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Romance श्राप [Completed]

avsji

कुछ लिख लेता हूँ
Supreme
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Update #1, Update #2, Update #3, Update #4, Update #5, Update #6, Update #7, Update #8, Update #9, Update #10, Update #11, Update #12, Update #13, Update #14, Update #15, Update #16, Update #17, Update #18, Update #19, Update #20, Update #21, Update #22, Update #23, Update #24, Update #25, Update #26, Update #27, Update #28, Update #29, Update #30, Update #31, Update #32, Update #33, Update #34, Update #35, Update #36, Update #37, Update #38, Update #39, Update #40, Update #41, Update #42, Update #43, Update #44, Update #45, Update #46, Update #47, Update #48, Update #49, Update #50, Update #51, Update #52.

Beautiful-Eyes
* इस चित्र का इस कहानी से कोई लेना देना नहीं है! एक AI सॉफ्टवेयर की मदद से यह चित्र बनाया है। सुन्दर लगा, इसलिए यहाँ लगा दिया!
 
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ss268

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I really love to read your stories i red you stories like mangsutra which is really very good. Bro i am reading mahobbat ka safar which is also too good but i disappointed from one thing that you're misguided from the comments to know what people want to read but i wanted to read mahobbat ka safar full fledge unedited version which you're going to present. You wrote in some comments that you cut down some portions of the story which isn't good i think. I wanted to read your full fledge story. Jese kyi log comment kr rhe the ki sunil ke sath kishoravastha ki s** scenes mat dikhao keval hero pr focus kro chahe hero amar apni kishoravastha me kuch bhi krta rhe. so i think you were misguided by these comments and it drastically changed your story. So this was my concern which i wanted to convey. Please aap apni story ko vese hi original form me hi present kriye logo ke suggessions se misguided ho kr apni story mat khrab kiya kre kyoki har ek ki pasand alag alag hoti he to please baki readers ka bhi dhyan rkha kriye agar apke pas mahobbat ka safar story ka full fledge unedited version he to vo please share kijiye🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
 
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avsji

कुछ लिख लेता हूँ
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I really love to read your stories i red you stories like mangsutra which is really very good. Bro i am reading mahobbat ka safar which is also too good but i disappointed from one thing that you're misguided from the comments to know what people want to read but i wanted to read mahobbat ka safar full fledge unedited version which you're going to present. You wrote in some comments that you cut down some portions of the story which isn't good i think. I wanted to read your full fledge story. Jese kyi log comment kr rhe the ki sunil ke sath kishoravastha ki s** scenes mat dikhao keval hero pr focus kro chahe hero amar apni kishoravastha me kuch bhi krta rhe. so i think you were misguided by these comments and it drastically changed your story. So this was my concern which i wanted to convey. Please aap apni story ko vese hi original form me hi present kriye logo ke suggessions se misguided ho kr apni story mat khrab kiya kre kyoki har ek ki pasand alag alag hoti he to please baki readers ka bhi dhyan rkha kriye agar apke pas mahobbat ka safar story ka full fledge unedited version he to vo please share kijiye🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

बहुत बहुत धन्यवाद मित्र। देख रहा हूं कि आप पिछले कुछ दिनों से मोहब्बत का सफ़र पढ़ रहे हैं। और कहानी पर आपके विचार जान कर बहुत अच्छा लगा।
जी भाई, जो पोस्ट किया है, वही वर्शन है कहानी का मेरे पास। कोई अन्य नहीं। अभी आपको कहानी पसंद आ रही है, लेकिन आगे चल कर आप ही शिकायत करने लगेंगे। ऐसा बहुत बार हुआ है मोहब्बत का सफ़र में। इसीलिए मैंने उस कहानी का थ्रेड बंद करवा दिया।
कहानी पूरी है, आशा है आपको आनंद आता रहेगा।
 

Sanju@

Well-Known Member
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Update #38


अपनी माँ से मिल कर, और कुछ अन्य सामाजिक प्रयोजन निबटा कर, अपनी भारत यात्रा संपन्न कर के, कोई चार सप्ताह बाद आदित्य और क्लेयर दोनों वापस शिकागो लौट आये। माँ अब पहले से बहुत ठीक थीं, और अपने नियत समय पर संतोषजनक स्वास्थ्य लाभ पा रही थीं। उनकी हड्डियाँ जुड़ने, और उनमें समुचित बल आने में अपना प्राकृतिक तय समय लगना था, और जय और मीना की संतान होने में भी! इसलिए, फिलहाल इंतज़ार करने के अतिरिक्त और कुछ किया नहीं जा सकता था।

हाँलाकि आदित्य और क्लेयर दोनों ने ही माँ के पास ही रुक जाने की पेशकश करी थी, लेकिन उन्होंने ही इस विचार के क्रियान्वयन से साफ़ मना कर दिया था। उन्होंने आदित्य को समझाया कि अवश्य ही जय की शादी हो गई है और उसको अब संतान भी होने वाली है, लेकिन फिर भी वो अभी छोटा ही है, और उस पर यूँ अचानक से ही इतने बड़े बिज़नेस की, दोनों बच्चों को सम्हालने की, और मीना की गर्भावस्था की पूरी ज़िम्मेदारी यूँ ही डाल देना सही नहीं होगा। आदित्य ने माँ को समझाने की बड़ी कोशिश करी कि अवश्य ही जय अभी नौसिखिया है, लेकिन मीना स्वयं भी बिज़नेस चलाने में सक्षम है - सक्षम क्या, उस अकेली में ही उन दोनों ही भाईयों से भी अधिक क्षमता है!

आदित्य की बात सही हो सकती थी, लेकिन माँ मानी नहीं। उनका कहना था कि गर्भावस्था में मीना पर किसी भी तरह का तनाव नहीं होना चाहिए - बिज़नेस की अभी की स्थिति को देख कर, वो होता हुआ संभव नहीं दिख रहा था। बिज़नेस सुधार पर था, लेकिन अभी भी ऐसी कई सारी बातें थीं, जिनके कारण उसको सम्हालने वाले को यात्रा करना, और अनावश्यक तनाव लेना अवश्यम्भावी था! माँ को इस बात का भी मलाल था कि जय और मीना को हनीमून पर जाने तक का भी अवसर नहीं मिला था - ऐसे भाग भाग कर दोनों का विवाह हुआ था! और अब मीना गर्भवती भी हो गई थी! ऐसे में अगर घर पर ही दोनों को एक दूसरे के अंतर्ज्ञान का अवसर मिला था, तो उसका आनंद लेने में कोई बुराई नहीं थी। माँ की बातों में समुचित तर्क था, लिहाज़ा आदित्य और क्लेयर को वापस आना पड़ा।

*

उधर, मीना की गर्भावस्था बड़ी ही संतोषजनक और सामान्य तरीके से चल रही थी! अभी तक किसी भी तरह की कोई भी परेशानी सामने नहीं आई थी, और उसके डॉक्टर के अनुसार, भविष्य में किसी भी तरह की परेशानी होने का कोई अंदेशा भी नहीं था। मीना स्वस्थ थी और उसकी दिनचर्या अनुशासित थी। उसके खान-पान और व्यायाम की दैनिक क्रियाओं में कोई अंतर नहीं आया था, इसलिए चिंता की कोई बात नहीं लग रही थी।

माँ ने जैसी अपेक्षा करी थी, उसी के अनुसार मीना के गर्भ में पलते, बढ़ते बच्चे के समान ही, जय और उसका प्रेम भी प्रति-क्षण बढ़ रहा था। अगाध प्रेम होना किसी भी सम्बन्ध को अवलंब देता है, लेकिन जीवन में आगे बढ़ने के लिए, उसके साथ साथ, एक दूसरे के बारे में अच्छी समझ होना भी आवश्यक है। शादी से पहले एक दूसरे को जानने समझने का बहुत अवसर नहीं मिला था दोनों को! लेकिन साथ रहते हुए अब तक दोनों ही एक दूसरे को अच्छी तरह से जान गए थे।

