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Romance श्राप [Completed]

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24, Update #25, Update #26, Update #27, Update #28, Update #29, Update #30, Update #31, Update #32, Update #33, Update #34, Update #35, Update #36, Update #37, Update #38, Update #39, Update #40, Update #41, Update #42, Update #43, Update #44, Update #45, Update #46, Update #47, Update #48, Update #49, Update #50, Update #51, Update #52.

Beautiful-Eyes
* इस चित्र का इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है! एक AI सॉफ्टवेयर की मदद से यह चित्र बनाया है। सुन्दर लगा, इसलिए यहाँ लगा दिया!
 
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dhparikh

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Update #24


“सुहासिनी,” हर्ष बहुत देर से बर्दाश्त कर रहा था, “बात क्या है? क्या छुपा रही हैं आप हमसे?”

यह प्रश्न हर्ष ने आज संभवतः दसवीं बार पूछा हो - लेकिन सुहासिनी थी कि हर बार केवल लाज से मुस्कुरा देती। कुछ कहती न।

उनके निकुञ्ज में हमेशा की ही तरह नीरवता फैली हुई थी। हाँ, रह रह कर, कभी कभी धनेश पक्षी की आवाज़ आ जाती - जो इस नीरवता को तोड़ती। इस गर्मी में सभी थक गए थे - क्या जीव जंतु, क्या मानुष! दूर दूर तक कोई नहीं था। लेकिन इस निकुञ्ज में कोई ख़ास बात थी। इन दोनों प्रेमियों को यहाँ गर्मी नहीं लगती थी - उल्टे, इन दोनों को यहाँ स्वर्ग जैसा आनंद मिलता था।

“अगर आप नहीं कहेंगी, तो हम जाएँ?”

“नहीं राजकुमार...” इस धमकी का प्रभाव सही स्थान पर हुआ, “ऐसे न कहिए! किन्तु... किन्तु... बात ही कुछ ऐसी है कि कहते हुए हमको लज्जा आ रही है!”

“ठीक है,” हर्ष सुहासिनी के खेल में शामिल होते हुए बोला, “तो हम आँखें बंद कर लेते हैं! ... तब तो नहीं आएगी लज्जा?”

“आएगी... किन्तु तब हम आपको बता अवश्य पाएँगे!”

“ठीक है... तो लीजिए...” कह कर हर्ष ने अपनी हथेलियों से अपनी दोनों आँखें बंद कर लीं, “अब बताईये...”

“जी बात दरअसल ये है कि हमारे पिता जी... उन्होंने... उन्होंने...”

“हाँ हाँ... आगे भी तो कहिए...”

“उन्होंने... आपके और... और हमारे सम्बन्ध के लिए युवरानी जी से बात करी...”

“क्या!” हर्ष ने चौंकते हुए कहा - उसको विश्वास ही नहीं हुआ, “आप सच कह रही हैं?”

“झूठ क्यों कहूँगी?” सुहासिनी ने ठुनकते हुए कहा, “आपको नहीं बताया किसी ने?”

“नहीं! किसी ने कुछ नहीं कहा!”

“ओह...” सुहासिनी की थोड़ी सी निराशा महसूस हुई, “संभव है कि युवरानी जी को किसी से इस विषय में बात करने का अवसर न मिला हो!”

“संभव है! ... अभी तक तो किसी ने भी इस बारे में मुझसे पूछा तक नहीं!” हर्ष अंदर ही अंदर खुश भी था, और डरा हुआ भी, “आपके बाबा ने कोई संकेत दिया आपको? हमारा मतलब...”

“हम आपका मतलब समझ रहे हैं...” सुहासिनी ने ख़ुशी से मुस्कुराते हुए कहा, “वो संतुष्ट लग रहे थे... बहुत संतुष्ट! जैसे... जैसे कि उनके ऊपर से कोई बोझ हट गया हो!”

“सच में?” हर्ष यह सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ, “आह! हमको भी... हमारे भी ऊपर से एक बोझ हट गया! ... भाभी माँ को आपके पिता जी से पता चल गया है तो वो पिताजी महाराज से अवश्य ही बात करेंगी! ... क्योंकि अब उनको भी समझ आ गया होगा कि हमारा प्रेम गंभीर है!”

सुहासिनी के गाल इस बात से लाल हुए बिना न रह सके।

दोनों कुछ देर तक कुछ कह न सके। वैसे भी पिछले कुछ समय में दोनों की निकटता आशातीत रूप से बढ़ गई थी। सुहासिनी का रूप अब हर्ष के दिलोदिमाग पर पूरी तरह से हावी था। वो इस बात के संज्ञान से बड़ा खुश हो गया था कि इस सुन्दर सी लड़की से उसका ब्याह संभव है। एक समय था जब ऐसा सोच पाना भी संभव नहीं था - शादी ब्याह तो बराबर वालों में होती है! एक साधारण कलाकार की लड़की, और राजकुमारी! असंभव!

धनेश की आवाज़, एक बार फिर से उस निस्तब्धता को तोड़ती हुई महसूस हुई। ह

र्ष और सुहासिनी - दोनों का ही ध्यान उस ओर आकर्षित हो गया। इस बार उसकी पुकार एक दो कूजन पर ही नहीं रुका, बल्कि कुछ देर तक चलता रहा। तीख़ी आवाज़ थी, लेकिन कानों को कचोट नहीं रही थी - क्योंकि पक्षी कुछ दूर रहा होगा। दूर के ढोल सुहाने होते हैं - क्योंकि उनकी कर्कशता कानों को सुनाई नहीं देती। लिहाज़ा, अगर इस गहन गर्मी में आँखें बंद कर के लेट जाएँ, तो धनेश की पुकार सुन कर, सुख भरी नींद आ जाए।

हर्ष कुछ सोच कर धीरे से मुस्कुराया।

“ये धनेश अपने लिए साथी ढूंढ रहा है!”

“अपने लिए या अपना...” सुहासिनी ने चुहल करी।

“हाँ, वो भी हो सकता है!” हर्ष हँसते हुए बोला, “लेकिन मुझे तो अपना साथी मिल गया!”

सुहासिनी फिर से लजा गई।



*


मीना के हाथ का खाना बड़ा ही स्वादिष्ट था।

लोग कहते हैं कि पुरुष के दिल का रास्ता उसके पेट से हो कर जाता है - हाँ, पेट के नीचे से भी जाता है, लेकिन दैनिक आवश्यकता होती है पोषण की, प्रेम की, साथी की! सम्भोग दैनिक आवश्यकता नहीं है। सुस्वादु भोजन कई बातों की तरफ़ संकेत करता है - यह कि आपका साथी पाक-कला में निपुण है; यह कि उसके मन में आपके लिए अपनत्व है; और यह कि वो सुसंस्कृत है!

“ओह गॉड,” जय ने भोजन की बढ़ाई करते हुए कहा, “दिस इस बेटर दैन भाभीस फ़ूड... ऑर इवन माँ...”

“हा हा...”

नो... सीरियसली! एंड दैट इस सेइंग समथिंग...” जय सच में बहुत खुश था, “वाओ!”

“हाँ, ठीक है, ठीक है! बहुत अधिक चढ़ाने की ज़रुरत नहीं!” मीना अंदर ही अंदर खुश तो थी, लेकिन बाहर वो ख़ुशी दिखा नहीं रही थी।

“अरे यार! सच बात को ऐसे मत बोलो!”

“ठीक है... एन्जॉय देन!”

“ये कढ़ी तो बहुत स्वादिष्ट है!”

हनी, आई ऍम हैप्पी कि तुमको पसंद आई... टाइम कम था, नहीं तो बहुत कुछ खिलाती!”

“रुक जाता हूँ फिर?” जय ने खिलवाड़ करते हुए कहा, “कल दिन भर रह जाता हूँ तुम्हारे साथ ही?”

“सच में?” मीना ने सुखद आश्चर्य वाले भाव में कहा - जैसे उसकी भी मन ही मन यही इच्छा रही हो।

“हाँ! ... मुझे लगा कि तुम ही नहीं चाहती कि मैं यहाँ रहूँ!”

“ऐसा क्यों सोचा तुमने?” मीना ने बड़ी कोमलता और बड़ी सच्चाई से कहा, “... मैं तुम्हारी हूँ, तो मेरा और मुझसे जुड़ा हुआ सब कुछ तुम्हारा है... ये घर भी तुम्हारा है!”

“ओके! देन आई विल स्टे! ... लेकिन मेरे पास चेंग क्लॉथ्स नहीं हैं!”

व्ही विल डू समथिंग!”

“ओके!” जय ने मुस्कुराते हुए कहा।

“कल क्लेयर, आदित्य और बच्चों को बुला लेंगे?” मीना बड़े उत्साह से बोली, “... लॉन्ग वीकेंड यहीं मनाएँगे? क्या कहते हो?”

“पक्की बात?”

