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Fantasy वो कौन था

आपको ये कहानी कैसी लग रही है

  • बेकार है

    Votes: 2 5.3%
  • कुछ कह नही सकते

    Votes: 4 10.5%
  • अच्छी है

    Votes: 8 21.1%
  • बहुत अच्छी है

    Votes: 24 63.2%

  • Total voters
    38

manojmn37

Member
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जमा दिये हो गुरु
गरदा मचा दिये हो
बस अपडेट आता रहे तो कहानी बवाल मचा देगी

बहुत बहुत धन्यवाद आपका
खुशी है कि आपको कहानी पसंद आई
 

ashish_1982_in

Well-Known Member
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188
अपडेट शाम को आएगा भाई
"working days" में समय कम ही मिल पाता है इसीलिए अपडेट लिखने में और पोस्ट करने में 1-2 दिन का समय लग सकता है लेकिन "Saturday" "Sunday" को 3-4 अपडेट एक साथ मिल जायेंगे
intezar rehega bhai aapke update ka
 

manojmn37

Member
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मनोज भाई, क्या गज़ब कहानी लिख रहे हो आप ...??बेहतरीन ..
आपकी लेखन शैली पढ़कर किसी की याद आ गई .!!

धन्यवाद ,
मुझे ख़ुशी हुयी :)
 

manojmn37

Member
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अध्याय ३
खंड ३
श्राप या वरदान

रात्रि का तीसरा प्रहर बीत चूका था,

यहाँ से कही दूर,

किसी दुसरे देश में,

अमान, राजमहल के मखमली बिस्तरों पर सो रहा था,

तभी अचानक,

जोर से खिड़की खुलने की आवाज आयी,

आख खुली अमान की,

उठा,

देखा सामने,

उसके सामने खड़ा था एक गिद्ध जैसा दिखने वाला व्यक्ति,

मध्यम कद,

लम्बी-सी नाक,

जैसे किसी गिद्ध की चोच हो,

बहुत छोटे-छोटे कान और

और पुरे शरीर बाल ही बाल

जैसे उसको कपडे पहहने की आवश्यकता ही नहीं हो,

हल्की सी दुर्गन्ध लिए वो बोल पड़ता है “ मालिक . . .”

“वो .. वो ...” डरते हुए

“बोलते रहो नामिक, में सुन रहा हु”

“और थोडा जल्दी” इस बार थोडा क्रोध में बोल पड़ता है

“मालिक, वो बसोठा...”

बसोठा का नाम सुनते ही अमान थोडा सतर्क हो गया

“क्या, बसोठा का सन्देश है” उत्तेजित होकर

“क्या कहा उसने”

“मालिक, वो बसोठा, रि..रि...रिक्त हो गया”

“क्या” चौकते हुए

“वो रिक्त हो गया”

“पर कैसे”

“इतनी तो हमारे पास
जानकारी नहीं है, मेरे मालिक”

“अब वो हमारे कुछ काम का नहीं है”

“ख़त्म कर दो, उसे”

“माफ़ करना मालिक, लेकिन..”

“अब क्या हुआ” अमान बिस्तर पर बैठते हुए, इस बार वो क्रोधित नहीं था

“लेकिन उसका अब तक पता नहीं लगा है की वो अभी कहा है”

“तो यहाँ क्या कर रहे हो अभी, जाओ और ढूंड कर ख़त्म कर दो उसे”

“जी मालिक”

वापस एक बार खिडकियों के टकराने की आवाज आती है, अब कमरे में अमान के अलावा कोई नहीं था, अमान बिस्तर पर बैठे कुछ देर तक सोचता है फिर कमरे से बहार निकाल जाता है

.

.

.

.

