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Romance श्राप [Completed]

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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159
Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24, Update #25, Update #26, Update #27, Update #28, Update #29, Update #30, Update #31, Update #32, Update #33, Update #34, Update #35, Update #36, Update #37, Update #38, Update #39, Update #40, Update #41, Update #42, Update #43, Update #44, Update #45, Update #46, Update #47, Update #48, Update #49, Update #50, Update #51, Update #52.

Beautiful-Eyes
* इस चित्र का इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है! एक AI सॉफ्टवेयर की मदद से यह चित्र बनाया है। सुन्दर लगा, इसलिए यहाँ लगा दिया!
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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ऐसा ख्याल एक दौर मे मुझे भी था कि यह चीज और कुछ नही सिर्फ ढकोसला ही है लेकिन जो चीज मैने कहा , एक समय बाद आप भी विश्वास करने लगेंगे ।

विश्वास और तर्क में अंतर है। कुछ मानने वाले पृथ्वी को चपटा मानते हैं। अब उनका क्या ही करें?
खैर, इस बात को मैं खींचना नहीं चाहता, इसलिए यहीं छोड़ रहा हूँ।

लेकिन आपके ब्राह्मण पर किए हुए कमेन्ट से वास्तव मे मुझे दुख हुआ । यह ऐसा था जैसे एक द्रविड ने आर्य के लिए कहा हो ।

फिर तो आपको द्रविड़ों के बारे में ठीक से पता ही नहीं।

और जहां तक हिटलर और चर्चिल की बात है - हमारे देश मे भी क्रूर , मतलब- परस्त , हैवान शख्सियत हुए है । कुछ हमारे स्वतंत्रता के बाद भी और वह बहुत ज्यादा त्रासदी रहा । जब अपने खुद का दामन साफ नही हो तो दूसरे पर आरोप नही लगाना चाहिए । वैसे क्या आप को लगता है कि युद्ध की विभीषिक आज के दौर मे बदल गई है ?
यह हमारा दुर्भाग्य रहा कि हमे वही इतिहास पढ़ाया गया है जो इतिहासकार , राजनीतिक लीडर के हित और स्वार्थ मे था । लेकिन विगत कुछ वर्षों से यह भी राहत है कि अब उन षड्यंत्र का पर्दाफाश हो रहा है ।

मैंने हिटलर और चर्चिल की बात इसलिए करी, क्योंकि दोनों समकालीन थे - एक को हीरो और दूसरे को विलेन के रूप में जाना जाता है।
लेकिन मैं केवल ये कह रहा था कि दोनों एक ही दर्ज़े के सूवर थे।

आपको मेरी बात बुरी लग गई, इस बात का मुझे खेद है।
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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भैया, इस बात पर बस इतना ही कहूंगा कि या तो आपने बहुत दुनिया नही देखी, या आपने दुनिया सही से नही देखी।

बहुत देखी है भाई - और इसीलिए इस नतीजे पर पहुँचा हूँ।

मौज करने और सकून से रहने में बहुत अंतर है। कोई जरूरी नहीं की हर मौज करने वाला सकून में ही हो।

सही है।

प्रकृति बस एक ही नियम से चलती है, कर्म का फल। अब वो किस रूप में मिलेगा वो शायद सबको नही दिखे।

एक प्राणी नहीं है संसार में जिसके सर पर पाप न हो।

और बाकी बातों पर भी बहुत कुछ कह सकता हूं, लेकिन उतना संजू भैया ने बता ही दिया है।

संजू भैया कर्म-कांडों पर चले गए थे, इसलिए मुझे कुछ कहना ही पड़ा।
उनको बुरा लग गया, इस बात का मुझे खेद है.
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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Update #41


इस घटना के कुछ महीनों पश्चात :

“काका,” प्रियम्बदा गौरीशंकर जी से मिलते हुए बोली, “प्रणाम!”

“अरे बेटी... खम्मा घणी... खम्मा घणी महाराज...”

गौरीशंकर जी ने अपने स्थान से उठते हुए प्रियम्बदा और हरीश को प्रणाम किया। उनको प्रियम्बदा और हरीश के आने का पता नहीं था, और वो उन दोनों को यूँ, बिना किसी सूचना के अपने घर आया देख कर बहुत प्रसन्न हुए।

कभी सपने में भी उन्होंने नहीं सोचा था कि महाराजपुर जैसे राजपरिवार से उनको यूँ पितृवत आदर सम्मान मिलेगा। महारानी प्रियम्बदा ने बहुत आरम्भ से ही उनको पिता का स्थान दिया था, और पिछले कुछ समय से महाराज हरीशचंद्र ने भी उनको पितृतुल्य आदर और स्नेह देना शुरू कर दिया था।

लेकिन, वो उन दोनों की महानता थी। गौरीशंकर जी को अपनी ‘हैसियत’ के बारे में कोई भी ग़लतफ़हमी नहीं थी। जिस परिवार के संरक्षण में उनका खुद का परिवार फला फूला था, वो खुद को उस परिवार के समकक्ष समझने की गलती नहीं कर सकते थे। उनको अपने ‘स्थान’ का पता था। सुहासिनी, राजपरिवार की बहू बन जाती, तो कैसे अद्भुत आनंद और सम्मान की बात होती!

“काका!” उनके इस तरह के अभिवादन पर प्रियम्बदा ने नाराज़गी जताई - बाप अपनी संतान को घणी खम्मा नहीं करता - और उनके चरण स्पर्श करती हुई बोली, “अपने पिता से आशीर्वाद लेने का अधिकार तो संतान को ही होता है!”

अब इस बात पर वो क्या ही बोलते?

हरीश ने भी उनके चरण स्पर्श किये।

“आप दोनों... यूँ अचानक...? सब कुशल मंगल तो है न?”

“आपसे और सुहास से मिलने का मन हो आया, इसलिए रुक न पाए हम...!”

“अच्छा किया बेटी,” गौरीशंकर को समझ ही नहीं आता था कि वो क्या करें - प्रिया और हरीश से (कृपा का) आशीर्वाद लें, या उनको कोई आशीर्वाद दें, “आप दोनों के दर्शन पा कर आँखें ठंडी हो जाती हैं!”

“काका, आप तो हमको लज्जित कर रहे हैं!” हरीश ने कहा।

“क्षमा करें महाराज,” उनके हाथ, खेद-स्वरुप स्वतः ही जुड़ गए।

“जैसे आप प्रिया के पिता हैं, वैसे ही हमारे!” हरीश ने उनको समझाते हुए कहा, “और वैसे भी, हम कोई राजा महाराजा नहीं हैं। बस आपके और अन्य भारतीयों की ही तरह, इस देश के सामान्य नागरिक हैं!”

खैर, ऐसी ही मान मनुहार में कुछ समय बीता और गौरीशंकर ने उन दोनों को घर के भीतर आमंत्रित किया। जब दोनों उनके घर के अंदर आराम से बैठ गए, तो गौरीशंकर जी ने पूछा,

“कैसे हैं आप सभी? सब कुशल मंगल तो है?”

“आपका आशीर्वाद है काका,” हरीश ने कहा, और पूछा, “... लेकिन, हम आपसे मिलने आये हैं... बताएं आप कैसे हैं? स्वास्थ्य कैसा है? ... सुहास कैसी है?”

“सब ठीक है बेटे... हम भी...” वो बोले, “और आपकी दया से सुहास भी ठीक है!”

“उसके इलाज़ और पढ़ाई लिखाई में कोई रूकावट तो नहीं आ रही है न?”

“बिलकुल भी नहीं,” उन्होंने हाथ जोड़ दिए, “आपकी कृपा से सब कुछ ठीक चल रहा है... और इस बार तो उसका कॉलेज का भी है!”

