरी शादी में एक अंतर था - वो यह कि गैबी के साथ मेरी शादी आनन फ़ानन में हुई थी, लेकिन लतिका के साथ सब कुछ पूरे प्लानिंग के साथ!

हमारे घर के सामने ही अहाते में एक बड़ा सा पंडाल लगा दिया गया था, और उसमें चरपाइयाँ डाल कर पेडस्टल पंखे लगा दिए गए थे। इसलिए घर के अंदर और बाहर सोने और रहने की बढ़िया व्यवस्था हो गई थी। डैड का बनवाया हुआ, बाहर का शौचालय तो वैसे भी सभी के लिए सुलभ था, इसलिए कोई दिक्कत नहीं थी। चूँकि गर्मी का मौसम था, इसलिए कई बच्चे और सभी मर्द तो बाहर ही सो सकते थे... और वो यही चाहते भी थे। घर के अंदर दुल्हन की साज-सज्जा और अन्य तैयारियों के लिए वैसे भी बहुत स्थान चाहिए होता है, लिहाज़ा उसके लिए पर्याप्त स्थान था। सौर ऊर्जा के कारण बिजली भी निर्बाध थी, इसलिए घर के अंदर सुख था। बाकी, जैसा कि मैंने पहले भी बताया, बाहर से आये सभी मेहमान पास की धर्मशालाओं में रह रहे थे।

अपना गाँव का घर अब पहले से बड़ा था, और बेहद आरामदायक भी था... लेकिन फिर भी पिछली बार की ही तरह इस बार भी मुझे घर निकाला मिलने वाला था। क्यों? क्योंकि वो घर अब लतिका का ‘मायका’ बन गया था। ‘वधु पक्ष’ के सभी लोग वहीं रहने वाले थे - बच्चे, माँ, अम्मा, बापू - लगभग सभी! वैसे वो सभी ‘वर पक्ष’ के भी उतने ही थे, जितने ‘वधु पक्ष’ के, लेकिन अपनी हरकतों से वो लड़की वाले ही बन गए थे। हाँ - पापा ने अवश्य ही मेरे संग ही रहने की कोशिश की। उन्होंने सभी से कह दिया कि वो अपने बेटे को यूँ अकेला नहीं छोड़ेंगे... न जाने उसको किस बात की आवश्यकता पड़ जाए! ऐसे में मुझे आश्रय कौन देगा? ठीक समझा आपने - हमारे पड़ोसी चाचा जी और चाची जी! लेकिन यह पहले से ही तय था। यह भी सच बात है कि चाचा जी और चाची जी के साथ मेरी जो भी आवश्यकताएँ थीं, वो आराम से पूरी हो जातीं। मुझे घर-निकाले से कोई शिकायत नहीं थी - वैसे भी मुझे घर निकाले का बहुत अनुभव हो ही चुका था। लतिका उम्र में बहुत छोटी भी थी, और सभी की चहेती भी... इसलिए उसको अहमियत मिलनी ही चाहिए।

उन्होंने भी अपने घर में विस्तार करवा लिया था - भूमि-तल पर तीन नए कमरे और पहली मंज़िल पर दो। अनाज भण्डारण वाले कमरे अब आवास के लिए इस्तेमाल हो रहे थे, क्योंकि अनाज भंडार खेतों पर ही बन गए थे। उनका परिवार अभी भी बढ़ रहा था, इसलिए आवश्यक था कि जब आर्थिक सम्पन्नता आ रही हो, तब समय रहते यह सब काम संपन्न हो जाएँ।

माँ पापा, नवजात आरोही और मेरे संग चाचा जी और चाची जी के दर पहुँचे। वो दोनों हमारे स्वागत में दरवाज़े पर ही खड़े थे - हमारे क्या, दरअसल वो आरोही के स्वागत में खड़े थे। हमारी तरफ नवजात बच्ची को स्वयं श्री का रूप माना जाता है। इसलिए उन दोनों के लिए आरोही के रूप में स्वयं श्री ही पधार रही थीं। उन्होंने बच्ची की और फिर हमारी आरती उतारी, उसके माथे पर एक डिठौना (काजल का काला टीका) लगाया, और फिर हमको घर के अंदर आने को कहा।

माँ ने आरोही को पापा के सुपुर्द किया और फिर बारी बारी से चाचा जी चाची जी के पैर छू कर उनके आशीर्वाद लिए।

“सदा सुहागन रहो बिटिया...” दोनों ने ही उनको आशीर्वाद दिया, “दूधो नहाओ... पूतो फलो...”

माँ इस आशीर्वाद पर संकोच से मुस्कुरा दीं।

फिर पापा ने उन दोनों का आशीर्वाद लिया।

“पाहुन... खूब बड़े होई जाओ मोर भईया...” चाचा जी ने उनको आशीर्वाद दिया और कहा, “तोहार तरक्की देख कै मन प्रसन्न होय जात हय...”

“थैंक यू भैया,” पापा बोले, “... लेकिन आप मुझे मेरे नाम से बुलाया करिए न... मैं तो आपके बेटे जैसा हूँ...”

“हमार बिटवा ही हौ... लेकिन दामाद कै नाम नाही लिहा जात हमरे हियाँ...”

“अउर तू तौ हमरी बिटिया का जस प्रेम से रक्खे हौ,” चाची जी बोलीं, “ओकरे लिए तौ हमका तोहार आभार मानै का चाही...”

“भाभी... इसमें आभार वाली क्या बात है?” पापा ने माँ का हाथ थामते हुए कहा, “... ये तो मेरे जीवन का प्यार हैं... मेरी रौशनी... मेरे बच्चों की माँ हैं... मेरी ज़िन्दगी...”

हम सभी उनकी बात सुन कर गर्व से मुस्कुराये। पापा कहते रहे,

“इसलिए आभार तो मुझे आप दोनों का मानना चाहिए... कि आपने अपनी सबसे सुन्दर सी बेटी मुझको दी है...” पापा ने संजीदगी और पूरे आदर से कहा, “... आप ही तो हमारी जड़ें हैं! ... आप ही तो हमारी पहचान हैं!”

“अरे पाहुन...” पापा की बात सुन कर चाचा जी भाव विभोर हो गए, “लरिकन बच्चन से ही तौ घरा नीक लागत है...”

“बस बस...” चाची जी ने कहा, “अइसनै दूनौ परानी प्रेम बनाये रख्यो... खूब खुस रहौ...”

“हाँ पाहुन...” चाचा जी ने खेद भरे स्वर में कहा, “पहिले तौ हमका ई सुन कै बहुत बुरा लाग की केहू अउर, परताप भैया (डैड) कै जगहा लिहा चाहत हय... लेकिन फिर हम तू दूनौ जने कै प्रेम देख्यन... हम बहुत गलत रहन पाहुन... बहुत गलत...”

“भैया, वो सब पुरानी बातें हैं! याद भी नहीं हैं अब तो... वो सब भूल जाइए आप भी!” पापा ने कहा।

“सही कह्यो पाहुन... बस यही आसा है की अइसनै फलो फूलो दूनौ जने... अउर खूब खुस रहौ...” चाची जी ने कहा।

“अब तो बच्चों की बारी है भैया भाभी...”

