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Erotica रंग -प्रसंग,कोमल के संग

komaalrani

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भाग ६ -

चंदा भाभी, ---अनाड़ी बना खिलाड़ी

Phagun ke din chaar update posted

please read, like, enjoy and comment






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तेल मलते हुए भाभी बोली- “देवरजी ये असली सांडे का तेल है। अफ्रीकन। मुश्किल से मिलता है। इसका असर मैं देख चुकी हूँ। ये दुबई से लाये थे दो बोतल। केंचुए पे लगाओ तो सांप हो जाता है और तुम्हारा तो पहले से ही कड़ियल नाग है…”

मैं समझ गया की भाभी के ‘उनके’ की क्या हालत है?

चन्दा भाभी ने पूरी बोतल उठाई, और एक साथ पांच-छ बूँद सीधे मेरे लिंग के बेस पे डाल दिया और अपनी दो लम्बी उंगलियों से मालिश करने लगी।

जोश के मारे मेरी हालत खराब हो रही थी। मैंने कहा-

“भाभी करने दीजिये न। बहुत मन कर रहा है। और। कब तक असर रहेगा इस तेल का…”

भाभी बोली-

“अरे लाला थोड़ा तड़पो, वैसे भी मैंने बोला ना की अनाड़ी के साथ मैं खतरा नहीं लूंगी। बस थोड़ा देर रुको। हाँ इसका असर कम से कम पांच-छ: घंटे तो पूरा रहता है और रोज लगाओ तो परमानेंट असर भी होता है। मोटाई भी बढ़ती है और कड़ापन भी
 

komaalrani

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अपडेट पोस्टेड


जोरू का गुलाम भाग १७८


डाक्टर गिल

जरूर पढ़ें
 

motaalund

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होली घर आंगन की , देवर का सिंगार पटार

( फागुन का दिन चार से )

किसी भाभी ने घड़ी देख ली और घबड़ाने लगी।

अरे एक बजने वाला है। अबहीं कालोनी में जाना है देर हो रही है।


हर साल होली की शुरूआत के बाद सभी ननद भाभियां, कालोनी में जहाँ से लड़कियां औरतें नहीं आ पाती थी वहां जाती थी और फिर उन सबकी ऐसी तैसी।

बस क्या था। पल भर में साड़ी वालियों ने अपनी साड़ी लपेट ली। कुछ के फटे ब्लाउज़ बचे थे वो भी पहन लिए। साया, ब्रा पैंटी तो सबके खेत रहे थे। टाप और स्कर्ट वालियों ने बस फटे टाप को किसी तरह ऊपर बाँध लिया। ब्रा पैंटी उनकी तो भाभियों ने चिथड़े चिथड़े कर दी थी। हाँ रंग से गीले होने से टाप और साड़ियां दोनों पारदर्शी हो गई थी और उभारों से एकदम चिपकी। लेकिन सबसे बुरी हालत मेरी थी।

मेरे तो सारे कपड़े फाड़ दिए गए थे। मैंने बोला- “मैं क्या पहनूंगा?”

तो एक लड़की बोली- “ऐसे ही चलिए…”

लेकिन भाभी ने गुड्डी की ओर देखा तो वो मेरी बचत में आ गई। मेरा पिछवाड़ाडा सहलाते हुए बोली,

" अरे नहीं अब ये मेरी जिम्मेदारी है। बीस आने में मेरी मम्मी ने खरीदा है बोली लगाकर। अगर किसी लौंडेबाज की नजर पड़ गई तो, रात तक चार बच्चो के माँ की तरह हो जायेगी। लेकिन मेरे पास लड़कों के कपड़े तो हैं नहीं। जो है वो। "

और थोड़ी देर में मेरा श्रृंगार उन दुष्टों ने मिलकर शुरू कर दिया और इसमें लड़कियां और भाभियां दोनों मिली थी-



रसिया को नार बनाऊँगी रसिया को।

सारा माहौल इसी गाने से गूंज गया था। मिश्रायिन भाभी और मेरी भाभी, सारी भाभियों को ललकार रही थी। और भाभियों के साथ लड़कियां भी इस अभियान में जुट गई थी। मैं बिचारा एक फटे पेटीकोट को, टावेल की तरह लपेट के, अपनी बची खुची लाज सम्हालने में लगा था।

और इस अभियान की पहल कर रही थी। और कौन- गुड्डी। वो एक पैकेट लेकर आई जिसमें एक साड़ी थी और भी बहुत कुछ, जिसके बारे में कल रात मैंने उससे पूछा था। तो उसने मुझे घुड़क दिया था- “तुमसे मतलब?”

और मेरी भाभी भी। मुश्कुराकर आँख नचाकर बोली, अरे मालूम हो जायेगा कल।

वो पैकेट जब खुला तो उसमें से क्या नहीं निकला।

वो सब स्प्रिंग लोडेड गहने, आर्टिफिशयल, जो कल गुड्डी ने मेरे पैसे से मुझसे ही खरीदवाये थे। चूड़ियां, मेकअप का सामान, ब्रा और एक और बंद पैकेट। गुड्डी के साथ उसकी ताजा बनी सहेली, लतिका (वही समोसेवाली) शामिल थी और लतिका ने एक-दो और लड़कियों को बुला लिया था की इसे नेल आर्ट्स बहुत अच्छी आती है। गाइडेंस रीतू भाभी की थी।

पैर के श्रृंगार में शीला भाभी और कालोनी की एक-दो और भाभियां। शीला भाभी ने तो महावर की पूरी बोतल मेरे दोनों पैरों पे खाली कर दी, खूब गाढा चौड़ा उनके साथ एक भाभी रच रच के ऐसे डिजाइन बना रही थी। जैसे गौने की दुल्हन के बनाते हैं (और अगले दिन उसकी ननदें चिढ़ाती हैं, जब दुल्हे के माथे पे वही महावर लगी नजर आती है। क्यों भाभी रात में भैया से पैर छुलवा रही थी क्या)

पैरों पे सुहागरात के पहले एक ग्राम्या का जो श्रृंगार होता है वो चल रहा था। तो मेरे हाथों पे लतिका और उस की हम उम्र सहेलियां हाथों में पूरा शहरी ब्यूटी पारलर खुल गया था। एक हाथ में लतिका तो दूसरे में उसकी सहेली। पिंक नेल पैंट डिजाइन बनाकर और साथ में कलाई तक वही डिजाइने। तब तक रीतू भाभी की निगाह मेरे तम्बू में बम्बू पे पड़ गई।

और लतिका से वो बोली- “अरे इसका इलाज तो कर…”


लतिका ने तने खड़े जंग बहादुर को देखा। तो पहले तो वीर बहूटी हो गई। फिर कुछ शर्माते कुछ लजाते बोली-

“ये तो। मैंने अभी तो किया। लेकिन इस पे तो कुछ असर ही नहीं पड़ता…”

रीतू भाभी हँसते-हँसते दुहरी हो गईं बोली
" तू तो ना मेरी पक्की ननद है। तुझे सपने में भी ना अपने भाइयों के खड़े औजार ही नजर आते हैं। अरे मेरे देवर का हथियार है ऐसे थोड़े ही सोने वाला है। मैं बताती हूँ।"


और उन्होंने लतिका की सहेली के बाल से उसके पिंक साटिन रिबन खोल लिए और लतिका को कुछ समझाया। फिर क्या था लतिका और उसके सहेली ने पहले तो फटे चिथड़े पेटीकोट का वो आवरण हटाया। दोनों के मुँह से एक साथ निकल गया वाउ। सो हाट।

रीतू भाभी ने प्यार से दोनों को हड़काया- अरे सालियों, छिनारों लार बाद में टपकाना। तेरा भाई है जब चाहे तब घोंट लेना। पहले जो बताया है वो काम करो। और वो दोनों किशोरियां, कच्ची कलियां काम पे लग गई। वो दोनों झुकी 'अपने काम' में लगी थी।

और मैं उनके फटे, टाप्स से झांकते बड़े-बड़े टिकोरे निहार रहा था।

और तभी उन दोनों की बात से पता चला की दोनों नवीं में गई थी अभी। और उनकी क्लास की चंडाल चौकड़ी ने ये तक किया था की जिसकी पहले फटेगी। वही क्लास की हेड गर्ल बनेगी और लतिका की सबसे पहले फटी। और भाभियों के साथ कित्ती उसकी सहेलियों के फोन पे उसका वीडियो सबूत था। वो दोनों इसका मतलब गूंजा और गुड्डी की मझली बहन के बराबर उम्र की थी। इसका मतलब उन दोनों सालियों पे भी मैं नंबर लगा सकता था।

लतिका जोर से मेरे जंगबहादुर को दबाकर मेरे जांघ से चिपका के सटाए हुए थी। और उसकी सहेली (रीमा नाम था उसका) उसे अपनी गुलाबी रिबन से मेरे जांघ से बाँध रही थी कसकर। रिबन खतम हो गया। लेकिन मेरा आठ इंची का सुपाड़ा अभी भी खुला था। लतिका की सहेली उससे भी एक हाथ आगे थी बोली- यार एक आइडिया है और मेरे खुले सुपाड़े से झांकते पी-होल (मूत्र छिद्र) के ठीक नीचे उसने गुलाबी लिपस्टिक से एक स्माइली बना दी।

दोनों किशोरियां खुलकर खिलखिला के हँसी अपने बाड़ी आर्ट को देखकर। लेकिन लतिका बोली यार ये खुल सकता है कुछ और करना पड़ेगा और उसकी निगाह रीमा की कमर की ओर पड़ी। रीमा ने मुश्कुराते हुए ना ना कहा। लेकिन लतिका कहाँ सुनाने वाली थी। उसने दोनों हाथों से उसकी स्कर्ट उठायी और थांग खिंच दी। बस दो इंच की गुलाबी, लेसी पट्टी की तरह।