मीना इस बात को स्वीकार कर चुकी थी कि उसके जीवन में सच में कोई अद्भत सी बात हो गई थी... कोई ईश्वरीय कृपा हुई थी उस पर, कि उसको जय जैसा पति मिला था - जो सच्चे मायनों में उसका जीवन-साथी था! अवश्य ही वो उससे छोटा था, और सांसारिक सरोकारों में वो नादान था, लेकिन उसका प्रेम शुद्ध था! वो मीना को किसी राजकुमारी के समान रखता था! और उसका ससुराल! मीना इसी बात से लहालोट हुई रहती कि उसको इतना अच्छा और प्यार करने वाला परिवार मिला था। बस कुछ ही सप्ताह पहले तक वो इस संसार में अकेली थी, लेकिन अब! अब उसके पास एक भरा पूरा, प्रेम करने वाला परिवार था! घर के बड़ों को तो छोड़ो, वो दोनों बच्चे - अजय और अमर भी उसको बहुत प्रेम करते, और ‘चाची, चाची’ करके उसके आगे पीछे लगे रहते थे।

और उधर जय को लग रहा था कि जिस तरह की पत्नी की उसको कामना थी, वैसी ही हू-ब-हू उसको मिल गई थी... वो अवश्य ही उससे बड़ी थी, कहीं अधिक पढ़ी-लिखी थी, लेकिन वो बहुत ही सुन्दर, गुणी, बुद्धिमति, और शुद्ध प्रेम का सागर थी! दिन भर के काम के बाद, शाम को मीना के आलिंगन में आ कर उसकी परेशानियाँ और थकावट ग़ायब हो जाती। वो सच में प्रेम और सुख का सागर थी - बिल्कुल उसकी माँ जैसी! अजय और अमर - दोनों बच्चों को वो बड़े प्रेम से देखती और उनकी शिक्षा पर भी ध्यान रखती। चाची की उपस्थिति में, दोनों को एक पल के लिए भी अपनी माँ की अनुपस्थिति महसूस न हुई! यह सब बड़े सौभाग्य से होता है, और ऐसी पत्नी बड़े ही सौभाग्य से मिलती है। मीना के लिए उसके मन में प्रतिदिन प्रेम और आदर बढ़ता ही जा रहा था।

लिहाज़ा, दोनों प्रगाढ़ता दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी - न केवल भावनात्मक, मानसिक, और आत्मिक तौर पर, बल्कि शारीरिक तौर पर भी! जब पारस्परिक प्रेम शारीरिक सीमाओं को लाँघ लेता है, तब प्रेम करने वालों को केवल सुख ही सुख महसूस होता है। दोनों एक दूसरे को इतना चाहते थे, कि मीना की गर्भावस्था में भी सम्भोग करना चाहते थे। शुरू शुरू में जय के मन में इसको ले कर थोड़ा संशय था, लेकिन मीना की गायकोनोलॉजिस्ट ने उनको आश्वासन दिया कि गर्भावस्था के समय भी आनंदमय सेक्स किया जा सकता है... बस थोड़ी बहुत सावधानी बरतनी होगी!

डॉक्टर से हरी झंडी मिलने पर दोनों ही डिलीवरी होने तक के सुरक्षित समय तक, सम्भोग का आनंद लेते रहे। मीना को भी जय का संग अच्छा लगता! उसके साथ सम्भोग करना बड़ा आनंददायक और सुखकारी था। जय अभी भी कई मामलों में बच्चों जैसा था - उसके अंदर यौन क्रीड़ा को ले कर अपार उत्साह था, और वो बिस्तर में कई सारे प्रयोग करता! मीना को भी सब कुछ अच्छा लगता, और वो भी पूरे उत्साह से उसका साथ देती और सम्भोग का आनंद उठाती। उसको अच्छा लगता कि अवश्य ही उसका शरीर गर्भावस्था के कारण बेडौल हो गया था, लेकिन फिर भी उसका पति न केवल उसको अभी भी आकर्षक पाता था, बल्कि पूरे उत्साह से उसके साथ सम्भोग करता था। वो संतुष्ट थी और आनंदमय थी।

*

क्लेयर और आदित्य के वापस आने पर मीना और जय को और भी निकट आने का अवसर मिलने लगा। वो दोनों भी अपनी तरफ से पूरा प्रयास करते रहते कि जय और मीना अपनी शादी के पहले साल और मीना की प्रेग्नेंसी का पूरा आनंद उठा सकें! वो कभी उन दोनों को रोमांटिक डिनर के लिए भेजते, तो कभी क्लासिकल म्यूज़िक की किसी महफ़िल में, तो कभी किसी नृत्य की प्रदर्शनी में! आदित्य और क्लेयर उन दोनों के साथ, अपने बच्चों के जैसे ही व्यवहार करते, उन दोनों को खुश रखते।

*

Update #39


ऐसे ही करते करते मीना की डिलीवरी का समय निकट आ गया।

जैसा कि सभी अपेक्षित भी था, घर के सभी सदस्य उद्विग्न भी थे, और उत्साहित भी! संतान का होना ऐसी ही मिली-जुली भावना ले कर आता है। अच्छी बात यह थी कि मीना को बेहद उत्कृष्ट चिकित्सा सुविधा उपलब्ध थी। डॉक्टरों ने भी सभी को पूरा आश्वासन दिया था कि सब कुछ बढ़िया रहेगा, और चिंता करने का कोई कारण नहीं है। अमेरिका में अधिकतर ‘प्राकृतिक प्रसूति’ को तरजीह दी जाती है। वो भारतीय डॉक्टरों के जैसे ‘सिज़ेरियन प्रसूति’ करने को उद्धत नहीं रहते। प्रसव एक प्राकृतिक व्यवस्था और प्रक्रिया होती है, और यदि माता स्वस्थ है, उसकी दिनचर्या स्वस्थ है, तो सीज़ेरियन करने का कोई औचित्य नहीं है।

जब डिलीवरी का समय आया, तब डॉक्टरों ने जय और मीना को एक बार फिर से सब कुछ समझा दिया, कि वो इस प्रसव से क्या अपेक्षा रखें। मीना को तकलीफ़ होगी, यह सभी को पता था, किन्तु यह अपेक्षित भी था। माँ, आदित्य और क्लेयर को खुद भी प्रसूति पीड़ा और उसके अनुभवों के बारे में सब कुछ पता था, लिहाज़ा, उन्होंने भी उन दोनों को आश्वस्त किया, और साथ ही साथ उनको माता पिता बनने की अग्रिम बधाईयाँ भी दीं। भारत से उनकी माँ भी लगातार फ़ोन पर उनके साथ बनी हुई थीं - उन्होंने मीना और जय से देर तक बातें करीं और कहा कि वो ठीक हो रही हैं और लगभग दो से तीन महीने में उनको लम्बी यात्रा करने की अनुमति मिल जाएगी। और फिर वो बड़े आराम से अपने दोनों नए बच्चों - मीना, और जय और मीना की संतान - से मिलेंगी! इस तरह की बातें कर और सुन कर मीना के मन में जो भी चिंताएँ शेष थीं, वो सब समाप्त हो गई। अब वो स्वयं भी अपने माँ बनने का इंतज़ार करने लगी।

हॉस्पिटल में दाखिले की आधी रात के बाद मीना को प्रसव की बलवती पीड़ा शुरू हुई, जो लगभग चार घण्टे तक चली। जय और क्लेयर इस दौरान प्रसूति गृह में ही मौजूद थे और उसको सम्बल प्रदान कर रहे थे। आदित्य थोड़ा कोमल हृदय का आदमी था, लिहाज़ा, वो अस्पताल के अन्य कार्यों में लगा हुआ था। उधर जय को ऐसा लग रहा था कि जैसे सदियाँ बीती जा रही हों! वो मीना को किसी भी तरह की तकलीफ़ में नहीं देख सकता था, और उसको यूँ रोते कराहते देखना उसके लिए असह्य हो रहा था। उसका मन हो रहा था कि जितनी जल्दी हो सके, वो अपनी संतान से मिल सके, और साथ ही साथ मीना का भी पीड़ा वाला अनुभव समाप्त हो! किन्तु हर काम अपने नियत समय पर ही होता है।

आखिरकार, ब्रह्म मुहूर्त में मीना ने एक बेटी को जन्म दिया। बेटी क्या, कहिए दुनिया जहान की खुशियों को जन्म दे दिया मीना ने! माता पिता बनते ही आप जैसे प्रकृति की सभी सीमाओं को लाँघ जाते हैं। अनगिनत वर्षों से चले आ रहे जीवन-क्रम को आप आगे बढ़ा देते हैं। आपका अंश अब केवल आप ही में नहीं, बल्कि एक नन्ही सी जान में भी बसने लगता है। पिता बनने का एहसास जय को बहुत ही अद्भुत लग रहा था। वो समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे वो... नाचे, या ख़ुशी के मारे चिल्लाये!

