नव-जीवन - Update #3
हल्दी की रस्म एक परंपरा है। माना जाता है कि हल्दी के अंदर ऐसे गुण होते हैं, जिनसे शरीर के अवांछित दूषक तत्व समाप्त हो जाते हैं। भोजन में तो सदैव इसका प्रयोग होता ही है। हल्दी की प्रतिरोधक और निरोगात्मक गुणों के बारे में सभी जानते हैं। लेकिन परम्परा में यह भी मानते हैं कि यह बुरी आत्माओं से वर वधू को बचाती भी है। कारण जो भी हो, हल्दी की रस्म बड़ी आनंद देने वाली होती है। हल्दी से हो कर विवाह तक के समय वर वधू को घर बाहर नहीं जाने दिया जाता - जिससे किसी भी बुरी आत्मा और बुरी नज़र से दोनों को बचाया जा सके। मतलब तय था - शादी के दिन से पहले लतिका को देख पाना भी संभव नहीं था। वो भी ठीक है - शादी के दिन ही उससे मिलने में अलग ही उत्साह रहेगा। पिछली बार गाँव में यह सब हुआ था - हाँलाकि समय हो गया था, लेकिन फिर भी मुझे उस दिन के मज़े का सब याद है।
सवेरे उठा, तो घर में गहमा-गहमी से समझ में आ गया कि कुछ देर ही में रस्म शुरू हो जाएगी। जब तैयार हो कर मैं मेहमान-खाने में आया, तब बड़ी भाभी ने मुझे नाश्ता परोसा... पूरियाँ और आलू की सूखी सब्ज़ी! इतने सामान्य भोजन में भी आनंद आ जाता है! क्योंकि शुद्ध घटकों से बना होने के कारण उनमें अलग ही स्वाद होता है।
“भाभी,” मैंने कहा, “ये तो बहुत ही स्वादिष्ट है!”
“क्या भैया, आप भी मज़ाक करते हैं!” भाभी ने खेद भरे स्वर में कहा, “जल्दी जल्दी में बस यही बन सका... आज आपकी और लतिका की हल्दी की रस्म है न! उसके लिए काम करना है।”
“मेरे कारण आप सभी का काम बहुत बढ़ गया न भाभी!”
“आप ऐसी बातें करेंगे तो आपको बहुत डाँट पड़ेगी हमसे...” वो हँसती हुई बोलीं, “आपसे उम्र में कम हैं हम, लेकिन आपसे पद में बड़ी हैं!”
“हाँ भाभी... इसीलिए तो आपके पैर छूता हूँ! भाभी तो माँ समान होती हैं!”
“तो आप ही बताईए, क्या कोई माँ अपने बच्चों के लिए काम करने से थकती है?”
“नहीं भाभी... लेकिन मैं सच कह रहा हूँ, खाना बहुत बहुत स्वादिष्ट है! ऐसी स्वाद वाली पूरी सब्ज़ी खाए मुद्दत हो गई। माँ और अम्मा बनाती तो हैं, लेकिन ऐसा शुद्ध स्वाद नहीं आ पाता वहाँ दिल्ली या मुंबई में!”
भोजन की बढ़ाई सुन कर उनको अच्छा लगा, “अच्छी बात है! फिर तो बढ़िया है... दोपहर का खाना आपको और भी अच्छा और स्वादिष्ट लगेगा!”
मैं मुस्कुराया - जाहिर सी बात है! चाचा जी चाची जी के यहाँ भोजन तो गज़ब का होता ही है!
“लतिका बहुत प्यारी है भैया,” बड़ी भाभी मुझसे बहुत बातें नहीं करती थीं, लेकिन इस बार वो अधिक खुल कर बतिया रही थीं, “... कुछ अलग ही बात है उसमें! अम्मा जी (माँ) की भी छवि दिखती है उसमें...”
मैं समझ रहा था कि वो क्या कहना चाहती हैं... लेकिन ठीक से समझा नहीं पा रही थीं।
“अच्छी बात है ये भाभी?” मैंने पूछा।
“बहुत अच्छी बात है भैया... अम्मा जी तो बहुत ही अच्छी हैं। उनका कोमल स्वभाव आपमें भी है और सभी बच्चों में भी... आपकी पत्नी भी आपके ही जैसी कोमल स्वभाव की होनी चाहिए।”
“हा हा... भाभी... आप भी न!”
“नहीं भैया... हम सच कह रही हैं। ... आप दोनों की जोड़ी अच्छी लगेगी।”
“थैंक यू भाभी...”
