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Fantasy वो कौन था

आपको ये कहानी कैसी लग रही है

  • बेकार है

    Votes: 2 5.3%
  • कुछ कह नही सकते

    Votes: 4 10.5%
  • अच्छी है

    Votes: 8 21.1%
  • बहुत अच्छी है

    Votes: 24 63.2%

  • Total voters
    38

Chutiyadr

Well-Known Member
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हेल्लो दोस्तो,
कैसे हो
सबसे पहले तो आप सब से माफी चाहता हु की इतने दिनों से ना तो कोई अपडेट आया, और ना ही कोई रिप्लाई

हालात ही कुछ ऐसे थे, परिवार में थोड़ी परेशानी आ गयी थी, लेकिन अब सब कुछ ठीक है

एक बार फिर से आप सब से माफी चाहता हु

जैसा की मेने आपसे कहा था, की कहानी को अधूरा नही छोडूंगा
रविवार शाम तक एक बड़ा अपडेट आपके सामने हाजिर होगा


धन्यवाद
bahut badiya :superb:
Achhe writers jab story chhodte hai to bahut dukh hota hai..
Aapko fir se dekhkar khushi hui...
Waiting for next update
 

manojmn37

Member
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bahut badiya :superb:
Achhe writers jab story chhodte hai to bahut dukh hota hai..
Aapko fir se dekhkar khushi hui...
Waiting for next update

धन्यवाद आपका
कल तक एक बड़ा अपडेट हाजिर होगा
:what2:
 

manojmn37

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अध्याय ३

खंड १

"शून्य"
रात्रि का समय

दूर कही नदी किनारे लकडियो के जलने की रोशनी दिख रही थी,

कोई वहा बैठे कुछ कर रहा था

वो अपने झोले में से कुछ वस्तुए निकाल कर वहा आग में डाल रहा था,

आग भड़क रही थी जैसे की इंधन डाला जा रहा हो,

मंत्रो की ध्वनिया धीरे-धीरे घोर होती जा रही थी,

मंत्र क्लिष्ट होते जा रहे थे,

तभी आग अचानक से भड़क उठी, एक पल के लिए चारो तरफ प्रकाश फ़ैल गया,

उसी प्रकाश में उस व्यक्ति का चेहरा दिख पड़ता है,

ये बसोठा था |

बाबा बसोठा,

कापालिक बसोठा |

वो उस पागल के बारे में जानने को उत्सुक और उस से सब कुछ उगलवाने के हेतु ही ये सारा कृत्य कर रहा था,

सप्तोश के मना करने पर भी वो नहीं माना था,

उसे अपनी शक्तियों पर गुरुर था,

फिर भी इस बार सप्तोश को अपने गुरु के लिए एक अंजाना भय सता रहा था,

शायद इसीलिए की दोजू ने मना किया था या इस बार ये सारा मामला उसके परे था | लेकिन फिर भी अपने गुरु के प्रति भय के कारण वो आज की रात्रि उसको अकेले नहीं छोड़ने वाला था, वो दूर बैठे अपने गुरु पर नजर रख रहा था !

पल भर के लिए भड़की आग्नि वापस शांत हो गयी,

अब सप्तोश को वापस हल्की-हल्की जल रही आग के अलावा कुछ नहीं दिख रहा था,

ऐसा नहीं था की रात्रि अन्धकार वाली थी,

अभी पूर्णिमा के गए मात्र २ ही दिन बीते थे लेकिन,

आज आसमान में बादल छाए हुए थे, चंद्रदेव कभी-कभी दर्शन दे वापस बदलो में लुप्त हो जाते थे |

मंत्र धीरे-धीरे शांत होते जा रहे थे, और अग्नि धीरे-धीरे अपना अस्तित्व बढ़ा रही थी, मंत्रो की ध्वनि शांत हो गयी थी, जैसे बाबा बसोठा की प्राम्भिक तैयारी पूर्ण हो चुकी थी |