“कॉन्ग्रैचुलेशन्स जय... मीना,” उसकी समय मीना की डॉक्टर ने कहा, “मैनी मैनी कॉन्ग्रैचुलेशन्स... यू आर नाऊ प्राउड पेरेंट्स ऑफ़ अ ब्यूटीफुल गर्ल!”

“ओह थैंक यू सो मच डॉक्टर...” जय का चेहरा हज़ार वाट के बल्ब जैसा चमक रहा था।

“कॉन्ग्रैचुलेशन्स मीना... कॉन्ग्रैचुलेशन्स जय,” क्लेयर भी बहुत प्रसन्न थी।

मीना थकी हुई थी, इसलिए वो केवल मुस्कुरा दी।

“थैंक यू भाभी... थैंक यू सो मच!” जय ने क्लेयर को आनंद से अपनी गोद में उठा लिया, “ओह... आई ऍम सो हैप्पी भाभी, सो हैप्पी!”

“हा हा... जय, प्लीज बी केयरफुल...” डॉक्टर ने जय को चेताया।

ऐसा न हो कि उत्तेजना में कोई छोटी-मोटी दुर्घटना घट जाए!

“ओह यस यस... सॉरी डॉक्टर!”

लेकिन जय अपनी ख़ुशी को दबा के नहीं रख सकता था। आज के जैसा सुन्दर दिन उसके जीवन में कभी नहीं आया था। उसको कैसी प्रतिक्रिया करनी थी, उसको समझ नहीं आ रहा था। पिता बनना एक अद्भुत उपलब्धि होती है।

“व्हाट शुड व्ही नोट द बेबीस नेम ऐस...?” एक नर्स ने पूछा।

नवजात बच्चों का नामकरण करने के लिए अमेरिका में, भारत के जैसे नामकरण संस्कार करने तक का महीनों लम्बा समय नहीं लिया जाता। जन्म के समय ही कानूनी आवश्यकताओं के मद्देनज़र बच्चों का नाम लिखा जाता है। इसलिए, अक्सर ही लोग जन्म के पहले से ही अपने बच्चों के नाम सोच कर रखते हैं।

जय ने भी सोचा हुआ था।

“चित्रांगदा... हर नेम इस चित्रांगदा! एंड हर पेट नेम इस, चित्रा...” उसने डॉक्टर और वहाँ उपस्थित सभी लोगों को बड़े गर्व से अपनी नवजात बेटी का नाम बताया, और मीना की तरफ देखा।

मीना थक गई थी लेकिन जय के मुँह से अपनी पुत्री का नाम सुन कर उसके होंठों पर मुस्कान आ गई।

“चित्रांगदा...” उसने कमज़ोर लेकिन प्रसन्न आवाज़ में अपनी बेटी का नाम दोहराया।

“कॉन्ग्रैचुलेशन्स, माय लव...” जय ने बड़े प्यार से मीना से कहा।

वो मुस्कुराई, “ब्यूटीफुल नेम... आई लव यू...”

एक नर्स ने मीना की पीठ के पीछे तकिए लगा दिए, जिससे उसको थोड़ा आराम मिल सके। उसकी डॉक्टर ने उसको चेक किया और बताया कि मीना पूरी तरह स्वस्थ है, और यह थकावट एक दो दिन में पूरी तरह से समाप्त हो जाएगी। हाँ, लेकिन शरीर को पूरी तरह से रिकवर करने के लिए कुछ सप्ताह लग जाएँगे। अच्छी बात थी।

इतनी देर में एक अन्य नर्स ने नन्ही चित्रांगदा - “चित्रा” - को साफ़ कर के, और मुलायम से कपड़े में लपेट कर मीना के सुपुर्द कर दिया। मीना ने नन्ही चित्रा को अपने सीने से से लगा लिया था और वो पूरी शांति के साथ अपनी माँ के सीने पर गाल टिकाए लेटी हुई थी... शायद अपनी माँ के दिल की धड़कनों को सुन रही थी! उसकी आँखें खुली हुई थीं... काली काली चमकती आँखें... उनमें नए नए जीवन की चमक थी! बच्ची एकदम शांत थी - उसको देख कर कोई भी आह्लादित हुए बिना न रह सके!

“कैसी हो मीना?”

“आई ऍम सो टायर्ड, क्लेयर...” मीना मुस्कुराते हुए बोली, “बट वैरी हैप्पी! ... सुपर हैप्पी!”

जय चित्रा को अपनी गोदी में लेना चाहता था। लेकिन क्लेयर ने उसको मना किया,

“जय... पहले उसको दूध तो पिला लेने दो, फिर जितना मन करे, चित्रा को खिला लेना...”

“यस भाभी...” कह कर जय ने बच्ची को मीना की बाहों में दे दिया।

मीना ने हॉस्पिटल वाला गाउन पहना हुआ था; उसका एक सिरा अपने स्तन से हटा कर, उसने चित्रा को अपने स्तन से लगा लिया। बच्चों में यह नैसर्गिक ज्ञान होता है - माँ के स्तनों को वो पहचानने से पहले ही जानते हैं। अपनी माँ के स्तन का चूचक अपने होंठों पर महसूस करते ही चित्रा का मुँह स्वतः खुल गया और जैसी किसी स्वचालित प्रक्रिया स्वरुप उसका स्तनपान शुरू हो गया। चित्रा बिलकुल अधीर हो कर दूध पी रही ही।

उसको स्तनपान करता देख कर वहाँ उपस्थित सभी लोगों के होंठों पर या तो हँसी आ गई या फिर मुस्कान! एक नर्स ने तो कहा भी कि बच्ची इतने जोश से दूध पी रही है कि जैसे न जाने कब से भूखी हो!

अद्भुत सा दृश्य था! जय की आँखें उसी स्थान पर जमी हुई थीं जहाँ बच्ची का मुँह और मीना का चूचक मिल रहे थे। क्लेयर ने देखा कि जय क्या देख रहा था, और यह भी कि वो यह दृश्य देख कर भावुक हुआ जा रहा था।

“क्या हुआ जय?” उसने पूछा।

“दिस इस सो ब्यूटीफुल, भाभी!”

“आई नो! ... हर माँ अपने बच्चे को दूध पिलाना चाहती है... देयर कांट बी अ मोर डिवाइन सीन ऑन दिस अर्थ!”

“आप सही कह रही हैं भाभी...”

क्लेयर मुस्कुराई, “... अच्छा, तुम यहाँ मीना के साथ बैठो। मैं जा कर आदित्य को यह खुश-ख़बरी दे कर आती हूँ।”

“जी भाभी...”

जब क्लेयर बाहर चली गई, और तीनों उस कमरे में अकेले रह गए, तब जय ने बड़े प्यार से मीना का हाथ थाम लिया।

“थैंक यू सो मच, मेरी जान!” उसने कहा और मीना के हाथ को चूमा।

मीना मुस्कुराती हुई बोली, “क्या हो गया हुकुम? ... इतने इमोशनल क्यों हो गए?”

“तुमको नहीं पता... लेकिन हमारी बेटी चमत्कार है! ... शी इस सो परफेक्ट! ओह गॉड!”

“हर बाप को अपनी संतान ऐसी ही लगती है!”

“लगती होगी... लेकिन मेरी तो है!” जय ने बाल-पन वाले भाव से कहा।

उस थकावट में भी मीना को हँसी आ गई। लेकिन हँसने से उसको पेट में दर्द सा हो आया।

“आऊ...”