“आप नाश्ता कर लीजिए... कुछ देर में रस्म शुरू हो जाएगी।” वो बोलीं, “दिन बहुत चढ़ जाएगा, तो बहुत गर्मी हो जाएगी!”
*
हल्दी की सभी रस्में गाँव की महिलाएँ ही करने वाली थीं। ऐसा नहीं है कि पुरुष-वर्ग का प्रवेश वर्जित है, लेकिन सच बात तो यह है कि इतनी स्त्रियों के बीच कोई पुरुष आना नहीं चाहता। सामान्य समय में मैं भी नहीं चाहता था! लेकिन यह रस्म मेरे लिए हो रही थी, इसलिए मेरी उपस्थिति अनिवार्य थी। कोई साढ़े दस बजे मुझे आँगन में आने को कहा गया। सरसरी निगाह से देखा तो वहाँ सभी महिलाएँ ही थीं। कुछ को मैं पहचानता था, लेकिन कुछ के चेहरे अनजान थे।
कुछ परम्पराएँ बहुत साधारण तरीके से मनाई जाती हैं। अब जैसे इसी को ले लीजिए - कोई मंत्रोच्चारण नहीं, कोई ताम झाम नहीं। बस, माताओं और भाभियों ने मिल कर देवी पूजन किया और हम वर वधू के लिए आशीष माँगी। हर विधान में यही होता है, लेकिन यह इतने साधारण तरीके से किया गया था कि इसमें पूजन की शिष्टता साफ़ दिखाई दे रही थी। जैसा कि आज कल फ़ोटो शूट्स में हल्दी की रस्में दिखाते हैं, वैसा गाँव देहात में नहीं होता। आज कल तो शादी की हर रस्म ऐसे निभाते हैं कि बस फोटो वीडियो अच्छी आ जाए। दूल्हा अच्छे कपड़े पहन कर बैठता है, कि फ़ोटो अच्छी निकलें! लेकिन गाँव में फ़ोटो की किसी को परवाह नहीं होती... हाँ, लेकिन रस्में बड़ी तबियत से मनाई जाती हैं।
सबसे पहले चाची जी ने मुझको ढेरों आशीर्वाद देते हुए, हल्दी का पेस्ट ले कर मेरे गालों और माथे पर लगाया, फिर उनके बाद अम्मा और माँ ने! फिर भाभियों ने मोर्चा सम्हाल लिया। उन्होंने मुझे कपड़े उतारने को कहा और फिर मेरे शरीर पर हल्दी के पेस्ट और सरसों का तेल का मिश्रण लगाना शुरू कर दिया। आँगन खुला हुआ था, इसलिए अब वहाँ धूप आ रही थी। मक्खियाँ इत्यादि न आएँ, उसके लिए आँगन के हर कोने में सुलगते हुए कण्डे पर घी में डूबी हुई चंदन की छीलन सुलगा दी गई थी। चन्दन की सुन्दर सी सुगंध पूरे वातावरण में फ़ैली हुई थी।
मैं केवल चड्ढी पहने हुए एक पीढ़े पर बैठा हुआ था, और भाभियाँ और अन्य महिलायें (जो गाँव के रिश्ते से मेरी भाभियाँ लगती थीं) मिल कर मेरे पूरे शरीर पर हल्दी तेल लगा रही थीं और साथ ही साथ गँवई स्टाइल में सोहर भी गा रही थीं। कुछ ही देर में चुहल-बाज़ी शुरू हो गई, तो अम्मा, माँ और चाची जी वहाँ से निकल लीं - क्योंकि बहनें, ख़ास कर, छोटी बहनें, और माताएँ यह सब काम नहीं करतीं! प्रयोग हुआ सरसों का तेल इतना शुद्ध था कि उसकी भभक से मेरी आँखों में आँसू आने लगे। बड़ी भाभी ने मुझे खड़ा होने को कहा। चाहता तो नहीं था, लेकिन मैं खड़ा हुआ... और उसी के साथ मेरे लिंग का प्रभावशाली स्तम्भन भी सभी को दिख गया। बड़ी भाभी ने बिना हिचके मेरी चड्ढी भी उतार दी। इस बात के लिए मैं कत्तई तैयार नहीं था।
लेकिन अच्छी बात यह थी कि छोटी मोटी चुहल के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा गया। शायद अगर मेरा लिंग छोटा होता, तो अधिक मज़ाक बनता, लेकिन एक पुष्ट अंग होने के कारण सभी का हँसी मज़ाक आदरपूर्ण और संभवतः ईर्ष्यालु हो गया। उनके अधिकतर मज़ाक और चुहल इसी बात पर केंद्रित थे कि बन्नी की मुसीबत होने वाली है!