मैंने भी चाचा जी और चाची जी के पैर छू कर उनके आशीर्वाद लिए। चाचा जी ने भी मेरी खिंचाई करने में किसी ने भी कोई कमी नहीं रख छोड़ी। अपने दर पर मुझे एक बार फिर से देख कर उन्होंने हँसते हुए मज़ाक में कहा,

“आओ लल्ला... देख लिहौ... तोहार घरा इहै हय... तू हियाँ सोवौ... हुआँ (मेरे घर) से जादा (अधिक) देखभाल तोहार हियाँ होये।”

पिछली बार माँ और डैड, गैबी के माँ बाप की भूमिका अदा कर रहे थे। लेकिन इस बार अम्मा और बापू लतिका का कन्यादान करने वाले थे। हाँलाकि इस बार मेरे पास माँ और पापा थे, फिर भी मेरा मन था कि चाचा जी और चाची जी ही मेरे माँ बाप की भूमिका अदा करें। मेरी इस मंशा को माँ और पापा ने सहर्ष और गर्व सहित स्वीकार भी कर लिया। माँ, चाचा जी और चाची जी को अपने बड़ों जैसा सम्मान देती थीं, और उनके लिए भी वो उनकी पुत्री समान ही थीं।

“ई घरा तोहरै होबै करी... अउर काहे न होये...” चाची जी ने बड़े लाड़ से कहा, फिर पापा को बताने लगीं, “जानत हौ पाहुन? ... तोहार बड़कऊ जब नान्ह कै रहे, तबहिं से हम इनका आपन दूध पियायन हन...”

“अम्मा...” मैंने झेंपते हुए कहा, “सब कुछ बता दीजिए पापा को...”

“या देखौ... अब सरमात हीं... एमा सरमाय वाली कउन बात हय? अरे हम तू अउर तोहरी महतारी दूनौ का आपन दूध पियायन हन! ... तू हमरे ताईं आजहुँ वही नान्ह लरिका हौ!” वो बड़े लाड़ से बोलती रहीं, “का पाहुन... कुछु गलत कहेन का?”

“नहीं भाभी... आप एकदम सही कहती हैं...” पापा उनकी बात सुन कर बोले, “यही तो मैं भी समझाता हूँ इसको... बच्चे अपने माँ बाप से कभी बड़े हो सकते हैं क्या!”

चाचा जी ने पापा से कहा, “सही कहत हौ भैया... अच्छा अब अंदर आवो...”

अंदर दोनों भाभियों से भी मुलाकात हुई - दोनों भाभियाँ फिर से गर्भवती थीं। छोटी भाभी चार महीने, और बड़ी भाभी तीन महीने से गर्भवती थीं। चाची जी ने बाद में बताया कि उनके परिवार में हाल के समय में बड़ी सम्पन्नता आई थी। खेती में बड़ी बरकत हुई और दोनों भाभियाँ हमारे स्कूल का सञ्चालन कर ही रही थीं। धन का ठहराव हो रहा था, और ऐसे में अगर परिवार बढ़ता है, तो बहुत ही सुन्दर बात है! चाची जी ने ही दोनों बेटों और बहुओं को और बच्चे करने को उकसाया; उनको माँ और पापा का उदाहरण भी दिया कि अगर सुमन और सुनील के और बच्चे हो सकते हैं, तो उनके क्यों नहीं! जब पति पत्नी के बीच प्रेम हो, और परिवार में सौहार्द हो, और सम्पन्नता हो, तो बच्चे क्यों न हों? चाची जी के इस तर्क पर दोनों ही भाभियों ने फिर से बच्चे करने के लिए हाँ कर दी। अच्छी बात है!

चाचा जी और चाची जी की दोनों बहुओं और बेटों ने माँ और पापा के पैर छू कर आशीर्वाद लेना चाहा... पापा को थोड़ा अटपटा लग रहा था क्योंकि दोनों बेटे और भाभियाँ उनसे उम्र में कहीं अधिक थे, और उनसे कोई अधिक जुड़ाव भी नहीं था। लेकिन चूँकि पद में वो बड़े थे, इसलिए उनको आशीर्वाद देना ही पड़ा। हाँलाकि दोनों ने ही भाभियों को अपने पैर छूने को नहीं दिए। जब भाभियाँ माँ के पैर छूने लगीं, तो उनको माँ ने बीच में ही पकड़ कर रोक दिया और आशीर्वाद दिया,

“आयुष्मति भव... सौभाग्यवती भव... इस हालत में पैर न छुवो और अपना खूब ख़याल रखा करो।”

जब छोटी भाभी माँ के पैर छूने को हुईं, तो माँ ने कहा, “आयुष्मति भव... सौभाग्यवती भव...” फिर उनके गर्भ को लाड़ से छू कर बोलीं, “मेरी खिल्लो रानी... तुमको यूँ खुश और हँसता खेलता देख कर बहुत अच्छा लग रहा है...”

“ही ही ही! अम्मा जी... आपको भी!”

“मुझको भी? क्या मुझको भी?”

“आपको भी यूँ हँसता खेलता देख कर हमको बहुत अच्छा लगता है...”

“हा हा...”

चाचा जी का भरा पूरा परिवार देख कर बड़ा अच्छा लगा। मैंने बारी बारी से बड़कऊ और ननकऊ भैया के पैर छू कर उनका आशीर्वाद लिया, फिर क्रमशः बड़ी और छोटी भाभी दोनों के पाँव छू कर उनके आशीर्वाद लिए। दोनों ने ही हमारे और आस पास के गाँवों में शिक्षा के प्रचार प्रसार की ऐसी बढ़िया मुहिम चला रखी थी कि उनके लिए मेरा मन आभार और अभिमान से गदगद हो जाता था। जो शिक्षा का प्रचार करे, दूसरों को शिक्षित करे, उसके लिए तो मेरे मन में बहुत श्रद्धा है। उन चारों और उनके बच्चों ने पापा के पैर छू कर उनके आशीर्वाद लिए। पापा थोड़े भी असहज नहीं हुए - गाँव के रिश्ते में वो उनके भी पिता ही थे, इसलिए उनका वैसा सम्मान होना ही था। मैंने बारी बारी से दोनों के गर्भ को चूम कर होने वाले बच्चों को अपना प्रेम दिया... सबसे छोटा होने का अपना ही लाभ होता है।

“भैया,” छोटी भाभी ने अपनी चिर-परिचित मुस्कराहट वाले अंदाज़ में कहा, “आपको फिर से शादी करते देख कर बहुत अच्छा लग रहा है।”

“थैंक यू भाभी...”

“... अम्मा जी ने बताया है लतिका के बारे में... उसकी इतनी बढ़ाई सुनी है कि मेरा मन रोके नहीं रुक रहा है उससे मिलने को!”

“तो आपको रोका ही किसने है भाभी?” मैंने कहा, “मिल लीजिए... है तो आपकी ही देवरानी न!”

“और नहीं तो क्या! ... ज़रूर मिलूँगी।” उन्होंने हँसते हुए कहा, “आप दोनों की हल्दी की रस्म हम भाभियाँ ही तो करेंगी!”

“हाँ हाँ... मिल लिह्यो... लेकिन अभहीं इनकै रहै खाय पियै कै ब्यबस्था करौ...”

“हाँ अम्मा जी! अभी करे देते हैं! ... आइए भैया!”

कह कर छोटी भाभी हमको ‘मेरे’ कमरे की ओर ले कर चल दीं।


*


शादियों में जैसा कि होना चाहिए, लतिका ही सभी की मोहब्बत और उत्सुकता का केंद्र बनी हुई थी। जब गैबी यहाँ दुल्हन बन कर आई थी, तब उसके भी साथ ऐसा ही हुआ था... और अब लतिका के साथ भी वैसा ही हो रहा था। दूल्हा चाहे कुछ कर ले, या फिर वो चाहे कोई भी हो, सभी का ध्यान उसकी दुल्हन पर ही केंद्रित रहता है। ख़ास कर के दूल्हे के अपने घर! दुल्हन का ख़याल रखना सबसे ज़रूरी काम होता है। जाहिर सी बात है, घर में सभी ने लतिका को हाथों-हाथ ले रखा था। कुछ इस हद तक, कि मैं शादी से पहले उससे मिल भी नहीं सका। लतिका कभी किसी रस्म में व्यस्त रहती, तो कभी किसी पूजा में, तो कभी उबटन - हल्दी - तेल - मेहंदी जैसी रस्मों में!