भोर लगभग हो ही चुकी थी, सूर्य की पहली किरण धरा से मिलने को बेताब थी, बादल भी इस बेताबी को बढाकर सूर्यदेव से वैर नहीं लेना चाहते थे, वो भी धीरे-धीरे छट रहे थे

नदी किनारे,

सप्तोश,

धीरे-धीरे उसको होश आ रहा था, लेकिन सर उसका बहुत भरी था, रात्रि की बात का स्मरण आते ही वो झट से उठ बैठता है,

सामने देखता है,

कोई आदमी उसके गुरु को खीच कर एक पेड़ के पास ले जा रहा था, इतना देखते ही वो उस तरफ दौड़ पड़ता है

ये दोजू था, जो बसोठा को खीच का एक पेड़ के सहारे लिटा देता है, दोजू भी थकते हुये वही बैठ जाता है ‘बसोठा के भारी शरीर को खीचना इतना आसन भी नहीं था, मेहनत लगा दी थी पूरी दोजू की’

सप्तोश को उसकी तरफ आते ही दोजू उठ जाता है,

“उठ गए तुम” उठते हुए दोजू बोलता है

“हा”

“लेकिन”

“गुरूजी को क्या हुआ है”

“कुछ नहीं, बस अपने कर्मो की सजा काट रहा है, जो इतने वर्षो से अटकी पड़ी थी” कहते हुए दोजू अपने थैले में से एक चमड़े की थैली निकलता है और सप्तोश को पीने को देता है
“ले, पी ले इसे, सारा सरदर्द और शरीर का ताप उतर जायेगा”

सप्तोश, दोजू के हाथ से वो पेय लेकर पीने लगता है

“मै नहीं चाहता की कोई बीमार और थका हारा व्यक्ति मेरे साथ यात्रा पर चले” दोजू ऐसे ही मजाक में बोल पड़ता है

“में कही नहीं चलने वाला, मुझे अब इनकी देखभाल करनी है” सप्तोश, अपने गुरु की और देखते हुए बोलता है

“तुम अब इसकी चिंता करना छोड़ दो, अब तेरा गुरु उस मंदिर के रक्षक या यु कहो की उस मंदिर के
प्रधान पुजारी की गुलामी में है”

सुनते ही सप्तोश चौक पड़ता है “क्या मतलब है आपका”

“यही की अब बसोठा लकवा ग्रस्त है, और इसको मौत तब तक नहीं आ सकती जब तक इसके कर्म ख़त्म नहीं हो जाते, और दुनिया की कोई भी ओषधी इसको ठीक नहीं कर सकती” बसोठा की तरफ देखते हुए दोजू बोलता है

“इतनी कठोर सजा देने का क्या तात्पर्य है”

“सजा !! , मै तो इसको वरदान कहूँगा”

वरदान !!!”

“हा”

“ये वरदान, कैसे हो सकता है ?” सप्तोश दोजू की बातो को अभी तक समझने में सक्षम नहीं था

“क्योकि, यदि इसने अपने कर्मो के फल के बिना देह त्याग दिया तो, ना जाने कितने ही और जन्म लेने पड़ेंगे इस अनवरत जीवनधारा से छुटने में, इस तरह का वरदान हर किसी को नहीं मिलता, वाकई में कितना सहृदय है वो रक्षक” इतना कहते ही दोजू मंदिर की दिशा में आदर सहित झुक जाता है

अब सप्तोश के पास दोजू के साथ चलने के अलावा और कोई चारा नहीं था,

अब उसने अपने मन को तैयार कर लिया था दोजू के साथ चलने में,

और गटक लिया वो पेय पदार्थ जो दोजू ने दिया था,

पल भर के बाद

शांति,

सबकुछ गायब


सरदर्द,

बदनदर्द,

तपिश

सबकुछ,

जितनी रहस्यपूर्ण दोजू की बाते थी,

उतनी ही चमत्कारी उसकी औषधीय भी थी

दे देख दोजू मुस्कुरा पड़ता है,

और दोनों चल पड़ते है उसके झोपड़े की ओर,

...

उधर दोजू के झोपड़े पर, दोजू की प्रतीक्षा कर रहे थे, माणिकलाल और रमन !