और रीमा का भरत पुर भी एकदम मस्त चिक्कन मक्खन, गुलाबी बस दो-चार ताजा निकलेकरसर के फूल की तरह सुनहली बस निकलती हुई झांटे। उसे देखकर जंग बहादुर एकदम विप्लव पे उतारू। दोनों किशोरियों ने तुरंत थांग से उसे दुबारा रैप किया और तब तक गुड्डी आ गई उनकी सहायता करने को। आखीरकार, जंग बहादुर की मालेकिन तो वही थी।


वो एक मेडिकल टेप का बण्डल लायी थी। और अब तीनों ने मिलकर उसे अच्छी तरह कसकर टेप कर दिया। रीमा की निगाहें आँगन में कुछ ढूँढ़ रही थी। और उसने किसी ननद की पैंटी देख ली। आँगन फटी चिथड़ी ब्रा पैंटी पेटीकोट से पटा पडा था।

और वो एक पैंटी उठाकर ले आई और तीनों ने मिलकर मुझे पहना दिया और जोर से हाई फाइव कर के बोली- अब ये बच्चू काबू में आ गए और उसके बाद वो तीनों काम पे जुट गईं। वही चूडियां जो कल गुड्डी ने मुझसे खरीदवाई थी, लाल हरी। लतिका और रीमा तो चूड़ी पहनाने वालियों को भी मात कर रही थी। वही चिढ़ाना, वही अदा, उसी तरह उंगलियों को मोड़कर एक के बाद एक चूड़ी। मैंने एक-दो के बाद मना कर दिया। तो गुड्डी ने चढ़ाया उन दोनों को-

“अरे कल ये खुद खुशी खुशी अपनी पसंद से खरीद के ले आये थे। अब नखड़ा बना रहे हैं, पहनाओ कुहनी तक…”
ये जो झुंड से बाहर जाकर जो मजे लिए..
उनका छोटा मोटा जिक्र संभव था क्या...
 

motaalund

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रसिया को नार बनाओ जी,




गुड्डी ने चढ़ाया उन दोनों को- “अरे कल ये खुद खुशी खुशी अपनी पसंद से खरीद के ले आये थे। अब नखड़ा बना रहे हैं, पहनाओ कुहनी तक…”

उन दोनों को तो बस। गाँव की नई दुलहन की तरह सिरफ चूड़ियां ही नहीं कंगन, बाजूबंद। लतिका (वही 'समोसेवाली') ने छेड़ा। अरे रात भर चुरुमुर करेगी ये चूड़ियां। उधर आँगन में भाभियां लहक लहक के गा रही थी-



रसिया को नार बनाओ जी, रसिया को।

सिर पे उढ़ाय सुरंग रंग चुनरी।

अरे सिर पे उढ़ाय सुरंग रंग चुनरी।

उर चोली पहनाओ री

रसिया को नार बनाओ जी, रसिया को।




साथ में रीमा, लतिका, गुड्डी और एक-दो भाभियां कल जो गुड्डी आर्टिफिशियल ज्वेलरी खरीद के लायी थी। बस उसे पहनाने में जुटी थी। चूड़ी, कंगन और बाजूबंद के बाद अब नाक और कान का नम्बर था, रीमा ने कान में बड़े-बड़े झुमके पहनाये और लतिका ने छोटी सी नथुनी। एकदम सोने की लग रही थी। बीच में छोटा सा मोती।

मुझे चिढ़ाते हुए बोली,

" आप ने मेरी नथ उतारी और मैं आपको नथ पहना रही हूँ। "

लतिका और रीमा वास्तव में मेकअप में एक्सपर्ट थी। हाई चीक बोनस बना दी उन्होंने फिर रीमा ने आँखों का जिम्मा लिया। मस्करा, लाइनर, काजल कुछ भी नहीं छोड़ा और लतिका ने होंठों पे लाइनर, लिपस्टिक, लिप ग्लास, एकदम लड़की टाइप जैसे ब्राइडल मेकअप करते हैं वैसे।

उधर रीतू भाभी ने पैरों में चौड़ी, एक हजार घुंघरु वाली पाजेब पहना दी। मैंने बिछुआ पहनने में जो कुछ नाटक किया। तो डांट पड़ गई। और किसकी। गुड्डी की। सुहागिन की निशानी है ये। खबरदार और पांचो उंगलियों में घुँघर वाला बिछुआ। और उधर शीला भाभी ने मुझे चिढ़ाते हुए गाना शुरू कर दिया। मेरी भाभी भी साथ में और बाकी भी। यहाँ तक की रीमा और लतिका भी-




अरे घुंघुर वाला बिछुआ अजबे बना, अरे छोटे घुंघुर वाला।

ये बिछुआ पहने हमरे आनंद की बहना अरे देवर की बहना।

इ बिछुआ पहने रंजी छिनारी, अरे साल्ली रंजी छिनरी

अरवट बाजे, करवट बाजे, अरे चौका पे रोटी बेलावत बाजे

अरे टंगिया उठाय चुदावत बाजे, हमरे देवर के संग चुदावत बाजे

लौड़ा रोज पेलावत बाजे, अरे छोटे घुंघुर वाला।




अब कपड़ों का नम्बर आया और शीला भाभी ने गुड्डी जो साड़ी लायी थी और आँगन से किसी भाभी का गिरा पेटीकोट उतारकर पहना दिया। चोली पहनाने का काम गुड्डी ने किया लेकिन सब लोग चिल्लाये अरे पहले अन्दर वाला।

गुड्डी हँसकर बोली मुझे याद है बस नाप रही थी और फिर ब्रा। वही जो दुकान पे सेल्सगर्ल ने मुझसे मेरी बनियाइन का नंबर पूछ के दिया था बस वही पैकेट। मेरी भाभी भी मैदान में पीछे नहीं थी। गुड्डी से बोली। अरे तुझे कल कुछ बोल था ना बाजार से लाने के लिए।


गुड्डी बोली,

अरे आप घबड़ाए मत। आपके देवर का श्रृंगार कम लिंग परिवर्तन पूरा होगा। गारंटी कोई पहचान नहीं सकता। शाम को कालीन गंज (मेरे शहर का रेड लाईट एरिया) में इनको बैठा दीजियेगा तो सौ दो सौ कमा लायेगे।

उसने अपना बंद पैकेट खोलकर दो टेनिस की बाल निकाली उस पे दो बहुत छोटी-छोटी कंचे की गोलिया चिपकाई। उन्हें ब्रा के अंदर रखकर टेप से चिपका दिया। और अब वो हाफ कप पुश अप पैडेड ब्रा, के अनार जब चिपक गए तो लतिका के साथ मिलकर मुझे पहले वो पहनाया फिर चोली।

“हे अभी एक चीज बची है। दुल्हन का सिंदूरदान तो हुआ ही नहीं।

उस काम के लिए और कौन आता। गुड्डी ने ढेर सारा सिन्दूर मेरी सीधी मांग में भर दिया। कुछ क्या काफी कुछ मेरे नाक पे गिर गया…” गुड्डी ने चिढ़ाया।

फिर शीला भाभी ने- “अरे सास बहुत प्यार करेगी तोहका। जिस दुलहन की नाक पे सिन्दूर गिर जाता है ना उस की सास उस को हर तरह से प्यार करती है…”

गुड्डी ने सिन्दूर की डिबिया फिर लतिका और रीमा को भी पकड़ा दी। बोली-

“चल चल मैं मिल बाँट के खाने में विश्वास रखती हूँ, और जब तेरी शादी हो जायेगी न तो नंदोई पे पहले मैं नम्बर लगाऊँगी…”

किसी भाभी ने बोला- “अरे शादी होने में तो बहुत दिन लगेगा इन दोनों के…”

गुड्डी हँसकर बोली- “अरे यारों की तो लाइन लगी रहेगी ना। तो टेम्पोरेरी नंदोई ही सही…”

रीमा और लतिका ने भी एक एक चुटकी सिन्दूर डाल ही दिया। रीमा के गाल पिंच कर के मैं बोला- “हे सिंदूर दान तो हो गया अब सुहागरात?”