अब बाबा बसोठा को सबसे पहले उस पागल के स्तिथि के बारे में जानकारी चाहिए थी,

और उसके लिए उसे अपनी द्रष्टि प्रसारित करनी थी

जैसे ही उसने अपने द्रष्टि प्रसारित की उसको एक धक्का-सा लगा,

उसको अपने पहले ही चरण के जैसे हार का सामना करना पड़ा |

वैसे उसकी शक्तिया अलख के उठने पर कई गुना बढ़ जाती है लेकिन आज कुछ विशेष फर्क नहीं लग रहा था |

जैसे ही उसने अपनी द्रष्टि प्रसारित की,

उसकी देख सीमित हो गयी,

वो गाव के कुछ हिस्सों को ही देख पा रहा था,

बाकि सभी हिस्से अन्धकार में थे,

जिसमे वो गाव का शिव मंदिर और शमशान दोनों आ रहे थे |

उसने वापस अपने देख लगाई,

विफल,

उसने सामने जल रही अलख में से राख उठाई,

मंत्र से फुका,

अपनी आखो पर लगाई,

वापस कोशिश की – फिर भी विफलता |

वो अपने पहले ही चरण में आगे नहीं बढ़ पा रहा था,

जब तक बाबा बसोठा उस पागल की स्तिथि का बोध नहीं कर पाता, तब तक वो कुछ नहीं कर सकता था |

आखिरकार उसे अपने गुरु की शक्तियों का सहारा लेना ही पड़ा,

उसने अलख में इंधन डाला, कुछ मंत्रो के साथ अपने झोले में से एक कपाल निकला,

अपने गुरु का कपाल को,

नमन किया अपने गुरु के कपाल को,

और रख दिया सामने राख के आसन पर,

अब उसने फिर से मंत्र बोलने शुरू किये,

कुछ समय पश्चात् अलख भड़क उठी,

और उसमें से निकलता है एक छोटा-सा बौना जीव,

जो लगभग एक सामान्य मनुष्य के हथेली जितना ही बड़ा था |

ये मंग्रक था,

एक बौनी-पुरुष शक्ति,

मोटा-भद्दा और बिना आखो के,

अपने साधक के कान में उसके उसके प्रतिध्वंदी की वस्तु-स्तिथि का पल-पल का बोध करवाता है

वो धीरे-धीरे आगे बढ़ता है,

और अपने छोटे-छोटे नुकीले हाथो और पंजो की सहायता से बाबा बसोठा के ऊपर चढ़ कर उसके कंधो पर बैठ जाता है, और अपने हाथो की मानसिक तरंगो की सहायता से बाबा बसोठा के मस्तिस्क से उस पागल के हुलिए का बोध करता है, एक क्षण की भी देरी किये बिना मंग्रक, बसोठा के कानो में बोल पड़ता है – ब्रह्म श्मशान और उस पागल की वस्तु स्तिथि का बोध करा देता है |

उधर,

श्मशान में वो पागल हल्का सा मुस्कुरा देता है जैसे की उसने मंग्रक की बाते सुन ली हो,

अब वो एक पेड़ से अपनी पीठ टिकाकर उस बाबा बसोठा की दिशा में मुख करके बैठ जाता है, और मुस्कुराते हुए उस दिशा में देखता है जैसे की कोई नाटक में गया है देखने के लिए |

किसी ने सच ही कहा है, जो जितना ऊचे मुकाम पर होता है, वो उतना ही, सहनशील और शांत हो जाता है, गहरे पानी में लहरे नहीं बनती, छिथले पानी में बनती है |

बाबा बसोठा को अब रक्षा चक्र खीचने का ध्यान में आया,

पहले तो वह निश्छल था,

लेकिन अपने देख काम नहीं करने की वजह से अब वह सतर्क हो चूका था, वो अपने स्थान से उठा और अपने चारो और अष्ट-चक्रिका का आव्हान किया,

ये अष्ट-चक्रिका अपने साधक के चारो और एक चक्र की भांति रक्षा करती है, अष्ट-चक्रिका का भेदन करना अत्यंत क्लिष्ट कार्य है