“अरे वाह! बहुत बढ़िया! ... समय कितनी तेजी से चला जाता है... जैसे पंख लगे हों...” प्रियम्बदा बोली, और फिर थोड़ा सोच कर आगे बोली, “आपसे विनती है... उसके लालन पालन, और पढ़ाई लिखाई में कोई कमी... किसी तरह की ढील न आने दीजिएगा! ... वो बहुत मेधावी है... पढ़ने दीजिए... आगे बढ़ने दीजिये...”

“आप जैसा कहेंगी, वैसा ही होगा बेटी!” गौरीशंकर ने कहा, “... हमसे कहीं अधिक वो आपकी अमानत है... आप दिशा दिखाईए, और हम पूरी कोशिश करेंगे कि उसको उसी दिशा में आगे ले चलें...”

“नहीं काका... हम तो यह चाहते हैं कि अपने मार्ग... अपनी दिशा सुहास खुद चुने... और उस पर आगे चले... उसमें सफ़ल हो... आप... हम... हम उसके बड़े हैं... उसके गार्जियन हैं... हम यही कोशिश करेंगे कि उसको किसी तरह की परेशानी न हो, और उसका मार्ग प्रशस्त हो!”

“आप दोनों जैसा चाहें! ... इसीलिए तो हम कह रहे थे बेटी, कि सुहास आपकी अमानत है...” उन्होंने हाथ जोड़ते हुए कहा।

“काका...” प्रियम्बदा ने आभार पूर्वक कहा!

“आप कुछ दिन ठहरेंगे न?” गौरीशंकर ने बड़ी आशा से पूछा।

“नहीं काका,” हरीश ने कहा, “दिल्ली जाना है... कुछ काम है! फिर वहाँ से कुछ समय के लिए लन्दन...”

“ओह!”

“क्या हो गया काका?”

“महाराज... बेटे... कुछ नहीं! बस, सुहासिनी की एक इच्छा थी...” उन्होंने झिझकते हुए कहा।

“अरे काका, कहिये न?”

“जी... वो चाहती है कि आप दोनों से मुलाकात हो जाय... पिछली बार मिले हुए से अब तक कुछ समय हो गया न!”

“जी काका! ज़रूर मिलेंगे!” प्रियम्बदा उत्साह से बोली, “हम भी तो मिलना चाहते हैं उससे! ... बिना उससे मिले हम भी दिल्ली नहीं जाना चाहते हैं! और है तो अपनी ही बिटिया न!”

“बहुत अच्छी बात है... आप कुछ समय विश्राम कीजिए। उसके आने का समय बस होने ही वाला है।”

“जी काका...”

“काका,” हरीश बोला, “डॉक्टर क्या कहते हैं?”

“उनका कहना है कि सब ठीक हो जाएगा... सुहासिनी अब पूरी तरह से स्वस्थ है... और पूरी लगन से अपनी पढ़ाई कर रही है। ... सच कहें, तो उसको पढ़ाई लिखाई के अतिरिक्त और कुछ सूझता नहीं!”

“बहुत बढ़िया! बहुत अच्छा लगा सुन कर काका!” हरीशचंद्र ने आनंद से कहा, “हमारी बिटिया रानी हमारा नाम रोशन करेगी!”

“ईश्वर और आप लोगों की दया है!”



*



प्रियम्बदा ने सुहासिनी को घर के प्रांगण में प्रवेश करते हुए देखा। कैसी सरल, सुन्दर, भोली, और चंचल सी लड़की! क्यों न वो हर्ष को यूँ भा जाती? उसको खुद को भी तो वो इतना भा गई थी। इतनी कम उम्र में बेचारी ने कितना कुछ झेल लिया था। सभी को इसी बात का डर था कि पहले हर्ष की मृत्यु, फिर अपनी गर्भावस्था, और फिर अपनी संतान से अलग होने के कारण कहीं उस पर भावनात्मक रूप से भारी असर न पड़ जाए! और ऐसा हुआ भी - लेकिन समय रहते और अति-कुशल चिकित्सा के कारण सुहासिनी अब ठीक हो गई थी।

शुरू शुरू में बहुत तक़लीफ़ें आईं - कम उम्र में माँ बनना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। फिर प्रसूति के बाद संतान से बिछोह! ये सब गौरीशंकर जी के अकेले के बस का काम नहीं था। हर कदम पर प्रियम्बदा और हरीशचंद्र ने उनका साथ दिया, और सुहासिनी को सम्हाला। कठिन काम था यह। राजशाही लगभग चौपट हो गई थी - जो मित्र थे... अपने थे, वो कब शत्रु बन गए... पराए हो गए, पता ही न चला। ऐसे में हरिश्चंद्र की दूरदर्शिता, और व्यापारिक कौशल बहुत काम आई। राजमहल को छोड़ कर अन्य सभी सम्पत्तियों को होटलों और रिसॉर्ट्स में बदल दिया गया। खेती करना कठिन काम था, और कुशल कामगर मिलने भी कठिन हो रहे थे, अतः अनेकों ज़मीनों में पशु-पालन और मुर्गी-पालन जैसे काम शुरू कर दिए गए थे, या फिर जो सम्पत्तियाँ राष्ट्र अथवा मुख्य मार्गों के बगल थीं, वहाँ पेट्रोल-पंप खोल दिए गए थे। राजपरिवार का जो रसूख़ रातों-रात जाता रहा था, वो मानों सूर्योदय के साथ वापस लौट आया था। और संपत्ति पहले से कई गुणा बढ़ गई थी।

जहाँ हरिश्चंद्र ने राजपरिवार का सम्मान वापस लाने और बढ़ाने में स्वयं को झोंक दिया, वहीं प्रियम्बदा ने पूरे परिवार को साथ बनाए रखने में किसी गोंद के जैसे काम किया। सभी की आशा के विपरीत, दोनों ही वाक़ई महाराज और महारानी बनने लायक थे। भूतपूर्व महाराज घनश्याम सिंह ने सच में प्रियम्बदा नाम का हीरा ढूँढ लाया था। लेकिन प्रियम्बदा के लिए सबसे महत्वपूर्ण सुहासिनी ही थी। उसके देवर - उसके बेटे - हर्ष - की अमानत! इस लिहाज़ से सुहासिनी उसकी पुत्री ही तो हुई!

हर बार, सुहासिनी में सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देते... वो पिछली बार से कहीं अधिक प्रसन्न, स्वस्थ, और आत्मविश्वास से लबरेज़ नज़र आती! यह देख कर उसको बहुत संतोष होता। मतलब साफ़ था - सुहासिनी की चिकित्सा, पढ़ाई-लिखाई, उसका पालन पोषण अच्छे ढंग से हो रहा था। आज भी याद है प्रियम्बदा को जब उसने सुहास को पहली बार देखा था! कैसी दयनीय हालत में थी वो बच्ची।

लेकिन तब की, और आज की सुहासिनी में बहुत अंतर था।

“अरे दीदी,” उसने प्रियम्बदा को देखा, तो आनंद से चीखती, उछलती हुई दौड़ी चली आई।

“मेरी नन्ही सी गौरैया... मेरी पूता... मेरी बच्ची...” कह कर प्रियम्बदा अपने घुटनों पर बैठ गई, जैसे माताएँ अपने नन्हे बच्चों के साथ करती हैं - इतना स्नेह था प्रियम्बदा में सुहासिनी के लिए, “कैसी है मेरी बच्ची?”

सुहास, हिरन के नन्हे शावक जैसी उछलती कूदती हुई आ कर प्रियम्बदा के अंक (आलिंगन) में समां गई। प्रियम्बदा ने अनगिनत बार उसको चूमा।

“बिलकुल ठीक हूँ दीदी,” सुहासिनी चहकती हुई बोली, “... आप तो मुझे भूल ही गईं!”

“अरे कहाँ बिटिया रानी! अभी तीन महीने पहले ही तो मिली थी तुझसे!”