वो भी डरने वाली नहीं थी, हँसकर बोली- “जब चाहिए…”

हम लोगों की टोली घर से बाहर निकलकर के कालोनी में पहुँची। निकलने के पहले मुझे गुड्डी ने शीशा दिखाया। मैं खुद को नहीं पहचान पाया। मुझे भाभियों की टीम में शामिलकर लिया गया था और मिश्रायिन भाभी सबसे ये बोलती थी की मैं भाभी के मायके की हूँ।
टोली में एक से एक खतरनाक...
लेकिन लतिका तो लौलिता से भी बढ़कर लगी...
 

motaalund

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कालोनी की होली

(फागुन के दिन चार से)



होली का माहौल मोहल्ले में और भी रंगीन था। और जब हम लोगों की टोली घर से निकली जोबन के मद से मदमाती, गदराती, खेली खायी भाभियां, तितली सी उड़ती, चिड़िया सी चहकती, उछलती, मचलती, उनकी ननदें और लड़कियां।

पुराना जमाना होता तो राजा इन्दर के अखाड़े की, लालपरी और सब्जपरी की उपमा शायद ठीक होती। लेकिन अभी तो ये कहा जा सकता है की जैसे किसी चैनेल की या फिल्मी होली पार्टी से स्टार होने वाली स्टार रंगों में लथपथ निकलती है। बस इसी तरह रंग के साथ भंग और वोदका और रम के नशे में चूर। फर्क सिर्फ ये था की इस टोली की होली तन और मन की भी हुई थी। शायद ही किसी के कपड़े फटने से बचे हों और जो थोड़े बहुत थे। वो बस सारे उभारों से चिपके, कटावों को झलकाते और आग लग रहा थे। सब लाल गुलाल लग रहा था पलाश के दहकते, जलते वन ही चले आ रहे हो हों। वो गाल जिन्हें छूने के लिए सूरज की किरणें भी इजाजत मांगती थी, जिन्हें देखकर गुलाब भी शर्मा जाते थे। जिनके बारे में ये कहा जाता था।




अल्लारे उनके फूलों-से गालों की ताजगी,

धूप आइने की देखकर कुम्हलाये जाती है।




वो रंगों से लाल पीले। खूब रगड़े मसले रुखसार होली की मस्ती से दहक रहे थे। जिन स्कूल जाती लड़कियों से नए आये जोबन का उभार, निखार सम्हाले नहीं सम्हलता था। बार-बार दुपट्टा इस कदर इस रूप से डालती थी की किसी लड़के की नजर न पड़ जाए। भाभियों ने उनके जोबन ऐसे लुटे थे। अब दुपट्टे और ब्रा ने तो साथ छोड़ा, टाप, फ्राक भी फटी चिथड़ी, रंगों से चिपकी, उन नए आये उभारों को नुमायां ज्यादा कर रही। और छुपा कम रही थी। और उनके चलने का अंदाज भी बता रहा थी की इस होली में वो कैशोर्य के आँगन से बाहर निकलकर, भोलेपन की दहलीज पारकर अब शोख अदाओं, छेड़खानी और मनुहार के, इस तरह से ना कहने की अदा की अगला समझ जाय की वो हाँ ही है, जवानी के मजे लेने की मस्त दुनियां में आ गई थी और छुपा कम रही थी गौने के रात की बाद दुल्हन की जो हाल होती है।






उसे लगता है हर निगाह उसकी रात की गुस्ताखियों का शोखियों का हर कदम के साथ स्वाद ले रही है,



आज बिरज में होरी रे रसिया, होरी रे रसिया बरजोरी से रसिया,

अपने अपने घर से निकरी कोई सांवर कोई गोरी रे रसिया।




और घर से बाहर निकलते ही। होली है के नारे हुड़दंगियों की टोली। गली के दोनों और छतों पे जो लड़कियों औरतों का झुण्ड था। बाल्टियों से पानी और रंग, पिचकारियों की फुहारे, रंगों भरे गुब्बारे, तन मन और गीला हो गया।

मैं रीतू भाभी, लतिका और रीमा के साथ था और गुड्डी सीधे मिश्रायिन भाभी की अंडरस्टडी के तौर पे और मिश्रायिन भाभी ने जो गुर आज तक किसी को नहीं सिखाये थे, अपनी इस पटु शिष्या को ना सिर्फ सिखाये बल्की अपने सामने करवाए भी।

गुड्डी अपने से उम्र में चौदह साल बड़ी, शादीशुदा ससुराल से कबड्डी खेलकर आई, एक से एक तीस-बत्तीस साल की प्रौढ़ा, ननदों को भी पछाड़ रही थी। लेस्बियन रेसलिंग, होली की गालियां हो या एक साथ होली की हूँ तू तू में अकेले ननदों के झुरमुट में घुस के दो-चार के कपड़े फाड़कर आना हो। गुड्डी की जोश और स्फूर्ति और मिश्रायिन भाभी की ट्रेनिंग और ट्रिक। उसके उम्र वाली कमसिन कन्यायें तो वैसे ही हाथ खड़ी कर देती थी। कर लो जो करना हो।

लड़कियों की इस होली में आदमी नहीं घुसते थे। हाँ दूर से देह से भीगे चिपके रंग से लथपथ कपड़ों में कटाव, उभार, झलकते हुए जोबन, एक दूसरे से जूझती औरतें लड़कियां, कपड़े के अन्दर हाथ डालकर गोलाईयां मिजवाती नापती, दबाती, मीजती, लड़कियां।





वो देखना ही उनके लिए होली का अनन्य सुख था।


हाँ हम लोगों की टोली, पीछे के रास्ते से कालोनी में गई तो इसलिए होली के हुड़दंगियों, हुरियारों से तो हम बचे रहे। लेकिन अगर कोई इक्का दुक्का कम उमर का लड़का पकड़ में आ गया तो भाभियां उसे रगड़े बिना नहीं छोड़ती थी। आखीरकार, देवर जो लगता। पैंट के अन्दर भी, आगे भी पीछे भी और उससे उसके बहन की नाम की दस पांच गालियां दिलवा के ही उसे छोड़ती।

लेकिन मेरा बड़ा फायदा हो गया, लतिका और रीमा के चलते। कालोनी में जहां कोई रंगीन बाला दिखती, जवानी के देहलीज पे खड़ी, थोड़ी लजाती, सकुचाती, झिझकती, शर्माती। उसकी रगड़ाई और सब कुछ। 'सिखाने दिखाने' का काम मेरा।

लतिका मुझे समझाती, उकसाती।


ये नीले फ्राक वाली, बहुत सीधी बनती है, कहती है इसको ऐसी वैसी बातें पसंद नहीं, लड़कों के नाम से कन्नी काटती है, छूने को छोडो कोई लड़का कमेंट भी पास कर दे तो एफ आई आर लेकर खड़ी हो जाती है।



बस दो-चार भाभियां उसे दौडातीं, जैसे हांका करते हैं। वो हिरणी भागकर लतिका और रीमा की और दौड़ती और मैं पीछे से उसे गपुच लेता। मेरा बायां हाथ काफी होता उसके हाथ पकड़ने के लिए। फिर मैं उसे थोड़ी देर छटपटाने देता और जब वो थक हार के खड़ी हो जाती।

तो पहले तो गोरे गोरे किशोर गालों का रस, और साथ में उसके कानों में ऐसी वैसी बातें जो वो अपनी सहेलियों से करने में शर्माती सकुचाती, गोलाइयों की नाप। किसने और कितनों ने उसके जोबन का रस लूटा है। वो धत्त धत्त करती रहती और मैं कहता चल कोई बात नहीं मैं खुद नाप लेता हूँ और फिर गीले देह से पहले तो ऊपर से जोबन रस का सुख और फिर एक झटके में फ्राक के अंदर हाथ।




मुसीबत में जैसे दोस्त भी साथ छोड़ देते हैं। उसी तरह फ्राक के बटन भी चट चट और मेरा हाथ अन्दर। जो नीति भाभियों ने मेरे घर के आँगन में की थी ननदों को ब्रा के कवच से मुक्त करने की। पहले वो और फिर गोरे कबूतर। उनके पंख लाल पीले रंगे जाते। पक्के रंगों से। खास तौर पे जब उन कबूतरों की ललछांह चोंच मैं दबाता, दबोचता, तो जिस तरह वो सिसकती चीखती। लतिका, रीमा से छुड़ाने की गुहार करती। लेकिन वो दोनों शोख हँसती, मुझसे कहती की जरा कबूतरों को हवा तो खिलाओ, पिंजरे से साल बरस के दिन, बाहर तो निकालो। और मैं कौन होता था मना करने वाला। चरर्र। फ्राक का ऊपरी हिस्सा फट के मेरे हाथ में, रंगा पुता कबूतर बाहर।

और साथ में लतिका और रीमा के हाथ में मोबाइल। स्नैप स्नैप। उड़ने को बेताब गोरे गुदाज कबूतर। मेरे हाथों से दबे मसले जा रहे कबूतर।

और फिर वो किशोरी कबूल कर लेती लतिका और रीमा के गैंग को जवाइन करने के लिए। लेकिन बचत इतने से भी नहीं। उसी के साथ मेरा दूसरा हाथ पैंटी का दुश्मन। उसे भी अलग कर लेता और उंगलियां सीधे रसमलाई का रस ही नहीं लेती, उसे चाट चाट कर उसे दिखाती। भरतपुर स्टेशन के अन्दर घुसकर जब तक वहां भी रंगाई पुताई न हो। वो नहीं बचती।

और फिर लतिका रीमा के साथ वो मिलकर अगला शिकार खुद पकड़वाती और ब्रा पैंटी फाड़ने का जिम्मा उसका। जैसे कई चिट फंड स्कीम में होता है की आप जिसे मेंबर बनायंगे, जब वो नया मेंबर बना लेगा तो आपका फायदा बस वही और फिर मोबाइल का इश्तेमाल, अन कहीं धमकियां और असली बात लड़कियों के झुरमुट में होली के मंजर में सब रंगी पुती भंग के नशे में मस्त। कौन देखता है कौन क्या कर रहा है और जो पहरेदार थी वो भी तो किसी और के साथ वही सब कर रही थी।



शायद ही कालोनी की कोई लड़की बची होगी जिसके उरोज कितने गदरा गएं हैं, कटाव, उभार कैसे हैं। मेरी उंगलियों ने नहीं देखा या रसमलाई का रस नहीं लिया। जो बड़ी उम्र की लड़कियां या शादी शुदा ननदें थी वो बाकी भाभियों के जिम्मे और कच्ची कली कचनार की। को होली का रस और देह का सुख सिखाने की जिम्मेदारी मेरी।
ऐसा लगता है कि कभी ये खत्म हीं ना हो....
 