अम्मा का बड़ा मन था कि लतिका और मेरी शादी बंगाली रीति रिवाज़ों से हो, लेकिन अपने गाँव में बंगाली रीति रिवाज़ कैसे लाते! ले भी आते, तो बिना बंगाली समाज के उसका कोई अर्थ नहीं था। उनको इस बात से थोड़ी निराशा अवश्य हुई थी, लेकिन इस बात की ख़ुशी भी थी कि हाँलाकि हमारी शादी बंगाली रीति से न हो रही हो, लेकिन पूरे विधि-विधान से हो रही थी... और उनकी लतिका को दुल्हन बनने का पूरा आनंद मिल रहा था। वो इस बात से भी खुश थीं कि मैं कोर्ट की शादी, या कोई साधारण सी शादी नहीं कर रहा था। इसलिए उनको संतुष्टि थी और कोई शिकायत नहीं थी।

वैसे शिकायत तो मुझे भी किसी बात की नहीं थी। ऊपर से कुछ भी कह लूँ, लेकिन मैं भी उपेक्षित नहीं था! ख़ास कर मेरी बड़ी माँ, यानि कि चाची जी ने मेरी देखभाल, और मेरी सुख सुविधा में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी थी। उनके यहाँ आते ही मुझे हाथों हाथ ले लिया गया था। रात का भोजन समाप्त कर के चाचा जी और भैया लोग खेतों पर चले गए। इस बार गेहूँ की उपज बहुत अधिक हुई थी, इसलिए उसके भण्डारण के लिए दिन रात काम चल रहा था। साथ ही साथ ख़रीफ़ की फ़सलें बोने का इंतजाम करना था। ज़ायद की फ़सलें खड़ी थीं, तो उनकी सुरक्षा भी आवश्यक थी।

मैं कमरे में आराम से लेट गया। गर्मी तो थी - और ऊपर से यह घर आरामदायक डिज़ाइन का नहीं था। खिड़की खोलने पर राहत तो मिली, लेकिन बाहर हवा नहीं चल रही थी। मैंने कपड़े उतार दिए। अभी चार पाँच मिनट ही हुए थे, कि चाची जी कमरे में आ गईं। अभी भी इनके घर दरवाज़ा खटखटाने का रिवाज़ नहीं था, शायद!

उनके सामने बिस्तर पर नितांत नग्न लेटा हुआ मुझे बस एक पल को ही अटपटा लगा। एक पल को ही... क्योंकि मेरे मन में कहीं न कहीं ऐसा लग ही रहा था कि ऐसा कुछ होगा ज़रूर।

“अम्मा?”

“लल्ला, हियाँ तोहार दूनौ महतारियैं तौ नाहीं हँय... तौ हम पियाय देई?” चाची जी मेरे पास बैठते हुए बोलीं।

“क्या अम्मा?” मुझे बात समझ में तो आई, लेकिन फिर भी तुरंत स्वीकार कर लेना संभव नहीं था।

“दुधवा... अउर का?”

“आपको दूध आता है?” मैंने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा।

मुझे लगा कि चूँकि चाची जी की सबसे छोटी संतान हुए समय हो गया था, तो शायद अब न आता हो। लेकिन यह बात बेबुनियाद थी।

“तोहार अम्मा बताइन हमका,” उन्होंने कहा, “कि तू सब बच्चन का अबहूँ दूध पियावा जात हय... जान कय नीक लाग।”

“हा हा हा... माँ भी न!”

“अम्मा... यानी तोहार बड़कई अम्मा...”

अब समझा - चाची जी को हमारे यहाँ रहते हुए, हमारे परिवार की अनूठी जीवन शैली का पता चल गया होगा! वैसे भी अम्मा माँ समेत सभी बच्चों को स्तनपान करा ही रही थीं, और माँ भी लतिका समेत सभी बच्चों को! हाँलाकि मैंने स्वयं को उनके आगमन के दौरान स्तनपान करने से रोका हुआ था, लेकिन जब अम्मा ने ही उनको बता दिया कि मैं अभी भी माँ और अम्मा का स्तनपान करता हूँ, तो अब छुपाने का कोई अर्थ नहीं।

“ओह...”

उन्होंने हँसते हुए बताया, “अबहीं जब तोहरे घरे गए रहन, तब तोहार महतारी का हम दूनौ जनी दूध पियावा है...”

“हा हा हा... सच्ची अम्मा? माँ भी न!”

कभी कभी तो लगता है कि जीवन का आनंद मुझसे अधिक तो माँ उठा रही थीं! एक तो अम्मा ने दुलार कर कर के माँ को छोटी बच्ची बना दिया है, और ऊपर से पापा का लाड़ और रोमांस! माँ बावन साल की स्त्री लगती ही नहीं थी - न तो देखने में, और न ही अपनी हरकतों से! अच्छा है - उनको जो प्रेम और स्नेह मिल रहा था, वो उसकी पूरी तरह से हक़दार थीं।

मुझे भी अब उन्ही की तरह पूरे जीवन भर अपार प्रेम और स्नेह की दरकार थी। और ईश्वर की कृपा से मुझे वैसा होते हुए दिख भी रहा था।

“अरे! अबहीं तौ तुंहका बतावा... हमरे ताईं तू सब जने हमार लरिकन बच्चन हौ... आवौ...”

चाची जी के ममतामय आग्रह और मेरी स्तनपान की इच्छा... मैं इस सुनहरे अवसर का लाभ उठाने का लोभ संवरण न कर सका। मैं उनकी गोदी में लेट कर उनकी ब्लाउज के बटन खोलने लगा।

“अम्मा,” मैंने कहा, “... आप भाभियों को भी दूध पिलाती हैं? अम्मा तो पिलाती हैं... माँ को!”

“हाँ... पियाइत हय... दूनौ जनी का!” उन्होंने गर्व से मुस्कुराते हुए कहा, “हमार बिटियन हँय दूनौ...”

“सच में अम्मा? वाओ! आप जैसी सास माँ बहुत किस्मत से मिलती हैं...”

“तोहरी महतारी के सासौ तो उनका मोहात हीं...”

“हाँ! लेकिन मुझे लगता है कि आप से ही सीखा है उन्होंने...!”

मैंने कहा और फिर स्तनपान करने लगा। अम्मा का खान-पान अलग था - उनके भोजन पानी में शुद्धता थी। इसलिए उनके दूध का स्वाद भी माँ या अम्मा के दूध के स्वाद से अलग था... गाँव की मिठास लिए!

कुछ देर स्तनपान के बाद मैंने उनसे कहा, “चाची जी... आप एक और बच्चा क्यों नहीं कर लेतीं?”

“काहे लल्ला? ई काहे कह्यो?” उन्होंने हँसते हुए कहा, “... अब ई कउनो उमर भई का!”

“अरे! माँ और पापा को अभी अभी ही तो एक बच्चा हुआ है न...”

“तोहरे अम्मा पापा दूनौ जने जवान हँय अबहीं... उनका तौ बच्चे होवै का चाहि...”

“अम्मा...” मैंने उनके स्तनों पर पड़े विभिन्न निशानों को छू कर दिखाते हुए कहा, “आप और चाचा जी कोई कम जवान हैं? ... लगता है कि चाचा जी पर आपका जादू पहले जैसा ही बरकरार है...”