“पक्की बात!” मीना की मुस्कराहट बहुत चौड़ी हो गई।

‘पक्की बात’ कहना, उन दोनों का तकिया-कलाम बनता जा रहा था। जब दो लोग प्यार में पड़ते हैं, तो एक दूसरे की ऐसी छोटी छोटी, लेकिन प्यारी बातें आत्मसात कर लेते हैं, और उनको पता भी नहीं चलता। ऐसा ही जय और मीना के साथ भी हो रहा था। दोनों एक दूसरे के रंग में रंगे जा रहे थे, और दोनों को पता भी नहीं चल रहा था।

“ठीक है... तुम भैया भाभी को कॉल कर लेना!”

“अरे! मैं क्यों?”

“तुम्हारा घर है... तुम इनवाइट करो न?”

“लेकिन तुम्हारा घर भी तो है!”

“हाँ - लेकिन इनवाइट तुमको करना होगा! कॉल कर के मैं ये तो बता दूंगा कि आज रात मैं यहीं रुक रहा हूँ, लेकिन कल का प्रोग्राम तुम ही बताना!”

“ठीक है हुकुम! जो आप कहें!”

“हा हा! ... ये वर्ड बहुत समय बात सुना!”

“अच्छा जी! आप ये वर्ड सुनते आ रहे हैं?”

“हाँ... जब भी इंडिया जाता हूँ, तब यही सुनता हूँ!”

“वाह जी! आप राजवाड़े हैं?”

“हो सकते हैं!”

“हा हा हा!”

बाकी का भोजन ऐसी ही हँसी ख़ुशी में बीत गया। भोजन के बाद जय ने अपने घर फ़ोन लगाया, और बताया कि वो आज रात यहीं रुकेगा। फिर उसने बताया कि मीना भी बात करेगी। जब मीना ने फ़ोन लिया, तब क्लेयर लाइन पर थी,

“क्लेयर, हाय!”

“हाय मीना... क्या बात है? ... मेरे देवर को मुझसे अलग कर रही हो?”

“हा हा! नहीं यार! ऐसा कुछ नहीं है... कल आप सभी को यहाँ बुलाने का मन था... तो जय ने कहा कि क्यों न वो रुक जाए!” मीना ने जय की तरफ़ से एक प्यारा सा झूठ कहा।

“अरे रहने दो! ... मुझे पता है कि साहब खुद ही तुमसे दूर नहीं रह सकते! ... इट्स ओके!”

“क्लेयर, एक और बात करनी थी...”

“हाँ बोलो?”

“आप सभी कल मेरे यहाँ आईये न! ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर सब कुछ यहीं करेंगे! ... मेरा घर आपके जैसा महल नहीं है, लेकिन स्पेस तो है!”

“ओह मीना! आर यू श्योर?”

“हाँ! ... पक्की बात!”

“हा हा हा... तुम तो जय के जैसे बातें करने लगी!”

यह बात सुन कर मीना शरमाए बिना न रह सकी।

*
Nice update....
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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भाई अगर मीना वास्तव मे कढ़ी बहुत ही बढ़िया बनाती है तब तो मै इनका शैदाई हो गया , इनका बड़ा वाला प्रशंसक हो गया ।

मेरी कहानियों की हिरोईनें होती ही ऐसी हैं संजू भाई 😂
(कम से कम मेरी कोशिश ऐसी ही रहती है कि पाठकों को कहानी की नायिका से इश्क़ हो जाए)

क्योंकि कढ़ी मेरा सबसे फेवरेट व्यंजन है । अगर थाली मे कढ़ी हो तो तीन - चार रोटी एक्स्ट्रा खा सकता हूं । मेरे एक मारवाड़ी दोस्त की मां बहुत ही बेहतरीन कढ़ी बनाती थी । अब वो इस दुनिया मे नही है लेकिन इस कढ़ी की वजह से उनकी यादें मन मस्तिष्क से जुड़ी हुई है। उनसे बेहतर कोई यह भोजन बना ही नही सकता ।

कढ़ी के इतने प्रकार हैं कि पकाने वाले को सच में पाक कला में निपुण होना चाहिए!
मेरे हिसाब से पाक कला का ज्ञान होना, सुसंस्कृत होने समान ही है - ठीक वैसे ही जैसे संगीत (गायन/वादन), नृत्य, अथवा चित्रकला इत्यादि में!

वैसे भोजन से सम्बंधित कुछ बातें इस फोरम पर लिखा था मैने । पर याद नही है किस स्टोरी पर लिखा था ।
एक बार फिर से दोहरा रहा हूं --
दिल तक पहुंचने के सिर्फ तीन रास्ते हैं --
पहला मुझे खाने पर ले जाओ , दूसरा मेरे लिए बढ़िया खाना बनाओ , और तीसरा मेरा खाना बन जाओ । :D

हा हा हा! सही है!

शायद बहुत जल्द एक खुबसूरत पारिवारिक महफिल सजने वाली है मीना आवास मे ।

महफ़िल ही महफ़िल है :)

उधर सुहासिनी और जय का प्रेम धीरे धीरे परवान चढ़ते जा रहा है । और अगर इस प्रेम पर अभिभावक की सहमति प्राप्त हो जाए तो फिर कहना ही क्या !

जी बिल्कुल!

लेकिन अचानक से आई इतनी खुशी दिल मे एक अंजाना भय भी पैदा करती है । वह भय परिवार की तरफ से आया हो सकता है या कोई कुदरती करिश्मे से ।

कुछ तो होगा ही! नहीं तो कहानी का नाम श्राप क्यों होता?

बहुत ही खूबसूरत अपडेट avsji भाई। आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग।

बहुत बहुत धन्यवाद भाई साहब! :)
 

park

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Update #24


“सुहासिनी,” हर्ष बहुत देर से बर्दाश्त कर रहा था, “बात क्या है? क्या छुपा रही हैं आप हमसे?”

यह प्रश्न हर्ष ने आज संभवतः दसवीं बार पूछा हो - लेकिन सुहासिनी थी कि हर बार केवल लाज से मुस्कुरा देती। कुछ कहती न।

उनके निकुञ्ज में हमेशा की ही तरह नीरवता फैली हुई थी। हाँ, रह रह कर, कभी कभी धनेश पक्षी की आवाज़ आ जाती - जो इस नीरवता को तोड़ती। इस गर्मी में सभी थक गए थे - क्या जीव जंतु, क्या मानुष! दूर दूर तक कोई नहीं था। लेकिन इस निकुञ्ज में कोई ख़ास बात थी। इन दोनों प्रेमियों को यहाँ गर्मी नहीं लगती थी - उल्टे, इन दोनों को यहाँ स्वर्ग जैसा आनंद मिलता था।

“अगर आप नहीं कहेंगी, तो हम जाएँ?”

“नहीं राजकुमार...” इस धमकी का प्रभाव सही स्थान पर हुआ, “ऐसे न कहिए! किन्तु... किन्तु... बात ही कुछ ऐसी है कि कहते हुए हमको लज्जा आ रही है!”

“ठीक है,” हर्ष सुहासिनी के खेल में शामिल होते हुए बोला, “तो हम आँखें बंद कर लेते हैं! ... तब तो नहीं आएगी लज्जा?”

“आएगी... किन्तु तब हम आपको बता अवश्य पाएँगे!”

“ठीक है... तो लीजिए...” कह कर हर्ष ने अपनी हथेलियों से अपनी दोनों आँखें बंद कर लीं, “अब बताईये...”

“जी बात दरअसल ये है कि हमारे पिता जी... उन्होंने... उन्होंने...”

“हाँ हाँ... आगे भी तो कहिए...”

“उन्होंने... आपके और... और हमारे सम्बन्ध के लिए युवरानी जी से बात करी...”

“क्या!” हर्ष ने चौंकते हुए कहा - उसको विश्वास ही नहीं हुआ, “आप सच कह रही हैं?”

“झूठ क्यों कहूँगी?” सुहासिनी ने ठुनकते हुए कहा, “आपको नहीं बताया किसी ने?”

“नहीं! किसी ने कुछ नहीं कहा!”

“ओह...” सुहासिनी की थोड़ी सी निराशा महसूस हुई, “संभव है कि युवरानी जी को किसी से इस विषय में बात करने का अवसर न मिला हो!”

“संभव है! ... अभी तक तो किसी ने भी इस बारे में मुझसे पूछा तक नहीं!” हर्ष अंदर ही अंदर खुश भी था, और डरा हुआ भी, “आपके बाबा ने कोई संकेत दिया आपको? हमारा मतलब...”

“हम आपका मतलब समझ रहे हैं...” सुहासिनी ने ख़ुशी से मुस्कुराते हुए कहा, “वो संतुष्ट लग रहे थे... बहुत संतुष्ट! जैसे... जैसे कि उनके ऊपर से कोई बोझ हट गया हो!”

“सच में?” हर्ष यह सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ, “आह! हमको भी... हमारे भी ऊपर से एक बोझ हट गया! ... भाभी माँ को आपके पिता जी से पता चल गया है तो वो पिताजी महाराज से अवश्य ही बात करेंगी! ... क्योंकि अब उनको भी समझ आ गया होगा कि हमारा प्रेम गंभीर है!”