motaalund

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होली हो ली








शायद ही कालोनी की कोई लडकी बची होगी जिसके उरोज कितने गदरा गएं हैं, कटाव, उभार कैसे हैं। मेरी उंगलियों ने नहीं देखा या रसमलाई का रस नहीं लिया। जो बड़ी उम्र की लड़कियां या शादी शुदा ननदें थी वो बाकी भाभियों के जिम्मे और कच्ची कली कचनार की। को होली का रस और देह का सुख सिखाने की जिम्मेदारी मेरी।




लेकिन ये वर्क डिस्ट्रीब्यूशन कोई पक्का नहीं था। अगर कोई ज्यादा हाथ पैर मारती। तो बस उस बछेड़ी के हाथ पैर बाँधकर जो हालत मेरे आँगन में लतिका की हुई थी वही सब गत। भाभियों के सहयोग से उसकी भी। हम लोग कुछ देर तो घर के बाहर होली खेलते और अगर किसी घर से कोई ननद भाभी निकलने में संकोच देर करती तो उसी के आँगन में घुस के और आँगन में तो और आड़ मिल जाती। और अगर किसी नई नवेली भाभी को देखकर मेरा मन मचलता तो मैं दल बदलने में कुछ भी संकोच नहीं करता और लतिका रीमा के ग्रुप में। उस भाभी के साथ भी देह रस की होली। उस घर से निकलने पे वहां की भी ननद भाभी साथ। और फिर अगले घर में कपड़े फाड़ने की जिम्मेदारी उनकी।

हर घर में गुझिया भी खानी पड़ती और ठंडाई भी कहने की बात नहीं सब भांग से लैस। मन का रस, तन का रस होली का रस सब दूना।



होली का समापन हुआ मिश्रायिन भाभी के घर में और बस ये समझिये की वहां जो हुआ न लिखने काबिल न पढ़ने के। बस आप सोच सकते हैं की मेरे आँगन में जो हुआ था। उसका आधा भी नहीं था। जो अपने रिबन से रीमा और लतिका ने जंगबहादुर को बाँधा था, उसे उन्हीं दोनों ने मुक्त किया। फर्क सिर्फ इतना था की किसी ने बोल दिया की दो बजे से शायद पानी चला जाएगा। इसलिए आधे घंटे में ही हम वहां से निकल लिए लेकिन उन आधे घंटे में।

भाभियों ने ननदों की पकड़ पकड़कर रगड़ाई की आँगन में नचाया। और फिर जोड़ा बनाकर, देख तेरे भैया ऐसे करते हैं।



शायद कोई लिखता तो काम सूत्र में दो-चार नए आसन जोड़ देता और कई के साथ तो दो दो। चल मेरे मायके चलेगी ना, तो मेरे दोनों भाई मिलकर तेरे साथ ऐसे।

जब हम घर पहुँचे तो होली के रंगों के साथ पानी जाने का डर भी था। भैया आ चुके थे और नहा धोकर अपने कमरे में ऊपर। दो बाथरूम थे नहाने वाले चार। मैं, गुड्डी, शीला भाभी और मेरी भाभी (मंजू बाहर अपने कमरे में चली गई थी)।

बस बीस मिनट रह गए थे पानी जाने में। भाभी ने एक बाथरूम का दरवाजा खोलकर मुझे ठेला और फिर गुड्डी को और दरवाजा बंद कर दिया। दूसरे में वो और शीला भाभी साथ-साथ नहाने चली गईं। गुड्डी पे भांग का जबर्दस्त नशा चढ़ा था। मेरे गाल पे पिंच करके बोली- 44यार तू साल्ली इतना जबर्दस्त माल लग रही थी ना। आज पहली बार मुझे अफसोस हुआ की मैं लड़का क्यों ना हुई।

मैंने उसे चूम के चिढ़ाया। चल चल। ये कहाँ से मिलता। मैंने उसे अपने खूंटे की ओर इशारा कर के कहा।

वो हँसकर बोली। इतना मत अकड़। मिश्रायिन भाभी के पास एक से एक डिल्डो हैं। एक-दो तो किंग साइज। एकदम तेरे साइज का है। स्ट्रैप आन। बस लगाओ, निहुराओ, घुसाओ।

थोड़ी देर में हम दोनों शावर के नीचे थे। मैंने गुड्डी को एक ज्ञान की बात बताई-

“चल पहले शैम्पू लगाकर सिर के रंग निकाल ले। कालोनी में सबने खूब सूखा रंग बालों में डाला था। वरना वही रंग…”

गुड्डी मेरी बात काटकर बोली-


“चलो निहूरो। हाँ एकदम बड़ी प्रैक्टिस की है बचपन में लगता है स्कूल में। हाँ। और अरे यार जैसे तेरी सास निहुरायेंगी। कोहबर में नथ उतारने के लिए। बस वैसे। एकदम सही। बहुत मन कर रहा है लगता है सास से कोहबर में नथ उतरवाने का तेरा।

और बात करते-करते। मेरे पिछवाड़े पहले एक उंगली, फिर दूसरी उंगली। और थोड़ी देर में उसने अपनी अंजुरी मेरे सामने कर दी। लाल काही रंग से भरी। देखा। सबसे ज्यादा सूखा रंग तेरी भौजाइयों ने कहाँ डाला था। आँख नचाकर बोली वो और फिर सीधे हैंड शावर का नोजल वहां और फूल फोर्स। रंगों की धारा बह रही थी। तरह-तरह के रंग।

मुझे मंजू की बात याद आई। जब मैंने उससे पूछा था कितना रंग लाऊं तो वो बोली की लाला, आधा किलो तो तुम्हारे लग जाएगा। एक पाव तोहरी गाण्ड में और एक पाव तोहरी बहन, काव नाम है ओकर हाँ। रंडी ओकर भोंसड़ा में।

रगड़-रगड़कर हम लोगों ने एक दूसरे के रंग छुड़ाये। बाकियों के रंग तो उतर गए। लेकिन गुड्डी का रंग और पक्का हो गया। सात जनम तक न उतरने वाला।

कपड़े भी हमने कमरे में साथ-साथ चेंज किये। उसने प्याजी रंग का एक नया शलवार सूट पहना और मेरे लिए। एक खूब काम किया हुआ चिकन का गुलाबी लखनवी कुरता पाजामा निकालकर किचेन में चली गई। भाभी का हाथ बटाने खाना निकालने के लिए।
रंग उतरने वाला भले हीं ना हो...
लेकिन चढने वाला तो चढ़ेगा हीं...
 

motaalund

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मेरे देवर कम नंदोई,

सदा सुहागन रहो, दूधो नहाओ पूतो फलो,

"तुमने बोला था की इस बार होली पे जरूर आओगे और हफ्ते भर रहोगे तो क्या हुआ। देवर भाभी की होली तो पूरे फागुन भर चलती है और इस बार तो मैंने अपने लिए एक देवरानी का भी इंतजाम कर लिया है, वही तुम्हारा पुराना माल। न सतरह से ज्यादा न सोला से कम। क्या उभार हो रहे हैं उसके। मैंने बोला था उससे की अरे हाई स्कुल कर लिया इंटर में जा रही तो अब तो इंटरकोर्स करवाना ही होगा, तो फिस्स से हँसकर बोली- “अरे भाभी आप ही कोई इंतजाम नहीं करवाती। अपने तो सैयां, देवर, ननदोइयों के साथ दिन रात और। तो उसकी बात काटकर मैं बोली अच्छा चल आ रहा है होली पे एक, और कौन तेरा पुराना यार, लम्बी मोटी पिचकारी है उसकी और सिर्फ सफेद रंग डालेगा। एकदम गाढ़ा बहुत दिन तक असर रहता है। तो वो हँसकर बोली की अरे भाभी आजकल उसका भी इलाज आ गया है चाहे पहले खा लो चाहे अगले दिन। वो बाद के असर का खतरा नहीं रहता, और हाँ तुम मेरे लिए होली की साड़ी के साथ चड्ढी बनयान तो ले ही आओगे, उसके लिए भी ले आना और अपने हाथ से पहना देना। मेरी साइज तो तुम्हें याद ही होगी। मेरी तुम्हारी तो एक ही है। 34सी और मालूम तो तुम्हें उसकी भी होगी। लेकिन चलो मैं बता देती हूँ। 30बीबी हाँ होली के बाद जरूर 32 हो जायेगी…”



मैं समझ गया की भाभी चिट्ठी में किसका जिकर कर रही थी, मेरी कजिन। हाईस्कूल का इम्तहान दिया था उसने। जब से भाभी की शादी हुई थी तभी से उसका नाम लेकर छेड़ती थी। आखिर उनकी इकलौती ननद जो थी। शादी में सारी गालियां उसी का बाकायदा नाम लेकर, और भाभी तो बाद में भी प्योर नानवेज गालियां। पहले तो वो थोड़ा चिढ़ती लेकिन बाद में। वो भी कम चुलबुली नहीं थी।

कई बार तो उसके सामने ही भाभी मुझसे बोलती, हे हो गई है ना लेने लायक। कब तक तड़पाओगे बिचारी को कर दो एक दिन। आखिर तुम भी 61-62 करते हो और वो भी कैंडल करके, आखिर घर का माल घर में। पूरी चिट्ठी में होली की पिचकारियां चल रही थी। छेड़-छाड़ थी,मान मनुहार थी और कहीं कहीं धमकी भी थी।