खैर, कुछ देर बाद मेरे शरीर का शायद ही कोई अंग हल्दी और तेल के उबटन से छूटा हुआ हो! लेकिन इतनी देर में गर्मी लगने लगी। मज़ेदार बात यह थी कि मेरे पसीने छूट रहे थे, लेकिन फिर भी एक अलग तरह का सुकून था। नहाने से पहले मुझको आम पना पीने को दिया गया। मेरे बाद आदित्य और आदर्श को भी मेरी ही तरह हल्दी और तेल का उबटन लगाया गया। दोनों बेचारे पहली बार वैसा कुछ अनुभव कर रहे थे। आदर्श छोटा था, इसलिए तेल की भभक से रोने लगा। खैर, हल्दी उबटन के बाद हम तीनों को नहलाया गया, और तब कहीं जा कर हम उस यातना से छूटे! मुझको यह ख़ास हिदायद दी गई कि जब तक कहा न जाए, मैं घर से बाहर न निकलूँ। वो भी ठीक है। मेरी आवभगत में कोई कमी नहीं थी, स्वादिष्ट भोजन मिल रहा था, और पूरा आराम था। वैसे भी, इस गर्मी में बाहर क्यों जाना! हमारे स्नान के लगभग तुरंत बाद ही घर खाली हो गया। केवल वो ही लोग बचे, जो काम में सहयोग करने वाले थे।
मेरे घर में संभव है लतिका के साथ भी यही सब हो रहा हो। मैं मन ही मन उम्मीद कर रहा था कि उसको ‘शुद्ध’ सरसों के तेल वाली यातना न दी गई हो। बेचारी छोटी थी, और इस तरह से परेशान हो सकती थी।
*
मैं घर पर ही था और मुझे किसी ‘बाहर’ वाले से मिलने जुलने नहीं दिया जा रहा था। मेरे स्थान पर पापा ही सभी लोक-रीत निभा रहे थे। हम दोनों में से किसी के लिए भी डैड का स्थान ले पाना असंभव था, लेकिन फिर भी पापा काफी हद तक ग्राम-वासियों से एकाकार हो रहे थे और उनकी बातों को सुन और समझ रहे थे। हमेशा की ही तरह नौकरी माँगने वाले और आर्थिक सहायता के इच्छुक कई लोग आये हुए थे, और उन सभी को पापा ने समुचित सहायता देने का वचन भी दिया।
ऐसा नहीं था कि अम्मा और माँ ने मुझे अकेला छोड़ दिया हो। वो भी यथासंभव मेरे साथ समय बिता रही थीं। माँ पिछली बारों से बहुत खुश थीं, और बड़ी ही चंचल हो कर मेरी शादी का आनंद उठा रही थीं। बढ़ चढ़ कर उन्होंने भी अपने हाथों में मेहँदी इत्यादि लगवाई थी - शायद अम्मा की ज़ोर जबरदस्ती रही को। कुछ भी हो, लेकिन मुझे बहुत अच्छा लगा। अम्मा भी बहुत खुश थीं। दोनों ही समय समय पर मेरा हाल चाल देखने आ जातीं, या अगर कोई बात होती, तो मुझसे शेयर करतीं। स्नान के बाद जब माँ मुझे देखने आईं, तो मैंने उनसे अपना अमृत पिलाने का आग्रह किया। तो उन्होंने बड़े प्रेम से मुझे स्तनपान कराया। माँ के भी दूध का स्वाद दो ही दिनों में बदल गया था। भोजन का असर तो पड़ता है भई! अम्मा के दूध को ले कर उत्सुकता आ गई। मैंने मन ही मन सोचा कि जब भी वो आएँगी, मैं उनका दूध चखूँगा। चाहे और कोई बच्चा पिए या नहीं - लेकिन मेरा पीना अपरिहार्य है!