“तीन नहीं, पूरे आठ महीने हो गए!” सुहास ने ठुनकते हुए शिकायत करी।

“अरे नहीं बेटे,” प्रियम्बदा उसके बाल-हठ पर मुस्कुराए बिना न रह सकी, “ऐसी भी खराब याददाश्त नहीं है कि अपनी एकलौती बिटिया से कब मिली, वो भूल जाऊँ!”

“इमोशनल ब्लैकमेल... हम्म?” कहते हुए सुहास ने प्रिया को एक चुम्बन दिया, और प्रियम्बदा को छेड़ती हुई बोली, “गन्दी वाली दीदी!” और फिर हरीश की तरफ़ मुखातिब होती हुई बोली, “भैया... आप कैसे हैं?”

“बिलकुल ठीक हूँ बच्चे! तुमको देख लिया... सब ठीक हो गया!”

“आप लोग न, जल्दी जल्दी आया करिए मुझसे मिलने! बोर होने लगता है नहीं तो!” हरीश के गले लगते हुए वो बोली।

हरीश ने उसको अपने सीने में चिपकाते और चूमते हुए कहा, “हा हा,” उसकी बात पर सभी हँसने लगे, “हाँ बेटा... जल्दी जल्दी आया करेंगे!”

“अच्छा,” प्रियम्बदा ने बात का सूत्र पकड़ा, “ये तो बता बच्चे, तेरे एक्साम्स की तैयारी कैसी चल रही है?”

“टॉप करूँगी दीदी!” सुहास ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया।

“प्रॉमिस?”

“हाँ दीदी, प्रॉमिस!”

“बहुत बढ़िया बेटे,” हरीश ने गर्व से कहा, “तू एक्साम्स टॉप कर ले... फिर तुझे आगे पढ़ने लंदन भेजेंगे!”

“सच में?”

“और नहीं तो क्या! ... मैं तो कब से यही सोच रहा हूँ... मेरी बिटिया को बेस्ट एजुकेशन मिलेगा! मैंने यह खुद से वायदा किया है!”

“फिर तो आप जल्दी से मेरा पासपोर्ट बनवा दीजिए...” सुहास ने बड़े अल्हड़पन से कहा, “लंदन... आई ऍम कमिंग...”

“दैट्स लाइक माय स्वीटेस्ट चाइल्ड...”

कुछेक घण्टे और रहने, और ऐसी ही बातें करने के बाद हरीश और प्रिया ने दोनों से विदा ली, और बहुत जल्दी ही वापस आने का वायदा किया।

*
 
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park

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Update #41


इस घटना के कुछ महीनों पश्चात :

“काका,” प्रियम्बदा गौरीशंकर जी से मिलते हुए बोली, “प्रणाम!”

“अरे बेटी... खम्मा घणी... खम्मा घणी महाराज...”

गौरीशंकर जी ने अपने स्थान से उठते हुए प्रियम्बदा और हरीश को प्रणाम किया। उनको प्रियम्बदा और हरीश के आने का पता नहीं था, और वो उन दोनों को यूँ, बिना किसी सूचना के अपने घर आया देख कर बहुत प्रसन्न हुए।

कभी सपने में भी उन्होंने नहीं सोचा था कि महाराजपुर जैसे राजपरिवार से उनको यूँ पितृवत आदर सम्मान मिलेगा। महारानी प्रियम्बदा ने बहुत आरम्भ से ही उनको पिता का स्थान दिया था, और पिछले कुछ समय से महाराज हरीशचंद्र ने भी उनको पितृतुल्य आदर और स्नेह देना शुरू कर दिया था।

लेकिन, वो उन दोनों की महानता थी। गौरीशंकर जी को अपनी ‘हैसियत’ के बारे में कोई भी ग़लतफ़हमी नहीं थी। जिस परिवार के संरक्षण में उनका खुद का परिवार फला फूला था, वो खुद को उस परिवार के समकक्ष समझने की गलती नहीं कर सकते थे। उनको अपने ‘स्थान’ का पता था। सुहासिनी, राजपरिवार की बहू बन जाती, तो कैसे अद्भुत आनंद और सम्मान की बात होती!

“काका!” उनके इस तरह के अभिवादन पर प्रियम्बदा ने नाराज़गी जताई - बाप अपनी संतान को घणी खम्मा नहीं करता - और उनके चरण स्पर्श करती हुई बोली, “अपने पिता से आशीर्वाद लेने का अधिकार तो संतान को ही होता है!”

अब इस बात पर वो क्या ही बोलते?

हरीश ने भी उनके चरण स्पर्श किये।

“आप दोनों... यूँ अचानक...? सब कुशल मंगल तो है न?”

“आपसे और सुहास से मिलने का मन हो आया, इसलिए रुक न पाए हम...!”

“अच्छा किया बेटी,” गौरीशंकर को समझ ही नहीं आता था कि वो क्या करें - प्रिया और हरीश से (कृपा का) आशीर्वाद लें, या उनको कोई आशीर्वाद दें, “आप दोनों के दर्शन पा कर आँखें ठंडी हो जाती हैं!”

“काका, आप तो हमको लज्जित कर रहे हैं!” हरीश ने कहा।

“क्षमा करें महाराज,” उनके हाथ, खेद-स्वरुप स्वतः ही जुड़ गए।

“जैसे आप प्रिया के पिता हैं, वैसे ही हमारे!” हरीश ने उनको समझाते हुए कहा, “और वैसे भी, हम कोई राजा महाराजा नहीं हैं। बस आपके और अन्य भारतीयों की ही तरह, इस देश के सामान्य नागरिक हैं!”

खैर, ऐसी ही मान मनुहार में कुछ समय बीता और गौरीशंकर ने उन दोनों को घर के भीतर आमंत्रित किया। जब दोनों उनके घर के अंदर आराम से बैठ गए, तो गौरीशंकर जी ने पूछा,

“कैसे हैं आप सभी? सब कुशल मंगल तो है?”

“आपका आशीर्वाद है काका,” हरीश ने कहा, और पूछा, “... लेकिन, हम आपसे मिलने आये हैं... बताएं आप कैसे हैं? स्वास्थ्य कैसा है? ... सुहास कैसी है?”

“सब ठीक है बेटे... हम भी...” वो बोले, “और आपकी दया से सुहास भी ठीक है!”

“उसके इलाज़ और पढ़ाई लिखाई में कोई रूकावट तो नहीं आ रही है न?”

“बिलकुल भी नहीं,” उन्होंने हाथ जोड़ दिए, “आपकी कृपा से सब कुछ ठीक चल रहा है... और इस बार तो उसका कॉलेज का भी है!”

“अरे वाह! बहुत बढ़िया! ... समय कितनी तेजी से चला जाता है... जैसे पंख लगे हों...” प्रियम्बदा बोली, और फिर थोड़ा सोच कर आगे बोली, “आपसे विनती है... उसके लालन पालन, और पढ़ाई लिखाई में कोई कमी... किसी तरह की ढील न आने दीजिएगा! ... वो बहुत मेधावी है... पढ़ने दीजिए... आगे बढ़ने दीजिये...”

“आप जैसा कहेंगी, वैसा ही होगा बेटी!” गौरीशंकर ने कहा, “... हमसे कहीं अधिक वो आपकी अमानत है... आप दिशा दिखाईए, और हम पूरी कोशिश करेंगे कि उसको उसी दिशा में आगे ले चलें...”

“नहीं काका... हम तो यह चाहते हैं कि अपने मार्ग... अपनी दिशा सुहास खुद चुने... और उस पर आगे चले... उसमें सफ़ल हो... आप... हम... हम उसके बड़े हैं... उसके गार्जियन हैं... हम यही कोशिश करेंगे कि उसको किसी तरह की परेशानी न हो, और उसका मार्ग प्रशस्त हो!”

“आप दोनों जैसा चाहें! ... इसीलिए तो हम कह रहे थे बेटी, कि सुहास आपकी अमानत है...” उन्होंने हाथ जोड़ते हुए कहा।

“काका...” प्रियम्बदा ने आभार पूर्वक कहा!

