सुबह हुई तो मीनाक्षी की आँख खुली - भूख लगी थी। उसने दैनिक नित्यकर्म किये और रसोई की तरफ चली की कुछ बना लिया जाए। लेकिन अंदर का नज़ारा देख कर वो आश्चर्यचकित हो गई - रसोई के अंदर समीर पहले से ही मौजूद था, और ब्रेकफास्ट के लिए सैंडविच और चाय उसने लगभग बना ही ली थी। मीनाक्षी के चेहरे पर न जाने कैसे एक्सप्रेशन्स थे कि समीर घबरा सा गया।
“आप ठीक हैं?” उसकी बात में मीनाक्षी के लिए चिंता साफ़ सुनाई दे रही थी।
‘अरे बिलकुल ठीक हूँ.. लेकिन खाना पकाने का काम तो मेरा है’ मीनाक्षी ने मन में सोचा।
“आप क्यों नाश्ता बना रहे हैं?” प्रत्यक्ष में उसने कहा।
“मतलब?” समीर को जैसे कुछ समझ नहीं आया।
“मतलब मुझे उठा लेते। आप क्यों करने लगे? यह तो मेरा काम है!”
“ओह! अच्छा अच्छा! अरे, आप सो रही थीं, इसलिए डिस्टर्ब नहीं किया। मैं वैसे भी काफ़ी जल्दी उठ जाता हूँ। और, मुझे कुकिंग करना बहुत पसंद है! इसलिए आप ऐसे मत सोचिये कि यह काम आपका है, और वो काम मेरा। डिवीज़न ऑफ़ लेबर जैसा कुछ नहीं है यहाँ! हा हा हा। जब भी आपका मन हो, आप बना लीजिए। जब भी मन हो, मैं बना लूँगा। अच्छा लगे, तो साथ में!” कह थोड़ा सा मुस्कुराया और फिर आगे बोला, “वैसे डिनर तो आज मैं ही बनाऊँगा - शाही पनीर और आलू पराठा! आदेश ने बताया है… आपका फेवरेट! साथ में मेरी माँ के हाथ का बना सिरके वाला आम का आचार। खूब मज़ा आएगा।”
मीनाक्षी फिर भी अनिश्चित सी खड़ी रही - वो कुछ कहना चाहती थी, लेकिन कह नहीं पा रही थी।
समीर ने आधिकार भरी आवाज़ में कहा, “आप मेरी गुलाम नहीं, बल्कि मेरी पत्नी हैं!” उसने प्यार से एक दो क्षण मीनाक्षी की तरफ देखा और कहा, “चलिए, नाश्ता कर लेते हैं! केचप मुझे पसंद नहीं। आम, धनिया और पुदीने की खट्टी-मीठी चटनी बनाई है। अगर टेस्टी न लगे, तो आगे से केचप रखा करूँगा।”
हतप्रभ सी मीनाक्षी रसोई से बाहर निकल आई। बहुत मुश्किल से उसने आँसुओं को बाहर आने से रोका।
‘क्या क्या सोच रही थी मैं!’
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नाश्ते करते समय मीनाक्षी बहुत चुप सी थी।
उसको अपनी ही सोच पर ग्लानि हो रही थी - ‘कैसी छोटी छोटी बातों को लेकर मैं चिंतित थी! कैसा छोटा मन है मेरा! मम्मी डैडी तो इतना चाहते है मुझे कि मेरे खुद के माँ बाप भी शायद हार मान लें! इतना प्रेम! सच में, इस घर में मैं बहू नहीं, बेटी के जैसे हूँ। प्रभु ने कुछ सोच कर ही मुझे इस घर में भेजा होगा। वो कहते हैं न, ‘जोड़ियाँ तो भगवान् ही बनाते हैं’... और जब भगवान् ने मेरे लिए समीर को चुना है, तो फिर मुझे शंका क्यों होनी चाहिए? ऐसा भाग्य!