मेरी मिष्टी भी लतिका और मेरी शादी को ले कर बहुत उत्साहित थी। चाहे कोई कुछ भी कह ले - लेकिन लतिका और मुझे साथ लाने में मिष्टी का बहुत ही बड़ा योगदान था। वो भी बड़े आनंद में थी। गाँव के अपरिचित परिवेश में उसको यूँ आनंद लेते देख कर बहुत अच्छा लग रहा था। मुझे बाद में पापा और माँ से पता चला कि मिष्टी (आभा) के लिए पास के गाँवों के बड़े ही गणमान्य और संपन्न परिवारों से दो रिश्ते आए थे। क्योंकि मुझे किसी से मिलने नहीं दिया जा रहा था, इसलिए उन लोगों ने माँ और पापा से ही बात कर ली। वो अलग बात है कि उन्होंने उस बात को आदरपूर्वक मना कर दिया।
आभा के लिए रिश्ते! हा हा! कैसा मज़ाक! मैंने सोचा - लेकिन फिर लगा कि अपनी बच्ची वाकई बड़ी हो रही है। लतिका और उसके बीच केवल पाँच साल का ही तो अंतर था! बाप रे! शायद हर बाप को अपनी बेटी, एक छोटी सी गुड़िया ही लगती है हमेशा! तो मैं ही क्यों अपवाद होने लगा? लेकिन सच्चाई यह थी कि कुछ ही सालों में मेरी मिष्टी भी शादी योग्य हो जाएगी। लेकिन मैं चाहता था कि आभा अपनी माँ की ही तरह बहुत पढ़े, और एक कैरियर वुमन बने। वो जब भी करे, शादी ब्याह अपनी पसंद से करे, और खुश रहे। बाकी सभी बच्चों की बात करें, तो अभी वो बहुत उत्साहित होने के लिए बहुत छोटे थे। उनकी समझ में बहुत कुछ आ ही नहीं रहा था।
मेरे वो मेहमान, जो बाहर के देशों से आये थे, या फिर वो, जो आज तक देश के इस हिस्से में नहीं आए थे, आज दिन में आस पास की साईट सीइंग के लिए निकले हुए थे। आस पास देखने को बहुत सी जगहें थीं, इसलिए यहाँ गाँव में रह कर समय खराब करने का कोई अर्थ नहीं था। शादी तक वो यहीं रहने वाले थे, फिर वापस दिल्ली जा कर रिसेप्शन में हमारे साथ थे। उसके बाद वो जहाँ जाना चाहें, जाने को स्वतंत्र थे। जयंती दी और उनका परिवार और ससुर जी आज दोपहर बाद आने वाले थे। आज दोपहर और शाम को मेरे और लतिका के कुछ मित्र हमारे विवाह में आने वाले थे। इसलिए उनका भी इंतज़ार था।
हल्दी के बाद, बस यूँ ही कई छोटी मोटी रस्में और पूजाएँ करने के लिए मुझे बुलाया जाता रहा। मैंने इस पूरे समय में मैंने खुद को अन्य महिलाओं से दूर रखा, और बस घर में ही रहा। दोनों भाभियाँ सदैव मेरे साथ लगी रहतीं, और मेरे आराम का ध्यान रखतीं। उन सभी ने मेरे सुख सुविधा में कोई कमी नहीं आने दी। सच में, मैं उनका प्रेम पा कर कृतार्थ हुआ था!
शाम को ससुर जी और जयंती दीदी से मुलाकात हुई। हाँलाकि उनके लिए धर्मशाला में कमरे बुक थे, लेकिन फिर भी चाचा जी ने उनको सादर अपने घर आने का निमंत्रण दिया। ठीक भी था - वो परिवार थे और यहाँ बहुत स्थान भी था। लेकिन आराम करने का कह कर क्षमा माँगी। लम्बी यात्रा थी, इसलिए चाचा जी मान गए। लेकिन रात्रि-भोज के लिए आने का वायदा भी ले लिए। इसी तरह से शाम और रात निकल गई।
*
आखिरकार हमारी शादी का दिन आ ही गया।
आज भी गर्मी होनी तय थी, लेकिन सुबह सुबह बयार चल रही थी। मुझे बहुत जल्दी ही उठा दिया गया था - करीब चार बजे। मैं अगले एक घण्टे में तैयार हो कर, अपने वर-पक्ष के लोगों के साथ गाँव वाले मंदिर की तरफ़ चल दिया। मैंने गहरे लाल रंग का कसीदा किया हुआ कुर्ता पहना हुआ था, और क्रीम कलर का चूड़ीदार। माँ और चाची जी ने मेरे सर पर सोने के रंग की रेशमी पगड़ी बाँधी थी और माथे पर थोड़ा लम्बा सा लाल चन्दन! सच में, इस बार दूल्हा बन कर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।
मंदिर तक पैदल ही जाना था, लेकिन जाने में बस कोई पाँच मिनट लगे - अब वहाँ तक जाने का रास्ता पहले से बहुत बेहतर और साफ़ सुथरा था। लतिका मंदिर में पहले से ही मौजूद थी, और किसी पूजा में व्यस्त थी। लतिका के बाद मुझे भी वो सभी पूजा पाठ करने थे। इस बार भी पूरा गाँव आया हुआ लग रहा था - कारण? शायद इसलिए क्योंकि पाँच विदेशी मेहमान आए हुए थे। गोरे लोगों को देखने के लिए सभी उत्सुक थे शायद!