सुहासिनी के गाल इस बात से लाल हुए बिना न रह सके।

दोनों कुछ देर तक कुछ कह न सके। वैसे भी पिछले कुछ समय में दोनों की निकटता आशातीत रूप से बढ़ गई थी। सुहासिनी का रूप अब हर्ष के दिलोदिमाग पर पूरी तरह से हावी था। वो इस बात के संज्ञान से बड़ा खुश हो गया था कि इस सुन्दर सी लड़की से उसका ब्याह संभव है। एक समय था जब ऐसा सोच पाना भी संभव नहीं था - शादी ब्याह तो बराबर वालों में होती है! एक साधारण कलाकार की लड़की, और राजकुमारी! असंभव!

धनेश की आवाज़, एक बार फिर से उस निस्तब्धता को तोड़ती हुई महसूस हुई। ह

र्ष और सुहासिनी - दोनों का ही ध्यान उस ओर आकर्षित हो गया। इस बार उसकी पुकार एक दो कूजन पर ही नहीं रुका, बल्कि कुछ देर तक चलता रहा। तीख़ी आवाज़ थी, लेकिन कानों को कचोट नहीं रही थी - क्योंकि पक्षी कुछ दूर रहा होगा। दूर के ढोल सुहाने होते हैं - क्योंकि उनकी कर्कशता कानों को सुनाई नहीं देती। लिहाज़ा, अगर इस गहन गर्मी में आँखें बंद कर के लेट जाएँ, तो धनेश की पुकार सुन कर, सुख भरी नींद आ जाए।

हर्ष कुछ सोच कर धीरे से मुस्कुराया।

“ये धनेश अपने लिए साथी ढूंढ रहा है!”

“अपने लिए या अपना...” सुहासिनी ने चुहल करी।

“हाँ, वो भी हो सकता है!” हर्ष हँसते हुए बोला, “लेकिन मुझे तो अपना साथी मिल गया!”

सुहासिनी फिर से लजा गई।



*


मीना के हाथ का खाना बड़ा ही स्वादिष्ट था।

लोग कहते हैं कि पुरुष के दिल का रास्ता उसके पेट से हो कर जाता है - हाँ, पेट के नीचे से भी जाता है, लेकिन दैनिक आवश्यकता होती है पोषण की, प्रेम की, साथी की! सम्भोग दैनिक आवश्यकता नहीं है। सुस्वादु भोजन कई बातों की तरफ़ संकेत करता है - यह कि आपका साथी पाक-कला में निपुण है; यह कि उसके मन में आपके लिए अपनत्व है; और यह कि वो सुसंस्कृत है!

“ओह गॉड,” जय ने भोजन की बढ़ाई करते हुए कहा, “दिस इस बेटर दैन भाभीस फ़ूड... ऑर इवन माँ...”

“हा हा...”

नो... सीरियसली! एंड दैट इस सेइंग समथिंग...” जय सच में बहुत खुश था, “वाओ!”

“हाँ, ठीक है, ठीक है! बहुत अधिक चढ़ाने की ज़रुरत नहीं!” मीना अंदर ही अंदर खुश तो थी, लेकिन बाहर वो ख़ुशी दिखा नहीं रही थी।

“अरे यार! सच बात को ऐसे मत बोलो!”

“ठीक है... एन्जॉय देन!”

“ये कढ़ी तो बहुत स्वादिष्ट है!”

हनी, आई ऍम हैप्पी कि तुमको पसंद आई... टाइम कम था, नहीं तो बहुत कुछ खिलाती!”

“रुक जाता हूँ फिर?” जय ने खिलवाड़ करते हुए कहा, “कल दिन भर रह जाता हूँ तुम्हारे साथ ही?”

“सच में?” मीना ने सुखद आश्चर्य वाले भाव में कहा - जैसे उसकी भी मन ही मन यही इच्छा रही हो।

“हाँ! ... मुझे लगा कि तुम ही नहीं चाहती कि मैं यहाँ रहूँ!”

“ऐसा क्यों सोचा तुमने?” मीना ने बड़ी कोमलता और बड़ी सच्चाई से कहा, “... मैं तुम्हारी हूँ, तो मेरा और मुझसे जुड़ा हुआ सब कुछ तुम्हारा है... ये घर भी तुम्हारा है!”

“ओके! देन आई विल स्टे! ... लेकिन मेरे पास चेंग क्लॉथ्स नहीं हैं!”

व्ही विल डू समथिंग!”

“ओके!” जय ने मुस्कुराते हुए कहा।

“कल क्लेयर, आदित्य और बच्चों को बुला लेंगे?” मीना बड़े उत्साह से बोली, “... लॉन्ग वीकेंड यहीं मनाएँगे? क्या कहते हो?”

“पक्की बात?”

“पक्की बात!” मीना की मुस्कराहट बहुत चौड़ी हो गई।

‘पक्की बात’ कहना, उन दोनों का तकिया-कलाम बनता जा रहा था। जब दो लोग प्यार में पड़ते हैं, तो एक दूसरे की ऐसी छोटी छोटी, लेकिन प्यारी बातें आत्मसात कर लेते हैं, और उनको पता भी नहीं चलता। ऐसा ही जय और मीना के साथ भी हो रहा था। दोनों एक दूसरे के रंग में रंगे जा रहे थे, और दोनों को पता भी नहीं चल रहा था।

“ठीक है... तुम भैया भाभी को कॉल कर लेना!”

“अरे! मैं क्यों?”

“तुम्हारा घर है... तुम इनवाइट करो न?”

“लेकिन तुम्हारा घर भी तो है!”

“हाँ - लेकिन इनवाइट तुमको करना होगा! कॉल कर के मैं ये तो बता दूंगा कि आज रात मैं यहीं रुक रहा हूँ, लेकिन कल का प्रोग्राम तुम ही बताना!”

“ठीक है हुकुम! जो आप कहें!”

“हा हा! ... ये वर्ड बहुत समय बात सुना!”

“अच्छा जी! आप ये वर्ड सुनते आ रहे हैं?”

“हाँ... जब भी इंडिया जाता हूँ, तब यही सुनता हूँ!”

“वाह जी! आप राजवाड़े हैं?”

“हो सकते हैं!”

“हा हा हा!”

बाकी का भोजन ऐसी ही हँसी ख़ुशी में बीत गया। भोजन के बाद जय ने अपने घर फ़ोन लगाया, और बताया कि वो आज रात यहीं रुकेगा। फिर उसने बताया कि मीना भी बात करेगी। जब मीना ने फ़ोन लिया, तब क्लेयर लाइन पर थी,

“क्लेयर, हाय!”

“हाय मीना... क्या बात है? ... मेरे देवर को मुझसे अलग कर रही हो?”

“हा हा! नहीं यार! ऐसा कुछ नहीं है... कल आप सभी को यहाँ बुलाने का मन था... तो जय ने कहा कि क्यों न वो रुक जाए!” मीना ने जय की तरफ़ से एक प्यारा सा झूठ कहा।

“अरे रहने दो! ... मुझे पता है कि साहब खुद ही तुमसे दूर नहीं रह सकते! ... इट्स ओके!”

“क्लेयर, एक और बात करनी थी...”

“हाँ बोलो?”

“आप सभी कल मेरे यहाँ आईये न! ब्रेकफास्ट, लंच, डिनर सब कुछ यहीं करेंगे! ... मेरा घर आपके जैसा महल नहीं है, लेकिन स्पेस तो है!”

“ओह मीना! आर यू श्योर?”

“हाँ! ... पक्की बात!”

“हा हा हा... तुम तो जय के जैसे बातें करने लगी!”

यह बात सुन कर मीना शरमाए बिना न रह सकी।

*
Nice and superb update....
 

Ajju Landwalia

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Wah avsji Bhai,

Sabhi updates aaj padhi, ek se badhkar ek..............aap ki lekhni me sach me koi jadu he...........sab kuch aankho ke samne hota pratit hota he..............

Aur bade hi sunder tarike se aapne pathko ko do kaal khand ke dauran bina hile bandh kar rakha he...............gazab bhai, simply awesome

Agli update ka besabri se intezar rahega
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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159
Wah avsji Bhai,

Sabhi updates aaj padhi, ek se badhkar ek..............aap ki lekhni me sach me koi jadu he...........sab kuch aankho ke samne hota pratit hota he..............

Aur bade hi sunder tarike se aapne pathko ko do kaal khand ke dauran bina hile bandh kar rakha he...............gazab bhai, simply awesome

Agli update ka besabri se intezar rahega

बहुत बहुत धन्यवाद मित्र!
आपको कहानी पसंद आ रही है - जान कर बहुत अच्छा लगा।
आगे बहुत कुछ होना बचा हुआ है, इसलिए लगातार साथ बने रहें :)

आज का अपडेट बस आने ही वाला है।
 

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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Update #25


धनेश पक्षी को शायद अपना साथी मिल गया था - क्योंकि अब दो दो आवाज़ें आने लगीं थीं। अचानक से ही पक्षियों की आवाज़ें तीखी हो गईं - लेकिन अभी भी उनका शोर सुन कर खराब नहीं लग रहा था। हर्ष कौतूहलवश, उचक कर निकुञ्ज के चारों तरफ देखने लगा कि शायद धनेश पक्षी दिख जाए। लेकिन कुछ नहीं दिखा। देखने में वो वृक्ष और झाड़ियाँ विरल थीं, लेकिन फिर भी आवश्यकतानुसार घनी भी!

