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समय नही मिल पा रहा, पहले पापा, फिर अभी शादी, और कल से बेटे को ठंड लग गई है तो लिखने में मन नहीं लग रहा, पर इस मंथ में उसको खत्म जरूर करूंगा।धन्यवाद भाई साहब!
अब कामातुर चुड़ैल का भी कुछ इंतजाम कर दें!
क्या बहुत ही खूबसूरत लिखा है avsji मेने यहां जितनी भी स्टोरी पढ़ी उसमें से सबसे बेहतरीन लेखनी आपकी है। सुद्ध हिंदी में लगाता नही आपको कोई मात दे सकता है।नींव - शुरुवाती दौर - Update 1
मुझे यह नहीं पता कि आप लोगों में से कितने पाठकों को सत्तर और अस्सी के दशक के भारत - ख़ास तौर पर उत्तर भारत के राज्यों के भीतरी परिक्षेत्रों - उनके कस्बों और गाँवों - में रहने वालों के जीवन, और उनके रहन सहन के बारे में पता है। तब से अब तक - लगभग पचास सालों में - उन इलाकों में रहने वालों के रहन सहन में काफ़ी बदलाव आ चुके हैं, और अधिकतर बदलाव वहाँ रहने वाले लोगों की बेहतरी के लिए ही हुए हैं। मेरा जीवन भी तब से काफ़ी बदल गया है, और उन कस्बों और गाँवों से मेरा जुड़ाव बहुत पहले ही छूट गया है। लेकिन भावनात्मक स्तर पर, मैं अभी भी मज़बूती से अपनी भूमि से जुड़ा हुआ हूँ। मुझे उन पुराने दिनों की जीवंत यादें आती हैं। शायद उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अगर किसी का बचपन सुखी, और सुहाना रहता है, तो उससे जुड़ी हुई सभी बातें सुहानी ही लगती हैं! आज मैं जो कुछ भी हूँ, उसकी बुनियाद ऐसी ही जगहों - कस्बों और गाँवों - में पड़ी। मैं आप सभी पाठकों को इस कहानी के ज़रिए एक सफ़र पर ले चलना चाहता हूँ। मैं हमारे इस सफ़र को मोहब्बत का सफ़र कहूँगा। मोहब्बत का इसलिए क्योंकि इस कहानी में सभी क़िरदारों में इतना प्यार भरा हुआ है कि उसके कारण उन्होंने न केवल अपने ही दुःख दर्द को पीछे छोड़ दिया, बल्कि दूसरों के जीवन में भी प्यार की बरसात कर दी। इस कहानी के ज्यादातर पात्र प्यार के ही भूखे दिखाई देते हैं, और उसी प्यार के कारण ही उनके जीवन के विभिन्न आयामों पर प्रभाव पड़ता दिखाई देता है। साथ ही साथ, सत्तर और अस्सी के दशक के कुछ पहलुओं को भी छूता चलूँगा, जो आपको संभवतः उन दिनों की याद दिलाएँगे। तो चलिए, शुरू करते हैं!