मैं जब वहाँ आया, तो देखा सभी मित्र और स्नेही स्वजन वहाँ उपस्थित थे। मैं सभी से यथोचित सम्मान के साथ मिला। लतिका के भी कई दोस्त आए हुए थे - लड़के लड़कियाँ दोनों! कुछ को मैं पहले से जानता था, और कुछ से आज मुलाकात हुई। सभी बड़े सभ्य बच्चे थे। अच्छी बात यह थी कि उनमें से किसी ने भी मुझे ‘अंकल’ कह कर नहीं पुकारा - सभी या तो मुझे ‘जीजा जी’ या ‘जीजू’ कह कर बुला रहे थे, या फिर ‘अमर’ कह कर! कोई अंकल कहता तो दिल को मेरे बहुत ठेस लगती! हा हा! मैंने सभी को शादी की रिसेप्शन में आने को कहा, और हमारे आतिथेय का आनंद लेने को कहा।
मैं मेहमानों से बातें कर ही रहा था कि मुझे वेदी पर बैठने को कहा गया। बस कुछ ही समय में लतिका और मैं विवाह बंधन में बंध कर एक हो जाने वाले थे। पुजारी जी ने विवाह वेदी पर मेरी आरती उतारी, और कुछ पूजा की और फिर अंत में मुझे लतिका के बगल में बैठने को कहा... और तब कहीं जा कर पूरे तीन दिनों के बाद, मैंने लतिका को देखा!
उफ़्फ़... दूर से वो बहुत सुन्दर लग तो रही ही थी, लेकिन पास से उसकी सुंदरता का असली विवरण दिखाई दिया। सबसे पहली बात जो मैंने देखी, वो यह कि लतिका ने माँ का लहँगा चोली सेट पहना हुआ था। बनारसी रेशम का नारंगी रंग की चोली, जिस पर लाल लाल रंग के बूटे बने हुए थे। बाद में उसमें ज़री का और काम करवा दिया गया था, जिससे उसकी रंगत और शौकत में और भी अधिक इज़ाफ़ा हो गया था। चूँकि चोली लतिका के लिए थोड़ी तंग थी, इसलिए उसको पीछे से काट कर ज़िग-ज़ैग पैटर्न की रेशमी डोरियों से बाँधने वाला हिसाब किताब लगाया गया था। उसको देख कर कोई कह ही नहीं सकता था कि कोई चालीस साल पुराना गँवई कपड़ा था वो कभी! उसी के हिसाब से लहँगे में भी छोटे छोटे परिवर्तन किये गए थे। लहँगा चोली से ही मैचिंग करता हुआ लाल और नारंगी रंग का बनारसी रेशम का था, और अब उस पर छोटे छोटे मोतियों की लड़ियाँ पिरोई गई थीं। चुनरी नई थी, क्योंकि पुरानी वाली में कुछ छेद हो गए थे, और माँ ने उसको पहनने से मना कर दिया था। एकदम राजसी वस्त्र! और उसी से मिलती जुलती राजसी साज सज्जा!
हाँलाकि अब उसकी चोली आरामदायक थी, लेकिन फिर भी पीछे की डोरियाँ कुछ इस तरह बाँधी गई थीं कि वो उसके सीने पर थोड़ी चुस्त रहें। उसके कारण चोली ने लतिका के स्तनों को थोड़ा सा दबा रखा था, और एक सेक्सी सा क्लीवेज बना दिया था। बैठने पर भी उसका पेट सपाट दिख रहा था और उसकी गहरी नाभि बड़ी सेक्सी लग रही थी! लतिका का शरीर अवश्य ही एथलेटिक था, लेकिन फिर भी उसके शरीर के कटाव बेहद सेक्सी तरीके से दिख रहे थे।
लतिका के आभूषण बड़े बड़े थे - लेकिन भौंडे नहीं! वो उसी के व्यक्तित्व के अनुसार विशाल किन्तु सौम्य थे। माथे पर सोने और मोतियों की बेंदी, नाक में उसी से मिलती जुलती नथ, कानों में झुमके और गर्दन पर हीरे और सोने का हार! दोनों कलाईयों में काँच की चूड़ियाँ और सोने के कंगन और उँगलियों में अंगूठियाँ! दोनों बाहें कोहनियों तक गहरे लाल रंग की मेहँदी से रची बसी हुई थीं। माथे पर एक छोटी सी लाल रंग की बिंदी अद्भुत रूप से सुशोभित हो रही थी। उसके बाल बहुत लम्बे नहीं थे, लिहाज़ा उसका जूड़ा भी छोटा ही था... छोटा, लेकिन क्यूट! मेकअप उसका साधारण सा था, लेकिन उसके ऊपर बहुत फ़ब रहा था। हमारे गाँव में सचमुच की राजकुमारी उपस्थित थी इस समय!