“क्या हुआ मेरी जान? कोई प्रॉब्लम?”

“नहीं प्रॉब्लम नहीं, बट आल माय मसल्स आर सोर... इसलिए हँसने पर दर्द हुआ!”

“ओह, तो अभी कुछ दिन कम जोक्स सुनाऊँगा...”

“ओह जय... मेरे जय... आई लव यू!”

“आई नो!”

दोनों ऐसी बातें कर ही रहे थे, कि क्लेयर आदित्य के साथ ही कमरे में आई।

आदित्य ने भी मीना और जय को माता पिता बनने की बहुत बहुत बधाईयाँ दीं और कुछ समय वहीं रहने के बाद क्लेयर को ले कर घर चला गया, कि उन दोनों के लिए कुछ ‘बढ़िया’ बना कर लाया जाएगा रात के लिए। अजय और अमर भी अपनी गुड़िया जैसी बहन से मिलने को उत्सुक थे, अतः शाम को पूरा परिवार, यहीं अस्पताल में ही इकठ्ठा होने वाला था!

*
दोनो ही अपडेट बहुत ही शानदार और लाजवाब हैं
मीना और जय के लिए यह बहुत ही खुशी का दिन है दोनो एक प्यारी सी बेटी के मां बाप जो बन गए एक मां बाप के लिए यह खुशी सबसे बड़ी खुशी होती है
 

Sanju@

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अपडेट #40


प्रियम्बदा, राजमहल के एक अति-विशालकाय कक्ष में चंद्रपुर और महाराजपुर के राजपुरोहितों के साथ बैठी हुई, एक अत्यंत ही गहन विचार-विमर्श में व्यस्त थी। विचार विमर्श क्या, वो बस अपनी समस्या का हल चाहती थी! आज की सभा में दो अन्य सिद्ध-पुरुष भी मौज़ूद थे - उनमें से एक थे, केदार-धाम के रावल और दूसरे थे बद्री-धाम के रावल। पूरे एक वर्ष तक चले अनवरत प्रयासों के बाद वो दोनों आज प्रियम्बदा की सभा में शामिल हो सके थे।

ऐसे सिद्ध-पुरुषों के सम्मुख वो क्या बोलती? इसलिए, बस चुप-चाप बैठ कर उनसे अपनी समस्या का समाधान सुनना चाहती थी। कितने वर्ष बीत गए थे, और उसके कितने ही प्रयास विफल हो गए थे। अब तो बस, निराशा ही निराशा थी। उसने सोचा था, कि इन सिद्ध-पुरुषों के पास उसकी समस्या का कोई निदान तो होगा। लेकिन फिलहाल तो वो चारों ही चुप्पी साधे हुए थे। उसको यह बात बहुत अखर भी रही थी। लेकिन उसने क्या सोच कर खुद को ज़ब्त कर रखा था।

कक्ष में चुप्पी व्याप्त थी।

जब बहुत समय बीत गया, तो अंततः केदार धाम के रावल ही बोले, “महारानी... पुत्री... हम आपकी समस्या समझते हैं... भली भाँति समझते हैं। ... जब आपके राजपुरोहित जी महाराज ने हमसे संपर्क साधा था, तब ही हम समझ गए थे कि कोई अति-गंभीर विषय है... इसलिए ही इन्होने हमको याद किया।”

“तो क्या आपको हमारी समस्या का कोई समाधान सूझ गया महाराज?” प्रियम्बदा ने उम्मीद भरे स्वर में पूछा।

“हाँ भी, और नहीं भी... देखिए पुत्री, कलियुग में ऐसा कुछ हो जाएगा, वो तो आशा से परे है। विश्वास ही नहीं होता... किन्तु हुआ तो है... सत्य को भला कैसा प्रमाण चाहिए? ... महाराजपुर के राज-कुल पर एक सती का श्राप लगा तो है!”

“जी...”

“हमको जहाँ तक ज्ञात है... ऐसे श्राप संभवतः अकाट्य होते हैं, देवी,” बद्री-धाम के रावल बोले।

“तो क्या कोई मार्ग नहीं है महाराज?” प्रियम्बदा की बोली में निराशा साफ़ सुनाई दे रही थी।

“पुत्री, हमने ऐसा नहीं कहा... प्रकृति में प्रत्येक व्याधि की चिकित्सा संभव है... हम मनुष्यों को उसका ज्ञान है अथवा नहीं, यह हमारी समस्या है। किन्तु प्रकृति के पास हर बात का हल है... अब आप हमारे ऋषि-मुनियों को ही ले लीजिए... जब वो किसी को श्राप देते थे, तो उसका हल भी तो देते थे!”

“सही कहा आपने महाराज,” केदार-धाम के रावल ने कहा, “किन्तु यहाँ एक सती का श्राप लगा है! ... संभव है, उन्होंने श्राप देते समय सोचा भी नहीं होगा कि उनके श्राप के ऐसे दूरगामी परिणाम हो सकते हैं! ... अतः अपने श्राप के काट के बारे में उनको सोचने का समय भी नहीं मिला होगा।”

प्रियम्बदा चुप्पी साधे सब सुन रही थी।

लेकिन अभी तक कोई हल सामने नहीं आया था। इसलिए उसका धैर्य जवाब दे रहा था अब।

“... अतः, प्रकृति में ही उसका कोई काट निहित होगा महाराज?” चंद्रपुर के राजपुरोहित जी ने आशा भरे स्वर में पूछा।

“जी महाराज... किन्तु एक बात बताएँ, क्या आपको सती के बारे में कोई जानकारी है?”

“कैसी जानकारी महाराज?”

“किसी भी प्रकार की! कोई भी बिंदु... छोटे से छोटा बिंदु भी काम का हो सकता है... कोई भी छोटी बात, जो संभवतः आपके संज्ञान से छूट गई हो?”

“कुछ ठीक से ज्ञात नहीं है महाराज... कभी कभी तो लगता है कि वो सब कोई किंवदंती हो! हाँ, इतना तो सभी जानते हैं, कि ब्राह्मण देव की उसी रात्रि हत्या कर दी गई थी! किन्तु उन ब्राह्मणी सती के बारे में कुछ भी ठीक से ज्ञात नहीं है... कुछ लोग कहते हैं कि उनकी भी हत्या कर दी गई थी, और कुछ कहते हैं कि उनको राज्य से बाहर ले जा कर वन-क्षेत्र में छोड़ दिया गया था, जिससे कि वन्य-पशु उनका भक्षण कर सकें...”

“हम्म...”

“और कुछ लोग,” राजपुरोहित जी ने हिचकते हुए कहा, “... कुछ लोग यह भी कहते हैं कि उस दुराचार के परिणामस्वरूप उन ब्राह्मणी को गर्भ ठहर गया... और उन्होंने किसी संतान को जन्म दिया!”

“हम्म...”

“किन्तु सच कहें... तो ये सब बातें केवल अटकलें ही हैं!”

“किसी ने उनकी वंशावली का विवरण नहीं रखा?”

“वो बाहर से हमारे राज्य में आए हुए थे, प्रभु! ... किसी को क्या ज्ञात था कि ऐसा अनर्थ हो जाएगा!”

“हम्म...”

“शरणागत की हत्या... शरणागत के साथ दुराचार... यह सभी जघन्य अपराध हैं...” केदार-धाम के रावल ने सोचते हुए कहा।

“जी,” प्रियम्बदा से रहा नहीं गया, “और उसी अपराध का दण्ड हम आज तक भुगत रहे हैं महाराज! ... क्या कोई भी उपाय नहीं है?” उसने अधीरता से पूछा।

“पुत्री, जैसा कि महाराज ने कहा, प्रकृति में हर बात का उपाय है! ... आप ईश्वर-निष्ठ हैं... यह अच्छी बात है। यदि आप ईश्वर की शक्ति में विश्वास करती हैं... तो आपको अपना अभीष्ट अवश्य मिलेगा।”

“किन्तु महाराज, आपने कुछ सोच कर ही कहा होगा?”

“पुत्री... हमने सोचा तो अवश्य है। किन्तु ठीक ठीक कह नहीं सकते, कि यह उपाय सिद्ध होगा...!”