“क्या हुआ?” सुहासिनी ने पूछा।

“कुछ नहीं... इतना शोरगुल है, फिर भी कोई पक्षी नहीं दिख रहा है!”

“इसको शोर न कहिए राजकुमार जी...”

“हा हा... जैसी राजकुमारी जी की इच्छा!”

सुहासिनी कुछ देर न जाने क्या सोच कर चुप रही, फिर आगे बोली,

“आपको पता है न राजकुमार जी? ... धनेश पक्षी उम्र भर के लिए साथ निभाते हैं!”

“अच्छा? ऐसा है क्या?”

“जी... बहुत ही कम पक्षी हैं, जो अपना पूरा जीवन केवल एक साथी के संग बिताते हैं। ... आपके पसंदीदा सारस पक्षी भी इन्ही धनेश पक्षियों जैसे ही हैं!”

“आपको हमारी पसंद का पता है!” हर्ष ने आश्चर्य से कहा।

“आपकी साथी होने का दम्भ हममें यूँ ही थोड़े ही आया है!” सुहासिनी ने बड़े घमंड से कहा।

उसकी बात सुन कर हर्ष हो बड़ा भला महसूस हुआ। हाँ, जीवनसाथी हो तो ऐसी!

“हम भी तो आप ही के साथ अपना पूरा जीवन बिता देना चाहते हैं, राजकुमारी जी!”

हर्ष ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा। यह एक इतना कोमल संकेत था, कि सुहासिनी अंदर ही अंदर पूरी तरह पिघल गई। पहले अपने लिए ‘राजकुमारी’ वाला सम्बोधन सुहासिनी को थोड़ा अचकचा लगता था, लेकिन अब नहीं। राजकुमार हर्ष की पत्नी के रूप में वो राजकुमारी के रूप में ही जानी जायेगी, और इस बात का संज्ञान उसको बड़ा भला लग रहा था।

“हम आपको बहुत प्रेम करेंगे...” सुहासिनी ने वचन दिया।

“हमको पता है!” हर्ष ने कहा, और सुहासिनी का एक गाल चूम लिया।

उस दिन के बाद से आज पहली बार हर्ष ने सुहासिनी को चूमा था। इसलिए दोनों के बीच चुम्बन का आदान प्रदान अभी भी अप्रत्याशित था। उसके दिल में हलचल अवश्य मच गई, लेकिन इस बार सुहासिनी घबराई नहीं। लेकिन फिर भी, लज्जा की एक कोमल, रक्तिम लालिमा उसके पूरे शरीर पर फ़ैल गई।

“सुहास...” हर्ष बोला।

“जी?”

उत्तर में हर्ष ने कुछ कहा नहीं - लेकिन उसके सुहासिनी की तरफ़ कुछ ऐसे अंदाज़ में देखा कि उसको लगा कि हर्ष उससे किसी बात की अनुमति माँग रहा है। स्त्री-सुलभ संज्ञान था, या कुछ और - उसने शर्माते हुए बड़े हौले से ‘हाँ’ में सर हिलाया। बस - एक बार! इतना संकेत बहुत था हर्ष के लिए। उसने हाथ बढ़ा कर सुहासिनी की कुर्ती के बटनों को खोलना शुरू कर दिया।

सुहासिनी का दिल फिर से तेजी से धड़कने लगा। उस दिन तो राजकुमार ने जो कुछ किया था, अपनी स्वयं की मनमर्ज़ी से किया था। लेकिन आज वो दोष उस पर नहीं लगने वाला था। आज सुहासिनी ने उसको अनुमति दे दी थी। बहुत संभव है कि सुहासिनी के मन के किसी कोने में यह इच्छा... या यूँ कह लें, कि उम्मीद दबी हुई थी, कि उस दिन की ही तरह फिर से कुछ हो!

लेकिन जब वैसा कुछ होने लगता है, तो मन में होता है कि वो कहीं छुप जाए! बेचैनी और आस के बीच की रस्साकशी बड़ी अजीब होती है। लेकिन, वो यह होने से रोकने देना नहीं चाहती थी।

कुछ ही क्षणों में सुहासिनी कमर के ऊपर से पुनः नग्न थी। उसके छोटे छोटे नारंगी के फलों के आकर के गोल-मटोल नवकिशोर स्तन पुनः हर्ष के सामने थे।

“कितने सुन्दर हैं ये...” हर्ष उनको सहलाते हुए बोल रहा था, “... कैसे न पसंद आएँ ये हमको...”

हर्ष जैसे खुद से ही बातें कर रहा था।

ऐसी बातें किस लड़की के दिल में हलचल न पैदा कर दें? सुहासिनी भी अपवाद नहीं थी। उसको शर्म आ रही थी, लेकिन उसके मन में एक गज़ब का आंदोलन भी हो रहा था! उसको लग रहा था जैसे घण्टों बीते जा रहे हों - उसका राजकुमार उसके स्तनों को बड़ी लालसा, बड़ी रुचिकर दृष्टि से देख रहा था, सहला रहा था, महसूस कर रहा था। शायद ही उसके स्तनों का कोई भी विवरण हर्ष की नज़र से बच सका हो। इतनी क़रीबी जान पहचान हो गई!

अपने मन की व्यथा वो किस से कहे?

“राजकुमार...?” अंततः वो बोली।

“हम्म?”

“अ... आप को ऐसे शरारतें करना अच्छा लगता है?”

“बहुत!” कह कर हर्ष ने सुहासिनी को चूम लिया, “... आप इतनी सुन्दर भी तो हैं... हम करें भी तो क्या करें? ”

बात तो सही थी! कमसिन, क्षीण से शरीर वाली सुहासिनी एक ख़ालिस राजस्थानी सुंदरी थी! और अपने नग्न स्वरुप में और भी सुन्दर सी लग रही थी! अप्सरा जैसी! मनभावन! कामुक!

‘कामुक!’

यह शब्द हर्ष के मस्तिष्क में अचानक ही कौंध गया, और इस बात के बोध मात्र से उसके शरीर में कम्पन होने लगा। यौवन के सहज आकर्षण से वशीभूत हर्ष ने बढ़ कर सुहासिनी को अपने आलिंगन में भर लिया। और यह भावना हर्ष तक ही सीमित नहीं थी - सुहासिनी भी, हर्ष की ही भाँति काँप रही थी। अपरिचित एहसास! डरावना भी! लेकिन ऐसा नहीं कि जिसको रोकना दोनों के लिए संभव हो!

हर्ष सुहासिनी की तरफ़ थोड़ा झुका - सुहासिनी समझ तो रही थी कि वो उसको चूमना चाहता है, लेकिन किस तरह से चूमना चाहता है - उसको इस बात का अंदाजा नहीं था। हर्ष ने अपने भैया हरिश्चन्द्र और भाभी प्रियम्बदा को उनके अंतरंग क्षणों में एक दो बार चुम्बन करते हुए देखा अवश्य था, लिहाज़ा, वो अब वही क्रिया अपनी प्रेमिका पर आज़माना चाहता था। सुहासिनी को लगा कि वो उसके गालों या माथे पर चूमेगा - लेकिन हुआ कुछ और! हर्ष के होंठ ज्यों की उसके होंठों पर स्पर्श हुए, जैसे विद्युत् की कोई तीव्र तरंग उसके शरीर में दौड़ गई!

खजुराहो के मंदिरों में युवतियों की कई मूर्तियाँ हैं - कुछेक में ऐसा दर्शाया गया है कि बिच्छू उन युवतियों की जाँघों पर काट रहा है। यह बिच्छू दरअसल है ‘काम’! हर्ष के होंठों को अपने होंठों पर स्पर्श होते महसूस होते ही सुहासिनी के शरीर का ताप किसी तीव्र ज्वर के होने के समान ही बढ़ गया। काम का ज्वार, किसी ज्वर समान ही चढ़ता है। नवोदित यौवन की मालकिन सुहासिनी भी अब काम के ताप में तप रही थी। अपरिचित आंदोलनों से उसका शरीर काँप रहा था। ऐसा कैसे होने लगता है कि आपका शरीर स्वयं आपके नियंत्रण में न रहे? न जाने कौन सी प्रणाली है, लेकिन अब सुहासिनी का अपने खुद के ऊपर से नियंत्रण समाप्त हो गया था।

दोनों का चुम्बन कुछ देर तक चला - दोनों के लिए यह बहुत ही अपरिचित एहसास था, लेकिन किसी भी कोण से खराब नहीं था। मन में अजीब सा लगा लेकिन बुरा नहीं। चुम्बन समाप्त होते होते दोनों की साँसें धौंकनी के समान चल रही थीं - जैसे एक लम्बी दूरी की दौड़ पूरी कर के आए हों दोनों।