हा,

ये रमन था,

निर्मला, माणिकलाल को दोजू के साथ अकेले नहीं जाने देना चाहती थी, आखिरकार अपनी पत्नी से हारकर माणिकलाल ने रमन को अपने साथ चलने का प्रस्ताव रखा, जो रमन ने सहर्ष मान लिया, ये थी सच्ची दोस्ती !

दोजू के अपनी तरफ आते हुए माणिकलाल और रमन दोनों खड़े हो जाते है,

“हम चलने को तैयार है” दोजू के आते ही माणिकलाल बोल पड़ता है,

“तुम भी चल रहो साथ में” दोजू ने रमन की तरफ इशारा करते हुए कहा “ अच्छा है, तीन से भले चार

“तुम सब रुको, में कुछ जरुरी सामान लेकर आता हु” कहते हुए दोजू झोपड़े में घुस जाता है

थोड़ी देर बाद दोजू झोपड़े से बाहर आकर रमन से बोलता है “तुम्हे तलवार चलाना तो आता है ना?”

रमन झट से ‘हा’ बोल पड़ता है, रमन ये सुनकर थोडा उत्साह से भर जाता है, उसके बाप-दादा सब सेना में जो थे,

दोजू ने अपने झोले में से एक तलवार निकाल कर रमन को दे देता है,

जैसे ही रमन तलवार हाथ में लेता है, वो चौक पड़ता है

“ये तो लकड़ी की है” रमन दोजू से बोल पड़ता है

“हा”

“तेरे लिए ये ही काफी है” इतना सुनते ही रमन थोडा चिढ जाता है, और ये देखकर सप्तोश हल्का सा मुस्कुरा देता है

“हमारी यात्रा उत्तर दिशा की तरफ पहाड़ो की ओर चलेगी”

“चलो तो अब चलते है” इतना कहते ही दोजू चलने लगता है

सूर्य अब उदय हो चूका था, और वे चारो लोग लगभग गाव की सीमा पार कर ही चुके थे,

तभी,

वो गाव का पागल बुड्ढा,

उनकी तरफ पत्थर फेकते हुए,

और
गालिया बोलते हुए उनके सामने आ पड़ता है

“मादर**”

“सालो”

“तुम लोग अपने आपको समझते क्या हो”

“हरा* के जनों”

“रं* की औलाद”

.

.

.
 

ashish_1982_in

Well-Known Member
5,573
18,878
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अध्याय ३
खंड ३
श्राप या वरदान

रात्रि का तीसरा प्रहर बीत चूका था,

यहाँ से कही दूर,

किसी दुसरे देश में,


अमान, राजमहल के मखमली बिस्तरों पर सो रहा था,

तभी अचानक,

जोर से खिड़की खुलने की आवाज आयी,

आख खुली अमान की,

उठा,

देखा सामने,

उसके सामने खड़ा था एक गिद्ध जैसा दिखने वाला व्यक्ति,

मध्यम कद,

लम्बी-सी नाक,

जैसे किसी गिद्ध की चोच हो,

बहुत छोटे-छोटे कान और

और पुरे शरीर बाल ही बाल

जैसे उसको कपडे पहहने की आवश्यकता ही नहीं हो,

हल्की सी दुर्गन्ध लिए वो बोल पड़ता है “ मालिक . . .”

“वो .. वो ...” डरते हुए

“बोलते रहो नामिक, में सुन रहा हु”

“और थोडा जल्दी” इस बार थोडा क्रोध में बोल पड़ता है

“मालिक, वो बसोठा...”

बसोठा का नाम सुनते ही अमान थोडा सतर्क हो गया

“क्या, बसोठा का सन्देश है” उत्तेजित होकर

“क्या कहा उसने”

“मालिक, वो बसोठा, रि..रि...रिक्त हो गया”

“क्या” चौकते हुए

“वो रिक्त हो गया”

“पर कैसे”

“इतनी तो हमारे पास
जानकारी नहीं है, मेरे मालिक”

“अब वो हमारे कुछ काम का नहीं है”

“ख़त्म कर दो, उसे”

“माफ़ करना मालिक, लेकिन..”