आपने महसूस किया होगा कि बच्चों के लिए, उनके अपने माँ और डैड अक्सर पिछड़े, दक़ियानूसी, और दखल देने वाले होते हैं। लेकिन सच कहूँ, मैंने अपने माँ और डैड के बारे में ऐसा कभी महसूस नहीं किया : उल्टा मुझे तो यह लगता है कि वो दोनों इस संसार के सबसे अच्छे, सबसे प्रगतिशील, और खुले विचारों वाले लोगों में से थे। आपने लोगों को अपने माता-पिता के लिए अक्सर कहते हुए सुना होगा कि वो ‘वर्ल्ड्स बेस्ट पेरेंट्स’ हैं! मुझे लगता है कि अधिकतर लोगों के लिए वो एक सतही बात है - केवल कहने वाली - केवल अपने फेसबुक स्टेटस पर चिपकाने वाली। उस बात में कोई गंभीरता नहीं होती। मैंने कई लोगों को ‘मदर्स डे’ पर अपनी माँ के साथ वाली फ़ोटो अपने फेसबुक पर चिपकाए देखी है, और जब मैंने एकाध की माँओं से इस बारे में पूछा, तो उनको ढेले भर का आईडिया नहीं था कि मदर्स डे क्या बला है, और फेसबुक क्या बला है! ख़ैर, यहाँ कोई भाषण देने नहीं आया हूँ - अपनी बात करता हूँ।
मेरे लिए मेरे माँ और डैड वाक़ई ‘वर्ल्ड्स बेस्ट पेरेंट्स’ हैं। अब मैं अपने जीवन के पाँचवे दशक में हूँ। लेकिन मुझे एक भी मौका, एक भी अवसर याद नहीं आ पाता जब मेरी माँ ने, या मेरे डैड ने मुझसे कभी ऊँची आवाज़ में बात भी की हो! डाँटना तो दूर की बात है। मारना - पीटना तो जैसे किसी और ग्रह पर हो रहा हो! माँ हमेशा से ही इतनी कोमल ह्रदय, और प्रसन्नचित्त रही हैं कि उनके अंदर से केवल प्रेम निकलता है। उनके ह्रदय की कोमलता तो इसी बात से साबित हो जाती है कि सब्ज़ी काटते समय उनको जब सब्जी में कोई पिल्लू (इल्ली) दिखता है, तो वो उसको उठा कर बाहर, बगीचे में रख देती हैं। जान बूझ कर किसी भी जीव की हत्या या उस पर कैसा भी अत्याचार उनसे नहीं होता। वो ऐसा कुछ सोच भी नहीं सकतीं। डैड भी जीवन भर ऐसे ही रहे! माँ के ह्रदय की कोमलता, उनके व्यक्तित्व का सबसे अहम् हिस्सा है। माँ को मैंने जब भी देखा, उनको हमेशा हँसते, मुस्कुराते हुए ही देखा। वो वैसे ही इतनी सुन्दर थीं, और उनकी ऐसी प्रवृत्ति के कारण वो और भी अधिक सुन्दर लगतीं। डैड भी माँ जैसे ही थे - सज्जन, दयालु, और अल्प, लेकिन मृदुभाषी। कर्मठ भी बड़े थे। माँ थोड़ी चंचल थीं; डैड उनके जैसे चंचल नहीं थे। दोनों की जोड़ी, वहाँ ऊपर, आसमान में बनाई गई थी, ऐसा लगता है।
मेरे डैड और माँ ने डैड की सरकारी नौकरी लगने के तुरंत बाद ही शादी कर ली थी। अगर आज कल के कानून के हिसाब से देखा जाए, तो जब माँ ने डैड से शादी करी तो वो अल्पवयस्क थीं। अगर हम देश के सत्तर के शुरुआती दशक का इतिहास उठा कर पढ़ेंगे, तो पाएँगे कि तब भारत में महिलाओं को चौदह की उम्र में ही कानूनन विवाह योग्य मान लिया जाता था [हिन्दू मैरिज एक्ट 1955]। माँ के माता-पिता - मतलब मेरे नाना-नानी - साधन संपन्न नहीं थे। वे सभी जानते थे कि वे माँ की शादी के लिए आवश्यक दहेज की व्यवस्था कभी भी नहीं कर पाएंगे। इसलिए, जैसे