लेकिन हर्ष आज कुछ अलग ही करने की मनोदशा में था।

जब मन में चोर होता है, तब आप कोई भी काम चोरी छुपे, सबसे बचा कर करते हैं। लेकिन हर्ष के मन में चोर नहीं था - जब से उसने सुहासिनी को देखा था, वो तब से उसको अपनी ही मान रहा था। वो उसको चोरी से प्रेम नहीं करना चाहता था। इसलिए जब उसके हाथ स्वतः ही उसके घाघरे का नाड़ा खोलने में व्यस्त हो गए, तब उसने एक बार भी ऐसा नहीं सोचा कि वो आस पास का जायज़ा ले। उसको इस बात का ध्यान तो था कि उनके निकुंज में एकांत था, उसके कारण उनको यूँ अंतरंग होने में सहूलियत थी। लेकिन वो निकुंज एक तरह से दोनों का घर था - उनका शयन कक्ष था। जिसमें दोनों एक दूसरे के साथ अकेले में मिल सकते थे।

सुहासिनी जानती थी कि विवाह के बाद यह तो होना ही है, लेकिन अभी? थोड़ा अलग तो था, लेकिन उसको ऐसा नहीं लगा कि यह नहीं होना चाहिए। राजकुमार उसके प्रेमी नहीं रह गए थे - वो उनको अपना पति कब से स्वीकार कर चुकी थी। अपने इष्टदेवता से वो कब से प्रार्थना कर के अपने और अपने राजकुमार के साथ की कामना कर चुकी थी। कम से कम तीन बार दोनों ने एक साथ मंदिर में जा कर पूजन किया, और ईश्वर से एक दूसरे को अपने अपने लिए माँग लिया था। और तो और, अब तो उनके सम्बन्ध को उसके बाबा और युवरानी जी का आशीर्वाद भी प्राप्त था! इतना सब हो जाने के बाद अब तो बस, कुछ रस्में ही बची हुई थीं!

दो चार पल ही बीतें होंगे, लेकिन दोनों को लग रहा था जैसे युग बीत गए हों!

लेकिन अब सुहासिनी अपने पूर्ण नग्न स्वरुप में अपने राजकुमार के सम्मुख थी।

*
 

Ajju Landwalia

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Update #25


धनेश पक्षी को शायद अपना साथी मिल गया था - क्योंकि अब दो दो आवाज़ें आने लगीं थीं। अचानक से ही पक्षियों की आवाज़ें तीखी हो गईं - लेकिन अभी भी उनका शोर सुन कर खराब नहीं लग रहा था। हर्ष कौतूहलवश, उचक कर निकुञ्ज के चारों तरफ देखने लगा कि शायद धनेश पक्षी दिख जाए। लेकिन कुछ नहीं दिखा। देखने में वो वृक्ष और झाड़ियाँ विरल थीं, लेकिन फिर भी आवश्यकतानुसार घनी भी!

“क्या हुआ?” सुहासिनी ने पूछा।

“कुछ नहीं... इतना शोरगुल है, फिर भी कोई पक्षी नहीं दिख रहा है!”

“इसको शोर न कहिए राजकुमार जी...”

“हा हा... जैसी राजकुमारी जी की इच्छा!”

सुहासिनी कुछ देर न जाने क्या सोच कर चुप रही, फिर आगे बोली,

“आपको पता है न राजकुमार जी? ... धनेश पक्षी उम्र भर के लिए साथ निभाते हैं!”

“अच्छा? ऐसा है क्या?”

“जी... बहुत ही कम पक्षी हैं, जो अपना पूरा जीवन केवल एक साथी के संग बिताते हैं। ... आपके पसंदीदा सारस पक्षी भी इन्ही धनेश पक्षियों जैसे ही हैं!”

“आपको हमारी पसंद का पता है!” हर्ष ने आश्चर्य से कहा।

“आपकी साथी होने का दम्भ हममें यूँ ही थोड़े ही आया है!” सुहासिनी ने बड़े घमंड से कहा।

उसकी बात सुन कर हर्ष हो बड़ा भला महसूस हुआ। हाँ, जीवनसाथी हो तो ऐसी!

“हम भी तो आप ही के साथ अपना पूरा जीवन बिता देना चाहते हैं, राजकुमारी जी!”

हर्ष ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा। यह एक इतना कोमल संकेत था, कि सुहासिनी अंदर ही अंदर पूरी तरह पिघल गई। पहले अपने लिए ‘राजकुमारी’ वाला सम्बोधन सुहासिनी को थोड़ा अचकचा लगता था, लेकिन अब नहीं। राजकुमार हर्ष की पत्नी के रूप में वो राजकुमारी के रूप में ही जानी जायेगी, और इस बात का संज्ञान उसको बड़ा भला लग रहा था।

“हम आपको बहुत प्रेम करेंगे...” सुहासिनी ने वचन दिया।

“हमको पता है!” हर्ष ने कहा, और सुहासिनी का एक गाल चूम लिया।

उस दिन के बाद से आज पहली बार हर्ष ने सुहासिनी को चूमा था। इसलिए दोनों के बीच चुम्बन का आदान प्रदान अभी भी अप्रत्याशित था। उसके दिल में हलचल अवश्य मच गई, लेकिन इस बार सुहासिनी घबराई नहीं। लेकिन फिर भी, लज्जा की एक कोमल, रक्तिम लालिमा उसके पूरे शरीर पर फ़ैल गई।

“सुहास...” हर्ष बोला।

“जी?”

उत्तर में हर्ष ने कुछ कहा नहीं - लेकिन उसके सुहासिनी की तरफ़ कुछ ऐसे अंदाज़ में देखा कि उसको लगा कि हर्ष उससे किसी बात की अनुमति माँग रहा है। स्त्री-सुलभ संज्ञान था, या कुछ और - उसने शर्माते हुए बड़े हौले से ‘हाँ’ में सर हिलाया। बस - एक बार! इतना संकेत बहुत था हर्ष के लिए। उसने हाथ बढ़ा कर सुहासिनी की कुर्ती के बटनों को खोलना शुरू कर दिया।

सुहासिनी का दिल फिर से तेजी से धड़कने लगा। उस दिन तो राजकुमार ने जो कुछ किया था, अपनी स्वयं की मनमर्ज़ी से किया था। लेकिन आज वो दोष उस पर नहीं लगने वाला था। आज सुहासिनी ने उसको अनुमति दे दी थी। बहुत संभव है कि सुहासिनी के मन के किसी कोने में यह इच्छा... या यूँ कह लें, कि उम्मीद दबी हुई थी, कि उस दिन की ही तरह फिर से कुछ हो!

लेकिन जब वैसा कुछ होने लगता है, तो मन में होता है कि वो कहीं छुप जाए! बेचैनी और आस के बीच की रस्साकशी बड़ी अजीब होती है। लेकिन, वो यह होने से रोकने देना नहीं चाहती थी।

कुछ ही क्षणों में सुहासिनी कमर के ऊपर से पुनः नग्न थी। उसके छोटे छोटे नारंगी के फलों के आकर के गोल-मटोल नवकिशोर स्तन पुनः हर्ष के सामने थे।

“कितने सुन्दर हैं ये...” हर्ष उनको सहलाते हुए बोल रहा था, “... कैसे न पसंद आएँ ये हमको...”

हर्ष जैसे खुद से ही बातें कर रहा था।

ऐसी बातें किस लड़की के दिल में हलचल न पैदा कर दें? सुहासिनी भी अपवाद नहीं थी। उसको शर्म आ रही थी, लेकिन उसके मन में एक गज़ब का आंदोलन भी हो रहा था! उसको लग रहा था जैसे घण्टों बीते जा रहे हों - उसका राजकुमार उसके स्तनों को बड़ी लालसा, बड़ी रुचिकर दृष्टि से देख रहा था, सहला रहा था, महसूस कर रहा था। शायद ही उसके स्तनों का कोई भी विवरण हर्ष की नज़र से बच सका हो। इतनी क़रीबी जान पहचान हो गई!

अपने मन की व्यथा वो किस से कहे?

“राजकुमार...?” अंततः वो बोली।

“हम्म?”

“अ... आप को ऐसे शरारतें करना अच्छा लगता है?”

“बहुत!” कह कर हर्ष ने सुहासिनी को चूम लिया, “... आप इतनी सुन्दर भी तो हैं... हम करें भी तो क्या करें? ”

बात तो सही थी! कमसिन, क्षीण से शरीर वाली सुहासिनी एक ख़ालिस राजस्थानी सुंदरी थी! और अपने नग्न स्वरुप में और भी सुन्दर सी लग रही थी! अप्सरा जैसी! मनभावन! कामुक!

‘कामुक!’

यह शब्द हर्ष के मस्तिष्क में अचानक ही कौंध गया, और इस बात के बोध मात्र से उसके शरीर में कम्पन होने लगा। यौवन के सहज आकर्षण से वशीभूत हर्ष ने बढ़ कर सुहासिनी को अपने आलिंगन में भर लिया। और यह भावना हर्ष तक ही सीमित नहीं थी - सुहासिनी भी, हर्ष की ही भाँति काँप रही थी। अपरिचित एहसास! डरावना भी! लेकिन ऐसा नहीं कि जिसको रोकना दोनों के लिए संभव हो!