मुझे कनखियों से अपने बगल बैठते देख कर उसके होंठों पर एक स्निग्ध मुस्कान आ गई!
ओह! कैसी बला की सुंदरी! सच में - सुन्दर स्त्रियों के मामले में मैं बहुत ही अधिक भाग्यशाली रहा हूँ। और कुछ तो कृपा थी दैवीय शक्तियों की कि वो सुन्दर स्त्रियाँ अपने गुणों में भी सुन्दर थीं! हाँ, रचना भी... बस, वो थोड़ी स्वार्थी थी... और कुछ नहीं! अचानक से ही लतिका के सामने मुझे अपनी ‘शोभा’ फ़ीकी पड़ती दिखाई दे गई। और अच्छा हुआ कि ऐसा हुआ। उस रूप में मैं लतिका को अपनी पूरी उम्र देख सकता था। मुझे पक्का यकीन था कि हाँलाकि गाँव के लोग आये तो थे गोरे मेहमानों को देखने, लेकिन लतिका का रूप सौंदर्य और उसकी शोभा देख कर वो बस उसी की झलक पाने को लालायित थे।
सुबह थी, इसलिए गर्मी नहीं बढ़ी थी। फिर भी हमारे आराम के लिए एक टेबल फैन को हमारे बगल ही रख दिया गया था, जो फिलहाल सबसे कम गति में चल रहा था। उसका लाभ यह हुआ कि लतिका के माथे पर कुछ आलसी लटें आ गिरीं! उसकी शोभा बढ़ाने में जो थोड़ी बहुत कसर बाकी रह गई थी, अब ख़तम थी! साक्षात् मेनका का रूप... जो मुझ किंचित के ब्रह्मचारी जीवन में शोभा बढ़ाने आ रही थी।
कुछ ही पलों में लतिका और मैं साथ में पूजा और हवन करने लगे। हवन-कुंड कुछ ऐसा था, कि जिसमें से अग्नि की लपटें भड़क नहीं रही थीं, बल्कि बड़े सौम्य तरीके से निकल रही थीं। मैं विस्तार से तो नहीं कह सकता कि हमने कौन कौन सी पूजा-अर्चना करी, और कौन कौन से मंत्र पढ़े... और मैं ही क्या, अधिकतर युगल यह बात आपको नहीं बता सकते। लेकिन विवाह के सभी मन्त्रों, और सभी रस्मों का सार बस यही है कि दोनों मिल कर, ईश्वर के सामने प्रतिज्ञा करते हैं कि वो एक-दूसरे को प्यार करेंगे, एक दूसरे का सम्मान करेंगे, और जीवन पर्यन्त एक-दूसरे के साथ मज़बूती से खड़े रहेंगे। पति शपथ लेता है कि वो अपनी पत्नी और अपने परिवार की रक्षा करेगा और उनका भरण-पोषण करेगा। दूसरी तरफ़ पत्नी शपथ लेती है कि वो अपने पति के प्रति निष्ठावान रहेगी, और अपने परिवार का लालन पालन करेगी।
अम्मा और बापू ने लतिका का कन्यादान किया और मैंने उसका पाणिग्रहण! फिर मैंने गैबी की मांग में नारंगी रंग का सिंदूर लगाया, उसके गले में मंगलसूत्र बांधा, और उसके पैर की उंगलियों में बिछिया पहनाई... और फिर हमने साथ में अग्नि के सम्मुख सात कदम चले। इसके बाद कुछ और मंत्रों के पाठन हुए, और हमारी शादी हो गई!
एक ईश्वरीय चमत्कार था यह! अब लतिका और मैं एक थे!