जादू बरकरार तो अवश्य है। साठ के ऊपर अवश्य थीं चाची जी, लेकिन उनकी देहयष्टि अभी भी अच्छी थी। शरीर में मोटापा अवश्य आया था, लेकिन ढीलापन नहीं था... एक स्वस्थ मोटापा था, जो देखने में आकर्षक लगता था। उनके स्तन भी ढीले हो गए थे, लेकिन अभी भी सामान्यतः पुष्ट थे। उनके स्तनों पर जो निशान बने थे, वो स्तनपान के नहीं थे - स्तनों को प्रेमावेश से चूमे जाने से बने थे, और हाल ही में बने थे! जाहिर सी बात है, दोनों की सेक्स लाइफ अभी भी बहुत सक्रीय थी और बेहिचक तरीके से चल रही थी। इतना तो मुझे भी पता था कि गाँवों में पूर्ण निर्वस्त्र हो कर सम्भोग करने वाले युगल बहुत कम ही थे। उसमें से एक चाचा जी और चाची भी थे - यह एक अद्भुत संतोष और गर्व देने वाली बात थी।

इस पर उन्होंने थोड़ा शर्मा कर हँसते हुए कहा, “वैं मनते नाहीं... बुढ़ापे मा भी...” कहते कहते वो रुक गईं।

छोटी भाभी कमरे में आई हुई थीं।

“अरे भैया,” वो हँसते हुए बोलीं, “आप तो शेम शेम हैं...”

“काहे छेड़त हौ लल्ला का?” चाची जी ने मुझे लाड़ से दुलारते हुए कहा, “अपनी महतारी के सामने केस सेम सेम?”

“हाँ भाभी... मैं तो माँ का दूध भी ऐसे ही पीता हूँ...”

“अच्छा?”

“अउर का... तोहरे जस थोड़े ना हँय... ऐतरे साल से तू दूनौ जनी का पियाइत हय, तबहूँ सरमात हौ हमसे...”

“नहीं अम्मा जी, आपसे शर्माते नहीं हैं,” भाभी हँसती हुई बोलीं, “साड़ी वापस पहनने में समय लगता है हमको न, इसलिए...”

मैं भाभी की इस मज़ाकिया बात कर हँसने लगा।

“नटखट हय बहुत...” चाची जी भी हँसने लगीं, “हमरे सब बच्चन मा यही सबसे बदमास हय...”

“छोटी भाभी बेस्ट हैं,” मैंने कहा।

हम ऐसे ही हल्की फुल्की बातें करते हुए अगले दिन के आयोजनों के बारे में बतियाने लगे।

*
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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नव-जीवन - Update #3


हल्दी की रस्म एक परंपरा है। माना जाता है कि हल्दी के अंदर ऐसे गुण होते हैं, जिनसे शरीर के अवांछित दूषक तत्व समाप्त हो जाते हैं। भोजन में तो सदैव इसका प्रयोग होता ही है। हल्दी की प्रतिरोधक और निरोगात्मक गुणों के बारे में सभी जानते हैं। लेकिन परम्परा में यह भी मानते हैं कि यह बुरी आत्माओं से वर वधू को बचाती भी है। कारण जो भी हो, हल्दी की रस्म बड़ी आनंद देने वाली होती है। हल्दी से हो कर विवाह तक के समय वर वधू को घर बाहर नहीं जाने दिया जाता - जिससे किसी भी बुरी आत्मा और बुरी नज़र से दोनों को बचाया जा सके। मतलब तय था - शादी के दिन से पहले लतिका को देख पाना भी संभव नहीं था। वो भी ठीक है - शादी के दिन ही उससे मिलने में अलग ही उत्साह रहेगा। पिछली बार गाँव में यह सब हुआ था - हाँलाकि समय हो गया था, लेकिन फिर भी मुझे उस दिन के मज़े का सब याद है।

सवेरे उठा, तो घर में गहमा-गहमी से समझ में आ गया कि कुछ देर ही में रस्म शुरू हो जाएगी। जब तैयार हो कर मैं मेहमान-खाने में आया, तब बड़ी भाभी ने मुझे नाश्ता परोसा... पूरियाँ और आलू की सूखी सब्ज़ी! इतने सामान्य भोजन में भी आनंद आ जाता है! क्योंकि शुद्ध घटकों से बना होने के कारण उनमें अलग ही स्वाद होता है।

“भाभी,” मैंने कहा, “ये तो बहुत ही स्वादिष्ट है!”

“क्या भैया, आप भी मज़ाक करते हैं!” भाभी ने खेद भरे स्वर में कहा, “जल्दी जल्दी में बस यही बन सका... आज आपकी और लतिका की हल्दी की रस्म है न! उसके लिए काम करना है।”

“मेरे कारण आप सभी का काम बहुत बढ़ गया न भाभी!”

“आप ऐसी बातें करेंगे तो आपको बहुत डाँट पड़ेगी हमसे...” वो हँसती हुई बोलीं, “आपसे उम्र में कम हैं हम, लेकिन आपसे पद में बड़ी हैं!”

“हाँ भाभी... इसीलिए तो आपके पैर छूता हूँ! भाभी तो माँ समान होती हैं!”

“तो आप ही बताईए, क्या कोई माँ अपने बच्चों के लिए काम करने से थकती है?”
“नहीं भाभी... लेकिन मैं सच कह रहा हूँ, खाना बहुत बहुत स्वादिष्ट है! ऐसी स्वाद वाली पूरी सब्ज़ी खाए मुद्दत हो गई। माँ और अम्मा बनाती तो हैं, लेकिन ऐसा शुद्ध स्वाद नहीं आ पाता वहाँ दिल्ली या मुंबई में!”

भोजन की बढ़ाई सुन कर उनको अच्छा लगा, “अच्छी बात है! फिर तो बढ़िया है... दोपहर का खाना आपको और भी अच्छा और स्वादिष्ट लगेगा!”

मैं मुस्कुराया - जाहिर सी बात है! चाचा जी चाची जी के यहाँ भोजन तो गज़ब का होता ही है!

“लतिका बहुत प्यारी है भैया,” बड़ी भाभी मुझसे बहुत बातें नहीं करती थीं, लेकिन इस बार वो अधिक खुल कर बतिया रही थीं, “... कुछ अलग ही बात है उसमें! अम्मा जी (माँ) की भी छवि दिखती है उसमें...”

मैं समझ रहा था कि वो क्या कहना चाहती हैं... लेकिन ठीक से समझा नहीं पा रही थीं।

“अच्छी बात है ये भाभी?” मैंने पूछा।

“बहुत अच्छी बात है भैया... अम्मा जी तो बहुत ही अच्छी हैं। उनका कोमल स्वभाव आपमें भी है और सभी बच्चों में भी... आपकी पत्नी भी आपके ही जैसी कोमल स्वभाव की होनी चाहिए।”

“हा हा... भाभी... आप भी न!”

“नहीं भैया... हम सच कह रही हैं। ... आप दोनों की जोड़ी अच्छी लगेगी।”

“थैंक यू भाभी...”

“आप नाश्ता कर लीजिए... कुछ देर में रस्म शुरू हो जाएगी।” वो बोलीं, “दिन बहुत चढ़ जाएगा, तो बहुत गर्मी हो जाएगी!”