“अब क्या हुआ” अमान बिस्तर पर बैठते हुए, इस बार वो क्रोधित नहीं था

“लेकिन उसका अब तक पता नहीं लगा है की वो अभी कहा है”

“तो यहाँ क्या कर रहे हो अभी, जाओ और ढूंड कर ख़त्म कर दो उसे”

“जी मालिक”

वापस एक बार खिडकियों के टकराने की आवाज आती है, अब कमरे में अमान के अलावा कोई नहीं था, अमान बिस्तर पर बैठे कुछ देर तक सोचता है फिर कमरे से बहार निकाल जाता है

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भोर लगभग हो ही चुकी थी, सूर्य की पहली किरण धरा से मिलने को बेताब थी, बादल भी इस बेताबी को बढाकर सूर्यदेव से वैर नहीं लेना चाहते थे, वो भी धीरे-धीरे छट रहे थे

नदी किनारे,

सप्तोश,

धीरे-धीरे उसको होश आ रहा था, लेकिन सर उसका बहुत भरी था, रात्रि की बात का स्मरण आते ही वो झट से उठ बैठता है,

सामने देखता है,

कोई आदमी उसके गुरु को खीच कर एक पेड़ के पास ले जा रहा था, इतना देखते ही वो उस तरफ दौड़ पड़ता है

ये दोजू था, जो बसोठा को खीच का एक पेड़ के सहारे लिटा देता है, दोजू भी थकते हुये वही बैठ जाता है ‘बसोठा के भारी शरीर को खीचना इतना आसन भी नहीं था, मेहनत लगा दी थी पूरी दोजू की’

सप्तोश को उसकी तरफ आते ही दोजू उठ जाता है,

“उठ गए तुम” उठते हुए दोजू बोलता है

“हा”

“लेकिन”

“गुरूजी को क्या हुआ है”

“कुछ नहीं, बस अपने कर्मो की सजा काट रहा है, जो इतने वर्षो से अटकी पड़ी थी” कहते हुए दोजू अपने थैले में से एक चमड़े की थैली निकलता है और सप्तोश को पीने को देता है
“ले, पी ले इसे, सारा सरदर्द और शरीर का ताप उतर जायेगा”

सप्तोश, दोजू के हाथ से वो पेय लेकर पीने लगता है

“मै नहीं चाहता की कोई बीमार और थका हारा व्यक्ति मेरे साथ यात्रा पर चले” दोजू ऐसे ही मजाक में बोल पड़ता है

“में कही नहीं चलने वाला, मुझे अब इनकी देखभाल करनी है” सप्तोश, अपने गुरु की और देखते हुए बोलता है

“तुम अब इसकी चिंता करना छोड़ दो, अब तेरा गुरु उस मंदिर के रक्षक या यु कहो की उस मंदिर के
प्रधान पुजारी की गुलामी में है”

सुनते ही सप्तोश चौक पड़ता है “क्या मतलब है आपका”

“यही की अब बसोठा लकवा ग्रस्त है, और इसको मौत तब तक नहीं आ सकती जब तक इसके कर्म ख़त्म नहीं हो जाते, और दुनिया की कोई भी ओषधी इसको ठीक नहीं कर सकती” बसोठा की तरफ देखते हुए दोजू बोलता है

“इतनी कठोर सजा देने का क्या तात्पर्य है”

“सजा !! , मै तो इसको वरदान कहूँगा”

वरदान !!!”