मैंने चिट्ठी आगे पढ़ना शुरू किया

माना तुम बहुत बचपन से मरवाते, डलवाते हो और जिसे लेने में चार बच्चों की माँ को पसीना आता है वो तुम हँस हँसकर घोंट लेते हो। लेकिन अबकी होली में मैं ऐसा डालूंगी ना की तुम्हारी भी फट जायेगी, इसलिए चिट्ठी के साथ 10 रूपये का नोट भी रख रही हू, एक शीशी वैसलीन की खरीद लेना
और अपने पिछवाड़े जरूर लगाना, सुबह शाम दोनों टाइम वरना कहोगे की भाभी ने वार्निंग नहीं दी…”




लेकिन मेरा मन मयूर आखिरी लाइनें पढ़कर नाच उठा-

अच्छा सुनो, एक काम करना। आओगे तो तुम बनारस के ही रास्ते। रुक कर भाभी के यहाँ चले जाना। गुड्डी का हाईस्कूल का बोर्ड का इम्तहान खतम हो गया है। वो होली में आने को कह रही थी, उसे भी अपने साथ ले आना। जब तुम लौटोगे तो तुम्हारे साथ लौट जायेगी…”




चिठ्ठी के साथ में 10 रूपये का नोट तो था ही एक पुडिया में सिंदूर भी था और साथ में ये हिदायत भी की मैं रात में मांग में लगा लूं और बाकी का सिंगार वो होली में घर पहुँचने पे करेंगी। आखिरी दो लाइनें मैंने 10 बार पढ़ीं और सोच सोचकर मेरा तम्बू तन गया

गुड्डी- देखकर कोई कहता बच्ची है। मैं भी यही समझता था लेकिन दो बातें। एक तो असल में वो देखने से ऐसी बच्ची भी नहीं लगती थी, सिवाय चेहरे को छोड़के। एकदम भोला। लम्बी तो थी ही, 5’3” रही होगी। असली चीज उसके जवानी के फूल, एकदम गदरा रहे थे, 30सी।


( फागुन के दिन चार से )
शायद ये पहली कहानी है जो नायक के परिप्रेक्ष्य से लिखी गई है...
 

motaalund

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फगुनाहट


( फागुन के दिन चार से )

गुड्डी और गुंजा



“तुम ना क्या? अरे गुड मार्निग जरा अच्छे से होने दो न…” और अबकी मैंने और कसकर उसके मस्त किशोर उरोज दबा दिए।

उसकी निगाह मेरे नीचे, साड़ी कम लूंगी से थोड़ा खुले थोड़ा ढके ‘उसपे’ वो कुनमुनाने लगा था, और क्यों ना कुनमुनाए। जिसके लिए वो इत्ते दिनों से बेकरार था वो एकदम पास में बैठी थी। मेरा एक हाथ उसके उभार पे था। उसकी ओर इशारा करते हुए मैंने गुड्डी से कहा-

“हे जरा उसको भी गुड मार्निग करा दो ना। बेचारा तड़प रहा है…”

“तड़पने दो। तुमको करा दिया ना तो फिर सबको…” वो इतरा के बोली। लेकिन निगाह उसकी निगाह अभी भी वहीं लगी थी।

‘वो’ तब तक पूरा खड़ा हो गया था। मैंने झटके से गुड्डी का सिर एक बार में झुका दिया और उसके होंठ कपड़े से आधे ढके आधे खुले उसके ‘सुपाड़े’ पे। मेरा हाथ कस-कसकर उसके गदराये जोबन को दबा रहा था।

उसने पहले तो एक हल्की सी फिर एक कसकर चुम्मी ली वहां पे, और बड़ी अदा से आँख नचाकर खड़ी हो गई और जैसे ‘उसी’ से बात कर रही हो बोली- “क्यों हो गई ना गुड मार्निग। नदीदे कहीं के…” और फिर मुड़कर मेरा हाथ खींचते हुए बोली-

“उठो ना इत्ती देर हो रही है, सब लोग नाश्ते के लिए इंतजार कर रहे हैं…”




“जानू इंतजार तो हम भी कर रहे हैं…” हल्के से फुसफुसाते हुए मैं बोला।



जोर से मुश्कुराकर वो उसी तरह फुफुसाते हुए बोली-


“बेसबरे मालूम है मुझे। चल तो रही हूँ ना आज तुम्हारे साथ। बस आज की रात। थोड़ा सा ठहरो…” और फिर जोर से बोली-

“उठो ना। तुम भी। सीधे से उठते हो या…”

मैं उठकर खड़ा हो गया। लुंगी ठीक करने के बहाने मैंने उसको सुबह-सुबह पूरा दर्शन करा दिया। लेकिन खड़े होते ही मुझे कुछ याद आया- “अरे यार मैंने मंजन तो किया नहीं…”

“तो कर लो ना की मैं वो भी कराऊँ?”

वो हँसी और हवा में चांदी की हजार घंटियां बज उठी।

“और क्या अब सब कुछ तुमको करवाना पड़ेगा और मुझे करना पड़ेगा…”
मुश्कुराकर मैं द्विअर्थी अंदाज में बोला।

“मारूंगी…” वो बनावटी गुस्से में बोली और एक हाथ जमा भी दिया।

“अरे तुम ना तुम्हें तो बस एक बात ही सूझती है…” मैंने मुँह बनाकर कहा-


“तुम भूल गई। कल तुम्हारे कहने पे मैं रुक गया था। तो मेरे पास ब्रश मंजन कुछ नहीं है…” फिर मैं बोला।

“अच्छा तो बड़ा अहसान जता रहे हैं। रुक गया मैं…” मुझे चिढ़ाते हुए बोली-


“फायदा किसका हो रहा है? सुबह-सुबह गुड मार्निग हो गई, कल मेरे साथ घूमने को मिल गया। मंजन तो मिल जाएगा। हाँ ब्रश नहीं है तो उंगली से कर लो ना…”

“कर तो लूं पर…” मैंने कुछ सोचते हुए कहा-

“तुम्हीं ने कहा था ना। की मेरे रहते हुए अब तुम्हें अपने हाथ का इश्तेमाल करने की जरूरत नहीं है। तो…”



“वो तो मैंने…”


फिर अपनी बात का असर सोचकर खुद शर्मा गई। बात बनाकर बोली-

“चल यार तू भी क्या याद करोगे। किसी बनारस वाली से पाला पड़ा था। मैं करा दूंगी तुम्हें अपनी उंगली से। लेकिन काट मत खाना तुम्हारा भरोसा नहीं…”



वो जैसे ही बाहर को मुड़ी, उसके गोल-गोल कसे नितम्ब देखकर ‘पप्पू’ 90° डिग्री में आ गया। मैंने वहां एक हल्की सी चिकोटी काटी और झुक के उसके कान में बोला- “काटूँगा तो जरूर लेकिन उंगली नहीं…”

वो बाहर निकलते-निकलते चौखट पे रुकी और मुड़कर मेरी ओर देखकर जीभ निकालकर चिढ़ा दिया। बाहर जाकर उसने किसी से कुछ बात की शायद गुंजा से, चंदा भाभी की लड़की। जो उससे शायद एकाध साल छोटी थी और उसी के स्कूल में पढ़ती थी। दोनों ने कुछ बात की फिर हल्की आवाज में हँसी।

“आइडिया ठीक है। बन्दर छाप दन्त मंजन के लिए दीदी…” ये गुंजा लग रही थी।

“मारूंगी…” गुड्डी बोली- “लेकिन बात तुम्हारी सही है…” फिर दोनों की हँसी।

मैं दरवाजे से चिपका था।

“आप तो बुरा मान गई दीदी। आखिर मेरी दीदी हैं तो मेरा तो मजाक का हक बनता है। वो भी फागुन में…” गुंजा ने छेड़ा।

लेकिन गुड्डी भी कम नहीं थी-

“मजाक का क्यों तू जो चाहे सब। मैं बुरा नहीं मानूंगी…” वो बोली।

थोड़ी देर में गुड्डी अन्दर आई। सच में उसके हाथ में बन्दर छाप दन्त मंजन था। हँसकर वो बोली- “कटखने लोगों के लिए स्पेशल मंजन…”

“पर ऊपर से नीचे तक हर जगह काटूँगा…” मैं भी उसी के अंदाज में बोला।

“काट लेना। जैसे मेरे कहने से छोड़ ही दोगे। मुझे मालूम है तुम कितने शरीफ हो। अब उठो भी बाथरूम में तो चलो…” मुझे हाथ पकड़कर बाथरूम में वो घसीटकर ले गई।
मैंने मंजन लेने के लिए हाथ फैला दिया।

बदले में जबरदस्त फटकार मिली-

“तुम ना मंगते हो। जहां देखा हाथ फैला दिया। क्या करोगे? तुम्हारे मायके वालियों का असर लगता है, आ गया है तुम्हारे ऊपर। जैसे वो सब फैलाती रहती हैं ना सबके सामने…” ये कहते हुए गुड्डी ने अपने हाथ पे ढेर सारा लाल दन्त मंजन गिरा लिया था। वो अब जूनियर चन्दा भाभी बनती लग रही थी।

“मुँह खोलो…”

वो बोली, और मैंने पूरी बत्तीसी खोल दी। उसने अपनी उंगली पे ढेर सारा मंजन लगाकर सीधे मेरे दांतों पे और गिन के बत्तीस बार और फिर दुबारा और मंजन लगाकर और फिर तिबारा। स्वाद कुछ अलग लग रहा था। फिर मैंने सोचा की शायद बनारस का कोई खास मंजन हो। पूरा मुँह मंजन से भरा हुआ था। मैं वाशबेसिन की ओर मुड़ा।

तब वो बोली-


“रुको। आँखें बंद कर लो। मंजन मैंने करवाया तो मुँह भी मैं ही धुलवा देती हूँ…”