“आप कुछ दिन ठहरेंगे न?” गौरीशंकर ने बड़ी आशा से पूछा।

“नहीं काका,” हरीश ने कहा, “दिल्ली जाना है... कुछ काम है! फिर वहाँ से कुछ समय के लिए लन्दन...”

“ओह!”

“क्या हो गया काका?”

“महाराज... बेटे... कुछ नहीं! बस, सुहासिनी की एक इच्छा थी...” उन्होंने झिझकते हुए कहा।

“अरे काका, कहिये न?”

“जी... वो चाहती है कि आप दोनों से मुलाकात हो जाय... पिछली बार मिले हुए से अब तक कुछ समय हो गया न!”

“जी काका! ज़रूर मिलेंगे!” प्रियम्बदा उत्साह से बोली, “हम भी तो मिलना चाहते हैं उससे! ... बिना उससे मिले हम भी दिल्ली नहीं जाना चाहते हैं! और है तो अपनी ही बिटिया न!”

“बहुत अच्छी बात है... आप कुछ समय विश्राम कीजिए। उसके आने का समय बस होने ही वाला है।”

“जी काका...”

“काका,” हरीश बोला, “डॉक्टर क्या कहते हैं?”

“उनका कहना है कि सब ठीक हो जाएगा... सुहासिनी अब पूरी तरह से स्वस्थ है... और पूरी लगन से अपनी पढ़ाई कर रही है। ... सच कहें, तो उसको पढ़ाई लिखाई के अतिरिक्त और कुछ सूझता नहीं!”

“बहुत बढ़िया! बहुत अच्छा लगा सुन कर काका!” हरीशचंद्र ने आनंद से कहा, “हमारी बिटिया रानी हमारा नाम रोशन करेगी!”

“ईश्वर और आप लोगों की दया है!”



*



प्रियम्बदा ने सुहासिनी को घर के प्रांगण में प्रवेश करते हुए देखा। कैसी सरल, सुन्दर, भोली, और चंचल सी लड़की! क्यों न वो हर्ष को यूँ भा जाती? उसको खुद को भी तो वो इतना भा गई थी। इतनी कम उम्र में बेचारी ने कितना कुछ झेल लिया था। सभी को इसी बात का डर था कि पहले हर्ष की मृत्यु, फिर अपनी गर्भावस्था, और फिर अपनी संतान से अलग होने के कारण कहीं उस पर भावनात्मक रूप से भारी असर न पड़ जाए! और ऐसा हुआ भी - लेकिन समय रहते और अति-कुशल चिकित्सा के कारण सुहासिनी अब ठीक हो गई थी।

शुरू शुरू में बहुत तक़लीफ़ें आईं - कम उम्र में माँ बनना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। फिर प्रसूति के बाद संतान से बिछोह! ये सब गौरीशंकर जी के अकेले के बस का काम नहीं था। हर कदम पर प्रियम्बदा और हरीशचंद्र ने उनका साथ दिया, और सुहासिनी को सम्हाला। कठिन काम था यह। राजशाही लगभग चौपट हो गई थी - जो मित्र थे... अपने थे, वो कब शत्रु बन गए... पराए हो गए, पता ही न चला। ऐसे में हरिश्चंद्र की दूरदर्शिता, और व्यापारिक कौशल बहुत काम आई। राजमहल को छोड़ कर अन्य सभी सम्पत्तियों को होटलों और रिसॉर्ट्स में बदल दिया गया। खेती करना कठिन काम था, और कुशल कामगर मिलने भी कठिन हो रहे थे, अतः अनेकों ज़मीनों में पशु-पालन और मुर्गी-पालन जैसे काम शुरू कर दिए गए थे, या फिर जो सम्पत्तियाँ राष्ट्र अथवा मुख्य मार्गों के बगल थीं, वहाँ पेट्रोल-पंप खोल दिए गए थे। राजपरिवार का जो रसूख़ रातों-रात जाता रहा था, वो मानों सूर्योदय के साथ वापस लौट आया था। और संपत्ति पहले से कई गुणा बढ़ गई थी।

जहाँ हरिश्चंद्र ने राजपरिवार का सम्मान वापस लाने और बढ़ाने में स्वयं को झोंक दिया, वहीं प्रियम्बदा ने पूरे परिवार को साथ बनाए रखने में किसी गोंद के जैसे काम किया। सभी की आशा के विपरीत, दोनों ही वाक़ई महाराज और महारानी बनने लायक थे। भूतपूर्व महाराज घनश्याम सिंह ने सच में प्रियम्बदा नाम का हीरा ढूँढ लाया था। लेकिन प्रियम्बदा के लिए सबसे महत्वपूर्ण सुहासिनी ही थी। उसके देवर - उसके बेटे - हर्ष - की अमानत! इस लिहाज़ से सुहासिनी उसकी पुत्री ही तो हुई!

हर बार, सुहासिनी में सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देते... वो पिछली बार से कहीं अधिक प्रसन्न, स्वस्थ, और आत्मविश्वास से लबरेज़ नज़र आती! यह देख कर उसको बहुत संतोष होता। मतलब साफ़ था - सुहासिनी की चिकित्सा, पढ़ाई-लिखाई, उसका पालन पोषण अच्छे ढंग से हो रहा था। आज भी याद है प्रियम्बदा को जब उसने सुहास को पहली बार देखा था! कैसी दयनीय हालत में थी वो बच्ची।

लेकिन तब की, और आज की सुहासिनी में बहुत अंतर था।

“अरे दीदी,” उसने प्रियम्बदा को देखा, तो आनंद से चीखती, उछलती हुई दौड़ी चली आई।

“मेरी नन्ही सी गौरैया... मेरी पूता... मेरी बच्ची...” कह कर प्रियम्बदा अपने घुटनों पर बैठ गई, जैसे माताएँ अपने नन्हे बच्चों के साथ करती हैं - इतना स्नेह था प्रियम्बदा में सुहासिनी के लिए, “कैसी है मेरी बच्ची?”

सुहास, हिरन के नन्हे शावक जैसी उछलती कूदती हुई आ कर प्रियम्बदा के अंक (आलिंगन) में समां गई। प्रियम्बदा ने अनगिनत बार उसको चूमा।

“बिलकुल ठीक हूँ दीदी,” सुहासिनी चहकती हुई बोली, “... आप तो मुझे भूल ही गईं!”

“अरे कहाँ बिटिया रानी! अभी तीन महीने पहले ही तो मिली थी तुझसे!”

“तीन नहीं, पूरे आठ महीने हो गए!” सुहास ने ठुनकते हुए शिकायत करी।

“अरे नहीं बेटे,” प्रियम्बदा उसके बाल-हठ पर मुस्कुराए बिना न रह सकी, “ऐसी भी खराब याददाश्त नहीं है कि अपनी एकलौती बिटिया से कब मिली, वो भूल जाऊँ!”

“इमोशनल ब्लैकमेल... हम्म?” कहते हुए सुहास ने प्रिया को एक चुम्बन दिया, और प्रियम्बदा को छेड़ती हुई बोली, “गन्दी वाली दीदी!” और फिर हरीश की तरफ़ मुखातिब होती हुई बोली, “भैया... आप कैसे हैं?”

“बिलकुल ठीक हूँ बच्चे! तुमको देख लिया... सब ठीक हो गया!”

“आप लोग न, जल्दी जल्दी आया करिए मुझसे मिलने! बोर होने लगता है नहीं तो!” हरीश के गले लगते हुए वो बोली।

हरीश ने उसको अपने सीने में चिपकाते और चूमते हुए कहा, “हा हा,” उसकी बात पर सभी हँसने लगे, “हाँ बेटा... जल्दी जल्दी आया करेंगे!”

“अच्छा,” प्रियम्बदा ने बात का सूत्र पकड़ा, “ये तो बता बच्चे, तेरे एक्साम्स की तैयारी कैसी चल रही है?”