“हा”

“ये वरदान, कैसे हो सकता है ?” सप्तोश दोजू की बातो को अभी तक समझने में सक्षम नहीं था

“क्योकि, यदि इसने अपने कर्मो के फल के बिना देह त्याग दिया तो, ना जाने कितने ही और जन्म लेने पड़ेंगे इस अनवरत जीवनधारा से छुटने में, इस तरह का वरदान हर किसी को नहीं मिलता, वाकई में कितना सहृदय है वो रक्षक” इतना कहते ही दोजू मंदिर की दिशा में आदर सहित झुक जाता है

अब सप्तोश के पास दोजू के साथ चलने के अलावा और कोई चारा नहीं था,

अब उसने अपने मन को तैयार कर लिया था दोजू के साथ चलने में,

और गटक लिया वो पेय पदार्थ जो दोजू ने दिया था,

पल भर के बाद

शांति,

सबकुछ गायब


सरदर्द,

बदनदर्द,

तपिश

सबकुछ,

जितनी रहस्यपूर्ण दोजू की बाते थी,

उतनी ही चमत्कारी उसकी औषधीय भी थी

दे देख दोजू मुस्कुरा पड़ता है,

और दोनों चल पड़ते है उसके झोपड़े की ओर,

...

उधर दोजू के झोपड़े पर, दोजू की प्रतीक्षा कर रहे थे, माणिकलाल और रमन !

हा,

ये रमन था,

निर्मला, माणिकलाल को दोजू के साथ अकेले नहीं जाने देना चाहती थी, आखिरकार अपनी पत्नी से हारकर माणिकलाल ने रमन को अपने साथ चलने का प्रस्ताव रखा, जो रमन ने सहर्ष मान लिया, ये थी सच्ची दोस्ती !

दोजू के अपनी तरफ आते हुए माणिकलाल और रमन दोनों खड़े हो जाते है,

“हम चलने को तैयार है” दोजू के आते ही माणिकलाल बोल पड़ता है,

“तुम भी चल रहो साथ में” दोजू ने रमन की तरफ इशारा करते हुए कहा “ अच्छा है, तीन से भले चार

“तुम सब रुको, में कुछ जरुरी सामान लेकर आता हु” कहते हुए दोजू झोपड़े में घुस जाता है

थोड़ी देर बाद दोजू झोपड़े से बाहर आकर रमन से बोलता है “तुम्हे तलवार चलाना तो आता है ना?”

रमन झट से ‘हा’ बोल पड़ता है, रमन ये सुनकर थोडा उत्साह से भर जाता है, उसके बाप-दादा सब सेना में जो थे,

दोजू ने अपने झोले में से एक तलवार निकाल कर रमन को दे देता है,

जैसे ही रमन तलवार हाथ में लेता है, वो चौक पड़ता है

“ये तो लकड़ी की है” रमन दोजू से बोल पड़ता है

“हा”

“तेरे लिए ये ही काफी है” इतना सुनते ही रमन थोडा चिढ जाता है, और ये देखकर सप्तोश हल्का सा मुस्कुरा देता है

“हमारी यात्रा उत्तर दिशा की तरफ पहाड़ो की ओर चलेगी”

“चलो तो अब चलते है” इतना कहते ही दोजू चलने लगता है

सूर्य अब उदय हो चूका था, और वे चारो लोग लगभग गाव की सीमा पार कर ही चुके थे,

तभी,

वो गाव का पागल बुड्ढा,

उनकी तरफ पत्थर फेकते हुए,

और
गालिया बोलते हुए उनके सामने आ पड़ता है

“मादर**”

“सालो”

“तुम लोग अपने आपको समझते क्या हो”

“हरा* के जनों”

“रं* की औलाद”

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Super fantastic update hai bhai maza aa gya ab dekhte hai ki aage kya hota hai
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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115,982
354
धन्यवाद आपका

आप बिल्कुल चिंता ना करे
कहानी को अधूरा नही छोडूंगा
हा, बीच मे थोड़ी "प्रोब्लम" हो गयीं थी लेकिन अब सब सही है
Koi baat nahi bhai problem to sabki life me aati hai bas adjust karte hain sab. Khair ab aap lage rahiye. Hame bhi ab fir se story ko repeat karke padhna padega so padhege,,,,, :D
 
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