अच्छे बच्चे की तरह मैंने आँखें बंद रखी और उसने मुँह धुलवा दिया। जब मैं बाहर निकला तो अचानक मुझे कुछ याद आया और मैं बोला-

“हे मेरे कपड़े…”

“दे देंगे। तुम्हारी वो घटिया शर्ट पैंट मैं तो पहनने से रही और आखीरकार, किससे शर्मा रहे हो? मैंने तो तुम्हें ऐसे देख ही लिया है। चंदा भाभी ने देख ही लिया है और रहा गुंजा तो वो तो अभी बच्ची है…” ये कहते हुए मुझे पकड़कर नाश्ते की टेबल पे वो खींच ले गई।
गुड्डी और गुंजा की जोड़ी...
तो जैसे जय वीरू...
 

motaalund

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गुंजा



तुम्हारी वो घटिया शर्ट पैंट मैं तो पहनने से रही और आखीरकार, किससे शर्मा रहे हो? मैंने तो तुम्हें ऐसे देख ही लिया है। चंदा भाभी ने देख ही लिया है और रहा गुंजा तो वो तो अभी बच्ची है…” ये कहते हुए मुझे पकड़कर नाश्ते की टेबल पे वो खींच ले गई। एकदम बच्ची नहीं लग रही थी वो। सफेद ब्लाउज़ और नीली स्कर्ट। स्कूल यूनीफार्म में। मेरी आँखें बस टंगी रह गईं। चेहरा एकदम भोला-भाला। रंग गोरा लेकिन बहुत गोरा नहीं। लेकिन आँखें उसकी चुगली कर रही थी। खूब बड़ी-बड़ी, चुहल और शरारत से भरी, कजरारी, गाल भरे-भरे, एकदम चन्दा भाभी की तरह और होंठ भी, हल्के गुलाबी रसीले भरे-भरे उन्हीं की तरह। जैसे कह रहे हों- “किस मी। किस मी नाट…”

मुझे कल रात की बात याद आई जब गुड्डी ने उसका जिक्र किया था तो हँसकर मैंने पूछा था- “क्यों बी॰एच॰एम॰बी (बड़ा होकर माल बनेगी) है क्या?”

पलटकर आँख नचाकर उस शैतान ने कहा था- “जी नहीं। बी॰एच॰ काट दो, और वैसे भी मिला दूंगी…”

मेरी आँखें जब थोड़ी और नीचे उतरी तो एकदम ठहर गई। उसके उभार। उसके स्कूल की युनिफोर्म, सफेद शर्ट को जैसे फाड़ रहे हों और स्कूल टाई ठीक उनके बीच में, किसी का ध्यान ना जाना हो तो भी चला जाए। परफेक्ट किशोर उरोज। पता नहीं वो इत्ते बड़े-बड़े थे या जानबूझ के उसने शर्ट को इत्ती कसकर स्कर्ट में टाईट करके बेल्ट बाँधी थी।

पता नहीं मैं कित्ती देर तक और बेशर्मों की तरह देखता रहता, अगर गुड्डी ने ना टोका होता-

“हे क्या देख रहे हो। गुंजा नमस्ते कर रही है…”

मैंने ध्यान हटाकर झट से उसके नमस्ते का जवाब दिया और टेबल पे बैठ गया। वो दोनों सामने बैठी थी। मुझे देखकर मुश्कुरा रही थी और फिर आपस में फुसफुसा के कुछ बातें करके टीनेजर्स की तरह खिलखिला रही थी। मेरे बगल की चेयर खाली थी।

मैंने पूछा- “हे चंदा भाभी कहाँ हैं?”

“अपने देवर के लिए गरमा-गरम ब्रेड रोल बना रही हैं। किचेन में…” आँख नचाकर गुंजा बोली।

“हम लोगों के उठने से पहले से ही वो किचेन में लगी हैं…” गुड्डी ने बात में बात जोड़ी।

मैंने चैन की सांस ली। तो इसका मतलब हम लोगों का रात का धमाल। इन दोनों को पता नहीं।

तब तक गुड्डी बोली-

“हे नाश्ता शुरू करिए ना। पेट में चूहे दौड़ रहे हैं हम लोगों के और वैसे भी इसे स्कूल जाना है। आज लास्ट डे है होली की छुट्टी के पहले। लेट हो गई तो मुर्गा बनना पड़ेगा…”

“मुर्गा की मुर्गी?”

हँसते हुए मैंने गुंजा को देखकर बोला। मेरा मन उससे बात करने को कर रहा था लेकिन गुड्डी से बात करने के बहाने मैंने पूछा-

“लेकिन होली की छुट्टी के पहले वाले दिन तो स्कूल में खाली धमा चौकड़ी, रंग, ऐसी वैसी टाइटिलें…”



मेरी बात काटकर गुड्डी बोली- “अरे तो इसीलिए तो जा रही है ये। आज टाइटिलें…”
उसकी बात काटकर गुंजा बीच में बोली- “अच्छा दीदी, बताऊँ आपको क्या टाइटिल मिली थी…”

गुड्डी- “मारूंगी। आप नाश्ता करिए न कहाँ इसकी बात में फँस गए। अगर इसके चक्कर में पड़ गए तो…”

लेकिन मुझे तो जानना था। उसकी बात काटकर मैंने गुंजा से पूछा-

“हे तुम इससे मत डरो मैं हूँ ना। बताओ गुड्डी को क्या टाइटिल मिली थी?”

हँसते हुए गुंजा बोली- “बिग बी…”



पहले तो मुझे कुछ समझ नहीं आया ‘बिग बी’ मतलब लेकिन जब मैंने गुड्डी की ओर देखा तो लाज से उसके गाल टेसू हो रहे थे, और मेरी निगाह जैसे ही उसके उभारों पे पड़ी तो एक मिनट में बात समझ में आ गई। बिग बी। बिग चूचियों। वास्तव में उसके अपने उम्र वालियों से 20 ही थे।

गुड्डी ने बात बदलते हुए मुझसे कहा- “हे खाना शुरू करो ना। ये ब्रेड रोल ना गुंजा ने स्पेशली आपके लिए बनाए हैं…”

“जिसने बनाया है वो दे…” हँसकर गुंजा को घूरते हुए मैंने कहा।

मेरा द्विअर्थी डायलाग गुड्डी तुरंत समझ गई। और उसी तरह बोली-

“देगी जरूर देगी। लेने की हिम्मत होनी चाहिए, क्यों गुंजा?”

“एकदम…” वो भी मुश्कुरा रही थी। मैं समझ गया था की सिर्फ शरीर से ही नहीं वो मन से भी बड़ी हो रही है।

गुड्डी ने फिर उसे चढ़ाया-

“हे ये अपने हाथ से नहीं खाते, इनके मुँह में डालना पड़ता है अब अगर तुमने इत्ते प्यार से इनके लिए बनाया है तो। …”

“एकदम…”

और उसने एक किंग साइज गरम ब्रेड रोल निकाल को मेरी ओर बढ़ाया। हाथ उठने से उसके किशोर उरोज और खुलकर। मैंने खूब बड़ा सा मुँह खोल दिया लेकिन मेरी नदीदी निगाहें उसके उरोजों से चिपकी थी।

“इत्ता बड़ा सा खोला है। तो डाल दे पूरा। एक बार में। इनको आदत है…” गुड्डी भी अब पूरे जोश में आ गई थी।

“एकदम…” और सच में उसकी उंगलियां आलमोस्ट मेरे मुँह में और सारा का सारा ब्रेड रोल एक बार में ही।
स्वाद बहुत ही अच्छा था। लेकिन अगले ही पल में शायद मिर्च का कोई टुकड़ा। और फिर एक, दो, और मेरे मुँह में आग लग गई थी। पूरा मुँह भरा हुआ था इसलिए बोल नहीं निकल रहे थे।

वो दुष्ट। गुंजा। अपने दोनों हाथों से अपना भोला चेहरा पकड़े मेरे चेहरे की ओर टुकुर-टुकुर देख रही थी।

“क्यों कैसा लगा, अच्छा था ना?” इतने भोलेपन से उसने पूछा की।

तब तक गुड्डी भी मेरी ओर ध्यान से देखते हुए वो बोली- “अरे अच्छा तो होगा ही तूने अपने हाथ से बनाया था। इत्ती मिर्ची डाली थी…”

मेरे चेहरे से पसीना टपक रहा था।

गुंजा बोली- “आपने ही तो बोला था की इन्हें मिर्चें पसंद है तो। मुझे लगा की आपको तो इनकी पसंद नापसंद सब मालूम ही होगी। और मैंने तो सिर्फ चार मिर्चे डाली थी बाकी तो आपने बाद में…”

इसका मतलब दोनों की मिली भगत थी। मेरी आँखों से पानी निकल रहा था। बड़ी मुश्किल से मेरे मुँह से निकला- “पानी। पानी…”

“ये क्या मांग रहे हैं…” मुश्किल से मुश्कुराहट दबाते हुए गुंजा बोली।

गुड्डी- “मुझे क्या मालूम तुमसे मांग रहे हैं। तुम दो…” दुष्ट गुड्डी भी अब डबल मीनिंग डायलाग की एक्सपर्ट हो गई थी।

पर गुंजा भी कम नहीं थी- “हे मैं दे दूंगी ना तो फिर आप मत बोलना की। …” उसने गुड्डी से बोला।

यहाँ मेरी लगी हुई थी और वो दोनों।

“दे दे। दे दे। आखिर मेरी छोटी बहन है और फागुन है तो तेरा तो…” बड़ी दरियादिली से गुड्डी बोली।