हर्ष सुहासिनी की तरफ़ थोड़ा झुका - सुहासिनी समझ तो रही थी कि वो उसको चूमना चाहता है, लेकिन किस तरह से चूमना चाहता है - उसको इस बात का अंदाजा नहीं था। हर्ष ने अपने भैया हरिश्चन्द्र और भाभी प्रियम्बदा को उनके अंतरंग क्षणों में एक दो बार चुम्बन करते हुए देखा अवश्य था, लिहाज़ा, वो अब वही क्रिया अपनी प्रेमिका पर आज़माना चाहता था। सुहासिनी को लगा कि वो उसके गालों या माथे पर चूमेगा - लेकिन हुआ कुछ और! हर्ष के होंठ ज्यों की उसके होंठों पर स्पर्श हुए, जैसे विद्युत् की कोई तीव्र तरंग उसके शरीर में दौड़ गई!

खजुराहो के मंदिरों में युवतियों की कई मूर्तियाँ हैं - कुछेक में ऐसा दर्शाया गया है कि बिच्छू उन युवतियों की जाँघों पर काट रहा है। यह बिच्छू दरअसल है ‘काम’! हर्ष के होंठों को अपने होंठों पर स्पर्श होते महसूस होते ही सुहासिनी के शरीर का ताप किसी तीव्र ज्वर के होने के समान ही बढ़ गया। काम का ज्वार, किसी ज्वर समान ही चढ़ता है। नवोदित यौवन की मालकिन सुहासिनी भी अब काम के ताप में तप रही थी। अपरिचित आंदोलनों से उसका शरीर काँप रहा था। ऐसा कैसे होने लगता है कि आपका शरीर स्वयं आपके नियंत्रण में न रहे? न जाने कौन सी प्रणाली है, लेकिन अब सुहासिनी का अपने खुद के ऊपर से नियंत्रण समाप्त हो गया था।

दोनों का चुम्बन कुछ देर तक चला - दोनों के लिए यह बहुत ही अपरिचित एहसास था, लेकिन किसी भी कोण से खराब नहीं था। मन में अजीब सा लगा लेकिन बुरा नहीं। चुम्बन समाप्त होते होते दोनों की साँसें धौंकनी के समान चल रही थीं - जैसे एक लम्बी दूरी की दौड़ पूरी कर के आए हों दोनों।

लेकिन हर्ष आज कुछ अलग ही करने की मनोदशा में था।

जब मन में चोर होता है, तब आप कोई भी काम चोरी छुपे, सबसे बचा कर करते हैं। लेकिन हर्ष के मन में चोर नहीं था - जब से उसने सुहासिनी को देखा था, वो तब से उसको अपनी ही मान रहा था। वो उसको चोरी से प्रेम नहीं करना चाहता था। इसलिए जब उसके हाथ स्वतः ही उसके घाघरे का नाड़ा खोलने में व्यस्त हो गए, तब उसने एक बार भी ऐसा नहीं सोचा कि वो आस पास का जायज़ा ले। उसको इस बात का ध्यान तो था कि उनके निकुंज में एकांत था, उसके कारण उनको यूँ अंतरंग होने में सहूलियत थी। लेकिन वो निकुंज एक तरह से दोनों का घर था - उनका शयन कक्ष था। जिसमें दोनों एक दूसरे के साथ अकेले में मिल सकते थे।

सुहासिनी जानती थी कि विवाह के बाद यह तो होना ही है, लेकिन अभी? थोड़ा अलग तो था, लेकिन उसको ऐसा नहीं लगा कि यह नहीं होना चाहिए। राजकुमार उसके प्रेमी नहीं रह गए थे - वो उनको अपना पति कब से स्वीकार कर चुकी थी। अपने इष्टदेवता से वो कब से प्रार्थना कर के अपने और अपने राजकुमार के साथ की कामना कर चुकी थी। कम से कम तीन बार दोनों ने एक साथ मंदिर में जा कर पूजन किया, और ईश्वर से एक दूसरे को अपने अपने लिए माँग लिया था। और तो और, अब तो उनके सम्बन्ध को उसके बाबा और युवरानी जी का आशीर्वाद भी प्राप्त था! इतना सब हो जाने के बाद अब तो बस, कुछ रस्में ही बची हुई थीं!

दो चार पल ही बीतें होंगे, लेकिन दोनों को लग रहा था जैसे युग बीत गए हों!

लेकिन अब सुहासिनी अपने पूर्ण नग्न स्वरुप में अपने राजकुमार के सम्मुख थी।


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Atyant manbhavuk update avsji Bhai,

Shabdo ka anokha chitran..............gazab.............simply awesome
 

kas1709

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Update #25


धनेश पक्षी को शायद अपना साथी मिल गया था - क्योंकि अब दो दो आवाज़ें आने लगीं थीं। अचानक से ही पक्षियों की आवाज़ें तीखी हो गईं - लेकिन अभी भी उनका शोर सुन कर खराब नहीं लग रहा था। हर्ष कौतूहलवश, उचक कर निकुञ्ज के चारों तरफ देखने लगा कि शायद धनेश पक्षी दिख जाए। लेकिन कुछ नहीं दिखा। देखने में वो वृक्ष और झाड़ियाँ विरल थीं, लेकिन फिर भी आवश्यकतानुसार घनी भी!

“क्या हुआ?” सुहासिनी ने पूछा।

“कुछ नहीं... इतना शोरगुल है, फिर भी कोई पक्षी नहीं दिख रहा है!”

“इसको शोर न कहिए राजकुमार जी...”

“हा हा... जैसी राजकुमारी जी की इच्छा!”

सुहासिनी कुछ देर न जाने क्या सोच कर चुप रही, फिर आगे बोली,

“आपको पता है न राजकुमार जी? ... धनेश पक्षी उम्र भर के लिए साथ निभाते हैं!”

“अच्छा? ऐसा है क्या?”

“जी... बहुत ही कम पक्षी हैं, जो अपना पूरा जीवन केवल एक साथी के संग बिताते हैं। ... आपके पसंदीदा सारस पक्षी भी इन्ही धनेश पक्षियों जैसे ही हैं!”

“आपको हमारी पसंद का पता है!” हर्ष ने आश्चर्य से कहा।

“आपकी साथी होने का दम्भ हममें यूँ ही थोड़े ही आया है!” सुहासिनी ने बड़े घमंड से कहा।

उसकी बात सुन कर हर्ष हो बड़ा भला महसूस हुआ। हाँ, जीवनसाथी हो तो ऐसी!

“हम भी तो आप ही के साथ अपना पूरा जीवन बिता देना चाहते हैं, राजकुमारी जी!”

हर्ष ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा। यह एक इतना कोमल संकेत था, कि सुहासिनी अंदर ही अंदर पूरी तरह पिघल गई। पहले अपने लिए ‘राजकुमारी’ वाला सम्बोधन सुहासिनी को थोड़ा अचकचा लगता था, लेकिन अब नहीं। राजकुमार हर्ष की पत्नी के रूप में वो राजकुमारी के रूप में ही जानी जायेगी, और इस बात का संज्ञान उसको बड़ा भला लग रहा था।

“हम आपको बहुत प्रेम करेंगे...” सुहासिनी ने वचन दिया।

“हमको पता है!” हर्ष ने कहा, और सुहासिनी का एक गाल चूम लिया।

उस दिन के बाद से आज पहली बार हर्ष ने सुहासिनी को चूमा था। इसलिए दोनों के बीच चुम्बन का आदान प्रदान अभी भी अप्रत्याशित था। उसके दिल में हलचल अवश्य मच गई, लेकिन इस बार सुहासिनी घबराई नहीं। लेकिन फिर भी, लज्जा की एक कोमल, रक्तिम लालिमा उसके पूरे शरीर पर फ़ैल गई।

“सुहास...” हर्ष बोला।

“जी?”

उत्तर में हर्ष ने कुछ कहा नहीं - लेकिन उसके सुहासिनी की तरफ़ कुछ ऐसे अंदाज़ में देखा कि उसको लगा कि हर्ष उससे किसी बात की अनुमति माँग रहा है। स्त्री-सुलभ संज्ञान था, या कुछ और - उसने शर्माते हुए बड़े हौले से ‘हाँ’ में सर हिलाया। बस - एक बार! इतना संकेत बहुत था हर्ष के लिए। उसने हाथ बढ़ा कर सुहासिनी की कुर्ती के बटनों को खोलना शुरू कर दिया।

सुहासिनी का दिल फिर से तेजी से धड़कने लगा। उस दिन तो राजकुमार ने जो कुछ किया था, अपनी स्वयं की मनमर्ज़ी से किया था। लेकिन आज वो दोष उस पर नहीं लगने वाला था। आज सुहासिनी ने उसको अनुमति दे दी थी। बहुत संभव है कि सुहासिनी के मन के किसी कोने में यह इच्छा... या यूँ कह लें, कि उम्मीद दबी हुई थी, कि उस दिन की ही तरह फिर से कुछ हो!

लेकिन जब वैसा कुछ होने लगता है, तो मन में होता है कि वो कहीं छुप जाए! बेचैनी और आस के बीच की रस्साकशी बड़ी अजीब होती है। लेकिन, वो यह होने से रोकने देना नहीं चाहती थी।

कुछ ही क्षणों में सुहासिनी कमर के ऊपर से पुनः नग्न थी। उसके छोटे छोटे नारंगी के फलों के आकर के गोल-मटोल नवकिशोर स्तन पुनः हर्ष के सामने थे।

“कितने सुन्दर हैं ये...” हर्ष उनको सहलाते हुए बोल रहा था, “... कैसे न पसंद आएँ ये हमको...”