और इनको देखो - मेरी हर बात की फ़िक्र है इनको। मुझे आराम मिले, इसलिए मुझे एसी वाले कमरे में सुलाते हैं, और खुद गर्मी में सो जाते हैं! ज़रा सोच! कल वो चाहते, तो कुछ भी करते। मैं क्या कर पाती? उनको मना तो न कर पाती। अब तो मेरे पूरे अस्तित्व पर उनका ही अधिकार है। लेकिन देखो! कैसी मर्यादा! कैसा आत्म-नियंत्रण! और मुझे देखो! जूते मोज़े जैसी निरर्थक बातों को सोच कर परेशान हो रही थी। ऐसा पति तो प्रभु मेरे दुश्मनों को भी देना। उनकी संगत में आ कर दुश्मनों की दुष्टता भी ख़तम हो जाएगी।’
“क्या हो गया आपको? इतनी चुप-चाप? क्या गड़बड़ बना है? सैंडविच या चाय?”
“कुछ भी गड़बड़ नहीं है! दोनों बहुत स्वादिष्ट बने हैं!” मीनाक्षी विचारों के भँवर से निकल कर समीर की तरफ़ मुखातिब होती है।
“घर की याद आ रही है?”
मीनाक्षी ने ‘न’ में सर हिलाया। फिर से उसकी आँखों में आँसू भरने लगे।
समीर को एक पल समझ नहीं आया कि वो क्या करे, या क्या कहे।
“एक काम करते हैं, आपके लिए एक फ़ोन और नया नंबर ले लेते हैं। आज ही। कम से कम घर बात करने में सहूलियत रहेगी। ठीक है?”
जिस समय की यह बात है, उस समय मोबाइल फोन का चलन बहुत कम था। अभी अभी सर्विस प्रोवाइडर्स ने इनकमिंग कॉल्स पर से चार्ज लेना बंद किया था। मीनाक्षी ने कुछ कहा नहीं। वो उसको कैसे समझाए कि इन में से किसी भी बात को लेकर वो दुःखी नहीं है। वो अपनी सोच, और अपने व्यवहार से दुःखी है।
“शाम को मम्मी डैडी भी आ जाएँगे।”
उनका जिक्र आते ही मीनाक्षी मुस्कुरा उठी, “वो जाते ही क्यों हैं? यही क्यों नहीं रुक जाते!”
“अरे, उनका घर है अपना। दोनों बहुत इंडिपेंडेंट हैं। और मुझे भी कहते हैं कि इंडिपेंडेंट रहो। ऐसा नहीं है कि वो मुझे सपोर्ट नहीं करते, लेकिन फाइनल डिसीजन मेरा ही रहता है। और वो मेरी हर डिसीजन को सपोर्ट करते हैं।”
“आप लकी हैं बहुत! ऐसे माता पिता बहुत भाग्य वालों को मिलते हैं।”
“आपके माँ बाप भी तो अच्छे हैं!”
“हाँ! अच्छे हैं। लेकिन लड़की के माँ बाप होने का बोझ रहा है उन पर। हमेशा से। और हम लोग ट्रेडिशनल भी बहुत हैं। इस कारण से आदेश और मुझमे बहुत अंतर है।”
“हाँ! वो तो है! आप आदेश से बहुत अधिक अच्छी हैं!”
“मुझे पता नहीं आप मुझे कितना अच्छा समझते हैं। लेकिन मैं कोशिश करूँगी कि मैं जितना पॉसिबल है उतनी अच्छी बन सकूँ!”
समीर ने ‘न’ में कई बार सर हिलाया, “आप जैसी हैं, वैसी रहना! कुछ मत बदलना।” और कह कर मुस्कुरा दिया। थोड़ी देर सोचने के बाद वो बोला,
“सोच रहा हूँ, एक बार ऑफिस हो आता हूँ। वहाँ किसी को ख़बर नहीं है कि मैं दो दिन से क्यों नहीं आ रहा हूँ।”
“जी, ठीक है।”
“सोच रहा था कि आप भी चलिए! सबसे आपका परिचय भी करवा दूँगा और रिसेप्शन के लिए इनवाइट भी कर लूँगा।”
“जी” वो कम से कम समीर की इच्छाओं का पालन तो कर ही सकती थी।
“बहुत बढ़िया! मैं जल्दी से तैयार हो जाता हूँ! कार से चलेंगे! हा हा हा हा!” समीर ने ऐसे कहा जैसे वो अपने दोस्तों को दहेज़ की कार दिखाना चाहता हो। लेकिन मीनाक्षी जानती थी कि दरअसल वो उसके खुद के आराम के लिए उसको कार में ले जाना चाहता था।