ही उन्हें अपनी एकलौती बेटी के लिए शादी का पहला ही प्रस्ताव मिला, वैसे ही वे तुरंत ही उस विवाह के लिए सहमत हो गए। माँ के कानूनन विवाह योग्य होते ही मेरे नाना-नानी ने उनका विवाह मेरे डैड से कराने में बिलकुल भी समय बर्बाद नहीं किया। डैड उस समय कोई तेईस साल के थे। उनको हाल ही में एक सरकारी महकमे में क्लर्क की नौकरी मिली थी। सरकारी नौकरी, मतलब स्थयित्व, पेंशन, और विभिन्न वस्तुओं पर सरकारी छूट इत्यादि! छोटे छोटे कस्बों में रहने वाले मध्यमवर्गीय माँ-बापों के लिए मेरे डैड एक बेशकीमती वर होते। मेरी माँ बहुत सुंदर थीं - अभी भी हैं - इसलिए, डैड और मेरे दादा-दादी को वो तुरंत ही पसंद आ गईं थीं। और हालाँकि मेरे नाना-नानी गरीब थे, लेकिन फिर भी वे अपने समुदाय में काफ़ी सम्मानित लोग थे। इसलिए, माँ और डैड की शादी बिना किसी दहेज़ के हुई थी। उनके विवाह के एक साल के भीतर ही भीतर, मैं इस दुनिया में आ गया।
माँ और डैड एक युवा जोड़ा थे, और उससे भी युवा माता - पिता! इस कारण से उनको अपने विवाहित जीवन के शुरुवाती वर्षों में काफ़ी संघर्ष करना पड़ा। लेकिन उनके साथ एक अच्छी बात भी हुई - मेरे डैड की नौकरी एक अलग, थोड़े बड़े क़स्बे में थी, और इस कारण, उन दोनों को ही अपने अपने परिवारों से अलग रहने के लिए मजबूर होना पड़ा। न तो मेरे दादा-दादी ही, और न ही मेरे नाना-नानी उन दोनों के साथ रह सके। यह ‘असुविधा’ कई मायनों में उनके विवाह के लिए एक वरदान साबित हुआ। उनके समकालीन, कई अन्य विवाहित जोड़ों के विपरीत, मेरे माँ और डैड एक दूसरे के सबसे अच्छे दोस्त थे, और उनका पारस्परिक प्रेम जीवन बहुत ही जीवंत था। अपने-अपने परिवारों के हस्तक्षेप से दूर, वो दोनों अपने खुद के जीने के तरीके को विकसित करने में सफ़ल हो सके। कुल मिलाकर मैं यह कह सकता हूँ कि हम खुशहाल थे - हमारा एक खुशहाल परिवार था।
हाँ - एक बात थी। हमें पैसे की बड़ी किल्लत थी। अकेले मेरे डैड की ही कमाई पर पूरे घर का ख़र्च चलता था, और उनकी तनख्वाह कोई अधिक नहीं थी। हालाँकि, यदि देखें, तो हमको वास्तव में बहुत अधिक पैसों की ज़रुरत भी नहीं थी। मेरे दादा और नाना दोनों ने ही कुछ पैसे जमा किए, और हमारे लिए उन्होंने एक दो-बेडरूम का घर खरीदा, जो बिक्री के समय निर्माणाधीन था। इस कारण से, और शहर (क़स्बे) के केंद्र से थोड़ा दूर होने के कारण, यह घर काफ़ी सस्ते में आ गया था। घर के अधिकांश हिस्से में अभी भी पलस्तर, पुताई और फ़र्श की कटाई आदि की जरूरत थी। अगर आप आज उस घर को देखेंगे, तो यह एक विला जैसा दिखेगा। लेकिन उस समय, उस घर की एक अलग ही दशा थी। कालांतर में, धीरे धीरे करते करते डैड ने उस घर को चार-बेडरूम वाले, एक आरामदायक घर में बढ़ा दिया, लेकिन उसमें समय लगा। जब हमारा गृह प्रवेश हुआ, तब भी यह एक आरामदायक घर था, और हम वहाँ बहुत खुश थे।