“फिर भी... कुछ तो बताएँ?”

“पुत्री,” केदार-धाम के रावल बोलने लगे, “यदि सती की हत्या न हुई हो, तो बहुत संभव है कि आपके कुल पर लगा यह श्राप मिट जाए!”

प्रियम्बदा की आँखों में आशा की चमक जाग उठी, “अच्छा! यह संभव है महाराज?”

“अवश्य पुत्री!” रावल ने कहा, और फिर राजपुरोहित की तरफ सम्मुख हो कर बोले, “महाराज, आपको उन ब्राह्मण दंपत्ति के परिवार के बारे में कुछ पता है?”

“महाराज, कुछ कहना तो कठिन है... कही सुनी बातें हैं... किन्तु ऐसा संकेत मिलता है कि शायद उनका परिवार था।”

“हम्म... यह आशाजनक बात है!” रावल ने सोचते हुए कहा, “श्राप का काट ममता होती है!”

“जी महाराज!” बद्री-धाम के रावल सहमत होते हुए बोले, “पुत्री... मुझे तो लगता है कि उन सती की ही ममता आपके कुल को इस श्राप से मुक्त कर सकती है...”

“किन्तु महाराज,” प्रियम्बदा ने चौंकते हुए कहा, “इस श्राप को लगे हुए कोई सौ सवा सौ वर्ष बीत गए हैं! ... उनकी तो अब तक मृत्यु भी...”

“पुत्री! हम समझ रहे हैं आपकी बात! किन्तु जैसा कि महाराज ने बताया, प्रकृति में हर व्याधि का काट उपलब्ध है... उसी तरह श्राप का काट भी ममता ही है। ... अवश्य ही उनके साथ दुराचार हुआ, लेकिन अगर वो जीवित रहीं, तो उनकी ममता आपके कुल की रक्षा अवश्य करेगी!” उन्होंने कहा, और फिर ठहर कर सोचते हुए बोले, "... अब आप हमारी बात ध्यान से सुनें...”

फिर अगले कोई आधे घण्टे तक वो प्रियम्बदा को कुछ उपाय समझाने लगे। वो बड़े ध्यान से सुन तो रही थी, लेकिन उसके मन में वो सब बातें कोरी बकवास ही लग रही थीं।

“किन्तु...” जब रावल ने कहना बंद किया तो प्रियम्बदा बोली।

“पुत्री, इससे अधिक हम कुछ कहने में असमर्थ हैं! ... इस समय और कोई मार्ग सूझ भी नहीं रहा है हमको!”

प्रियम्बदा फिर से निराश हो गई। उसके हाव भाव किसी से भी छुपे नहीं रह सके।

“हमको क्षमा करें पुत्री,” बद्री-धाम के रावल बोले, “हमको ज्ञात है कि आप बड़ी उम्मीद ले कर हमसे मिलना चाहती थीं... किन्तु क्या करें! ईश्वरीय इच्छाओं पर हम मनुष्यों का कोई वश नहीं होता।”

“कोई बात नहीं महाराज!” प्रियम्बदा ने हाथ जोड़ कर कहा, “हमारे भाग्य में जो है, उसको भोगना ही पड़ेगा! ... आज आप जैसे ज्ञानी पुरुषों से भेंट हो गई, वही बहुत है!”

और यह कह कर उसने भारी मन से सभी को अलविदा कहा।

*
बहुत ही शानदार अपडेट है प्रकृति के पास हर प्रॉब्लम का उपाय है देखते हैं इस प्रॉब्लम का प्रकृति के पास क्या उपाय है
 

Sanju@

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Update #41


इस घटना के कुछ महीनों पश्चात :

“काका,” प्रियम्बदा गौरीशंकर जी से मिलते हुए बोली, “प्रणाम!”

“अरे बेटी... खम्मा घणी... खम्मा घणी महाराज...”

गौरीशंकर जी ने अपने स्थान से उठते हुए प्रियम्बदा और हरीश को प्रणाम किया। उनको प्रियम्बदा और हरीश के आने का पता नहीं था, और वो उन दोनों को यूँ, बिना किसी सूचना के अपने घर आया देख कर बहुत प्रसन्न हुए।

कभी सपने में भी उन्होंने नहीं सोचा था कि महाराजपुर जैसे राजपरिवार से उनको यूँ पितृवत आदर सम्मान मिलेगा। महारानी प्रियम्बदा ने बहुत आरम्भ से ही उनको पिता का स्थान दिया था, और पिछले कुछ समय से महाराज हरीशचंद्र ने भी उनको पितृतुल्य आदर और स्नेह देना शुरू कर दिया था।

लेकिन, वो उन दोनों की महानता थी। गौरीशंकर जी को अपनी ‘हैसियत’ के बारे में कोई भी ग़लतफ़हमी नहीं थी। जिस परिवार के संरक्षण में उनका खुद का परिवार फला फूला था, वो खुद को उस परिवार के समकक्ष समझने की गलती नहीं कर सकते थे। उनको अपने ‘स्थान’ का पता था। सुहासिनी, राजपरिवार की बहू बन जाती, तो कैसे अद्भुत आनंद और सम्मान की बात होती!

“काका!” उनके इस तरह के अभिवादन पर प्रियम्बदा ने नाराज़गी जताई - बाप अपनी संतान को घणी खम्मा नहीं करता - और उनके चरण स्पर्श करती हुई बोली, “अपने पिता से आशीर्वाद लेने का अधिकार तो संतान को ही होता है!”

अब इस बात पर वो क्या ही बोलते?

हरीश ने भी उनके चरण स्पर्श किये।

“आप दोनों... यूँ अचानक...? सब कुशल मंगल तो है न?”

“आपसे और सुहास से मिलने का मन हो आया, इसलिए रुक न पाए हम...!”

“अच्छा किया बेटी,” गौरीशंकर को समझ ही नहीं आता था कि वो क्या करें - प्रिया और हरीश से (कृपा का) आशीर्वाद लें, या उनको कोई आशीर्वाद दें, “आप दोनों के दर्शन पा कर आँखें ठंडी हो जाती हैं!”

“काका, आप तो हमको लज्जित कर रहे हैं!” हरीश ने कहा।

“क्षमा करें महाराज,” उनके हाथ, खेद-स्वरुप स्वतः ही जुड़ गए।

“जैसे आप प्रिया के पिता हैं, वैसे ही हमारे!” हरीश ने उनको समझाते हुए कहा, “और वैसे भी, हम कोई राजा महाराजा नहीं हैं। बस आपके और अन्य भारतीयों की ही तरह, इस देश के सामान्य नागरिक हैं!”

खैर, ऐसी ही मान मनुहार में कुछ समय बीता और गौरीशंकर ने उन दोनों को घर के भीतर आमंत्रित किया। जब दोनों उनके घर के अंदर आराम से बैठ गए, तो गौरीशंकर जी ने पूछा,

“कैसे हैं आप सभी? सब कुशल मंगल तो है?”

“आपका आशीर्वाद है काका,” हरीश ने कहा, और पूछा, “... लेकिन, हम आपसे मिलने आये हैं... बताएं आप कैसे हैं? स्वास्थ्य कैसा है? ... सुहास कैसी है?”

“सब ठीक है बेटे... हम भी...” वो बोले, “और आपकी दया से सुहास भी ठीक है!”

“उसके इलाज़ और पढ़ाई लिखाई में कोई रूकावट तो नहीं आ रही है न?”

“बिलकुल भी नहीं,” उन्होंने हाथ जोड़ दिए, “आपकी कृपा से सब कुछ ठीक चल रहा है... और इस बार तो उसका कॉलेज का भी है!”

“अरे वाह! बहुत बढ़िया! ... समय कितनी तेजी से चला जाता है... जैसे पंख लगे हों...” प्रियम्बदा बोली, और फिर थोड़ा सोच कर आगे बोली, “आपसे विनती है... उसके लालन पालन, और पढ़ाई लिखाई में कोई कमी... किसी तरह की ढील न आने दीजिएगा! ... वो बहुत मेधावी है... पढ़ने दीजिए... आगे बढ़ने दीजिये...”