*


हल्दी की सभी रस्में गाँव की महिलाएँ ही करने वाली थीं। ऐसा नहीं है कि पुरुष-वर्ग का प्रवेश वर्जित है, लेकिन सच बात तो यह है कि इतनी स्त्रियों के बीच कोई पुरुष आना नहीं चाहता। सामान्य समय में मैं भी नहीं चाहता था! लेकिन यह रस्म मेरे लिए हो रही थी, इसलिए मेरी उपस्थिति अनिवार्य थी। कोई साढ़े दस बजे मुझे आँगन में आने को कहा गया। सरसरी निगाह से देखा तो वहाँ सभी महिलाएँ ही थीं। कुछ को मैं पहचानता था, लेकिन कुछ के चेहरे अनजान थे।

कुछ परम्पराएँ बहुत साधारण तरीके से मनाई जाती हैं। अब जैसे इसी को ले लीजिए - कोई मंत्रोच्चारण नहीं, कोई ताम झाम नहीं। बस, माताओं और भाभियों ने मिल कर देवी पूजन किया और हम वर वधू के लिए आशीष माँगी। हर विधान में यही होता है, लेकिन यह इतने साधारण तरीके से किया गया था कि इसमें पूजन की शिष्टता साफ़ दिखाई दे रही थी। जैसा कि आज कल फ़ोटो शूट्स में हल्दी की रस्में दिखाते हैं, वैसा गाँव देहात में नहीं होता। आज कल तो शादी की हर रस्म ऐसे निभाते हैं कि बस फोटो वीडियो अच्छी आ जाए। दूल्हा अच्छे कपड़े पहन कर बैठता है, कि फ़ोटो अच्छी निकलें! लेकिन गाँव में फ़ोटो की किसी को परवाह नहीं होती... हाँ, लेकिन रस्में बड़ी तबियत से मनाई जाती हैं।

सबसे पहले चाची जी ने मुझको ढेरों आशीर्वाद देते हुए, हल्दी का पेस्ट ले कर मेरे गालों और माथे पर लगाया, फिर उनके बाद अम्मा और माँ ने! फिर भाभियों ने मोर्चा सम्हाल लिया। उन्होंने मुझे कपड़े उतारने को कहा और फिर मेरे शरीर पर हल्दी के पेस्ट और सरसों का तेल का मिश्रण लगाना शुरू कर दिया। आँगन खुला हुआ था, इसलिए अब वहाँ धूप आ रही थी। मक्खियाँ इत्यादि न आएँ, उसके लिए आँगन के हर कोने में सुलगते हुए कण्डे पर घी में डूबी हुई चंदन की छीलन सुलगा दी गई थी। चन्दन की सुन्दर सी सुगंध पूरे वातावरण में फ़ैली हुई थी।

मैं केवल चड्ढी पहने हुए एक पीढ़े पर बैठा हुआ था, और भाभियाँ और अन्य महिलायें (जो गाँव के रिश्ते से मेरी भाभियाँ लगती थीं) मिल कर मेरे पूरे शरीर पर हल्दी तेल लगा रही थीं और साथ ही साथ गँवई स्टाइल में सोहर भी गा रही थीं। कुछ ही देर में चुहल-बाज़ी शुरू हो गई, तो अम्मा, माँ और चाची जी वहाँ से निकल लीं - क्योंकि बहनें, ख़ास कर, छोटी बहनें, और माताएँ यह सब काम नहीं करतीं! प्रयोग हुआ सरसों का तेल इतना शुद्ध था कि उसकी भभक से मेरी आँखों में आँसू आने लगे। बड़ी भाभी ने मुझे खड़ा होने को कहा। चाहता तो नहीं था, लेकिन मैं खड़ा हुआ... और उसी के साथ मेरे लिंग का प्रभावशाली स्तम्भन भी सभी को दिख गया। बड़ी भाभी ने बिना हिचके मेरी चड्ढी भी उतार दी। इस बात के लिए मैं कत्तई तैयार नहीं था।

लेकिन अच्छी बात यह थी कि छोटी मोटी चुहल के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा गया। शायद अगर मेरा लिंग छोटा होता, तो अधिक मज़ाक बनता, लेकिन एक पुष्ट अंग होने के कारण सभी का हँसी मज़ाक आदरपूर्ण और संभवतः ईर्ष्यालु हो गया। उनके अधिकतर मज़ाक और चुहल इसी बात पर केंद्रित थे कि बन्नी की मुसीबत होने वाली है!

खैर, कुछ देर बाद मेरे शरीर का शायद ही कोई अंग हल्दी और तेल के उबटन से छूटा हुआ हो! लेकिन इतनी देर में गर्मी लगने लगी। मज़ेदार बात यह थी कि मेरे पसीने छूट रहे थे, लेकिन फिर भी एक अलग तरह का सुकून था। नहाने से पहले मुझको आम पना पीने को दिया गया। मेरे बाद आदित्य और आदर्श को भी मेरी ही तरह हल्दी और तेल का उबटन लगाया गया। दोनों बेचारे पहली बार वैसा कुछ अनुभव कर रहे थे। आदर्श छोटा था, इसलिए तेल की भभक से रोने लगा। खैर, हल्दी उबटन के बाद हम तीनों को नहलाया गया, और तब कहीं जा कर हम उस यातना से छूटे! मुझको यह ख़ास हिदायद दी गई कि जब तक कहा न जाए, मैं घर से बाहर न निकलूँ। वो भी ठीक है। मेरी आवभगत में कोई कमी नहीं थी, स्वादिष्ट भोजन मिल रहा था, और पूरा आराम था। वैसे भी, इस गर्मी में बाहर क्यों जाना! हमारे स्नान के लगभग तुरंत बाद ही घर खाली हो गया। केवल वो ही लोग बचे, जो काम में सहयोग करने वाले थे।

मेरे घर में संभव है लतिका के साथ भी यही सब हो रहा हो। मैं मन ही मन उम्मीद कर रहा था कि उसको ‘शुद्ध’ सरसों के तेल वाली यातना न दी गई हो। बेचारी छोटी थी, और इस तरह से परेशान हो सकती थी।


*


मैं घर पर ही था और मुझे किसी ‘बाहर’ वाले से मिलने जुलने नहीं दिया जा रहा था। मेरे स्थान पर पापा ही सभी लोक-रीत निभा रहे थे। हम दोनों में से किसी के लिए भी डैड का स्थान ले पाना असंभव था, लेकिन फिर भी पापा काफी हद तक ग्राम-वासियों से एकाकार हो रहे थे और उनकी बातों को सुन और समझ रहे थे। हमेशा की ही तरह नौकरी माँगने वाले और आर्थिक सहायता के इच्छुक कई लोग आये हुए थे, और उन सभी को पापा ने समुचित सहायता देने का वचन भी दिया।

ऐसा नहीं था कि अम्मा और माँ ने मुझे अकेला छोड़ दिया हो। वो भी यथासंभव मेरे साथ समय बिता रही थीं। माँ पिछली बारों से बहुत खुश थीं, और बड़ी ही चंचल हो कर मेरी शादी का आनंद उठा रही थीं। बढ़ चढ़ कर उन्होंने भी अपने हाथों में मेहँदी इत्यादि लगवाई थी - शायद अम्मा की ज़ोर जबरदस्ती रही को। कुछ भी हो, लेकिन मुझे बहुत अच्छा लगा। अम्मा भी बहुत खुश थीं। दोनों ही समय समय पर मेरा हाल चाल देखने आ जातीं, या अगर कोई बात होती, तो मुझसे शेयर करतीं। स्नान के बाद जब माँ मुझे देखने आईं, तो मैंने उनसे अपना अमृत पिलाने का आग्रह किया। तो उन्होंने बड़े प्रेम से मुझे स्तनपान कराया। माँ के भी दूध का स्वाद दो ही दिनों में बदल गया था। भोजन का असर तो पड़ता है भई! अम्मा के दूध को ले कर उत्सुकता आ गई। मैंने मन ही मन सोचा कि जब भी वो आएँगी, मैं उनका दूध चखूँगा। चाहे और कोई बच्चा पिए या नहीं - लेकिन मेरा पीना अपरिहार्य है!