आज कल हम ‘हेल्दी’ और ‘ऑर्गनिक’ जीवन जीने की बातें करते हैं। लेकिन मेरे माँ और डैड ने मेरे जन्म के समय से ही मुझे स्वस्थ आदतें सिखाईं। वो दोनों ही यथासंभव प्राकृतिक जीवन जीने में विश्वास करते थे। इसलिए हमारे घर में प्रोसेस्ड फूड का इस्तेमाल बहुत ही कम होता था। हम अपने पैतृक गाँव से जुड़े हुए थे, इसलिए हमें गाँव के खेतों की उपज सीधे ही मिलती थी। दही और घी मेरी माँ घर में ही बनाती थीं, और उसी दही से मक्खन और मठ्ठा भी! माँ ख़ुद भी जितना हो सकता था उतना घरेलू और प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल करती थीं। खाना हमेशा घर का बना होता था, और खाना पकाने के लिए कच्ची घानी के तेल या घी का ही इस्तेमाल होता था। इन सभी कारणों से मैंने कभी भी मैगी या रसना जैसी चीजों को आजमाने की जरूरत महसूस नहीं की। बाहर तो खाना बस यदा कदा ही होता था - वो एक बड़ी बात थी। ऐसा नहीं है कि उसमे अपार खर्च होता था, लेकिन धन संचयन से ही तो धन का अर्जन होता है - मेरी माँ इसी सिद्धांत पर काम करती थीं। हाँ, लेकिन हर इतवार को पास के हलवाई के यहाँ से जलेबियाँ अवश्य आती थीं। गरमा-गरम, लच्छेदार जलेबियाँ - आहा हा हा! तो जहाँ इस तरह की फ़िज़ूलख़र्ची से हम खुद को बचाते रहे, वहीं मेरे पालन पोषण में उन्होंने कोई कोताही नहीं करी। हमारे कस्बे में केवल एक ही अच्छा पब्लिक स्कूल था : कोई भी व्यक्ति जो थोड़ा भी साधन-संपन्न था, अपने बच्चों को उस स्कूल में ही भेजता था। मैं बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि स्कूल के बच्चे ही नहीं, बल्कि उनके माँ और डैड भी एक-दूसरे के दोस्त थे।
उस समय उत्तर भारत के कस्बों की एक विशेषता थी - वहाँ रहने वाले अधिकतर लोग गॉंवों से आए हुए थे, और इसलिए वहाँ रहने वालों का अपने गॉंवों से घनिष्ठ संबंध था। यह वह समय था जब तथाकथित आधुनिक सुविधाएँ कस्बों को बस छू ही रही थीं। बिजली बस कुछ घंटे ही आती थी। कार का कोई नामोनिशान नहीं था। एक दो लोगों के पास ही स्कूटर होते थे। टीवी किसी के पास नहीं था। मेरे कस्बे के लोग त्योहारों को बड़े उत्साह से मनाते थे : सभी प्रकार के त्योहारों के प्रति उनका उत्साह साफ़ दिखता था। पास के मंदिर में सुबह चार बजे से ही लाउडस्पीकरों पर भजन के रिकॉर्ड बजने शुरू हो जाते थे। डैड सुबह की दौड़ के लिए लगभग इसी समय उठ जाते थे। माँ भी उनके साथ जाती थीं। वो दौड़ती नहीं थी, लेकिन वो सुबह सुबह लंबी सैर करती थीं। मैं सुबह सात बजे तक ख़ुशी ख़ुशी सोता था - जब तक कि जब तक मैं किशोर नहीं हो गया। मेरी दिनचर्या बड़ी सरल थी - सवेरे सात बजे तक उठो, नाश्ता खाओ, स्कूल जाओ, घर लौटो, खाना खाओ, खेलो, पढ़ो, डिनर खाओ और फिर सो जाओ। डैड खेलने कूदने के एक बड़े पैरोकार थे। उनको वो सभी खेल पसंद थे जो शरीर के सभी अंगों को सक्रिय कर देते थे - इसलिए उनका दौड़ना, फुटबॉल खेलना और कबड्डी खेलना बहुत पसंद था। हमारा जीवन बहुत सरल था, है ना?