“आप जैसा कहेंगी, वैसा ही होगा बेटी!” गौरीशंकर ने कहा, “... हमसे कहीं अधिक वो आपकी अमानत है... आप दिशा दिखाईए, और हम पूरी कोशिश करेंगे कि उसको उसी दिशा में आगे ले चलें...”

“नहीं काका... हम तो यह चाहते हैं कि अपने मार्ग... अपनी दिशा सुहास खुद चुने... और उस पर आगे चले... उसमें सफ़ल हो... आप... हम... हम उसके बड़े हैं... उसके गार्जियन हैं... हम यही कोशिश करेंगे कि उसको किसी तरह की परेशानी न हो, और उसका मार्ग प्रशस्त हो!”

“आप दोनों जैसा चाहें! ... इसीलिए तो हम कह रहे थे बेटी, कि सुहास आपकी अमानत है...” उन्होंने हाथ जोड़ते हुए कहा।

“काका...” प्रियम्बदा ने आभार पूर्वक कहा!

“आप कुछ दिन ठहरेंगे न?” गौरीशंकर ने बड़ी आशा से पूछा।

“नहीं काका,” हरीश ने कहा, “दिल्ली जाना है... कुछ काम है! फिर वहाँ से कुछ समय के लिए लन्दन...”

“ओह!”

“क्या हो गया काका?”

“महाराज... बेटे... कुछ नहीं! बस, सुहासिनी की एक इच्छा थी...” उन्होंने झिझकते हुए कहा।

“अरे काका, कहिये न?”

“जी... वो चाहती है कि आप दोनों से मुलाकात हो जाय... पिछली बार मिले हुए से अब तक कुछ समय हो गया न!”

“जी काका! ज़रूर मिलेंगे!” प्रियम्बदा उत्साह से बोली, “हम भी तो मिलना चाहते हैं उससे! ... बिना उससे मिले हम भी दिल्ली नहीं जाना चाहते हैं! और है तो अपनी ही बिटिया न!”

“बहुत अच्छी बात है... आप कुछ समय विश्राम कीजिए। उसके आने का समय बस होने ही वाला है।”

“जी काका...”

“काका,” हरीश बोला, “डॉक्टर क्या कहते हैं?”

“उनका कहना है कि सब ठीक हो जाएगा... सुहासिनी अब पूरी तरह से स्वस्थ है... और पूरी लगन से अपनी पढ़ाई कर रही है। ... सच कहें, तो उसको पढ़ाई लिखाई के अतिरिक्त और कुछ सूझता नहीं!”

“बहुत बढ़िया! बहुत अच्छा लगा सुन कर काका!” हरीशचंद्र ने आनंद से कहा, “हमारी बिटिया रानी हमारा नाम रोशन करेगी!”

“ईश्वर और आप लोगों की दया है!”



*



प्रियम्बदा ने सुहासिनी को घर के प्रांगण में प्रवेश करते हुए देखा। कैसी सरल, सुन्दर, भोली, और चंचल सी लड़की! क्यों न वो हर्ष को यूँ भा जाती? उसको खुद को भी तो वो इतना भा गई थी। इतनी कम उम्र में बेचारी ने कितना कुछ झेल लिया था। सभी को इसी बात का डर था कि पहले हर्ष की मृत्यु, फिर अपनी गर्भावस्था, और फिर अपनी संतान से अलग होने के कारण कहीं उस पर भावनात्मक रूप से भारी असर न पड़ जाए! और ऐसा हुआ भी - लेकिन समय रहते और अति-कुशल चिकित्सा के कारण सुहासिनी अब ठीक हो गई थी।

शुरू शुरू में बहुत तक़लीफ़ें आईं - कम उम्र में माँ बनना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। फिर प्रसूति के बाद संतान से बिछोह! ये सब गौरीशंकर जी के अकेले के बस का काम नहीं था। हर कदम पर प्रियम्बदा और हरीशचंद्र ने उनका साथ दिया, और सुहासिनी को सम्हाला। कठिन काम था यह। राजशाही लगभग चौपट हो गई थी - जो मित्र थे... अपने थे, वो कब शत्रु बन गए... पराए हो गए, पता ही न चला। ऐसे में हरिश्चंद्र की दूरदर्शिता, और व्यापारिक कौशल बहुत काम आई। राजमहल को छोड़ कर अन्य सभी सम्पत्तियों को होटलों और रिसॉर्ट्स में बदल दिया गया। खेती करना कठिन काम था, और कुशल कामगर मिलने भी कठिन हो रहे थे, अतः अनेकों ज़मीनों में पशु-पालन और मुर्गी-पालन जैसे काम शुरू कर दिए गए थे, या फिर जो सम्पत्तियाँ राष्ट्र अथवा मुख्य मार्गों के बगल थीं, वहाँ पेट्रोल-पंप खोल दिए गए थे। राजपरिवार का जो रसूख़ रातों-रात जाता रहा था, वो मानों सूर्योदय के साथ वापस लौट आया था। और संपत्ति पहले से कई गुणा बढ़ गई थी।

जहाँ हरिश्चंद्र ने राजपरिवार का सम्मान वापस लाने और बढ़ाने में स्वयं को झोंक दिया, वहीं प्रियम्बदा ने पूरे परिवार को साथ बनाए रखने में किसी गोंद के जैसे काम किया। सभी की आशा के विपरीत, दोनों ही वाक़ई महाराज और महारानी बनने लायक थे। भूतपूर्व महाराज घनश्याम सिंह ने सच में प्रियम्बदा नाम का हीरा ढूँढ लाया था। लेकिन प्रियम्बदा के लिए सबसे महत्वपूर्ण सुहासिनी ही थी। उसके देवर - उसके बेटे - हर्ष - की अमानत! इस लिहाज़ से सुहासिनी उसकी पुत्री ही तो हुई!

हर बार, सुहासिनी में सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देते... वो पिछली बार से कहीं अधिक प्रसन्न, स्वस्थ, और आत्मविश्वास से लबरेज़ नज़र आती! यह देख कर उसको बहुत संतोष होता। मतलब साफ़ था - सुहासिनी की चिकित्सा, पढ़ाई-लिखाई, उसका पालन पोषण अच्छे ढंग से हो रहा था। आज भी याद है प्रियम्बदा को जब उसने सुहास को पहली बार देखा था! कैसी दयनीय हालत में थी वो बच्ची।

लेकिन तब की, और आज की सुहासिनी में बहुत अंतर था।

“अरे दीदी,” उसने प्रियम्बदा को देखा, तो आनंद से चीखती, उछलती हुई दौड़ी चली आई।

“मेरी नन्ही सी गौरैया... मेरी पूता... मेरी बच्ची...” कह कर प्रियम्बदा अपने घुटनों पर बैठ गई, जैसे माताएँ अपने नन्हे बच्चों के साथ करती हैं - इतना स्नेह था प्रियम्बदा में सुहासिनी के लिए, “कैसी है मेरी बच्ची?”

सुहास, हिरन के नन्हे शावक जैसी उछलती कूदती हुई आ कर प्रियम्बदा के अंक (आलिंगन) में समां गई। प्रियम्बदा ने अनगिनत बार उसको चूमा।

“बिलकुल ठीक हूँ दीदी,” सुहासिनी चहकती हुई बोली, “... आप तो मुझे भूल ही गईं!”

“अरे कहाँ बिटिया रानी! अभी तीन महीने पहले ही तो मिली थी तुझसे!”

“तीन नहीं, पूरे आठ महीने हो गए!” सुहास ने ठुनकते हुए शिकायत करी।

“अरे नहीं बेटे,” प्रियम्बदा उसके बाल-हठ पर मुस्कुराए बिना न रह सकी, “ऐसी भी खराब याददाश्त नहीं है कि अपनी एकलौती बिटिया से कब मिली, वो भूल जाऊँ!”

“इमोशनल ब्लैकमेल... हम्म?” कहते हुए सुहास ने प्रिया को एक चुम्बन दिया, और प्रियम्बदा को छेड़ती हुई बोली, “गन्दी वाली दीदी!” और फिर हरीश की तरफ़ मुखातिब होती हुई बोली, “भैया... आप कैसे हैं?”