बड़ी मुश्किल से मैंने मुँह खोला, मेरे मुँह से बात नहीं निकल रही थी। मैंने मुँह की ओर इशारा किया।

“अरे तो ब्रेड रोल और चाहिए तो लीजिये ना…” और गुंजा ने एक और ब्रेड रोल मेरी ओर बढ़ाया- “और कुछ चाहिए तो साफ-साफ मांग लेना चाहिए। जैसे गुड्डी दीदी वैसे मैं…”

वो नालायक। मैंने बड़ी जोर से ना ना में सिर हिलाया और दूर रखे ग्लास की ओर इशारा किया। उसने ग्लास उठाकर मुझे दे दिया लेकिन वो खाली था। एक जग रखा था। वो उसने बड़ी अदा से उठाया।

“अरे प्यासे की प्यास बुझा दे बड़ा पुण्य मिलता है…” ये गुड्डी थी।

“बुझा दूंगी। बुझा दूंगी। अरे कोई प्यासा किसी कुंए के पास आया है तो…” गुंजा बोली और नाटक करके पूरा जग उसने ग्लास में उड़ेल दिया। सिर्फ दो बूँद पानी था।

“अरे आप ये गुझिया खा लीजिये ना गुड्डी दीदी ने बनायी है आपके लिए। बहुत मीठी है कुछ आग कम होगी तब तक मैं जाकर पानी लाती हूँ। आप खिला दो ना अपने हाथ से…” वो गुड्डी से बोली और जग लेकर खड़ी हो गई।

गुड्डी ने प्लेट में से एक खूब फूली हुई गुझिया मेरे होंठों में डाल ली और मैंने गपक ली। झट से मैंने पूरा खा लिया। मैं सोच रहा था की कुछ तो तीतापन कम होगा। लेकिन जैसे ही मेरे दांत गड़े एकदम से, गुझिया के अन्दर बजाय खोवा सूजी के अबीर गुलाल और रंग भरा था। मेरा सारा मुँह लाल। और वो दोनों हँसते-हँसते लोटपोट।

तब तक चंदा भाभी आईं एक प्लेट में गरमागरम ब्रेड रोल लेकर। लेकिन मेरी हालत देखकर वो भी अपनी हँसी नहीं रोक पायीं, कहा- “क्या हुआ ये दोनों शैतान। एक ही काफी है अगर दोनों मिल गई ना। क्या हुआ?”

मैं बड़ी मुश्किल से बोल पाया- “पानी…”

उन्होंने एक जासूस की तरह पूरे टेबल पे निगाह दौडाई जैसे किसी क्राइम सीन का मुआयना कर रही हों। वो दोनों चोर की तरह सिर झुकाए बैठी थी। फिर अचानक उनकी निगाह केतली पे पड़ी और वो मुश्कुराने लगी। उन्होंने केतली उठाकर ग्लास में पोर किया।

और पानी।

रेगिस्तान में प्यासे आदमी को कहीं झरना नजर आ जाए वो हालत मेरी हुई। मैंने झट से उठाकर पूरा ग्लास खाली कर दिया। तब जाकर कहीं जान में जान आई। जब मैंने ग्लास टेबल पे रखा तब चन्दा भाभी ने मेरा चेहरा ध्यान से देखा। वो बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकने की कोशिश कर रही थी लेकिन हँसी रुकी नहीं। और उनके हँसते ही वो दोनों जो बड़ी मुश्किल से संजीदा थी। वो भी। फिर तो एक बार हँसी खतम हो और मेरे चेहरे की और देखें तो फिर दुबारा। और उसके बाद फिर।

“आप ने सुबह। हीहीहीही। आपने अपना चेहरा। ही ही शीशे में। हीहीहीही…” चन्दा भाभी बोली।
ससुराल में तीक्ष्ण नजरों वाला जासूस हीं...
वरना गोते लगाते नजर आएंगे....
 

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फागुन की सुबह

बनारस की -ससुराल की






उन्होंने एक जासूस की तरह पूरे टेबल पे निगाह दौडाई जैसे किसी क्राइम सीन का मुआयना कर रही हों। वो दोनों चोर की तरह सिर झुकाए बैठी थी। फिर अचानक उनकी निगाह केतली पे पड़ी और वो मुश्कुराने लगी। उन्होंने केतली उठाकर ग्लास में पोर किया,और पानी। रेगिस्तान में प्यासे आदमी को कहीं झरना नजर आ जाए वो हालत मेरी हुई। मैंने झट से उठाकर पूरा ग्लास खाली कर दिया। तब जाकर कहीं जान में जान आई। जब मैंने ग्लास टेबल पे रखा

तब चन्दा भाभी ने मेरा चेहरा ध्यान से देखा। वो बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकने की कोशिश कर रही थी लेकिन हँसी रुकी नहीं। और उनके हँसते ही वो दोनों जो बड़ी मुश्किल से संजीदा थी। वो भी। फिर तो एक बार हँसी खतम हो और मेरे चेहरे की और देखें तो फिर दुबारा। और उसके बाद फिर।

“आप ने सुबह। हीहीहीही। आपने अपना चेहरा। ही ही शीशे में। हीहीहीही…”

चन्दा भाभी बोली।

“नहीं वो ब्रश नहीं था तो गुड्डी ने। उंगली से मंजन। फिर…” मैंने किसी तरह समझाने की कोशिश की मेरे समझ में कुछ नहीं आ रहा था।

“जाइए जाइए। मैंने मना तो नहीं किया था शीशा देखने को। मगर आप ही को नाश्ता करने की जल्दी लगी थी। मैंने कहा भी की नाश्ता कहीं भागा तो नहीं जा रहा है। लेकिन ये ना। हर चीज में जल्दबाजी…”

ऐसे बनकर गुड्डी बोली।

गुंजा- “अच्छा मैं ले आती हूँ शीशा…”

और मिनट भर में गुंजा दौड़ के एक बड़ा सा शीशा ले आई। लग रहा था कहीं वाशबेसिन से उखाड़ के ला रही हो और मेरे चेहरे के सामने कर दिया।
मेरा चेहरा फक्क हो गया। न हँसते बन रहा था ना।
तीनों मुश्कुरा रही थी।

मांग तो मेरी सीधी मुँह धुलाने के बाद गुड्डी ने काढ़ी थी। सीधी और मैंने उसकी शरारत समझा था। लेकिन अब मैंने देखा।


चौड़ी सीधी मांग और उसमें दमकता सिन्दूर। माथे पे खूब चौड़ी सी लाल बिंदी, जैसे सुहागन औरतें लगाती है। होंठों पे गाढ़ी सी लाल लिपस्टिक और। जब मैंने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला तो दांत भी सारे लाल-लाल।

अब मुझे बन्दर छाप दन्त मंजन का रहस्य मालूम हुआ और कैसे दोनों मुझे देखकर मुश्कुरा रही थी। ये भी समझ में आया। चलो होली है चलता है।

चन्दा भाभी ने मुझे समझाया और गुंजा को बोला- “हे जाकर तौलिया ले आ…”
उन्होंने गुड्डी से कहा- “हे हलवा किचेन से लायी की नहीं?”

मैं तुरंत उनकी बात काटकर बोला- “ना भाभी अब मुझे इसके हाथ का भरोसा नहीं है आप ही लाइए…”

हँसते हुए वो किचेन में वापस में चली गईं। गुंजा तौलिया ले आई और खुद ही मेरा मुँह साफ करने लगी। वो जानबूझ कर इत्ता सटकर खड़ी थी की उसके उरोज मेरे सीने से रगड़ रहे थे। मैंने भी सोच लिया की चलो यार चलता है इत्ती हाट लड़कियां।

मैंने गुड्डी को चिढ़ाते हुए कहा- “चलो बाकी सब तो कुछ नहीं लेकिन ये बताओ। सिंदूर किसने डाला था?”

गुंजा ने मेरा मुँह रगड़ते हुए पूछा- “क्यों?”

“इसलिए की सिन्दूर दान के बाद सुहागरात भी तो मनानी पड़ेगी ना। अरे सिन्दूर चाहे कोई डाले सुहागरात वाला काम किये बिना तो पूरा नहीं होगा ना काम…” मैंने हँसते हुए कहा।

“इसी ने डाला था जो तुमसे इतनी सटकर खड़ी है। मना लो सुहागरात…” खिलखिलाते हुए गुड्डी बोली।

गुंजा छटक के दूर जाकर खड़ी हुई, एकदम गुड्डी के बगल में-

जी नहीं, आइडिया किसका था? बोला तो आप ने ही था और बाद में लिपस्टिक। फिर एक चुटकी सिन्दूर तो आपने भी…”

वो गुड्डी को देखते हुए बोल रही थी।

“चलो कोई बात नहीं। दोनों के साथ मना लूँगा…” हँसते हुए मैं बोला।

“पहले इनके साथ…” गुड्डी की ओर इशारा करके वो बोली।

“नहीं मांग तो तुमने भरी है पहले इसके साथ…” अब गुड्डी बोली।

तब तक चन्दा भाभी आ गई हलवे का बरतन लिए। क्या मस्त महक आ रही थी।



“क्या तुम दोनों पहले आप, पहले आप कर रही हो। कोई लखनऊ की थोड़े ही हो…”

ये कहते हुए वो कटोरी में हलवा निकालने लग गई। वो बिचारी क्या समझे की किस चीज के लिए पहले आप, पहले आप हो रही है। अगर समझती तो।

मैं- “हे भाभी इत्ता नहीं…”