अब बाबा बसोठा तैयार हुआ वार करने को,

बाबा बसोठा की रणनीति एक दम स्पष्ट थी, वह अपने प्रतिद्वंदी पर अचानक वार करता है और फिर उसे घायल कर उससे अपना काम निकलवाता है, यदि वो उसके काम का है तो ठीक वर्ना उसे मृत्यु के घाट उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ता है,

उसने आव्हान किया एक पिचाचिनी का,

उसको नमन किया,

भोग दिया,

और

फिर अपना लक्ष्य बताया,

सुनते ही चल पड़ी पिचाचिनी अपने लक्ष्य की ओर

प्रकाश की गति से

लेकिन,

ये क्या !!!

२ पल बीते

५ पल बीते

१४ पल बीते

चारो तरफ सन्नाटा,

ना तो पिचाचिनी वापस आयी, और ना ही मंग्रक ने उसको वस्तु स्तिथि का बोध करवाया,

उस पिचाचिनी का क्या हुआ,

ये उस मंग्रक के शक्ति के परे की बात थी,

मंग्रक ने बस एक ही शब्द कहा

“शुन्य”

मतलब की अब बाबा बसोठा उस पिचाचिनी से रिक्त हो चूका था,

अब वो वापस उसके कुछ काम नहीं आ सकती थी,

छीन ली थी किसी ने उस पिचाचिनी को,

अब बाबा बसोठा पड़ा मुश्किल में,

पहला ही शक्ति वार किया और उससे भी रिक्त हो गया,

दूसरा वार करने के लिए अपनी मनः-स्तिथि को तैयार किया और इस समय उसने डंकिनी का आव्हान किया

चीर-फाड़ करने को आतुर,

सर्व-काल बलि

अपने शत्रु को भेदने में तत्पर,

“शून्य” – अचानक मंग्रक बोल पड़ता है,

सुन्न!!

बाबा बसोठा सुन्न !!

अब ये क्या हुआ उसे कुछ भी समझ में नहीं आया

डंकिनी के प्रकट होने ने पहले ही वह उस से रिक्त हो गया,

ये भी छीन ली उससे किसी ने,

जैसे शुन्य ने निगल लिया हो उसको,

ये उसके साथ ऐसा पहली बार हुआ है,

और ना ही किसी से उसने ऐसा सुना,

ये उसके लिए एक चेतावनी थी,

की अभी वो हट जाये पीछे,

जिद्द ना करे,

लेकिन उसे भी दंभ था,



घमंड था उसे अपनी शक्तियों पर,

वो तो अच्छा है की यह मानस देह नश्वर है,


नहीं तो,

नहीं तो ये मानव,

उस परम शक्तिशाली

को भी चुनौती दे देता,


अपने दंभ में,

खैर,

लेकिन इस बार उसका घमंड कुछ काम नहीं आने वाला था,

वापस उसने कुछ मंत्र बुदबुदाये,

“शुन्य”

इसी तरह वह जम्भाल, दंद्धौल आदि सभी शक्तियो और पता नहीं कितने ही महाप्रेत और महाभट्ट से रिक्त हो चूका था,

रात्रि का दूसरा प्रहर बीत चूका था,

स्तिथि पूरी तरह से बाबा बसोठा के विपरीत थी,

वो लगभग अपनी सारी शक्तियों से रिक्त हो चूका था,

अब वो अपना मानसिक संतुलन खो चूका था, ऐसा पहली बार एसा उसके साथ हुआ और सबसे बुरी बात तो ये थी की अब उसके पास कुछ नहीं बचा था,

वह अब अपना आखिरी दाव खेलने वाला था, उसका आखिरी दाव था उसके गुरु,

उसने अपने गुरु की रूह को अब तक कैद किये हुए रखा था, उनकी शक्तियों को इस्तेमाल कर रहा था, लेकिन अब मामला उल्टा हो गया था, इसके अलावा उसके पास अब कोई चारा ही नहीं बचा था, हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना चाह रहा था,

प्रकति के विरुद्ध कार्य,

उसने अपने गुरु के कपाल जो हाथ में उठाया, और दोनों हाथो से पकड़ कर मंत्र बोल रहा था, कुछ ही समय शेष था बाण के छुटने में,

तभी दूसरी तरफ श्मशान में, वो पागल उठा अपनी जगह से और अपने शरीर को मोड़कर आलस झाडा,

मंदिर की तरफ देखकर उसने.....




