हर्ष जैसे खुद से ही बातें कर रहा था।

ऐसी बातें किस लड़की के दिल में हलचल न पैदा कर दें? सुहासिनी भी अपवाद नहीं थी। उसको शर्म आ रही थी, लेकिन उसके मन में एक गज़ब का आंदोलन भी हो रहा था! उसको लग रहा था जैसे घण्टों बीते जा रहे हों - उसका राजकुमार उसके स्तनों को बड़ी लालसा, बड़ी रुचिकर दृष्टि से देख रहा था, सहला रहा था, महसूस कर रहा था। शायद ही उसके स्तनों का कोई भी विवरण हर्ष की नज़र से बच सका हो। इतनी क़रीबी जान पहचान हो गई!

अपने मन की व्यथा वो किस से कहे?

“राजकुमार...?” अंततः वो बोली।

“हम्म?”

“अ... आप को ऐसे शरारतें करना अच्छा लगता है?”

“बहुत!” कह कर हर्ष ने सुहासिनी को चूम लिया, “... आप इतनी सुन्दर भी तो हैं... हम करें भी तो क्या करें? ”

बात तो सही थी! कमसिन, क्षीण से शरीर वाली सुहासिनी एक ख़ालिस राजस्थानी सुंदरी थी! और अपने नग्न स्वरुप में और भी सुन्दर सी लग रही थी! अप्सरा जैसी! मनभावन! कामुक!

‘कामुक!’

यह शब्द हर्ष के मस्तिष्क में अचानक ही कौंध गया, और इस बात के बोध मात्र से उसके शरीर में कम्पन होने लगा। यौवन के सहज आकर्षण से वशीभूत हर्ष ने बढ़ कर सुहासिनी को अपने आलिंगन में भर लिया। और यह भावना हर्ष तक ही सीमित नहीं थी - सुहासिनी भी, हर्ष की ही भाँति काँप रही थी। अपरिचित एहसास! डरावना भी! लेकिन ऐसा नहीं कि जिसको रोकना दोनों के लिए संभव हो!

हर्ष सुहासिनी की तरफ़ थोड़ा झुका - सुहासिनी समझ तो रही थी कि वो उसको चूमना चाहता है, लेकिन किस तरह से चूमना चाहता है - उसको इस बात का अंदाजा नहीं था। हर्ष ने अपने भैया हरिश्चन्द्र और भाभी प्रियम्बदा को उनके अंतरंग क्षणों में एक दो बार चुम्बन करते हुए देखा अवश्य था, लिहाज़ा, वो अब वही क्रिया अपनी प्रेमिका पर आज़माना चाहता था। सुहासिनी को लगा कि वो उसके गालों या माथे पर चूमेगा - लेकिन हुआ कुछ और! हर्ष के होंठ ज्यों की उसके होंठों पर स्पर्श हुए, जैसे विद्युत् की कोई तीव्र तरंग उसके शरीर में दौड़ गई!

खजुराहो के मंदिरों में युवतियों की कई मूर्तियाँ हैं - कुछेक में ऐसा दर्शाया गया है कि बिच्छू उन युवतियों की जाँघों पर काट रहा है। यह बिच्छू दरअसल है ‘काम’! हर्ष के होंठों को अपने होंठों पर स्पर्श होते महसूस होते ही सुहासिनी के शरीर का ताप किसी तीव्र ज्वर के होने के समान ही बढ़ गया। काम का ज्वार, किसी ज्वर समान ही चढ़ता है। नवोदित यौवन की मालकिन सुहासिनी भी अब काम के ताप में तप रही थी। अपरिचित आंदोलनों से उसका शरीर काँप रहा था। ऐसा कैसे होने लगता है कि आपका शरीर स्वयं आपके नियंत्रण में न रहे? न जाने कौन सी प्रणाली है, लेकिन अब सुहासिनी का अपने खुद के ऊपर से नियंत्रण समाप्त हो गया था।

दोनों का चुम्बन कुछ देर तक चला - दोनों के लिए यह बहुत ही अपरिचित एहसास था, लेकिन किसी भी कोण से खराब नहीं था। मन में अजीब सा लगा लेकिन बुरा नहीं। चुम्बन समाप्त होते होते दोनों की साँसें धौंकनी के समान चल रही थीं - जैसे एक लम्बी दूरी की दौड़ पूरी कर के आए हों दोनों।

लेकिन हर्ष आज कुछ अलग ही करने की मनोदशा में था।

जब मन में चोर होता है, तब आप कोई भी काम चोरी छुपे, सबसे बचा कर करते हैं। लेकिन हर्ष के मन में चोर नहीं था - जब से उसने सुहासिनी को देखा था, वो तब से उसको अपनी ही मान रहा था। वो उसको चोरी से प्रेम नहीं करना चाहता था। इसलिए जब उसके हाथ स्वतः ही उसके घाघरे का नाड़ा खोलने में व्यस्त हो गए, तब उसने एक बार भी ऐसा नहीं सोचा कि वो आस पास का जायज़ा ले। उसको इस बात का ध्यान तो था कि उनके निकुंज में एकांत था, उसके कारण उनको यूँ अंतरंग होने में सहूलियत थी। लेकिन वो निकुंज एक तरह से दोनों का घर था - उनका शयन कक्ष था। जिसमें दोनों एक दूसरे के साथ अकेले में मिल सकते थे।

सुहासिनी जानती थी कि विवाह के बाद यह तो होना ही है, लेकिन अभी? थोड़ा अलग तो था, लेकिन उसको ऐसा नहीं लगा कि यह नहीं होना चाहिए। राजकुमार उसके प्रेमी नहीं रह गए थे - वो उनको अपना पति कब से स्वीकार कर चुकी थी। अपने इष्टदेवता से वो कब से प्रार्थना कर के अपने और अपने राजकुमार के साथ की कामना कर चुकी थी। कम से कम तीन बार दोनों ने एक साथ मंदिर में जा कर पूजन किया, और ईश्वर से एक दूसरे को अपने अपने लिए माँग लिया था। और तो और, अब तो उनके सम्बन्ध को उसके बाबा और युवरानी जी का आशीर्वाद भी प्राप्त था! इतना सब हो जाने के बाद अब तो बस, कुछ रस्में ही बची हुई थीं!

दो चार पल ही बीतें होंगे, लेकिन दोनों को लग रहा था जैसे युग बीत गए हों!

लेकिन अब सुहासिनी अपने पूर्ण नग्न स्वरुप में अपने राजकुमार के सम्मुख थी।


*
Nice update....
 

dhparikh

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Update #25


धनेश पक्षी को शायद अपना साथी मिल गया था - क्योंकि अब दो दो आवाज़ें आने लगीं थीं। अचानक से ही पक्षियों की आवाज़ें तीखी हो गईं - लेकिन अभी भी उनका शोर सुन कर खराब नहीं लग रहा था। हर्ष कौतूहलवश, उचक कर निकुञ्ज के चारों तरफ देखने लगा कि शायद धनेश पक्षी दिख जाए। लेकिन कुछ नहीं दिखा। देखने में वो वृक्ष और झाड़ियाँ विरल थीं, लेकिन फिर भी आवश्यकतानुसार घनी भी!

“क्या हुआ?” सुहासिनी ने पूछा।

“कुछ नहीं... इतना शोरगुल है, फिर भी कोई पक्षी नहीं दिख रहा है!”

“इसको शोर न कहिए राजकुमार जी...”

“हा हा... जैसी राजकुमारी जी की इच्छा!”

सुहासिनी कुछ देर न जाने क्या सोच कर चुप रही, फिर आगे बोली,

“आपको पता है न राजकुमार जी? ... धनेश पक्षी उम्र भर के लिए साथ निभाते हैं!”

“अच्छा? ऐसा है क्या?”

“जी... बहुत ही कम पक्षी हैं, जो अपना पूरा जीवन केवल एक साथी के संग बिताते हैं। ... आपके पसंदीदा सारस पक्षी भी इन्ही धनेश पक्षियों जैसे ही हैं!”

“आपको हमारी पसंद का पता है!” हर्ष ने आश्चर्य से कहा।

“आपकी साथी होने का दम्भ हममें यूँ ही थोड़े ही आया है!” सुहासिनी ने बड़े घमंड से कहा।

उसकी बात सुन कर हर्ष हो बड़ा भला महसूस हुआ। हाँ, जीवनसाथी हो तो ऐसी!

“हम भी तो आप ही के साथ अपना पूरा जीवन बिता देना चाहते हैं, राजकुमारी जी!”