मेरी मिष्टी भी लतिका और मेरी शादी को ले कर बहुत उत्साहित थी। चाहे कोई कुछ भी कह ले - लेकिन लतिका और मुझे साथ लाने में मिष्टी का बहुत ही बड़ा योगदान था। वो भी बड़े आनंद में थी। गाँव के अपरिचित परिवेश में उसको यूँ आनंद लेते देख कर बहुत अच्छा लग रहा था। मुझे बाद में पापा और माँ से पता चला कि मिष्टी (आभा) के लिए पास के गाँवों के बड़े ही गणमान्य और संपन्न परिवारों से दो रिश्ते आए थे। क्योंकि मुझे किसी से मिलने नहीं दिया जा रहा था, इसलिए उन लोगों ने माँ और पापा से ही बात कर ली। वो अलग बात है कि उन्होंने उस बात को आदरपूर्वक मना कर दिया।

आभा के लिए रिश्ते! हा हा! कैसा मज़ाक! मैंने सोचा - लेकिन फिर लगा कि अपनी बच्ची वाकई बड़ी हो रही है। लतिका और उसके बीच केवल पाँच साल का ही तो अंतर था! बाप रे! शायद हर बाप को अपनी बेटी, एक छोटी सी गुड़िया ही लगती है हमेशा! तो मैं ही क्यों अपवाद होने लगा? लेकिन सच्चाई यह थी कि कुछ ही सालों में मेरी मिष्टी भी शादी योग्य हो जाएगी। लेकिन मैं चाहता था कि आभा अपनी माँ की ही तरह बहुत पढ़े, और एक कैरियर वुमन बने। वो जब भी करे, शादी ब्याह अपनी पसंद से करे, और खुश रहे। बाकी सभी बच्चों की बात करें, तो अभी वो बहुत उत्साहित होने के लिए बहुत छोटे थे। उनकी समझ में बहुत कुछ आ ही नहीं रहा था।

मेरे वो मेहमान, जो बाहर के देशों से आये थे, या फिर वो, जो आज तक देश के इस हिस्से में नहीं आए थे, आज दिन में आस पास की साईट सीइंग के लिए निकले हुए थे। आस पास देखने को बहुत सी जगहें थीं, इसलिए यहाँ गाँव में रह कर समय खराब करने का कोई अर्थ नहीं था। शादी तक वो यहीं रहने वाले थे, फिर वापस दिल्ली जा कर रिसेप्शन में हमारे साथ थे। उसके बाद वो जहाँ जाना चाहें, जाने को स्वतंत्र थे। जयंती दी और उनका परिवार और ससुर जी आज दोपहर बाद आने वाले थे। आज दोपहर और शाम को मेरे और लतिका के कुछ मित्र हमारे विवाह में आने वाले थे। इसलिए उनका भी इंतज़ार था।

हल्दी के बाद, बस यूँ ही कई छोटी मोटी रस्में और पूजाएँ करने के लिए मुझे बुलाया जाता रहा। मैंने इस पूरे समय में मैंने खुद को अन्य महिलाओं से दूर रखा, और बस घर में ही रहा। दोनों भाभियाँ सदैव मेरे साथ लगी रहतीं, और मेरे आराम का ध्यान रखतीं। उन सभी ने मेरे सुख सुविधा में कोई कमी नहीं आने दी। सच में, मैं उनका प्रेम पा कर कृतार्थ हुआ था!

शाम को ससुर जी और जयंती दीदी से मुलाकात हुई। हाँलाकि उनके लिए धर्मशाला में कमरे बुक थे, लेकिन फिर भी चाचा जी ने उनको सादर अपने घर आने का निमंत्रण दिया। ठीक भी था - वो परिवार थे और यहाँ बहुत स्थान भी था। लेकिन आराम करने का कह कर क्षमा माँगी। लम्बी यात्रा थी, इसलिए चाचा जी मान गए। लेकिन रात्रि-भोज के लिए आने का वायदा भी ले लिए। इसी तरह से शाम और रात निकल गई।


*


आखिरकार हमारी शादी का दिन आ ही गया।

आज भी गर्मी होनी तय थी, लेकिन सुबह सुबह बयार चल रही थी। मुझे बहुत जल्दी ही उठा दिया गया था - करीब चार बजे। मैं अगले एक घण्टे में तैयार हो कर, अपने वर-पक्ष के लोगों के साथ गाँव वाले मंदिर की तरफ़ चल दिया। मैंने गहरे लाल रंग का कसीदा किया हुआ कुर्ता पहना हुआ था, और क्रीम कलर का चूड़ीदार। माँ और चाची जी ने मेरे सर पर सोने के रंग की रेशमी पगड़ी बाँधी थी और माथे पर थोड़ा लम्बा सा लाल चन्दन! सच में, इस बार दूल्हा बन कर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।

मंदिर तक पैदल ही जाना था, लेकिन जाने में बस कोई पाँच मिनट लगे - अब वहाँ तक जाने का रास्ता पहले से बहुत बेहतर और साफ़ सुथरा था। लतिका मंदिर में पहले से ही मौजूद थी, और किसी पूजा में व्यस्त थी। लतिका के बाद मुझे भी वो सभी पूजा पाठ करने थे। इस बार भी पूरा गाँव आया हुआ लग रहा था - कारण? शायद इसलिए क्योंकि पाँच विदेशी मेहमान आए हुए थे। गोरे लोगों को देखने के लिए सभी उत्सुक थे शायद!

मैं जब वहाँ आया, तो देखा सभी मित्र और स्नेही स्वजन वहाँ उपस्थित थे। मैं सभी से यथोचित सम्मान के साथ मिला। लतिका के भी कई दोस्त आए हुए थे - लड़के लड़कियाँ दोनों! कुछ को मैं पहले से जानता था, और कुछ से आज मुलाकात हुई। सभी बड़े सभ्य बच्चे थे। अच्छी बात यह थी कि उनमें से किसी ने भी मुझे ‘अंकल’ कह कर नहीं पुकारा - सभी या तो मुझे ‘जीजा जी’ या ‘जीजू’ कह कर बुला रहे थे, या फिर ‘अमर’ कह कर! कोई अंकल कहता तो दिल को मेरे बहुत ठेस लगती! हा हा! मैंने सभी को शादी की रिसेप्शन में आने को कहा, और हमारे आतिथेय का आनंद लेने को कहा।

मैं मेहमानों से बातें कर ही रहा था कि मुझे वेदी पर बैठने को कहा गया। बस कुछ ही समय में लतिका और मैं विवाह बंधन में बंध कर एक हो जाने वाले थे। पुजारी जी ने विवाह वेदी पर मेरी आरती उतारी, और कुछ पूजा की और फिर अंत में मुझे लतिका के बगल में बैठने को कहा... और तब कहीं जा कर पूरे तीन दिनों के बाद, मैंने लतिका को देखा!

उफ़्फ़... दूर से वो बहुत सुन्दर लग तो रही ही थी, लेकिन पास से उसकी सुंदरता का असली विवरण दिखाई दिया। सबसे पहली बात जो मैंने देखी, वो यह कि लतिका ने माँ का लहँगा चोली सेट पहना हुआ था। बनारसी रेशम का नारंगी रंग की चोली, जिस पर लाल लाल रंग के बूटे बने हुए थे। बाद में उसमें ज़री का और काम करवा दिया गया था, जिससे उसकी रंगत और शौकत में और भी अधिक इज़ाफ़ा हो गया था। चूँकि चोली लतिका के लिए थोड़ी तंग थी, इसलिए उसको पीछे से काट कर ज़िग-ज़ैग पैटर्न की रेशमी डोरियों से बाँधने वाला हिसाब किताब लगाया गया था। उसको देख कर कोई कह ही नहीं सकता था कि कोई चालीस साल पुराना गँवई कपड़ा था वो कभी! उसी के हिसाब से लहँगे में भी छोटे छोटे परिवर्तन किये गए थे। लहँगा चोली से ही मैचिंग करता हुआ लाल और नारंगी रंग का बनारसी रेशम का था, और अब उस पर छोटे छोटे मोतियों की लड़ियाँ पिरोई गई थीं। चुनरी नई थी, क्योंकि पुरानी वाली में कुछ छेद हो गए थे, और माँ ने उसको पहनने से मना कर दिया था। एकदम राजसी वस्त्र! और उसी से मिलती जुलती राजसी साज सज्जा!