 
Last edited:

kamdev99008

FoX - Federation of Xossipians
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gazab........................ bahut gahrai hai ..............us pagal ke antargyan mein
jo baba basotha ki sari shaktiyon ko bina koi pratirodh kiye bhi haran kar liye.....................

dekhte hain aage
 

manojmn37

Member
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gazab........................ bahut gahrai hai ..............us pagal ke antargyan mein
jo baba basotha ki sari shaktiyon ko bina koi pratirodh kiye bhi haran kar liye.....................

dekhte hain aage


देखते रहियेगा
अभी तो तीसरा अध्याय शुरू ही हुआ है
 

ashish_1982_in

Well-Known Member
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अध्याय ३

खंड १

"शून्य"
रात्रि का समय

दूर कही नदी किनारे लकडियो के जलने की रोशनी दिख रही थी,

कोई वहा बैठे कुछ कर रहा था

वो अपने झोले में से कुछ वस्तुए निकाल कर वहा आग में डाल रहा था,

आग भड़क रही थी जैसे की इंधन डाला जा रहा हो,

मंत्रो की ध्वनिया धीरे-धीरे घोर होती जा रही थी,

मंत्र क्लिष्ट होते जा रहे थे,

तभी आग अचानक से भड़क उठी, एक पल के लिए चारो तरफ प्रकाश फ़ैल गया,

उसी प्रकाश में उस व्यक्ति का चेहरा दिख पड़ता है,

ये बसोठा था |

बाबा बसोठा,

कापालिक बसोठा |

वो उस पागल के बारे में जानने को उत्सुक और उस से सब कुछ उगलवाने के हेतु ही ये सारा कृत्य कर रहा था,

सप्तोश के मना करने पर भी वो नहीं माना था,

उसे अपनी शक्तियों पर गुरुर था,

फिर भी इस बार सप्तोश को अपने गुरु के लिए एक अंजाना भय सता रहा था,

शायद इसीलिए की दोजू ने मना किया था या इस बार ये सारा मामला उसके परे था | लेकिन फिर भी अपने गुरु के प्रति भय के कारण वो आज की रात्रि उसको अकेले नहीं छोड़ने वाला था, वो दूर बैठे अपने गुरु पर नजर रख रहा था !

पल भर के लिए भड़की आग्नि वापस शांत हो गयी,

अब सप्तोश को वापस हल्की-हल्की जल रही आग के अलावा कुछ नहीं दिख रहा था,

ऐसा नहीं था की रात्रि अन्धकार वाली थी,

अभी पूर्णिमा के गए मात्र २ ही दिन बीते थे लेकिन,

आज आसमान में बादल छाए हुए थे, चंद्रदेव कभी-कभी दर्शन दे वापस बदलो में लुप्त हो जाते थे |

मंत्र धीरे-धीरे शांत होते जा रहे थे, और अग्नि धीरे-धीरे अपना अस्तित्व बढ़ा रही थी, मंत्रो की ध्वनि शांत हो गयी थी, जैसे बाबा बसोठा की प्राम्भिक तैयारी पूर्ण हो चुकी थी |

अब बाबा बसोठा को सबसे पहले उस पागल के स्तिथि के बारे में जानकारी चाहिए थी,

और उसके लिए उसे अपनी द्रष्टि प्रसारित करनी थी

जैसे ही उसने अपने द्रष्टि प्रसारित की उसको एक धक्का-सा लगा,

उसको अपने पहले ही चरण के जैसे हार का सामना करना पड़ा |

वैसे उसकी शक्तिया अलख के उठने पर कई गुना बढ़ जाती है लेकिन आज कुछ विशेष फर्क नहीं लग रहा था |