समय नही मिल पा रहा, पहले पापा, फिर अभी शादी, और कल से बेटे को ठंड लग गई है तो लिखने में मन नहीं लग रहा, पर इस मंथ में उसको खत्म जरूर करूंगा।
" इस प्रकार श्री ' मोहब्बत का सफर ' कथा के अन्तर्गत avsji भाई की स्टोरी का अंतिम पर्व ' नवजीवन ' नायक अध्याय सम्पूर्ण हुआ "
एक अलग प्रकार की रोमांटिक स्टोरी थी यह । इस स्टोरी मे बहुत कुछ देखा हमने । काजल का समर्पण भाव , सुमन का अपने बच्चों के प्रति अगाध स्नेह और सुनील के प्रति समर्पित निष्ठा , सुनील और सुमन का प्रेम जो किसी परम्परा का मोहताज नही था , गैबी का संघर्ष और अमर के साथ मात्र कुछेक पल के लिए हसीन यादें , डैवी का मैच्योर प्रेम , गैबी और डैवी की दर्दनाक मृत्यु , रचना की महत्वाकाक्षा और स्वार्थी प्रेम , डैवी के पिता का मार्गदर्शन , लतिका का चंचल भरा प्रेम और एक अभिभावक की भूमिका , अमर के जीवन मे अनवरत रूप से आई हुई कठिनाइयां -- बहुत कुछ खुबसूरती से बयां किया हुआ है।
सेक्स की बात करें तो ऐसा नही था कि स्टोरी मे सेक्स नही था । सेक्स था लेकिन वो फूहड़ और असभ्य नही था।
रिश्तों की बात करें तो इस कहानी मे बहुत सारे ऐसे क्षण आए जब लोगों के रिश्ते पुरी तरह बदल गए ।
काजल इस स्टोरी मे भिन्न भिन्न किरदार के रोल मे नजर आई। इसके अलावा भी कुछ किरदार ऐसे थे जिनके रोल्स बदल गए , किरदार बदल गया और उनकी भूमिका भी बदल गई।
इस स्टोरी की एक खास विशेषता थी - सभी पात्र का मातृ दूध के प्रति आकर्षण और उसका पान । चाहे वो मर्द हो चाहे औरत ।
गांव और अपने रिश्तेदारों के बीच की शादी हमेशा एक सुखद एहसास लेकर आती है । बहुत बढ़िया लगा कि लतिका और अमर की शादी " चट मंगनी पट शादी " के तर्ज पर हुई । मेरा मानना है कि अगर मंगनी हो गया हो तो फिर शादी मे देर बिल्कुल ही नही करनी चाहिए । देर या लम्बा अंतराल प्रायः शादी मे विध्न पैदा करती है।
यह देखकर भी अच्छा लगा कि गैवी के अभिभावक उस जगह के साक्षी बने जहां उनकी लाड़ली की शादी हुई थी।
बहुत खुबसूरत समापन किया आपने इस अद्भुत स्टोरी का।
बहुत खुबसूरत कहानी थी आपकी।
जगमग जगमग।
क्या बहुत ही खूबसूरत लिखा है avsji मेने यहां जितनी भी स्टोरी पढ़ी उसमें से सबसे बेहतरीन लेखनी आपकी है। सुद्ध हिंदी में लगाता नही आपको कोई मात दे सकता है।
रोमांस की आपकी इस स्टोरी के शुरुवात से ही आपकी लेखनी कायल हो गई।
बहुत ही खूबसूरत लिखा हे। स्तनपान का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है।नींव - शुरुवाती दौर - Update 2
हमारे नेचुरल रहन सहन ही आदतों और मेरे माँ और डैड के स्वभाव और व्यवहार का मुझ पर कुछ दिलचस्प प्रभाव पड़ा। काफ़ी सारे अन्य निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के जैसे ही, जब मैं छोटा था, तो मेरे माँ और डैड मुझे नहाने के बाद, जब तक बहुत ज़रूरी न हो तब तक, कपड़े नहीं पहनाते थे। इसलिए मैं बचपन में अक्सर बिना कपड़ों के रहता था, ख़ास तौर पर गर्मियों के मौसम