“टॉप करूँगी दीदी!” सुहास ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया।

“प्रॉमिस?”

“हाँ दीदी, प्रॉमिस!”

“बहुत बढ़िया बेटे,” हरीश ने गर्व से कहा, “तू एक्साम्स टॉप कर ले... फिर तुझे आगे पढ़ने लंदन भेजेंगे!”

“सच में?”

“और नहीं तो क्या! ... मैं तो कब से यही सोच रहा हूँ... मेरी बिटिया को बेस्ट एजुकेशन मिलेगा! मैंने यह खुद से वायदा किया है!”

“फिर तो आप जल्दी से मेरा पासपोर्ट बनवा दीजिए...” सुहास ने बड़े अल्हड़पन से कहा, “लंदन... आई ऍम कमिंग...”

“दैट्स लाइक माय स्वीटेस्ट चाइल्ड...”

कुछेक घण्टे और रहने, और ऐसी ही बातें करने के बाद हरीश और प्रिया ने दोनों से विदा ली, और बहुत जल्दी ही वापस आने का वायदा किया।

*
Nice and superb update....
 

Riky007

उड़ते पंछी का ठिकाना, मेरा न कोई जहां...
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प्रियम्बदा और हरीश ने अच्छे से सम्हाल है सुहासिनी को, वरना ऐसे भीषण दुख के बाद तो बड़े बड़े टूट जाते हैं।

बस एक बार उस बच्चे की झलक भी दिखा दीजिए, तो कई बाते क्लियर हो जाएंगी।

बढ़िया अपडेट हमेशा की तरह भाई जी 🙏🏽
 

parkas

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Update #41


इस घटना के कुछ महीनों पश्चात :

“काका,” प्रियम्बदा गौरीशंकर जी से मिलते हुए बोली, “प्रणाम!”

“अरे बेटी... खम्मा घणी... खम्मा घणी महाराज...”

गौरीशंकर जी ने अपने स्थान से उठते हुए प्रियम्बदा और हरीश को प्रणाम किया। उनको प्रियम्बदा और हरीश के आने का पता नहीं था, और वो उन दोनों को यूँ, बिना किसी सूचना के अपने घर आया देख कर बहुत प्रसन्न हुए।

कभी सपने में भी उन्होंने नहीं सोचा था कि महाराजपुर जैसे राजपरिवार से उनको यूँ पितृवत आदर सम्मान मिलेगा। महारानी प्रियम्बदा ने बहुत आरम्भ से ही उनको पिता का स्थान दिया था, और पिछले कुछ समय से महाराज हरीशचंद्र ने भी उनको पितृतुल्य आदर और स्नेह देना शुरू कर दिया था।

लेकिन, वो उन दोनों की महानता थी। गौरीशंकर जी को अपनी ‘हैसियत’ के बारे में कोई भी ग़लतफ़हमी नहीं थी। जिस परिवार के संरक्षण में उनका खुद का परिवार फला फूला था, वो खुद को उस परिवार के समकक्ष समझने की गलती नहीं कर सकते थे। उनको अपने ‘स्थान’ का पता था। सुहासिनी, राजपरिवार की बहू बन जाती, तो कैसे अद्भुत आनंद और सम्मान की बात होती!

“काका!” उनके इस तरह के अभिवादन पर प्रियम्बदा ने नाराज़गी जताई - बाप अपनी संतान को घणी खम्मा नहीं करता - और उनके चरण स्पर्श करती हुई बोली, “अपने पिता से आशीर्वाद लेने का अधिकार तो संतान को ही होता है!”

अब इस बात पर वो क्या ही बोलते?

हरीश ने भी उनके चरण स्पर्श किये।

“आप दोनों... यूँ अचानक...? सब कुशल मंगल तो है न?”

“आपसे और सुहास से मिलने का मन हो आया, इसलिए रुक न पाए हम...!”

“अच्छा किया बेटी,” गौरीशंकर को समझ ही नहीं आता था कि वो क्या करें - प्रिया और हरीश से (कृपा का) आशीर्वाद लें, या उनको कोई आशीर्वाद दें, “आप दोनों के दर्शन पा कर आँखें ठंडी हो जाती हैं!”

“काका, आप तो हमको लज्जित कर रहे हैं!” हरीश ने कहा।

“क्षमा करें महाराज,” उनके हाथ, खेद-स्वरुप स्वतः ही जुड़ गए।

“जैसे आप प्रिया के पिता हैं, वैसे ही हमारे!” हरीश ने उनको समझाते हुए कहा, “और वैसे भी, हम कोई राजा महाराजा नहीं हैं। बस आपके और अन्य भारतीयों की ही तरह, इस देश के सामान्य नागरिक हैं!”

खैर, ऐसी ही मान मनुहार में कुछ समय बीता और गौरीशंकर ने उन दोनों को घर के भीतर आमंत्रित किया। जब दोनों उनके घर के अंदर आराम से बैठ गए, तो गौरीशंकर जी ने पूछा,

“कैसे हैं आप सभी? सब कुशल मंगल तो है?”

“आपका आशीर्वाद है काका,” हरीश ने कहा, और पूछा, “... लेकिन, हम आपसे मिलने आये हैं... बताएं आप कैसे हैं? स्वास्थ्य कैसा है? ... सुहास कैसी है?”

“सब ठीक है बेटे... हम भी...” वो बोले, “और आपकी दया से सुहास भी ठीक है!”

“उसके इलाज़ और पढ़ाई लिखाई में कोई रूकावट तो नहीं आ रही है न?”

“बिलकुल भी नहीं,” उन्होंने हाथ जोड़ दिए, “आपकी कृपा से सब कुछ ठीक चल रहा है... और इस बार तो उसका कॉलेज का भी है!”

“अरे वाह! बहुत बढ़िया! ... समय कितनी तेजी से चला जाता है... जैसे पंख लगे हों...” प्रियम्बदा बोली, और फिर थोड़ा सोच कर आगे बोली, “आपसे विनती है... उसके लालन पालन, और पढ़ाई लिखाई में कोई कमी... किसी तरह की ढील न आने दीजिएगा! ... वो बहुत मेधावी है... पढ़ने दीजिए... आगे बढ़ने दीजिये...”

“आप जैसा कहेंगी, वैसा ही होगा बेटी!” गौरीशंकर ने कहा, “... हमसे कहीं अधिक वो आपकी अमानत है... आप दिशा दिखाईए, और हम पूरी कोशिश करेंगे कि उसको उसी दिशा में आगे ले चलें...”

“नहीं काका... हम तो यह चाहते हैं कि अपने मार्ग... अपनी दिशा सुहास खुद चुने... और उस पर आगे चले... उसमें सफ़ल हो... आप... हम... हम उसके बड़े हैं... उसके गार्जियन हैं... हम यही कोशिश करेंगे कि उसको किसी तरह की परेशानी न हो, और उसका मार्ग प्रशस्त हो!”

“आप दोनों जैसा चाहें! ... इसीलिए तो हम कह रहे थे बेटी, कि सुहास आपकी अमानत है...” उन्होंने हाथ जोड़ते हुए कहा।

“काका...” प्रियम्बदा ने आभार पूर्वक कहा!

“आप कुछ दिन ठहरेंगे न?” गौरीशंकर ने बड़ी आशा से पूछा।

“नहीं काका,” हरीश ने कहा, “दिल्ली जाना है... कुछ काम है! फिर वहाँ से कुछ समय के लिए लन्दन...”

“ओह!”

“क्या हो गया काका?”

“महाराज... बेटे... कुछ नहीं! बस, सुहासिनी की एक इच्छा थी...” उन्होंने झिझकते हुए कहा।

“अरे काका, कहिये न?”

“जी... वो चाहती है कि आप दोनों से मुलाकात हो जाय... पिछली बार मिले हुए से अब तक कुछ समय हो गया न!”