वो ढेर सारा हलवा मेरी कटोरी में डाल रही थी। हलवा भी पूरा देसी घी से तर, काजू बादाम पड़ा हुआ। सूजी का हलवा- “अरे खा ना। रात में तो तेरी सारी मलाई मैंने निकाल ली…” मुँह दबाकर फुसफुसाते हुए वो बोली। मेरे मना करने पे जितना डाल रही थी उसका भी दूना उन्होंने डाल दिया।

“जितना मना करोगे उसका दूना डालूंगी। अब तक तुम नहीं समझे…” हँसकर भाभी बोली। भाभी भी। बिना डबल मीनिंग डायलाग बोले रह नहीं सकती थी।

वो दोनों भी एक दूसरे को देखकर मुश्कुरा रही थी।

“ये ऐसे ही समझते हैं…” गुड्डी आँख नचाकर भाभी से बोली।
हम सब खाने लगे तो भाभी ने मुझे देखकर कहा- “हे, इन सबों की शैतानियों का बुरा तो नहीं माना?”
मैं बस उन दोनों को देखकर मुश्कुरा दिया।

भाभी बोली- “अरे ससुराल में आये हो फागुन का दिन है। चलो सलहज की कमी नहीं है। लेकिन यहाँ कोई छोटी साली तो है नहीं, बिन्नो की वैसे भी कोई छोटी बहन नहीं है तो चलो इन दोनों को छोटी साली ही मान लो और क्या? बिना साली सलहज के ससुराल और होली दोनों का मजा आधा है…”

“एकदम…” किसी बड़ी बूढी की तरह गुड्डी ने हाँ में हाँ मिलाई।

“लेकीन समझ लेना तुम दोनों, साली बन गई तो मैं। लाइसेंस मिल गया है अब मुझसे डरती तो नहीं…” मैंने गुंजा और गुड्डी को देखकर कहा।

दोनों शैतान एक साथ बोली- “डरूं क्यों? डरें आप। अरे हम दोनों ने तो बिना लाइसेंस के होली शुरू कर दी थी…”

गुंजा हँसकर बोली- “लेकिन साली का हक भी होता है आपकी जेब खाली करा लूँगी। लेकिन आपकी तो जेब ही नहीं…”

“अरे तू इसकी चिंता मत कर, इनका पर्स मेरे पास है और कार्ड भी और पिन नंबर भी मालूम है। तू मेरी चमचागीरी कर…” गुड्डी ने मेरा पर्स दिखाते हुए कहा।

तभी मुझे याद आया मेरे कपड़े। मैंने गुड्डी से पूछा- “हे मेरे कपड़े?”
भाभी मंद-मंद मुश्कुरा रही थी।

मुश्कुराकर गुंजा बोली- “वो बेचकर हमने बरतन खरीद लिए…”

“तो कपड़े तुमने…” मैं गुंजा को देख रहा था।औ

गुंजा हँसी, बस खीस निकालि- “मुझे क्यों देख रहे हैं। आपने मुझे थोड़ी दिए थे कपड़े। जिसे दिए थे उससे मांगिये…”

मैंने गुड्डी को देखा पर वो दुष्ट गुंजा से बोली- “दे दे ना देख बिचारे कैसे उघारे उघारे…”

“अरे तो कौन इनका शील भंग कर देगा…” गुंजा बोली, और इत्ती दया आ रही है तो अपना ही कुछ दे दे न इस बिचारे को…”

“क्यों शलवार सूट पहनियेगा?” गुड्डी ने हँसकर कहा।

मुझे भी मौका मिल रहा था छेड़खानी करने का। मैंने गुंजा से कहा-

“हे तूने गायब किया है तुझी को देना पड़ेगा…” और फिर मुड़कर मैं चन्दा भाभी से बोला- “भाभी देखिये ना इन दोनों को इत्ता तंग कर रही हैं…”

“देखो मैं तुम तीनों के बीच नहीं पड़ने वाली आपस में समझ लो…” हँसकर वो बोली।

“पर। पर मुझे जाना है। और शापिंग उसके बाद रेस्टहाउस। सामान सब वहां है फिर रात होने के पहले पहुँचना भी है। क्यों गुड्डी तुम सुबह से कह रही हो शापिंग के लिए…”

“अरे ये बनारस है तुम्हारा मायका नहीं। यहाँ दुकानें रात 8-9 बजे तक बंद होती हैं…” भाभी बोली।

और क्या गुड्डी ने हामी भरी। शापिंग तो मैं आपसे करवाऊँगी ही चाहे ऐसे ही चलना पड़े। लेकिन उसकी जल्दी नहीं है। आज कल होली का सीजन है दुकान खूब देर तक खुली रहती है…”

हल्के से गुंजा गुड्डी की ओर मुँह करके बोली, लेकिन हम सब लोगों को साफ-साफ सुनाई पड़ा- “हे ऐसे रात में लौटने की जल्दी क्या है कोई खास प्रोग्राम है क्या?”


गुड्डी का बस चलता तो वहीं गुंजा को एक हाथ कसकर जमाती, उसका चेहरा गुलाल हो गया। चन्दा भाभी हल्के-हल्के मुश्कुराने लगी।

मैं इधर-उधर देखने लगा फिर मैंने बात बदलने की कोशिश की- “हे लेकिन कपड़े तो चाहिए मैं कब तक ऐसे?”

“सुन तू अपना बर्मुडा दे दे न, वैसे भी वो इत्ता पुराना हो गया है…” गुड्डी ने गुंजा को उकसाया।

“दे दूँ। लेकिन कहीं किसी ने इनके ऊपर रंग वंग डाल दिया तो। मेरा तो खराब हो जाएगा…” बड़ी शोख अदा में गुंजा बोली।

मैंने मुड़कर झट चंदा भाभी की ओर देखा- “भाभी मतलब। रंग वंग। हमें जाना है और…”

“देखो, इसकी गारंटी मैं नहीं लेती। ससुराल है, बनारस है और तुम ऐसे चिकने हो की किसी का भी डालने का मन कर ही जाए…” भाभी भी कोई भी हो बिना अपने अंदाज के।

तब तक गुड्डी भी बोल उठी- “और क्या दूबे भाभी भी तो आने वाली हैं और उनके साथ जिनकी नई-नई शादी हुई है इसी साल…”


भाभी ने उसे आँख तरेर कर घूरा जैसे उसने कोई स्टेट सीक्रेट लीक कर दिया हो। वो चालाक झट से बात पलटकर गुंजा की ओर मुड़ी और कहने लगी-

“हे तू चिंता मत कर, अगर जरा सा भी खराब हुआ तो ये तुम्हें नया दिलवाएंगे और साथ में टाप फ्री…”

“मैं इस चक्कर में नहीं पड़ती। तुम सब तो आज चले जाओगे और मैं स्कूल जा रही हूँ तो फिर?” गुंजा ने फिर अदा दिखायी।

“अरे यार इनका तो यही रास्ता है। होली से लौटकर मुझे छोड़ने तो आयेंगे फिर उस समय…” गुड्डी फिर मेरी ओर से बोली।

लेकिन गुंजा चूकने वाली नहीं थी। उसने फिर गुड्डी को छेड़ा- “अच्छा आप बहुत इनकी ओर से गारंटी ले रही हैं। कोई खास बात है क्या जो मुझे पता नहीं है…”

अबकी तो चंदा भाभी ऐसे मुश्कुराई की बस। जो न समझने वाला हो वो भी समझ जाए।

“चलो मैं कहता हूँ शापिंग भी करूँगा और जो तुम कहोगी वो भी…” मैंने बात सम्हालने की कोशिश की।

“ये हुई न बात…” मेरे प्याले में चाय उड़ेलते हुए गुंजा बोली।

मेरी बेशर्म निगाहें उसके झुके उरोजों से चिपकी थी।

बेपरवाह वो चन्दा भाभी को चाय देती हुई बोली- “क्यों मम्मी दे दूं। बिचारे बहुत कह रहे हैं…”

“तुम जानो। ये जानें। मुझे क्यों बीच में घसीट रही हो? जैसा तुम्हारा मन…” चन्दा भाभी अपने अंदाज में बोली।

गुड्डी और गुंजा मेज समेट रही थी। चन्दा भाभी ने उठते हुए मेरी लुंगी की गाँठ की ओर झपट कर हाथ बढ़ाया। मैंने घबड़ाकर दोनों हाथों से उसे पकड़ लिया। उनका क्या ठिकाना कहीं खींचकर मजाक-मजाक में खोल ही न दें।

वो हँसकर बोली- “अब इसे वापस कर दीजिये, मैंने सिर्फ रात भरकर लिए दी थी। प्योर सिल्क की है। अगर इस पे रंग वंग पड़ गया न तो आपके उस मायके वाले माल को रात भर कोठे पे बैठाना पड़ेगा तब जाकर कीमत वसूल हो पाएगी…”

गुंजा और गुड्डी दोनों मुँह दबाये हँस रही थी।

भाभी जाते-जाते मुड़कर खड़ी हो गईं और मुझसे कहने लगी- “हे बस 10 मिनट है तुम्हारे पास, चाहे जो इन्तजाम करना हो कर लो…” और वो सीढ़ी से नीचे उतर पड़ी।
या फिर तारा सितारा की जोड़ी...
 

motaalund

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agar post kiya to change hoga bas bahot thoda sa , kyonki Phagun ke din chaar men erotic ke saath thriller ka tagda mixture hai aur main isi doubt men hun tag erotic ka dun ya thriller ka vaise bina Incest ka tag diye readers to kam hi aayenge han i will not put many pics, may be one pic part part
मेरा आग्रह होली के प्रसंगों के लिए था... थ्रिलर के प्रसंगों के लिए जैसा आप चाहें...
 
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