में। जाड़ों में भी, डैड को जब भी मौका मिलता (खास तौर पर इतवार को) तो मुझे छत पर ले जा कर मेरी पूरी मालिश कर देते थे और धूप सेंकने को कहते थे। बारिश में ऐसे रहना और मज़ेदार हो जाता है - जब बारिश की ठंडी ठंडी बूँदें शरीर पर पड़ती हैं, और बहुत आनंद आता है। अब चूँकि मुझे ऐसे रहने में आनंद आता था, इसलिए माँ और डैड ने कभी मेरी इस आदत का विरोध भी नहीं किया। मैं उसी अवस्था में घर के चारों ओर - छत और यहाँ तक कि पीछे के आँगन में भी दौड़ता फिरता, जहाँ बाहर के लोग भी मुझे देख सकते थे। लेकिन जैसा मैंने पहले भी बताया है कि अगर निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे ऐसे रहें तो कोई उन पर ध्यान भी नहीं देता। खैर, जैसे जैसे मैं बड़ा होने लगा, वैसे वैसे मेरी यह आदत भी कम होते होते लुप्त हो गई। वो अलग बात है कि मेरे लिए नग्न रहना आज भी बहुत ही स्वाभाविक है। इसी तरह, मेरे माँ और डैड का स्तनपान के प्रति भी अत्यंत उदार रवैया था। मेरे समकालीन सभी बच्चों की तरह मुझे भी स्तनपान कराया गया था। सार्वजनिक स्तनपान को लेकर आज कल काफी हंगामा होता रहता है। सत्तर और अस्सी के दशक में ऐसी कोई वर्जना नहीं थी। घर पर मेहमान आए हों, या जब माँ घर के बाहर हों, अगर अधिक समय लग रहा होता तो माँ मुझे स्तनपान कराने में हिचकिचाती नहीं थीं। जब मैं उम्र के उस पड़ाव पर पहुँचा जब अधिकांश बच्चे अपनी माँ का दूध पीना कम कर रहे या छोड़ रहे होते, तब भी मेरी माँ ने मुझे स्तनपान कराते रहने में कोई बुराई नहीं महसूस की। डैड भी इसके ख़िलाफ़ कभी भी कुछ नहीं कहते थे। दिन का कम से कम एक स्तनपान उनके सामने ही होता था। मुझे बस इतना कहना होता था कि ‘माँ मुझे दूधु पिला दो’ और माँ मुझे अपनी गोदी में समेट, अपना ब्लाउज़ खोल देती। यह मेरे लिए बहुत ही सामान्य प्रक्रिया थी - ठीक वैसे ही जैसे माँ और डैड के लिए चाय पीना थी! मुझे याद है कि मैं हमेशा ही माँ के साथ मंदिरों में संध्या पूजन के लिए जाता था। वहाँ भी माँ मुझे दूध पिला देती थीं। अन्य स्त्रियाँ मुझे उनका दूध पीता देख कर मुस्करा देती थीं। मेरा यह सार्वजनिक स्तनपान बड़े होने पर भी जारी रहा। माँ उस समय दुबली पतली, छरहरी सी थीं, और खूब सुन्दर लगती थीं। उनको देख कर कोई कह नहीं सकता था कि उनको इतना बड़ा लड़का भी है। अगर वो सिंदूर और मंगलसूत्र न पहने हों, तो कोई उनको विवाहिता भी नहीं कह सकता था।
एक बार जब माँ मुझे दूध पिला रही थीं, तब कुछ महिलाओं ने उससे कहा कि अब मैं काफी बड़ा हो गया हूँ इसलिए वो मुझे दूध पिलाना बंद कर दें। नहीं तो उनके दोबारा गर्भवती होने में बाधा आ सकती है। उन्होंने इस बात पर अपना आश्चर्य भी दिखाया कि उनको इतने सालों बाद भी दूध बन रहा था। माँ ने कुछ कहा नहीं, लेकिन मैं मन ही मन कुढ़ गया कि दूध तो मेरी माँ पिला रही हैं, लेकिन तकलीफ़ इन औरतों को हो रही है। उस रात जब हम घर लौट रहे थे, तो माँ ने मुझसे कहा कि अब वो सार्वजनिक