“जी काका! ज़रूर मिलेंगे!” प्रियम्बदा उत्साह से बोली, “हम भी तो मिलना चाहते हैं उससे! ... बिना उससे मिले हम भी दिल्ली नहीं जाना चाहते हैं! और है तो अपनी ही बिटिया न!”

“बहुत अच्छी बात है... आप कुछ समय विश्राम कीजिए। उसके आने का समय बस होने ही वाला है।”

“जी काका...”

“काका,” हरीश बोला, “डॉक्टर क्या कहते हैं?”

“उनका कहना है कि सब ठीक हो जाएगा... सुहासिनी अब पूरी तरह से स्वस्थ है... और पूरी लगन से अपनी पढ़ाई कर रही है। ... सच कहें, तो उसको पढ़ाई लिखाई के अतिरिक्त और कुछ सूझता नहीं!”

“बहुत बढ़िया! बहुत अच्छा लगा सुन कर काका!” हरीशचंद्र ने आनंद से कहा, “हमारी बिटिया रानी हमारा नाम रोशन करेगी!”

“ईश्वर और आप लोगों की दया है!”



*



प्रियम्बदा ने सुहासिनी को घर के प्रांगण में प्रवेश करते हुए देखा। कैसी सरल, सुन्दर, भोली, और चंचल सी लड़की! क्यों न वो हर्ष को यूँ भा जाती? उसको खुद को भी तो वो इतना भा गई थी। इतनी कम उम्र में बेचारी ने कितना कुछ झेल लिया था। सभी को इसी बात का डर था कि पहले हर्ष की मृत्यु, फिर अपनी गर्भावस्था, और फिर अपनी संतान से अलग होने के कारण कहीं उस पर भावनात्मक रूप से भारी असर न पड़ जाए! और ऐसा हुआ भी - लेकिन समय रहते और अति-कुशल चिकित्सा के कारण सुहासिनी अब ठीक हो गई थी।

शुरू शुरू में बहुत तक़लीफ़ें आईं - कम उम्र में माँ बनना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। फिर प्रसूति के बाद संतान से बिछोह! ये सब गौरीशंकर जी के अकेले के बस का काम नहीं था। हर कदम पर प्रियम्बदा और हरीशचंद्र ने उनका साथ दिया, और सुहासिनी को सम्हाला। कठिन काम था यह। राजशाही लगभग चौपट हो गई थी - जो मित्र थे... अपने थे, वो कब शत्रु बन गए... पराए हो गए, पता ही न चला। ऐसे में हरिश्चंद्र की दूरदर्शिता, और व्यापारिक कौशल बहुत काम आई। राजमहल को छोड़ कर अन्य सभी सम्पत्तियों को होटलों और रिसॉर्ट्स में बदल दिया गया। खेती करना कठिन काम था, और कुशल कामगर मिलने भी कठिन हो रहे थे, अतः अनेकों ज़मीनों में पशु-पालन और मुर्गी-पालन जैसे काम शुरू कर दिए गए थे, या फिर जो सम्पत्तियाँ राष्ट्र अथवा मुख्य मार्गों के बगल थीं, वहाँ पेट्रोल-पंप खोल दिए गए थे। राजपरिवार का जो रसूख़ रातों-रात जाता रहा था, वो मानों सूर्योदय के साथ वापस लौट आया था। और संपत्ति पहले से कई गुणा बढ़ गई थी।

जहाँ हरिश्चंद्र ने राजपरिवार का सम्मान वापस लाने और बढ़ाने में स्वयं को झोंक दिया, वहीं प्रियम्बदा ने पूरे परिवार को साथ बनाए रखने में किसी गोंद के जैसे काम किया। सभी की आशा के विपरीत, दोनों ही वाक़ई महाराज और महारानी बनने लायक थे। भूतपूर्व महाराज घनश्याम सिंह ने सच में प्रियम्बदा नाम का हीरा ढूँढ लाया था। लेकिन प्रियम्बदा के लिए सबसे महत्वपूर्ण सुहासिनी ही थी। उसके देवर - उसके बेटे - हर्ष - की अमानत! इस लिहाज़ से सुहासिनी उसकी पुत्री ही तो हुई!

हर बार, सुहासिनी में सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देते... वो पिछली बार से कहीं अधिक प्रसन्न, स्वस्थ, और आत्मविश्वास से लबरेज़ नज़र आती! यह देख कर उसको बहुत संतोष होता। मतलब साफ़ था - सुहासिनी की चिकित्सा, पढ़ाई-लिखाई, उसका पालन पोषण अच्छे ढंग से हो रहा था। आज भी याद है प्रियम्बदा को जब उसने सुहास को पहली बार देखा था! कैसी दयनीय हालत में थी वो बच्ची।

लेकिन तब की, और आज की सुहासिनी में बहुत अंतर था।

“अरे दीदी,” उसने प्रियम्बदा को देखा, तो आनंद से चीखती, उछलती हुई दौड़ी चली आई।

“मेरी नन्ही सी गौरैया... मेरी पूता... मेरी बच्ची...” कह कर प्रियम्बदा अपने घुटनों पर बैठ गई, जैसे माताएँ अपने नन्हे बच्चों के साथ करती हैं - इतना स्नेह था प्रियम्बदा में सुहासिनी के लिए, “कैसी है मेरी बच्ची?”

सुहास, हिरन के नन्हे शावक जैसी उछलती कूदती हुई आ कर प्रियम्बदा के अंक (आलिंगन) में समां गई। प्रियम्बदा ने अनगिनत बार उसको चूमा।

“बिलकुल ठीक हूँ दीदी,” सुहासिनी चहकती हुई बोली, “... आप तो मुझे भूल ही गईं!”

“अरे कहाँ बिटिया रानी! अभी तीन महीने पहले ही तो मिली थी तुझसे!”

“तीन नहीं, पूरे आठ महीने हो गए!” सुहास ने ठुनकते हुए शिकायत करी।

“अरे नहीं बेटे,” प्रियम्बदा उसके बाल-हठ पर मुस्कुराए बिना न रह सकी, “ऐसी भी खराब याददाश्त नहीं है कि अपनी एकलौती बिटिया से कब मिली, वो भूल जाऊँ!”

“इमोशनल ब्लैकमेल... हम्म?” कहते हुए सुहास ने प्रिया को एक चुम्बन दिया, और प्रियम्बदा को छेड़ती हुई बोली, “गन्दी वाली दीदी!” और फिर हरीश की तरफ़ मुखातिब होती हुई बोली, “भैया... आप कैसे हैं?”

“बिलकुल ठीक हूँ बच्चे! तुमको देख लिया... सब ठीक हो गया!”

“आप लोग न, जल्दी जल्दी आया करिए मुझसे मिलने! बोर होने लगता है नहीं तो!” हरीश के गले लगते हुए वो बोली।

हरीश ने उसको अपने सीने में चिपकाते और चूमते हुए कहा, “हा हा,” उसकी बात पर सभी हँसने लगे, “हाँ बेटा... जल्दी जल्दी आया करेंगे!”

“अच्छा,” प्रियम्बदा ने बात का सूत्र पकड़ा, “ये तो बता बच्चे, तेरे एक्साम्स की तैयारी कैसी चल रही है?”

“टॉप करूँगी दीदी!” सुहास ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया।

“प्रॉमिस?”

“हाँ दीदी, प्रॉमिस!”

“बहुत बढ़िया बेटे,” हरीश ने गर्व से कहा, “तू एक्साम्स टॉप कर ले... फिर तुझे आगे पढ़ने लंदन भेजेंगे!”

“सच में?”

“और नहीं तो क्या! ... मैं तो कब से यही सोच रहा हूँ... मेरी बिटिया को बेस्ट एजुकेशन मिलेगा! मैंने यह खुद से वायदा किया है!”

“फिर तो आप जल्दी से मेरा पासपोर्ट बनवा दीजिए...” सुहास ने बड़े अल्हड़पन से कहा, “लंदन... आई ऍम कमिंग...”