“बिलकुल ठीक हूँ बच्चे! तुमको देख लिया... सब ठीक हो गया!”

“आप लोग न, जल्दी जल्दी आया करिए मुझसे मिलने! बोर होने लगता है नहीं तो!” हरीश के गले लगते हुए वो बोली।

हरीश ने उसको अपने सीने में चिपकाते और चूमते हुए कहा, “हा हा,” उसकी बात पर सभी हँसने लगे, “हाँ बेटा... जल्दी जल्दी आया करेंगे!”

“अच्छा,” प्रियम्बदा ने बात का सूत्र पकड़ा, “ये तो बता बच्चे, तेरे एक्साम्स की तैयारी कैसी चल रही है?”

“टॉप करूँगी दीदी!” सुहास ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया।

“प्रॉमिस?”

“हाँ दीदी, प्रॉमिस!”

“बहुत बढ़िया बेटे,” हरीश ने गर्व से कहा, “तू एक्साम्स टॉप कर ले... फिर तुझे आगे पढ़ने लंदन भेजेंगे!”

“सच में?”

“और नहीं तो क्या! ... मैं तो कब से यही सोच रहा हूँ... मेरी बिटिया को बेस्ट एजुकेशन मिलेगा! मैंने यह खुद से वायदा किया है!”

“फिर तो आप जल्दी से मेरा पासपोर्ट बनवा दीजिए...” सुहास ने बड़े अल्हड़पन से कहा, “लंदन... आई ऍम कमिंग...”

“दैट्स लाइक माय स्वीटेस्ट चाइल्ड...”

कुछेक घण्टे और रहने, और ऐसी ही बातें करने के बाद हरीश और प्रिया ने दोनों से विदा ली, और बहुत जल्दी ही वापस आने का वायदा किया।

*
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इस घटना के कुछ महीनों पश्चात :

“काका,” प्रियम्बदा गौरीशंकर जी से मिलते हुए बोली, “प्रणाम!”

“अरे बेटी... खम्मा घणी... खम्मा घणी महाराज...”

गौरीशंकर जी ने अपने स्थान से उठते हुए प्रियम्बदा और हरीश को प्रणाम किया। उनको प्रियम्बदा और हरीश के आने का पता नहीं था, और वो उन दोनों को यूँ, बिना किसी सूचना के अपने घर आया देख कर बहुत प्रसन्न हुए।

कभी सपने में भी उन्होंने नहीं सोचा था कि महाराजपुर जैसे राजपरिवार से उनको यूँ पितृवत आदर सम्मान मिलेगा। महारानी प्रियम्बदा ने बहुत आरम्भ से ही उनको पिता का स्थान दिया था, और पिछले कुछ समय से महाराज हरीशचंद्र ने भी उनको पितृतुल्य आदर और स्नेह देना शुरू कर दिया था।

लेकिन, वो उन दोनों की महानता थी। गौरीशंकर जी को अपनी ‘हैसियत’ के बारे में कोई भी ग़लतफ़हमी नहीं थी। जिस परिवार के संरक्षण में उनका खुद का परिवार फला फूला था, वो खुद को उस परिवार के समकक्ष समझने की गलती नहीं कर सकते थे। उनको अपने ‘स्थान’ का पता था। सुहासिनी, राजपरिवार की बहू बन जाती, तो कैसे अद्भुत आनंद और सम्मान की बात होती!

“काका!” उनके इस तरह के अभिवादन पर प्रियम्बदा ने नाराज़गी जताई - बाप अपनी संतान को घणी खम्मा नहीं करता - और उनके चरण स्पर्श करती हुई बोली, “अपने पिता से आशीर्वाद लेने का अधिकार तो संतान को ही होता है!”

अब इस बात पर वो क्या ही बोलते?

हरीश ने भी उनके चरण स्पर्श किये।

“आप दोनों... यूँ अचानक...? सब कुशल मंगल तो है न?”

“आपसे और सुहास से मिलने का मन हो आया, इसलिए रुक न पाए हम...!”

“अच्छा किया बेटी,” गौरीशंकर को समझ ही नहीं आता था कि वो क्या करें - प्रिया और हरीश से (कृपा का) आशीर्वाद लें, या उनको कोई आशीर्वाद दें, “आप दोनों के दर्शन पा कर आँखें ठंडी हो जाती हैं!”

“काका, आप तो हमको लज्जित कर रहे हैं!” हरीश ने कहा।

“क्षमा करें महाराज,” उनके हाथ, खेद-स्वरुप स्वतः ही जुड़ गए।

“जैसे आप प्रिया के पिता हैं, वैसे ही हमारे!” हरीश ने उनको समझाते हुए कहा, “और वैसे भी, हम कोई राजा महाराजा नहीं हैं। बस आपके और अन्य भारतीयों की ही तरह, इस देश के सामान्य नागरिक हैं!”

खैर, ऐसी ही मान मनुहार में कुछ समय बीता और गौरीशंकर ने उन दोनों को घर के भीतर आमंत्रित किया। जब दोनों उनके घर के अंदर आराम से बैठ गए, तो गौरीशंकर जी ने पूछा,

“कैसे हैं आप सभी? सब कुशल मंगल तो है?”

“आपका आशीर्वाद है काका,” हरीश ने कहा, और पूछा, “... लेकिन, हम आपसे मिलने आये हैं... बताएं आप कैसे हैं? स्वास्थ्य कैसा है? ... सुहास कैसी है?”

“सब ठीक है बेटे... हम भी...” वो बोले, “और आपकी दया से सुहास भी ठीक है!”

“उसके इलाज़ और पढ़ाई लिखाई में कोई रूकावट तो नहीं आ रही है न?”

“बिलकुल भी नहीं,” उन्होंने हाथ जोड़ दिए, “आपकी कृपा से सब कुछ ठीक चल रहा है... और इस बार तो उसका कॉलेज का भी है!”

“अरे वाह! बहुत बढ़िया! ... समय कितनी तेजी से चला जाता है... जैसे पंख लगे हों...” प्रियम्बदा बोली, और फिर थोड़ा सोच कर आगे बोली, “आपसे विनती है... उसके लालन पालन, और पढ़ाई लिखाई में कोई कमी... किसी तरह की ढील न आने दीजिएगा! ... वो बहुत मेधावी है... पढ़ने दीजिए... आगे बढ़ने दीजिये...”

“आप जैसा कहेंगी, वैसा ही होगा बेटी!” गौरीशंकर ने कहा, “... हमसे कहीं अधिक वो आपकी अमानत है... आप दिशा दिखाईए, और हम पूरी कोशिश करेंगे कि उसको उसी दिशा में आगे ले चलें...”

“नहीं काका... हम तो यह चाहते हैं कि अपने मार्ग... अपनी दिशा सुहास खुद चुने... और उस पर आगे चले... उसमें सफ़ल हो... आप... हम... हम उसके बड़े हैं... उसके गार्जियन हैं... हम यही कोशिश करेंगे कि उसको किसी तरह की परेशानी न हो, और उसका मार्ग प्रशस्त हो!”

“आप दोनों जैसा चाहें! ... इसीलिए तो हम कह रहे थे बेटी, कि सुहास आपकी अमानत है...” उन्होंने हाथ जोड़ते हुए कहा।

“काका...” प्रियम्बदा ने आभार पूर्वक कहा!

“आप कुछ दिन ठहरेंगे न?” गौरीशंकर ने बड़ी आशा से पूछा।

“नहीं काका,” हरीश ने कहा, “दिल्ली जाना है... कुछ काम है! फिर वहाँ से कुछ समय के लिए लन्दन...”

“ओह!”

“क्या हो गया काका?”

“महाराज... बेटे... कुछ नहीं! बस, सुहासिनी की एक इच्छा थी...” उन्होंने झिझकते हुए कहा।

“अरे काका, कहिये न?”

“जी... वो चाहती है कि आप दोनों से मुलाकात हो जाय... पिछली बार मिले हुए से अब तक कुछ समय हो गया न!”