रूप से मुझको दूध नहीं पिला सकतीं, नहीं तो लोग तरह तरह की बातें बनाएंगे। चूँकि स्कूल के सभी माता-पिता एक दूसरे को जानते थे, इसलिए अगर किसी ने यह बात लीक कर दी, तो स्कूल में मेरे सहपाठी मेरा मज़ाक बना सकते हैं। लेकिन उन्होंने कहा कि घर पर, जब बस हम सभी ही हों, तो वो मुझे हमेशा अपना दूध पिलाती रहेंगीं। वो गाना याद है - ‘धरती पे रूप माँ-बाप का, उस विधाता की पहचान है’? मेरा मानना है कि अगर हमारे माता-पिता भगवान् का रूप हैं, तो माँ का दूध ईश्वरीय प्रसाद, या कहिए कि अमृत ही है। माँ का दूध इतना लाभकारी होता है कि उसके महिमा-मण्डन में तो पूरा ग्रन्थ लिखा जा सकता है। मैं तो स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे माँ का अमृत स्नेह इतने समय तक मिलता रहा। मेरा दैनिक स्तनपान तब तक जारी रहा जब तक कि मैं लगभग दस साल का नहीं हो गया। तब तक माँ को अधिक दूध बनना भी बंद हो गया था। अब अक्सर सिर्फ एक-दो चम्मच भर ही निकलता था। लेकिन फिर भी मैंने मोर्चा सम्हाले रखा और स्तनपान जारी रखा। मेरे लिए तो माँ की गोद में सर रखना और उनके कोमल चूचक अपने मुँह में लेना ही बड़ा सुकून दे देता था। उनका मीठा दूध तो समझिए की तरी थी।
मुझे आज भी बरसात के वो दिन याद हैं जब कभी कभी स्कूल में ‘रेनी-डे’ हो जाता और मैं ख़ुशी ख़ुशी भीगता हुआ घर वापस आता। मेरी ख़ुशी देख कर माँ भी बिना खुश हुए न रह पातीं। मैं ऐसे दिनों में दिन भर घर के अंदर नंगा ही रहता था, और माँ से मुझे दूध पिलाने के लिए कहता था। पूरे दिन भर रेडियो पर नए पुराने गाने बजते। उस समय रेडियो में एक गाना खूब बजता था - ‘आई ऍम ए डिस्को डांसर’। जब भी वो गाना बजता, मैं खड़ा हो कर तुरंत ठुमके मारने लगता था। रेनी-डे में जब भी यह गाना बजता, मैं खुश हो कर और ज़ोर ज़ोर से ठुमके मारने लगता था। मेरा मुलायम छुन्नू भी मेरे हर ठुमके के साथ हिलता। माँ यह देख कर खूब हँसतीं और उनको ऐसे हँसते और खुश होते देख कर मुझे खूब मज़ा आता।
माँ मुझे दूध भी पिलातीं, और मेरे स्कूल का काम भी देखती थीं। यह ठीक है कि उनकी पढ़ाई रुक गई थी, लेकिन उनका पढ़ना कभी नहीं रुका। डैड ने उनको आगे पढ़ते रहने के लिए हमेशा ही प्रोत्साहित किया, और जैसे कैसे भी कर के उन्होंने प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में ग्रेजुएट की पढ़ाई पूरी कर ली थी। कहने का मतलब यह है कि घर में बहुत ही सकारात्मक माहौल था और मेरे माँ और डैड अच्छे रोल-मॉडल थे। मुझे काफ़ी समय तक नहीं पता था कि माँ-डैड को मेरे बाद कभी दूसरा बच्चा क्यों नहीं हुआ। बहुत बाद में ही मुझे पता चला कि उन्होंने जान-बूझकर फैसला लिया था कि मेरे बाद अब वो और बच्चे नहीं करेंगे। उनका पूरा ध्यान बस मुझे ही ठीक से पाल पोस कर बड़ा करने पर था। जब संस्कारी और खूब प्रेम करने वाले माँ-बाप हों, तब बच्चे भी उनका अनुकरण करते हैं। मैं भी एक आज्ञाकारी बालक था। पढ़ने लिखने में अच्छा जा रहा था। खेल कूद में सक्रीय था। मुझमे एक भी खराब आदत नहीं थी। आज्ञाकारी था, अनुशासित था और स्वस्थ था। टीके लगवाने के अलावा मैंने डॉक्टर का दर्शन भी नहीं किया था।