“दैट्स लाइक माय स्वीटेस्ट चाइल्ड...”

कुछेक घण्टे और रहने, और ऐसी ही बातें करने के बाद हरीश और प्रिया ने दोनों से विदा ली, और बहुत जल्दी ही वापस आने का वायदा किया।

*
Bahut hi shaandar update diya hai avsji bhai....
Nice and lovely update.....
 

kas1709

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Update #41


इस घटना के कुछ महीनों पश्चात :

“काका,” प्रियम्बदा गौरीशंकर जी से मिलते हुए बोली, “प्रणाम!”

“अरे बेटी... खम्मा घणी... खम्मा घणी महाराज...”

गौरीशंकर जी ने अपने स्थान से उठते हुए प्रियम्बदा और हरीश को प्रणाम किया। उनको प्रियम्बदा और हरीश के आने का पता नहीं था, और वो उन दोनों को यूँ, बिना किसी सूचना के अपने घर आया देख कर बहुत प्रसन्न हुए।

कभी सपने में भी उन्होंने नहीं सोचा था कि महाराजपुर जैसे राजपरिवार से उनको यूँ पितृवत आदर सम्मान मिलेगा। महारानी प्रियम्बदा ने बहुत आरम्भ से ही उनको पिता का स्थान दिया था, और पिछले कुछ समय से महाराज हरीशचंद्र ने भी उनको पितृतुल्य आदर और स्नेह देना शुरू कर दिया था।

लेकिन, वो उन दोनों की महानता थी। गौरीशंकर जी को अपनी ‘हैसियत’ के बारे में कोई भी ग़लतफ़हमी नहीं थी। जिस परिवार के संरक्षण में उनका खुद का परिवार फला फूला था, वो खुद को उस परिवार के समकक्ष समझने की गलती नहीं कर सकते थे। उनको अपने ‘स्थान’ का पता था। सुहासिनी, राजपरिवार की बहू बन जाती, तो कैसे अद्भुत आनंद और सम्मान की बात होती!

“काका!” उनके इस तरह के अभिवादन पर प्रियम्बदा ने नाराज़गी जताई - बाप अपनी संतान को घणी खम्मा नहीं करता - और उनके चरण स्पर्श करती हुई बोली, “अपने पिता से आशीर्वाद लेने का अधिकार तो संतान को ही होता है!”

अब इस बात पर वो क्या ही बोलते?

हरीश ने भी उनके चरण स्पर्श किये।

“आप दोनों... यूँ अचानक...? सब कुशल मंगल तो है न?”

“आपसे और सुहास से मिलने का मन हो आया, इसलिए रुक न पाए हम...!”

“अच्छा किया बेटी,” गौरीशंकर को समझ ही नहीं आता था कि वो क्या करें - प्रिया और हरीश से (कृपा का) आशीर्वाद लें, या उनको कोई आशीर्वाद दें, “आप दोनों के दर्शन पा कर आँखें ठंडी हो जाती हैं!”

“काका, आप तो हमको लज्जित कर रहे हैं!” हरीश ने कहा।

“क्षमा करें महाराज,” उनके हाथ, खेद-स्वरुप स्वतः ही जुड़ गए।

“जैसे आप प्रिया के पिता हैं, वैसे ही हमारे!” हरीश ने उनको समझाते हुए कहा, “और वैसे भी, हम कोई राजा महाराजा नहीं हैं। बस आपके और अन्य भारतीयों की ही तरह, इस देश के सामान्य नागरिक हैं!”

खैर, ऐसी ही मान मनुहार में कुछ समय बीता और गौरीशंकर ने उन दोनों को घर के भीतर आमंत्रित किया। जब दोनों उनके घर के अंदर आराम से बैठ गए, तो गौरीशंकर जी ने पूछा,

“कैसे हैं आप सभी? सब कुशल मंगल तो है?”

“आपका आशीर्वाद है काका,” हरीश ने कहा, और पूछा, “... लेकिन, हम आपसे मिलने आये हैं... बताएं आप कैसे हैं? स्वास्थ्य कैसा है? ... सुहास कैसी है?”

“सब ठीक है बेटे... हम भी...” वो बोले, “और आपकी दया से सुहास भी ठीक है!”

“उसके इलाज़ और पढ़ाई लिखाई में कोई रूकावट तो नहीं आ रही है न?”

“बिलकुल भी नहीं,” उन्होंने हाथ जोड़ दिए, “आपकी कृपा से सब कुछ ठीक चल रहा है... और इस बार तो उसका कॉलेज का भी है!”

“अरे वाह! बहुत बढ़िया! ... समय कितनी तेजी से चला जाता है... जैसे पंख लगे हों...” प्रियम्बदा बोली, और फिर थोड़ा सोच कर आगे बोली, “आपसे विनती है... उसके लालन पालन, और पढ़ाई लिखाई में कोई कमी... किसी तरह की ढील न आने दीजिएगा! ... वो बहुत मेधावी है... पढ़ने दीजिए... आगे बढ़ने दीजिये...”

“आप जैसा कहेंगी, वैसा ही होगा बेटी!” गौरीशंकर ने कहा, “... हमसे कहीं अधिक वो आपकी अमानत है... आप दिशा दिखाईए, और हम पूरी कोशिश करेंगे कि उसको उसी दिशा में आगे ले चलें...”

“नहीं काका... हम तो यह चाहते हैं कि अपने मार्ग... अपनी दिशा सुहास खुद चुने... और उस पर आगे चले... उसमें सफ़ल हो... आप... हम... हम उसके बड़े हैं... उसके गार्जियन हैं... हम यही कोशिश करेंगे कि उसको किसी तरह की परेशानी न हो, और उसका मार्ग प्रशस्त हो!”

“आप दोनों जैसा चाहें! ... इसीलिए तो हम कह रहे थे बेटी, कि सुहास आपकी अमानत है...” उन्होंने हाथ जोड़ते हुए कहा।

“काका...” प्रियम्बदा ने आभार पूर्वक कहा!

“आप कुछ दिन ठहरेंगे न?” गौरीशंकर ने बड़ी आशा से पूछा।

“नहीं काका,” हरीश ने कहा, “दिल्ली जाना है... कुछ काम है! फिर वहाँ से कुछ समय के लिए लन्दन...”

“ओह!”

“क्या हो गया काका?”

“महाराज... बेटे... कुछ नहीं! बस, सुहासिनी की एक इच्छा थी...” उन्होंने झिझकते हुए कहा।

“अरे काका, कहिये न?”

“जी... वो चाहती है कि आप दोनों से मुलाकात हो जाय... पिछली बार मिले हुए से अब तक कुछ समय हो गया न!”

“जी काका! ज़रूर मिलेंगे!” प्रियम्बदा उत्साह से बोली, “हम भी तो मिलना चाहते हैं उससे! ... बिना उससे मिले हम भी दिल्ली नहीं जाना चाहते हैं! और है तो अपनी ही बिटिया न!”

“बहुत अच्छी बात है... आप कुछ समय विश्राम कीजिए। उसके आने का समय बस होने ही वाला है।”

“जी काका...”

“काका,” हरीश बोला, “डॉक्टर क्या कहते हैं?”

“उनका कहना है कि सब ठीक हो जाएगा... सुहासिनी अब पूरी तरह से स्वस्थ है... और पूरी लगन से अपनी पढ़ाई कर रही है। ... सच कहें, तो उसको पढ़ाई लिखाई के अतिरिक्त और कुछ सूझता नहीं!”

“बहुत बढ़िया! बहुत अच्छा लगा सुन कर काका!” हरीशचंद्र ने आनंद से कहा, “हमारी बिटिया रानी हमारा नाम रोशन करेगी!”

“ईश्वर और आप लोगों की दया है!”