जैसे ही उसने अपनी द्रष्टि प्रसारित की,

उसकी देख सीमित हो गयी,

वो गाव के कुछ हिस्सों को ही देख पा रहा था,

बाकि सभी हिस्से अन्धकार में थे,

जिसमे वो गाव का शिव मंदिर और शमशान दोनों आ रहे थे |

उसने वापस अपने देख लगाई,

विफल,

उसने सामने जल रही अलख में से राख उठाई,

मंत्र से फुका,

अपनी आखो पर लगाई,

वापस कोशिश की – फिर भी विफलता |

वो अपने पहले ही चरण में आगे नहीं बढ़ पा रहा था,

जब तक बाबा बसोठा उस पागल की स्तिथि का बोध नहीं कर पाता, तब तक वो कुछ नहीं कर सकता था |

आखिरकार उसे अपने गुरु की शक्तियों का सहारा लेना ही पड़ा,

उसने अलख में इंधन डाला, कुछ मंत्रो के साथ अपने झोले में से एक कपाल निकला,

अपने गुरु का कपाल को,

नमन किया अपने गुरु के कपाल को,

और रख दिया सामने राख के आसन पर,

अब उसने फिर से मंत्र बोलने शुरू किये,

कुछ समय पश्चात् अलख भड़क उठी,

और उसमें से निकलता है एक छोटा-सा बौना जीव,

जो लगभग एक सामान्य मनुष्य के हथेली जितना ही बड़ा था |

ये मंग्रक था,

एक बौनी-पुरुष शक्ति,

मोटा-भद्दा और बिना आखो के,

अपने साधक के कान में उसके उसके प्रतिध्वंदी की वस्तु-स्तिथि का पल-पल का बोध करवाता है

वो धीरे-धीरे आगे बढ़ता है,

और अपने छोटे-छोटे नुकीले हाथो और पंजो की सहायता से बाबा बसोठा के ऊपर चढ़ कर उसके कंधो पर बैठ जाता है, और अपने हाथो की मानसिक तरंगो की सहायता से बाबा बसोठा के मस्तिस्क से उस पागल के हुलिए का बोध करता है, एक क्षण की भी देरी किये बिना मंग्रक, बसोठा के कानो में बोल पड़ता है – ब्रह्म श्मशान और उस पागल की वस्तु स्तिथि का बोध करा देता है |

उधर,

श्मशान में वो पागल हल्का सा मुस्कुरा देता है जैसे की उसने मंग्रक की बाते सुन ली हो,

अब वो एक पेड़ से अपनी पीठ टिकाकर उस बाबा बसोठा की दिशा में मुख करके बैठ जाता है, और मुस्कुराते हुए उस दिशा में देखता है जैसे की कोई नाटक में गया है देखने के लिए |

किसी ने सच ही कहा है, जो जितना ऊचे मुकाम पर होता है, वो उतना ही, सहनशील और शांत हो जाता है, गहरे पानी में लहरे नहीं बनती, छिथले पानी में बनती है |

बाबा बसोठा को अब रक्षा चक्र खीचने का ध्यान में आया,

पहले तो वह निश्छल था,

लेकिन अपने देख काम नहीं करने की वजह से अब वह सतर्क हो चूका था, वो अपने स्थान से उठा और अपने चारो और अष्ट-चक्रिका का आव्हान किया,

ये अष्ट-चक्रिका अपने साधक के चारो और एक चक्र की भांति रक्षा करती है, अष्ट-चक्रिका का भेदन करना अत्यंत क्लिष्ट कार्य है

अब बाबा बसोठा तैयार हुआ वार करने को,

बाबा बसोठा की रणनीति एक दम स्पष्ट थी, वह अपने प्रतिद्वंदी पर अचानक वार करता है और फिर उसे घायल कर उससे अपना काम निकलवाता है, यदि वो उसके काम का है तो ठीक वर्ना उसे मृत्यु के घाट उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ता है,

उसने आव्हान किया एक पिचाचिनी का,

उसको नमन किया,

भोग दिया,

और

फिर अपना लक्ष्य बताया,

सुनते ही चल पड़ी पिचाचिनी अपने लक्ष्य की ओर

प्रकाश की गति से

लेकिन,

ये क्या !!!