हाई-स्कूल में प्रवेश करते करते मेरे स्कूल के काम (मतलब पढ़ाई लिखाई) के साथ-साथ मेरे संगी साथियों की संख्या भी बढ़ी। इस कारण माँ के सन्निकट रहने का समय भी घटने लगा। सुन कर थोड़ा अजीब तो लगेगा, लेकिन अभी भी मेरा माँ के स्तन पीने का मन होता था। वैसे मुझे अजीब इस बात पर लगता है कि आज कल के बच्चे यौन क्रिया को ले कर अधिक उत्सुक रहते हैं। मैं तो उस मामले में निरा बुध्दू ही था। और तो और शरीर में भी ऐसा कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। एक दिन मैं माँ की गोद में सर रख कर कोई पुस्तक पढ़ रहा था कि मुझे माँ का स्तन मुँह में लेने की इच्छा होने लगी। माँ ने मुझे याद दिलाया कि मेरी उम्र के बच्चे अब न तो अपनी माँ का दूध पीते हैं, और न ही घर पर नंगे रहते हैं। ब्लाउज के बटन खोलते हुए उन्होंने मुझसे कहा कि हाँलाकि उनको मुझे दूध पिलाने में कोई आपत्ति नहीं थी, और मैं घर पर जैसा मैं चाहता वैसा रह सकता था, लेकिन वो चाहती थीं कि मैं इसके बारे में सावधान रहूँ। बहुत से लोग मेरे व्यवहार को नहीं समझेंगे। मैं यह तो नहीं समझा कि माँ ऐसा क्यों कह रही हैं, लेकिन मुझे उनकी बात ठीक लगी। कुल मिला कर हमारी दिनचर्या नहीं बदली। जब मैं स्कूल से वापस आता था तब भी मैं माँ से पोषण लेता था। वास्तव में, स्कूल से घर आने, कपड़े उतारने, और माँ द्वारा अपने ब्लाउज के बटन खोलने का इंतज़ार करना मुझे अच्छा लगता था। माँ इस बात का पूरा ख़याल रखती थीं कि मेरी सेहत और पढ़ाई लिखाई सुचारु रूप से चलती रहे। कभी कभी, वो मुझे बिस्तर पर लिटाने आती थी, और जब तक मैं सो नहीं जाता तब तक मुझे स्तनपान कराती थीं। ख़ास तौर पर जब मेरी परीक्षाएँ होती थीं। स्तनपान की क्रिया मुझे इतना सुकून देती कि मेरा दिमाग पूरी तरह से शांत रहता था। उद्विग्नता बिलकुल भी नहीं होती थी। इस कारण से परीक्षाओं में मैं हमेशा अच्छा प्रदर्शन करता था। अब तक माँ को दूध आना पूरी तरह बंद हो गया था। लेकिन मैंने फिर भी माँ से स्तनपान करना और माँ ने मुझे स्तनपान कराना जारी रखा। मुझे अब लगता है कि मुझे अपने मुँह में अपनी माँ के चूचकों की अनुभूति अपार सुख देती थी, और इस सुख की मुझे लत लग गई थी। मुझे नहीं पता कि माँ को कैसा लगता होगा, लेकिन उन्होंने भी मुझे ऐसा करने से कभी नहीं रोका। हाँ, गनीमत यह है कि उस समय तक मेरा घर में नग्न रहना लगभग बंद हो चुका था।
Avsji Bhai aap kahani likate rahiye.. koi padhe yaa naa padhe me avashya aapaki kahani padhata hu...
Aur har bar update ki pratiksha karta hu...
बहुत ही खूबसूरत लिखा हे। स्तनपान का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है।
जब भी आपका लेखन पढ़ने बैठे तो लगता है जैसे दृश्य सामने ही चल रहा हो। बहुत ही खूब।