“हाऊ आर यू, माय लव?” मैंने चुपके से पूछा।
मेरे कान इतने समय से उसकी आवाज़ सुनने को तरस गए थे।
“टुडे माय ड्रीम केम ट्रू! ... तो कह नहीं सकती कि कैसी हूँ... तुम मेरे साथ हो अमर, नहीं तो मैं अब तक ख़ुशी से पागल हो जाती...” उसने मेरे हाथ को कोमलता से छुआ।
उसकी आवाज़ में ऐसी भावनात्मक सच्चाई थी कि मैं भी भावुक हो गया। सच में - खुश तो मैं भी बहुत अधिक था... इतना कि शब्दों में बयान नहीं कर सकता था। अब मेरी उम्र भी थोड़ी अधिक हो चली थी, इसलिए इमोशनल भी थोड़ा जल्दी ही हो जाता था! लतिका के स्पर्श से जैसे उसके मन की भावनाएँ मेरे मन में ट्रांसफर हो गईं... मेरी आँखों में ख़ुशी के आँसू झिलमिलाने लगे।
“आई लव यू,” मैंने कहा।
“खूब... बहुत... सबसे ज़्यादा...” वो कोमलता से बोली।
मैं मुस्कराया।
*
विवाह की सभी रस्में खत्म होने में कोई तीन घण्टे लगे। बाहर थोड़ी गर्मी होने लगी थी, क्योंकि सुबह साढ़े आठ - पौने नौ होते होते ही सूर्य देवता चढ़ आये थे। विवाह के बाद लतिका और मैंने वहाँ उपस्थित सभी बड़े बुजुर्गों के पैर छू कर उनके आशीर्वाद लिए... मतलब लगभग पूरे गाँव के ही आशीर्वाद लिए हमने!
इस बार भोजन की व्यवस्था मंदिर के प्राँगण में ही थी। कई टेबलें मिला कर एक बड़ी सी खाने की टेबल बनाई गई थी, जिस पर सुबह के भोजन के लिए तरह तरह के व्यंजन करीने से रखे गए थे। मुझे नहीं पता था, लेकिन पापा और चाचा जी ने यह पूरी व्यवस्था करी थी। किसी भी कोण से यह गाँव की शादी नहीं लग रही थी... ऐसा लग रहा था कि जैसे शहर की ही कोई शादी हो! अद्भुत!
लतिका और मुझे टेबल के मुखिया वाले स्थान पर साथ में बैठाया गया, और फिर हमारा “पूरा” परिवार हमारे साथ भोजन करने को बैठा। सच में - हर सुख का आनंद कई कई गुणा बढ़ जाता है, जब आपके साथ उसको बाँटने के लिए आपके स्नेही स्वजन हों। हमको आराम से खाने को कहा गया, और सभी लोग जल्दी से अपना नाश्ता निबटा कर टेबल से उठ गए। उनके उठने के बाद जो सभी करीबी मित्र आए हुए थे, उनके साथ हमारा नाश्ता चलता रहा।
लेकिन कोई एक घंटे के बाद वहाँ यूँ बैठे रहना कठिन होने लगा था। गर्मी भी बढ़ रही थी, और हमको लग भी रही थी। अम्मा ने यह देखा और हमारे पास आ कर बोलीं,
“आओ बच्चों, अब कुछ आराम कर लो...”
अच्छी बात है! आराम तो करने का बनता है! हम दोनों खाने की टेबल से उठे, और एक दूसरे का हाथ थामे हम घर की ओर चलने लगे। रास्ते में लगभग सभी ने एक बार फिर से हमको शादी की शुभकामनाएँ दीं।
जब अंततः हम ‘अपने घर’ पहुँचे, तो वहाँ लगभग बीस सुहागिन स्त्रियाँ उपस्थित थीं। उन सभी ने पान के पत्तों को आग में सेंक कर हमारे गालों पर छुआ कर ‘गल सिंकाई’ की रस्म अदा करी। कुछ छोटी लड़कियाँ भी थीं वहाँ, जो ग्रामीण सम्बन्ध में छोटी बहनें लगती थीं। तो उनको उनका मुँह माँगा नेग दिया गया।
अंदर आने से पहले लतिका को चावल भरी मटकी को अपने पैर से घर के अंदर की तरफ़ ठेलने को कहा गया। यह रस्म इस बात को इंगित करती है कि नई बहू के आने से घर में सम्पन्नता आए! फिर उसको महावर की थाल में पाँव रख कर अपने शुभ-चिन्ह बनाते हुए अंदर आने को कहा गया। फिर आँगन की एक दीवार पर उसको अपने हाथों की छाप बनाने को कहा गया। मतलब अब इस घर में लतिका की छाप हर जगह हो गई थी। होनी भी चाहिए - वो अब इस घर की गृह स्वामिनी थी, और उसकी छाप तो होनी ही चाहिए थी!
दिल्ली से यहाँ आने के बाद मैंने पहली बार घर की साज सज्जा को देखा। चाचा जी और चाची जी का घर बढ़िया सजाया गया था, लेकिन यहाँ तो और भी अधिक रौनक थी। पूरे घर में लाइटिंग की लड़ियाँ लगी हुई थीं - जिनकी शोभा रात में ही दिखाई देने वाली थी। लेकिन दिन के लिए विभिन्न फूलों की मालाओं से पूरा आंगन सजाया गया था। घर के अंदर हमको आरामदायक कुर्सियों पर बैठाया गया, और फिर शुरू हुआ मसखरी वाली रस्मों का सिलसिला!