“जी काका! ज़रूर मिलेंगे!” प्रियम्बदा उत्साह से बोली, “हम भी तो मिलना चाहते हैं उससे! ... बिना उससे मिले हम भी दिल्ली नहीं जाना चाहते हैं! और है तो अपनी ही बिटिया न!”

“बहुत अच्छी बात है... आप कुछ समय विश्राम कीजिए। उसके आने का समय बस होने ही वाला है।”

“जी काका...”

“काका,” हरीश बोला, “डॉक्टर क्या कहते हैं?”

“उनका कहना है कि सब ठीक हो जाएगा... सुहासिनी अब पूरी तरह से स्वस्थ है... और पूरी लगन से अपनी पढ़ाई कर रही है। ... सच कहें, तो उसको पढ़ाई लिखाई के अतिरिक्त और कुछ सूझता नहीं!”

“बहुत बढ़िया! बहुत अच्छा लगा सुन कर काका!” हरीशचंद्र ने आनंद से कहा, “हमारी बिटिया रानी हमारा नाम रोशन करेगी!”

“ईश्वर और आप लोगों की दया है!”



*



प्रियम्बदा ने सुहासिनी को घर के प्रांगण में प्रवेश करते हुए देखा। कैसी सरल, सुन्दर, भोली, और चंचल सी लड़की! क्यों न वो हर्ष को यूँ भा जाती? उसको खुद को भी तो वो इतना भा गई थी। इतनी कम उम्र में बेचारी ने कितना कुछ झेल लिया था। सभी को इसी बात का डर था कि पहले हर्ष की मृत्यु, फिर अपनी गर्भावस्था, और फिर अपनी संतान से अलग होने के कारण कहीं उस पर भावनात्मक रूप से भारी असर न पड़ जाए! और ऐसा हुआ भी - लेकिन समय रहते और अति-कुशल चिकित्सा के कारण सुहासिनी अब ठीक हो गई थी।

शुरू शुरू में बहुत तक़लीफ़ें आईं - कम उम्र में माँ बनना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। फिर प्रसूति के बाद संतान से बिछोह! ये सब गौरीशंकर जी के अकेले के बस का काम नहीं था। हर कदम पर प्रियम्बदा और हरीशचंद्र ने उनका साथ दिया, और सुहासिनी को सम्हाला। कठिन काम था यह। राजशाही लगभग चौपट हो गई थी - जो मित्र थे... अपने थे, वो कब शत्रु बन गए... पराए हो गए, पता ही न चला। ऐसे में हरिश्चंद्र की दूरदर्शिता, और व्यापारिक कौशल बहुत काम आई। राजमहल को छोड़ कर अन्य सभी सम्पत्तियों को होटलों और रिसॉर्ट्स में बदल दिया गया। खेती करना कठिन काम था, और कुशल कामगर मिलने भी कठिन हो रहे थे, अतः अनेकों ज़मीनों में पशु-पालन और मुर्गी-पालन जैसे काम शुरू कर दिए गए थे, या फिर जो सम्पत्तियाँ राष्ट्र अथवा मुख्य मार्गों के बगल थीं, वहाँ पेट्रोल-पंप खोल दिए गए थे। राजपरिवार का जो रसूख़ रातों-रात जाता रहा था, वो मानों सूर्योदय के साथ वापस लौट आया था। और संपत्ति पहले से कई गुणा बढ़ गई थी।

जहाँ हरिश्चंद्र ने राजपरिवार का सम्मान वापस लाने और बढ़ाने में स्वयं को झोंक दिया, वहीं प्रियम्बदा ने पूरे परिवार को साथ बनाए रखने में किसी गोंद के जैसे काम किया। सभी की आशा के विपरीत, दोनों ही वाक़ई महाराज और महारानी बनने लायक थे। भूतपूर्व महाराज घनश्याम सिंह ने सच में प्रियम्बदा नाम का हीरा ढूँढ लाया था। लेकिन प्रियम्बदा के लिए सबसे महत्वपूर्ण सुहासिनी ही थी। उसके देवर - उसके बेटे - हर्ष - की अमानत! इस लिहाज़ से सुहासिनी उसकी पुत्री ही तो हुई!

हर बार, सुहासिनी में सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देते... वो पिछली बार से कहीं अधिक प्रसन्न, स्वस्थ, और आत्मविश्वास से लबरेज़ नज़र आती! यह देख कर उसको बहुत संतोष होता। मतलब साफ़ था - सुहासिनी की चिकित्सा, पढ़ाई-लिखाई, उसका पालन पोषण अच्छे ढंग से हो रहा था। आज भी याद है प्रियम्बदा को जब उसने सुहास को पहली बार देखा था! कैसी दयनीय हालत में थी वो बच्ची।

लेकिन तब की, और आज की सुहासिनी में बहुत अंतर था।

“अरे दीदी,” उसने प्रियम्बदा को देखा, तो आनंद से चीखती, उछलती हुई दौड़ी चली आई।

“मेरी नन्ही सी गौरैया... मेरी पूता... मेरी बच्ची...” कह कर प्रियम्बदा अपने घुटनों पर बैठ गई, जैसे माताएँ अपने नन्हे बच्चों के साथ करती हैं - इतना स्नेह था प्रियम्बदा में सुहासिनी के लिए, “कैसी है मेरी बच्ची?”

सुहास, हिरन के नन्हे शावक जैसी उछलती कूदती हुई आ कर प्रियम्बदा के अंक (आलिंगन) में समां गई। प्रियम्बदा ने अनगिनत बार उसको चूमा।

“बिलकुल ठीक हूँ दीदी,” सुहासिनी चहकती हुई बोली, “... आप तो मुझे भूल ही गईं!”

“अरे कहाँ बिटिया रानी! अभी तीन महीने पहले ही तो मिली थी तुझसे!”

“तीन नहीं, पूरे आठ महीने हो गए!” सुहास ने ठुनकते हुए शिकायत करी।

“अरे नहीं बेटे,” प्रियम्बदा उसके बाल-हठ पर मुस्कुराए बिना न रह सकी, “ऐसी भी खराब याददाश्त नहीं है कि अपनी एकलौती बिटिया से कब मिली, वो भूल जाऊँ!”

“इमोशनल ब्लैकमेल... हम्म?” कहते हुए सुहास ने प्रिया को एक चुम्बन दिया, और प्रियम्बदा को छेड़ती हुई बोली, “गन्दी वाली दीदी!” और फिर हरीश की तरफ़ मुखातिब होती हुई बोली, “भैया... आप कैसे हैं?”

“बिलकुल ठीक हूँ बच्चे! तुमको देख लिया... सब ठीक हो गया!”

“आप लोग न, जल्दी जल्दी आया करिए मुझसे मिलने! बोर होने लगता है नहीं तो!” हरीश के गले लगते हुए वो बोली।

हरीश ने उसको अपने सीने में चिपकाते और चूमते हुए कहा, “हा हा,” उसकी बात पर सभी हँसने लगे, “हाँ बेटा... जल्दी जल्दी आया करेंगे!”

“अच्छा,” प्रियम्बदा ने बात का सूत्र पकड़ा, “ये तो बता बच्चे, तेरे एक्साम्स की तैयारी कैसी चल रही है?”

“टॉप करूँगी दीदी!” सुहास ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया।

“प्रॉमिस?”

“हाँ दीदी, प्रॉमिस!”

“बहुत बढ़िया बेटे,” हरीश ने गर्व से कहा, “तू एक्साम्स टॉप कर ले... फिर तुझे आगे पढ़ने लंदन भेजेंगे!”

“सच में?”

“और नहीं तो क्या! ... मैं तो कब से यही सोच रहा हूँ... मेरी बिटिया को बेस्ट एजुकेशन मिलेगा! मैंने यह खुद से वायदा किया है!”

“फिर तो आप जल्दी से मेरा पासपोर्ट बनवा दीजिए...” सुहास ने बड़े अल्हड़पन से कहा, “लंदन... आई ऍम कमिंग...”

“दैट्स लाइक माय स्वीटेस्ट चाइल्ड...”

कुछेक घण्टे और रहने, और ऐसी ही बातें करने के बाद हरीश और प्रिया ने दोनों से विदा ली, और बहुत जल्दी ही वापस आने का वायदा किया।

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