२ पल बीते

५ पल बीते

१४ पल बीते

चारो तरफ सन्नाटा,

ना तो पिचाचिनी वापस आयी, और ना ही मंग्रक ने उसको वस्तु स्तिथि का बोध करवाया,

उस पिचाचिनी का क्या हुआ,

ये उस मंग्रक के शक्ति के परे की बात थी,

मंग्रक ने बस एक ही शब्द कहा

“शुन्य”

मतलब की अब बाबा बसोठा उस पिचाचिनी से रिक्त हो चूका था,

अब वो वापस उसके कुछ काम नहीं आ सकती थी,

छीन ली थी किसी ने उस पिचाचिनी को,

अब बाबा बसोठा पड़ा मुश्किल में,

पहला ही शक्ति वार किया और उससे भी रिक्त हो गया,

दूसरा वार करने के लिए अपनी मनः-स्तिथि को तैयार किया और इस समय उसने डंकिनी का आव्हान किया

चीर-फाड़ करने को आतुर,

सर्व-काल बलि

अपने शत्रु को भेदने में तत्पर,

“शून्य” – अचानक मंग्रक बोल पड़ता है,

सुन्न!!

बाबा बसोठा सुन्न !!

अब ये क्या हुआ उसे कुछ भी समझ में नहीं आया

डंकिनी के प्रकट होने ने पहले ही वह उस से रिक्त हो गया,

ये भी छीन ली उससे किसी ने,

जैसे शुन्य ने निगल लिया हो उसको,

ये उसके साथ ऐसा पहली बार हुआ है,

और ना ही किसी से उसने ऐसा सुना,

ये उसके लिए एक चेतावनी थी,

की अभी वो हट जाये पीछे,

जिद्द ना करे,

लेकिन उसे भी दंभ था,



घमंड था उसे अपनी शक्तियों पर,

वो तो अच्छा है की यह मानस देह नश्वर है,


नहीं तो,

नहीं तो ये मानव,

उस परम शक्तिशाली

को भी चुनौती दे देता,


अपने दंभ में,

खैर,

लेकिन इस बार उसका घमंड कुछ काम नहीं आने वाला था,

वापस उसने कुछ मंत्र बुदबुदाये,

“शुन्य”

इसी तरह वह जम्भाल, दंद्धौल आदि सभी शक्तियो और पता नहीं कितने ही महाप्रेत और महाभट्ट से रिक्त हो चूका था,

रात्रि का दूसरा प्रहर बीत चूका था,

स्तिथि पूरी तरह से बाबा बसोठा के विपरीत थी,

वो लगभग अपनी सारी शक्तियों से रिक्त हो चूका था,

अब वो अपना मानसिक संतुलन खो चूका था, ऐसा पहली बार एसा उसके साथ हुआ और सबसे बुरी बात तो ये थी की अब उसके पास कुछ नहीं बचा था,

वह अब अपना आखिरी दाव खेलने वाला था, उसका आखिरी दाव था उसके गुरु,

उसने अपने गुरु की रूह को अब तक कैद किये हुए रखा था, उनकी शक्तियों को इस्तेमाल कर रहा था, लेकिन अब मामला उल्टा हो गया था, इसके अलावा उसके पास अब कोई चारा ही नहीं बचा था, हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना चाह रहा था,

प्रकति के विरुद्ध कार्य,

उसने अपने गुरु के कपाल जो हाथ में उठाया, और दोनों हाथो से पकड़ कर मंत्र बोल रहा था, कुछ ही समय शेष था बाण के छुटने में,

तभी दूसरी तरफ श्मशान में, वो पागल उठा अपनी जगह से और अपने शरीर को मोड़कर आलस झाडा,

मंदिर की तरफ देखकर उसने.....




















Fantastic Fantastic fantastic ..... Gajab ki lekhni hai Aapki... . Such me maza aa gya ab dekhte hai ki aage kya hota hai
 
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