जब दोनों भाभियों ने हम वर वधू को खेल खिलाने के लिए बड़ी सी परात लाई, तो गाँव की किसी अन्य भाभी ने चुहल करी,
“ई सब खेल न खिलावा अब... ई दूनौ जने का जोन खेल खेलै का चाही, ऊ खेलै का दिहौ...”
उनकी बात पर सभी स्त्रियाँ हँसने लगीं। लतिका और मैं थोड़ा झेंप तो गए, लेकिन हम दोनों भी तो यही चाहते थे।
“अउर का! दूनौ थके हारे लागत हीं... आराम करै दिहौ! ई सब खेल बाद मा खेलाय दिहौ...” चाची जी ने भी हँसते हुए उस बात का अनुमोदन किया।
“ऐसे कैसे!” बड़ी भाभी ने कहा, “ये सब तो शुभ होता है... भैया, लतिका, बस एक राउंड खेल लीजिए, फिर चले जाइए!”
बेचारी भाभी ने जो सब प्लान किया हुआ था, वो सब खेल चौपट होता दिख रहा था उनको।
“ठीक है भाभी,” लतिका बोली, “जब तक आप नहीं कहेंगी, तब तक हम नहीं जाएँगे!”
“ये हुई न बात!” छोटी भाभी ने कहा, “और ये कोई ऐसा वैसा खेल नहीं है...”
“न जाने का खेलावै वाली हँय...” किसी अन्य स्त्री न कहा।
खैर, परात हमारे सामने लगाई गई। सच में, वो एक अलग ही तरह का खेल लग रहा था। सूखे चावल और दाल की खिचड़ी थी और कई सारे रंग बिरंगे चिट्टियाँ रखी गई थीं, उसी खिचड़ी में।
“ई का बाय बहुरिया?” चाची जी ने आश्चर्य से पूछा।
“लतिका, भैया,” छोटी भाभी ने समझाते हुए कहा, “आप दोनों को एक साथ डिसाइड कर के एक चिट्टी निकालनी है इसमें से!”
“अच्छा भाभी,” मैंने कहा।
“याद रहे, एक साथ! ... आप दोनों बात कर सकते हैं,” उन्होंने बड़ी दिलदारी से कहा।
अच्छी बात है। मैंने और लतिका ने कोई बात तो नहीं करी, लेकिन इशारे से एक गुलाबी रंग की चिट्टी पर सहमति बनाई, और बाहर निकाली।
“लाइये... हमको दीजिए!” बड़ी भाभी ने कहा।
उन्होंने उसको पढ़ कर सभी को बताया, “देखिए... आप सभी लोग सुन लीजिए... इन दोनों का पहला बच्चा होगा एक लड़का... और नाम उसका होगा भोला!”
‘पहला बच्चा’ सुनते ही हम चौकन्ने और फिर शर्मसार हो गए, लेकिन वहाँ उपस्थित सभी लोग हँस हँस कर लोट पोट होने लगे। बढ़िया खेल था ये तो!
“अरे वाह! बधाई हो, बच्चों!” माँ बोलीं।
“क्या माँ!” मैंने शर्माते हुए कहा।
“भैया, लतिका... एक और बार?” छोटी भाभी बोलीं।
अगला बच्चा भी लड़का ही निकला, जिसका नाम था गुड्डू।
“क्या भाभी,” मैंने हँसते हुए कहा, “कैसे कैसे नाम सोच रखे हैं आपने हमारे बच्चों के! ... एक और बार करें?”
“क्या भैया! तीन तीन बच्चे? हम्म्म?” दोनों भाभियों ने मिल कर छेड़ा इस बार हमको।
आँगन ठहाकों से गूँज गया।
“ये भोला, गुड्डू नाम के ही हैं सभी, या कोई राज या राहुल भी है?” मैंने उनकी बात अनसुनी कर दी।
“एक बार और देख लीजिए...”
हमने अगली चिट्टी निकाली। इस बार हमको एक बेटी हुई, जिसका नाम था गुड़िया।
“अब तसल्ली हो गई?”
“जी भाभी!”
“तो चलिए, आपको आपके कमरे में ले चलती हैं हम...”
कह कर उन्होंने हमको हाथ पकड़ कर उठाया और हमारे कमरे की तरफ चलने लगीं।
“अउर हाँ...” किसी अन्य भाभी ने पीछे से हमको छेड़ा, “आजै तीनौ बच्चन कै इंतजाम ना कै दिहौ... तनी आराम से...”
उनकी बात पर फिर से ठहाके उड़ने लगे।
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