हर्ष ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा। यह एक इतना कोमल संकेत था, कि सुहासिनी अंदर ही अंदर पूरी तरह पिघल गई। पहले अपने लिए ‘राजकुमारी’ वाला सम्बोधन सुहासिनी को थोड़ा अचकचा लगता था, लेकिन अब नहीं। राजकुमार हर्ष की पत्नी के रूप में वो राजकुमारी के रूप में ही जानी जायेगी, और इस बात का संज्ञान उसको बड़ा भला लग रहा था।

“हम आपको बहुत प्रेम करेंगे...” सुहासिनी ने वचन दिया।

“हमको पता है!” हर्ष ने कहा, और सुहासिनी का एक गाल चूम लिया।

उस दिन के बाद से आज पहली बार हर्ष ने सुहासिनी को चूमा था। इसलिए दोनों के बीच चुम्बन का आदान प्रदान अभी भी अप्रत्याशित था। उसके दिल में हलचल अवश्य मच गई, लेकिन इस बार सुहासिनी घबराई नहीं। लेकिन फिर भी, लज्जा की एक कोमल, रक्तिम लालिमा उसके पूरे शरीर पर फ़ैल गई।

“सुहास...” हर्ष बोला।

“जी?”

उत्तर में हर्ष ने कुछ कहा नहीं - लेकिन उसके सुहासिनी की तरफ़ कुछ ऐसे अंदाज़ में देखा कि उसको लगा कि हर्ष उससे किसी बात की अनुमति माँग रहा है। स्त्री-सुलभ संज्ञान था, या कुछ और - उसने शर्माते हुए बड़े हौले से ‘हाँ’ में सर हिलाया। बस - एक बार! इतना संकेत बहुत था हर्ष के लिए। उसने हाथ बढ़ा कर सुहासिनी की कुर्ती के बटनों को खोलना शुरू कर दिया।

सुहासिनी का दिल फिर से तेजी से धड़कने लगा। उस दिन तो राजकुमार ने जो कुछ किया था, अपनी स्वयं की मनमर्ज़ी से किया था। लेकिन आज वो दोष उस पर नहीं लगने वाला था। आज सुहासिनी ने उसको अनुमति दे दी थी। बहुत संभव है कि सुहासिनी के मन के किसी कोने में यह इच्छा... या यूँ कह लें, कि उम्मीद दबी हुई थी, कि उस दिन की ही तरह फिर से कुछ हो!

लेकिन जब वैसा कुछ होने लगता है, तो मन में होता है कि वो कहीं छुप जाए! बेचैनी और आस के बीच की रस्साकशी बड़ी अजीब होती है। लेकिन, वो यह होने से रोकने देना नहीं चाहती थी।

कुछ ही क्षणों में सुहासिनी कमर के ऊपर से पुनः नग्न थी। उसके छोटे छोटे नारंगी के फलों के आकर के गोल-मटोल नवकिशोर स्तन पुनः हर्ष के सामने थे।

“कितने सुन्दर हैं ये...” हर्ष उनको सहलाते हुए बोल रहा था, “... कैसे न पसंद आएँ ये हमको...”

हर्ष जैसे खुद से ही बातें कर रहा था।

ऐसी बातें किस लड़की के दिल में हलचल न पैदा कर दें? सुहासिनी भी अपवाद नहीं थी। उसको शर्म आ रही थी, लेकिन उसके मन में एक गज़ब का आंदोलन भी हो रहा था! उसको लग रहा था जैसे घण्टों बीते जा रहे हों - उसका राजकुमार उसके स्तनों को बड़ी लालसा, बड़ी रुचिकर दृष्टि से देख रहा था, सहला रहा था, महसूस कर रहा था। शायद ही उसके स्तनों का कोई भी विवरण हर्ष की नज़र से बच सका हो। इतनी क़रीबी जान पहचान हो गई!

अपने मन की व्यथा वो किस से कहे?

“राजकुमार...?” अंततः वो बोली।

“हम्म?”

“अ... आप को ऐसे शरारतें करना अच्छा लगता है?”

“बहुत!” कह कर हर्ष ने सुहासिनी को चूम लिया, “... आप इतनी सुन्दर भी तो हैं... हम करें भी तो क्या करें? ”

बात तो सही थी! कमसिन, क्षीण से शरीर वाली सुहासिनी एक ख़ालिस राजस्थानी सुंदरी थी! और अपने नग्न स्वरुप में और भी सुन्दर सी लग रही थी! अप्सरा जैसी! मनभावन! कामुक!

‘कामुक!’

यह शब्द हर्ष के मस्तिष्क में अचानक ही कौंध गया, और इस बात के बोध मात्र से उसके शरीर में कम्पन होने लगा। यौवन के सहज आकर्षण से वशीभूत हर्ष ने बढ़ कर सुहासिनी को अपने आलिंगन में भर लिया। और यह भावना हर्ष तक ही सीमित नहीं थी - सुहासिनी भी, हर्ष की ही भाँति काँप रही थी। अपरिचित एहसास! डरावना भी! लेकिन ऐसा नहीं कि जिसको रोकना दोनों के लिए संभव हो!

हर्ष सुहासिनी की तरफ़ थोड़ा झुका - सुहासिनी समझ तो रही थी कि वो उसको चूमना चाहता है, लेकिन किस तरह से चूमना चाहता है - उसको इस बात का अंदाजा नहीं था। हर्ष ने अपने भैया हरिश्चन्द्र और भाभी प्रियम्बदा को उनके अंतरंग क्षणों में एक दो बार चुम्बन करते हुए देखा अवश्य था, लिहाज़ा, वो अब वही क्रिया अपनी प्रेमिका पर आज़माना चाहता था। सुहासिनी को लगा कि वो उसके गालों या माथे पर चूमेगा - लेकिन हुआ कुछ और! हर्ष के होंठ ज्यों की उसके होंठों पर स्पर्श हुए, जैसे विद्युत् की कोई तीव्र तरंग उसके शरीर में दौड़ गई!

खजुराहो के मंदिरों में युवतियों की कई मूर्तियाँ हैं - कुछेक में ऐसा दर्शाया गया है कि बिच्छू उन युवतियों की जाँघों पर काट रहा है। यह बिच्छू दरअसल है ‘काम’! हर्ष के होंठों को अपने होंठों पर स्पर्श होते महसूस होते ही सुहासिनी के शरीर का ताप किसी तीव्र ज्वर के होने के समान ही बढ़ गया। काम का ज्वार, किसी ज्वर समान ही चढ़ता है। नवोदित यौवन की मालकिन सुहासिनी भी अब काम के ताप में तप रही थी। अपरिचित आंदोलनों से उसका शरीर काँप रहा था। ऐसा कैसे होने लगता है कि आपका शरीर स्वयं आपके नियंत्रण में न रहे? न जाने कौन सी प्रणाली है, लेकिन अब सुहासिनी का अपने खुद के ऊपर से नियंत्रण समाप्त हो गया था।

दोनों का चुम्बन कुछ देर तक चला - दोनों के लिए यह बहुत ही अपरिचित एहसास था, लेकिन किसी भी कोण से खराब नहीं था। मन में अजीब सा लगा लेकिन बुरा नहीं। चुम्बन समाप्त होते होते दोनों की साँसें धौंकनी के समान चल रही थीं - जैसे एक लम्बी दूरी की दौड़ पूरी कर के आए हों दोनों।

लेकिन हर्ष आज कुछ अलग ही करने की मनोदशा में था।

जब मन में चोर होता है, तब आप कोई भी काम चोरी छुपे, सबसे बचा कर करते हैं। लेकिन हर्ष के मन में चोर नहीं था - जब से उसने सुहासिनी को देखा था, वो तब से उसको अपनी ही मान रहा था। वो उसको चोरी से प्रेम नहीं करना चाहता था। इसलिए जब उसके हाथ स्वतः ही उसके घाघरे का नाड़ा खोलने में व्यस्त हो गए, तब उसने एक बार भी ऐसा नहीं सोचा कि वो आस पास का जायज़ा ले। उसको इस बात का ध्यान तो था कि उनके निकुंज में एकांत था, उसके कारण उनको यूँ अंतरंग होने में सहूलियत थी। लेकिन वो निकुंज एक तरह से दोनों का घर था - उनका शयन कक्ष था। जिसमें दोनों एक दूसरे के साथ अकेले में मिल सकते थे।

सुहासिनी जानती थी कि विवाह के बाद यह तो होना ही है, लेकिन अभी? थोड़ा अलग तो था, लेकिन उसको ऐसा नहीं लगा कि यह नहीं होना चाहिए। राजकुमार उसके प्रेमी नहीं रह गए थे - वो उनको अपना पति कब से स्वीकार कर चुकी थी। अपने इष्टदेवता से वो कब से प्रार्थना कर के अपने और अपने राजकुमार के साथ की कामना कर चुकी थी। कम से कम तीन बार दोनों ने एक साथ मंदिर में जा कर पूजन किया, और ईश्वर से एक दूसरे को अपने अपने लिए माँग लिया था। और तो और, अब तो उनके सम्बन्ध को उसके बाबा और युवरानी जी का आशीर्वाद भी प्राप्त था! इतना सब हो जाने के बाद अब तो बस, कुछ रस्में ही बची हुई थीं!

दो चार पल ही बीतें होंगे, लेकिन दोनों को लग रहा था जैसे युग बीत गए हों!

लेकिन अब सुहासिनी अपने पूर्ण नग्न स्वरुप में अपने राजकुमार के सम्मुख थी।


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Nice update....
 
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