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प्रियम्बदा ने सुहासिनी को घर के प्रांगण में प्रवेश करते हुए देखा। कैसी सरल, सुन्दर, भोली, और चंचल सी लड़की! क्यों न वो हर्ष को यूँ भा जाती? उसको खुद को भी तो वो इतना भा गई थी। इतनी कम उम्र में बेचारी ने कितना कुछ झेल लिया था। सभी को इसी बात का डर था कि पहले हर्ष की मृत्यु, फिर अपनी गर्भावस्था, और फिर अपनी संतान से अलग होने के कारण कहीं उस पर भावनात्मक रूप से भारी असर न पड़ जाए! और ऐसा हुआ भी - लेकिन समय रहते और अति-कुशल चिकित्सा के कारण सुहासिनी अब ठीक हो गई थी।

शुरू शुरू में बहुत तक़लीफ़ें आईं - कम उम्र में माँ बनना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। फिर प्रसूति के बाद संतान से बिछोह! ये सब गौरीशंकर जी के अकेले के बस का काम नहीं था। हर कदम पर प्रियम्बदा और हरीशचंद्र ने उनका साथ दिया, और सुहासिनी को सम्हाला। कठिन काम था यह। राजशाही लगभग चौपट हो गई थी - जो मित्र थे... अपने थे, वो कब शत्रु बन गए... पराए हो गए, पता ही न चला। ऐसे में हरिश्चंद्र की दूरदर्शिता, और व्यापारिक कौशल बहुत काम आई। राजमहल को छोड़ कर अन्य सभी सम्पत्तियों को होटलों और रिसॉर्ट्स में बदल दिया गया। खेती करना कठिन काम था, और कुशल कामगर मिलने भी कठिन हो रहे थे, अतः अनेकों ज़मीनों में पशु-पालन और मुर्गी-पालन जैसे काम शुरू कर दिए गए थे, या फिर जो सम्पत्तियाँ राष्ट्र अथवा मुख्य मार्गों के बगल थीं, वहाँ पेट्रोल-पंप खोल दिए गए थे। राजपरिवार का जो रसूख़ रातों-रात जाता रहा था, वो मानों सूर्योदय के साथ वापस लौट आया था। और संपत्ति पहले से कई गुणा बढ़ गई थी।

जहाँ हरिश्चंद्र ने राजपरिवार का सम्मान वापस लाने और बढ़ाने में स्वयं को झोंक दिया, वहीं प्रियम्बदा ने पूरे परिवार को साथ बनाए रखने में किसी गोंद के जैसे काम किया। सभी की आशा के विपरीत, दोनों ही वाक़ई महाराज और महारानी बनने लायक थे। भूतपूर्व महाराज घनश्याम सिंह ने सच में प्रियम्बदा नाम का हीरा ढूँढ लाया था। लेकिन प्रियम्बदा के लिए सबसे महत्वपूर्ण सुहासिनी ही थी। उसके देवर - उसके बेटे - हर्ष - की अमानत! इस लिहाज़ से सुहासिनी उसकी पुत्री ही तो हुई!

हर बार, सुहासिनी में सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देते... वो पिछली बार से कहीं अधिक प्रसन्न, स्वस्थ, और आत्मविश्वास से लबरेज़ नज़र आती! यह देख कर उसको बहुत संतोष होता। मतलब साफ़ था - सुहासिनी की चिकित्सा, पढ़ाई-लिखाई, उसका पालन पोषण अच्छे ढंग से हो रहा था। आज भी याद है प्रियम्बदा को जब उसने सुहास को पहली बार देखा था! कैसी दयनीय हालत में थी वो बच्ची।

लेकिन तब की, और आज की सुहासिनी में बहुत अंतर था।

“अरे दीदी,” उसने प्रियम्बदा को देखा, तो आनंद से चीखती, उछलती हुई दौड़ी चली आई।

“मेरी नन्ही सी गौरैया... मेरी पूता... मेरी बच्ची...” कह कर प्रियम्बदा अपने घुटनों पर बैठ गई, जैसे माताएँ अपने नन्हे बच्चों के साथ करती हैं - इतना स्नेह था प्रियम्बदा में सुहासिनी के लिए, “कैसी है मेरी बच्ची?”

सुहास, हिरन के नन्हे शावक जैसी उछलती कूदती हुई आ कर प्रियम्बदा के अंक (आलिंगन) में समां गई। प्रियम्बदा ने अनगिनत बार उसको चूमा।

“बिलकुल ठीक हूँ दीदी,” सुहासिनी चहकती हुई बोली, “... आप तो मुझे भूल ही गईं!”

“अरे कहाँ बिटिया रानी! अभी तीन महीने पहले ही तो मिली थी तुझसे!”

“तीन नहीं, पूरे आठ महीने हो गए!” सुहास ने ठुनकते हुए शिकायत करी।

“अरे नहीं बेटे,” प्रियम्बदा उसके बाल-हठ पर मुस्कुराए बिना न रह सकी, “ऐसी भी खराब याददाश्त नहीं है कि अपनी एकलौती बिटिया से कब मिली, वो भूल जाऊँ!”

“इमोशनल ब्लैकमेल... हम्म?” कहते हुए सुहास ने प्रिया को एक चुम्बन दिया, और प्रियम्बदा को छेड़ती हुई बोली, “गन्दी वाली दीदी!” और फिर हरीश की तरफ़ मुखातिब होती हुई बोली, “भैया... आप कैसे हैं?”

“बिलकुल ठीक हूँ बच्चे! तुमको देख लिया... सब ठीक हो गया!”

“आप लोग न, जल्दी जल्दी आया करिए मुझसे मिलने! बोर होने लगता है नहीं तो!” हरीश के गले लगते हुए वो बोली।

हरीश ने उसको अपने सीने में चिपकाते और चूमते हुए कहा, “हा हा,” उसकी बात पर सभी हँसने लगे, “हाँ बेटा... जल्दी जल्दी आया करेंगे!”

“अच्छा,” प्रियम्बदा ने बात का सूत्र पकड़ा, “ये तो बता बच्चे, तेरे एक्साम्स की तैयारी कैसी चल रही है?”

“टॉप करूँगी दीदी!” सुहास ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया।

“प्रॉमिस?”

“हाँ दीदी, प्रॉमिस!”

“बहुत बढ़िया बेटे,” हरीश ने गर्व से कहा, “तू एक्साम्स टॉप कर ले... फिर तुझे आगे पढ़ने लंदन भेजेंगे!”

“सच में?”

“और नहीं तो क्या! ... मैं तो कब से यही सोच रहा हूँ... मेरी बिटिया को बेस्ट एजुकेशन मिलेगा! मैंने यह खुद से वायदा किया है!”

“फिर तो आप जल्दी से मेरा पासपोर्ट बनवा दीजिए...” सुहास ने बड़े अल्हड़पन से कहा, “लंदन... आई ऍम कमिंग...”

“दैट्स लाइक माय स्वीटेस्ट चाइल्ड...”

कुछेक घण्टे और रहने, और ऐसी ही बातें करने के बाद हरीश और प्रिया ने दोनों से विदा ली, और बहुत जल्दी ही वापस आने का वायदा किया।

*
Nice update....
 

Ajju Landwalia

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Wah avsji Bhai,

Sabhi updates ek se badhkar ek likhi he aapne................shabdo ko jaise jivit hi kar diya...............sabkuch aankho ke samne chal rahe he............

Kaise Mina ne ek sunder si devi rupi kanya ko janm diya.........kis tarah se Jay, Claire, Aditya ne khushiya manayi..............

Stanpan wala scene to dil ko hi chhoo gaya.............mujhe apni badi beti ka janam yaad dila diya bhai aapne................

Rajparivar me ek sadi se jayada samay baad putri ne janam liya he...........shayad yahi se unke Shraap ka bhi ant shuru ho jaye................

Harish aur Priyambda ne jis tarah se seuhasini ko sambhala vo vakai me kabil-e-tarif he.........

Gazab ki writing skill he aapki bhai.............

Keep posting
 
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