हाँलाकि अब उसकी चोली आरामदायक थी, लेकिन फिर भी पीछे की डोरियाँ कुछ इस तरह बाँधी गई थीं कि वो उसके सीने पर थोड़ी चुस्त रहें। उसके कारण चोली ने लतिका के स्तनों को थोड़ा सा दबा रखा था, और एक सेक्सी सा क्लीवेज बना दिया था। बैठने पर भी उसका पेट सपाट दिख रहा था और उसकी गहरी नाभि बड़ी सेक्सी लग रही थी! लतिका का शरीर अवश्य ही एथलेटिक था, लेकिन फिर भी उसके शरीर के कटाव बेहद सेक्सी तरीके से दिख रहे थे।

लतिका के आभूषण बड़े बड़े थे - लेकिन भौंडे नहीं! वो उसी के व्यक्तित्व के अनुसार विशाल किन्तु सौम्य थे। माथे पर सोने और मोतियों की बेंदी, नाक में उसी से मिलती जुलती नथ, कानों में झुमके और गर्दन पर हीरे और सोने का हार! दोनों कलाईयों में काँच की चूड़ियाँ और सोने के कंगन और उँगलियों में अंगूठियाँ! दोनों बाहें कोहनियों तक गहरे लाल रंग की मेहँदी से रची बसी हुई थीं। माथे पर एक छोटी सी लाल रंग की बिंदी अद्भुत रूप से सुशोभित हो रही थी। उसके बाल बहुत लम्बे नहीं थे, लिहाज़ा उसका जूड़ा भी छोटा ही था... छोटा, लेकिन क्यूट! मेकअप उसका साधारण सा था, लेकिन उसके ऊपर बहुत फ़ब रहा था। हमारे गाँव में सचमुच की राजकुमारी उपस्थित थी इस समय!

मुझे कनखियों से अपने बगल बैठते देख कर उसके होंठों पर एक स्निग्ध मुस्कान आ गई!

ओह! कैसी बला की सुंदरी! सच में - सुन्दर स्त्रियों के मामले में मैं बहुत ही अधिक भाग्यशाली रहा हूँ। और कुछ तो कृपा थी दैवीय शक्तियों की कि वो सुन्दर स्त्रियाँ अपने गुणों में भी सुन्दर थीं! हाँ, रचना भी... बस, वो थोड़ी स्वार्थी थी... और कुछ नहीं! अचानक से ही लतिका के सामने मुझे अपनी ‘शोभा’ फ़ीकी पड़ती दिखाई दे गई। और अच्छा हुआ कि ऐसा हुआ। उस रूप में मैं लतिका को अपनी पूरी उम्र देख सकता था। मुझे पक्का यकीन था कि हाँलाकि गाँव के लोग आये तो थे गोरे मेहमानों को देखने, लेकिन लतिका का रूप सौंदर्य और उसकी शोभा देख कर वो बस उसी की झलक पाने को लालायित थे।

सुबह थी, इसलिए गर्मी नहीं बढ़ी थी। फिर भी हमारे आराम के लिए एक टेबल फैन को हमारे बगल ही रख दिया गया था, जो फिलहाल सबसे कम गति में चल रहा था। उसका लाभ यह हुआ कि लतिका के माथे पर कुछ आलसी लटें आ गिरीं! उसकी शोभा बढ़ाने में जो थोड़ी बहुत कसर बाकी रह गई थी, अब ख़तम थी! साक्षात् मेनका का रूप... जो मुझ किंचित के ब्रह्मचारी जीवन में शोभा बढ़ाने आ रही थी।

कुछ ही पलों में लतिका और मैं साथ में पूजा और हवन करने लगे। हवन-कुंड कुछ ऐसा था, कि जिसमें से अग्नि की लपटें भड़क नहीं रही थीं, बल्कि बड़े सौम्य तरीके से निकल रही थीं। मैं विस्तार से तो नहीं कह सकता कि हमने कौन कौन सी पूजा-अर्चना करी, और कौन कौन से मंत्र पढ़े... और मैं ही क्या, अधिकतर युगल यह बात आपको नहीं बता सकते। लेकिन विवाह के सभी मन्त्रों, और सभी रस्मों का सार बस यही है कि दोनों मिल कर, ईश्वर के सामने प्रतिज्ञा करते हैं कि वो एक-दूसरे को प्यार करेंगे, एक दूसरे का सम्मान करेंगे, और जीवन पर्यन्त एक-दूसरे के साथ मज़बूती से खड़े रहेंगे। पति शपथ लेता है कि वो अपनी पत्नी और अपने परिवार की रक्षा करेगा और उनका भरण-पोषण करेगा। दूसरी तरफ़ पत्नी शपथ लेती है कि वो अपने पति के प्रति निष्ठावान रहेगी, और अपने परिवार का लालन पालन करेगी।

अम्मा और बापू ने लतिका का कन्यादान किया और मैंने उसका पाणिग्रहण! फिर मैंने गैबी की मांग में नारंगी रंग का सिंदूर लगाया, उसके गले में मंगलसूत्र बांधा, और उसके पैर की उंगलियों में बिछिया पहनाई... और फिर हमने साथ में अग्नि के सम्मुख सात कदम चले। इसके बाद कुछ और मंत्रों के पाठन हुए, और हमारी शादी हो गई!

एक ईश्वरीय चमत्कार था यह! अब लतिका और मैं एक थे!

“हाऊ आर यू, माय लव?” मैंने चुपके से पूछा।

मेरे कान इतने समय से उसकी आवाज़ सुनने को तरस गए थे।

“टुडे माय ड्रीम केम ट्रू! ... तो कह नहीं सकती कि कैसी हूँ... तुम मेरे साथ हो अमर, नहीं तो मैं अब तक ख़ुशी से पागल हो जाती...” उसने मेरे हाथ को कोमलता से छुआ।

उसकी आवाज़ में ऐसी भावनात्मक सच्चाई थी कि मैं भी भावुक हो गया। सच में - खुश तो मैं भी बहुत अधिक था... इतना कि शब्दों में बयान नहीं कर सकता था। अब मेरी उम्र भी थोड़ी अधिक हो चली थी, इसलिए इमोशनल भी थोड़ा जल्दी ही हो जाता था! लतिका के स्पर्श से जैसे उसके मन की भावनाएँ मेरे मन में ट्रांसफर हो गईं... मेरी आँखों में ख़ुशी के आँसू झिलमिलाने लगे।

“आई लव यू,” मैंने कहा।

“खूब... बहुत... सबसे ज़्यादा...” वो कोमलता से बोली।

मैं मुस्कराया।


*


विवाह की सभी रस्में खत्म होने में कोई तीन घण्टे लगे। बाहर थोड़ी गर्मी होने लगी थी, क्योंकि सुबह साढ़े आठ - पौने नौ होते होते ही सूर्य देवता चढ़ आये थे। विवाह के बाद लतिका और मैंने वहाँ उपस्थित सभी बड़े बुजुर्गों के पैर छू कर उनके आशीर्वाद लिए... मतलब लगभग पूरे गाँव के ही आशीर्वाद लिए हमने!

इस बार भोजन की व्यवस्था मंदिर के प्राँगण में ही थी। कई टेबलें मिला कर एक बड़ी सी खाने की टेबल बनाई गई थी, जिस पर सुबह के भोजन के लिए तरह तरह के व्यंजन करीने से रखे गए थे। मुझे नहीं पता था, लेकिन पापा और चाचा जी ने यह पूरी व्यवस्था करी थी। किसी भी कोण से यह गाँव की शादी नहीं लग रही थी... ऐसा लग रहा था कि जैसे शहर की ही कोई शादी हो! अद्भुत!

लतिका और मुझे टेबल के मुखिया वाले स्थान पर साथ में बैठाया गया, और फिर हमारा “पूरा” परिवार हमारे साथ भोजन करने को बैठा। सच में - हर सुख का आनंद कई कई गुणा बढ़ जाता है, जब आपके साथ उसको बाँटने के लिए आपके स्नेही स्वजन हों। हमको आराम से खाने को कहा गया, और सभी लोग जल्दी से अपना नाश्ता निबटा कर टेबल से उठ गए। उनके उठने के बाद जो सभी करीबी मित्र आए हुए थे, उनके साथ हमारा नाश्ता चलता रहा।

लेकिन कोई एक घंटे के बाद वहाँ यूँ बैठे रहना कठिन होने लगा था। गर्मी भी बढ़ रही थी, और हमको लग भी रही थी। अम्मा ने यह देखा और हमारे पास आ कर बोलीं,

“आओ बच्चों, अब कुछ आराम कर लो...”

अच्छी बात है! आराम तो करने का बनता है! हम दोनों खाने की टेबल से उठे, और एक दूसरे का हाथ थामे हम घर की ओर चलने लगे। रास्ते में लगभग सभी ने एक बार फिर से हमको शादी की शुभकामनाएँ दीं।

जब अंततः हम ‘अपने घर’ पहुँचे, तो वहाँ लगभग बीस सुहागिन स्त्रियाँ उपस्थित थीं। उन सभी ने पान के पत्तों को आग में सेंक कर हमारे गालों पर छुआ कर ‘गल सिंकाई’ की रस्म अदा करी। कुछ छोटी लड़कियाँ भी थीं वहाँ, जो ग्रामीण सम्बन्ध में छोटी बहनें लगती थीं। तो उनको उनका मुँह माँगा नेग दिया गया।

अंदर आने से पहले लतिका को चावल भरी मटकी को अपने पैर से घर के अंदर की तरफ़ ठेलने को कहा गया। यह रस्म इस बात को इंगित करती है कि नई बहू के आने से घर में सम्पन्नता आए! फिर उसको महावर की थाल में पाँव रख कर अपने शुभ-चिन्ह बनाते हुए अंदर आने को कहा गया। फिर आँगन की एक दीवार पर उसको अपने हाथों की छाप बनाने को कहा गया। मतलब अब इस घर में लतिका की छाप हर जगह हो गई थी। होनी भी चाहिए - वो अब इस घर की गृह स्वामिनी थी, और उसकी छाप तो होनी ही चाहिए थी!

दिल्ली से यहाँ आने के बाद मैंने पहली बार घर की साज सज्जा को देखा। चाचा जी और चाची जी का घर बढ़िया सजाया गया था, लेकिन यहाँ तो और भी अधिक रौनक थी। पूरे घर में लाइटिंग की लड़ियाँ लगी हुई थीं - जिनकी शोभा रात में ही दिखाई देने वाली थी। लेकिन दिन के लिए विभिन्न फूलों की मालाओं से पूरा आंगन सजाया गया था। घर के अंदर हमको आरामदायक कुर्सियों पर बैठाया गया, और फिर शुरू हुआ मसखरी वाली रस्मों का सिलसिला!

जब दोनों भाभियों ने हम वर वधू को खेल खिलाने के लिए बड़ी सी परात लाई, तो गाँव की किसी अन्य भाभी ने चुहल करी,

“ई सब खेल न खिलावा अब... ई दूनौ जने का जोन खेल खेलै का चाही, ऊ खेलै का दिहौ...”

उनकी बात पर सभी स्त्रियाँ हँसने लगीं। लतिका और मैं थोड़ा झेंप तो गए, लेकिन हम दोनों भी तो यही चाहते थे।

“अउर का! दूनौ थके हारे लागत हीं... आराम करै दिहौ! ई सब खेल बाद मा खेलाय दिहौ...” चाची जी ने भी हँसते हुए उस बात का अनुमोदन किया।

“ऐसे कैसे!” बड़ी भाभी ने कहा, “ये सब तो शुभ होता है... भैया, लतिका, बस एक राउंड खेल लीजिए, फिर चले जाइए!”

बेचारी भाभी ने जो सब प्लान किया हुआ था, वो सब खेल चौपट होता दिख रहा था उनको।

“ठीक है भाभी,” लतिका बोली, “जब तक आप नहीं कहेंगी, तब तक हम नहीं जाएँगे!”

“ये हुई न बात!” छोटी भाभी ने कहा, “और ये कोई ऐसा वैसा खेल नहीं है...”

“न जाने का खेलावै वाली हँय...” किसी अन्य स्त्री न कहा।

खैर, परात हमारे सामने लगाई गई। सच में, वो एक अलग ही तरह का खेल लग रहा था। सूखे चावल और दाल की खिचड़ी थी और कई सारे रंग बिरंगे चिट्टियाँ रखी गई थीं, उसी खिचड़ी में।

“ई का बाय बहुरिया?” चाची जी ने आश्चर्य से पूछा।

“लतिका, भैया,” छोटी भाभी ने समझाते हुए कहा, “आप दोनों को एक साथ डिसाइड कर के एक चिट्टी निकालनी है इसमें से!”

“अच्छा भाभी,” मैंने कहा।

“याद रहे, एक साथ! ... आप दोनों बात कर सकते हैं,” उन्होंने बड़ी दिलदारी से कहा।

अच्छी बात है। मैंने और लतिका ने कोई बात तो नहीं करी, लेकिन इशारे से एक गुलाबी रंग की चिट्टी पर सहमति बनाई, और बाहर निकाली।

“लाइये... हमको दीजिए!” बड़ी भाभी ने कहा।

उन्होंने उसको पढ़ कर सभी को बताया, “देखिए... आप सभी लोग सुन लीजिए... इन दोनों का पहला बच्चा होगा एक लड़का... और नाम उसका होगा भोला!”

‘पहला बच्चा’ सुनते ही हम चौकन्ने और फिर शर्मसार हो गए, लेकिन वहाँ उपस्थित सभी लोग हँस हँस कर लोट पोट होने लगे। बढ़िया खेल था ये तो!

“अरे वाह! बधाई हो, बच्चों!” माँ बोलीं।

“क्या माँ!” मैंने शर्माते हुए कहा।

“भैया, लतिका... एक और बार?” छोटी भाभी बोलीं।

अगला बच्चा भी लड़का ही निकला, जिसका नाम था गुड्डू।

“क्या भाभी,” मैंने हँसते हुए कहा, “कैसे कैसे नाम सोच रखे हैं आपने हमारे बच्चों के! ... एक और बार करें?”

“क्या भैया! तीन तीन बच्चे? हम्म्म?” दोनों भाभियों ने मिल कर छेड़ा इस बार हमको।

आँगन ठहाकों से गूँज गया।

“ये भोला, गुड्डू नाम के ही हैं सभी, या कोई राज या राहुल भी है?” मैंने उनकी बात अनसुनी कर दी।

“एक बार और देख लीजिए...”

हमने अगली चिट्टी निकाली। इस बार हमको एक बेटी हुई, जिसका नाम था गुड़िया।

“अब तसल्ली हो गई?”

“जी भाभी!”

“तो चलिए, आपको आपके कमरे में ले चलती हैं हम...”

कह कर उन्होंने हमको हाथ पकड़ कर उठाया और हमारे कमरे की तरफ चलने लगीं।

“अउर हाँ...” किसी अन्य भाभी ने पीछे से हमको छेड़ा, “आजै तीनौ बच्चन कै इंतजाम ना कै दिहौ... तनी आराम से...”

उनकी बात पर फिर से ठहाके उड़ने लगे।

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