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Erotica सोलवां सावन

chodumahan

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ननद को तो बसंती फुल ट्रेनिंग दे रही है....
मजे लेने के सारे गुर सिखा -पढ़ा रही है...

लेकिन कुछ लोगों का सिर्फ जिक्र ही आया..जैसे रॉकी, कामिनी भाभी के मर्द, गुलबिया का मर्द....
होना तो ये चाहिए कि जब भी गुड्डी घर से निकले तो मर्द/लड़कों के बीच के हिस्से पर नजर जाए और जैसे लड़के लड़कियों को ताड़ते हैं...वैसे हीं गुड्डी भी उनकी फुल फिजिकल डिटेल गेस कर ले...
और सेक्स का खुमार तो यूँ हों कि कई बार गुड्डी हीं जबरदस्ती लड़के को पकड कर चढ़ जाए..

फुल मस्ती से भरा अपडेट....:flowers::flowers:
 

komaalrani

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ननद को तो बसंती फुल ट्रेनिंग दे रही है....
मजे लेने के सारे गुर सिखा -पढ़ा रही है...

लेकिन कुछ लोगों का सिर्फ जिक्र ही आया..जैसे रॉकी, कामिनी भाभी के मर्द, गुलबिया का मर्द....
होना तो ये चाहिए कि जब भी गुड्डी घर से निकले तो मर्द/लड़कों के बीच के हिस्से पर नजर जाए और जैसे लड़के लड़कियों को ताड़ते हैं...वैसे हीं गुड्डी भी उनकी फुल फिजिकल डिटेल गेस कर ले...
और सेक्स का खुमार तो यूँ हों कि कई बार गुड्डी हीं जबरदस्ती लड़के को पकड कर चढ़ जाए..

फुल मस्ती से भरा अपडेट....:flowers::flowers:


Thanks sab ka aayega bas aage aage dekhiye
 

komaalrani

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खारा शरबत

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- “ननद रानी मन तो कर रहा था की अबहियें तुम्हें पेट भर खारा शरबत पिला देती लेकिन…”


फिर कुछ देर रुक के वो बोली-




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“लेकिन, चम्पा भाभी ने बोला था पहली बार उनके सामने, आखिर जंगल में मोर नाचा किसी ने न देखा तो, क्या मजा?”

मेरी मुश्कुराती आँखें बस यही कह रही थीं, पिला देती तो पिला देती, मैं गटक जाती।


और जब वो हटीं तो मैं थकी अलसायी वहीं चटाई पे लुढक गई।


और जब मैं उठी तो बसंती मुझे जगा रही थी, शाम होने वाली थी और झूला झूलने चलना था।

मेरे लिए साड़ी भी उसने ला के रख दी थी। पेटीकोट न मैं पहनती थी न कोई भौजाइ पहनने देती थी।

“भौजी, ब्लाउज?”


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“आज अईसे चलो, तोहार जोबन क उभार तनी गाँव क लौंडन खुलकर देख लें…”


बसंती कोई मौका छोड़ती क्या?

लेकिन बहुत निहोरा करने पर वो एक ब्लाउज ले आई, चोली कट बहुत छोटा सा। पहनाया भी उसी ने।



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आधे से ज्यादा उभार बाहर छलक रहे थे। आगे से बंद होने वाले हुक थे और बड़ी मुश्किल से दो हुक बंद हुए, कटाव उभार निपल्स सब साफ दिखते थे।


लेकिन बसंती की शरारत घर से निकलने पर मुझे समझ में आई।


बाहर मौसम का क्या कहूँ, आसमान में बादल खूब घने घिर आये थे।


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komaalrani

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पच्चीसवीं फुहार


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चारों ओर हरी चुनरी की तरह फैले धान के खेत, खेतों में काम कर रही औरतों के रोपनी गाने की मीठी-मीठी आवाजें, कहीं नाचते अपनी प्रेयसी को रिझाते मोर,




जगह-जगह आमों से लदी अमराई, और उनपर पड़े झूले।


हम लोग थोड़ी देर में उसी रास्ते पर थे जिधर से सुबह मैं आई थी।

एक ओर मेरी उंचाई से भी दूने गन्ने के घने खेत और दूसरी ओर गझिन अरहर,



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दिन में भी कोई न दिखायी दे और अब तो बादल घने हो गए थे।




बंसती ने शरारत से मेरे उभारों की ओर देखा और मुझे बात एकदम समझ में आ गई।

जो चोली वो ढूँढ़ के मेरे लिए लाई थी, वो काफी घिसी हुई थी, इसलिए सब कुछ झलक रहा था लेकिन उससे भी बढ़कर अगर मजाक-मजाक में भी किसी ने उंगली से भी उसे खिंच दिया तो बस- “चरर्र…” फट के हाथ में आ जाती।


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तब तक बसंती ने बोला-


“एक मिनट रुको जरा, मुझे ज़रा जोर से ‘आ रही’ है…”

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‘आ तो’ मुझे भी रही थी। लेकिन यहाँ कहाँ खुले में?


पर बसंती सोचने का मौका दे तो न… और धम्म से उसने खींचकर मुझे भी अपने बगल में बैठा लिया जहाँ मेड़ थोड़ी ऊँची थी, सामने अरहर के घने खेत थे, उसने साड़ी उठाकर कमर में लपेट ली और उसकी देखा देखी मैं भी।


बस, बसंती ने तेज धार के साथ, छुर्र-छुर्र और फिर मोटी धार, पीले रंग की…


मैं भी शुरू हो गई, लेकिन मारे शर्म के मेरी आँखें बंद थीं।

पर बसंती आँखें बंद कहाँ रहने देती, और उसने मेरा सिर मोड़कर सीधे अपनी जाँघों के बीच से निकालकर उठते हुए बोली-


“तुम सोच रही होगी कि भौजी ने एतना ढेर सारा खारा शरबत बेकार कर दिया, लेकिन चलो कल भिन्सारे से बिना नागा, झांटों के छन्ने से छना खारा शरबत…”

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और साड़ी ठीक करते-करते उसने अपनी तरजनी अपनी भीगी गीली बुर पे रगड़ी और सीधे मेरे होंठ पे लगा दी, और कहा-


“चला तब तक तनी स्वादे चख ला…”

लेकिन मेरी निगाह कहीं और अटकी थी।

जहाँ हम लोग बैठे थे, वहीं ठीक बगल में एक पतली मेड़ सी पगडण्डी थी, जहाँ पहले मुझे अंदर गन्ने के खेत के रास्ते में एक लड़का दिखा था और फिर चन्दा मुझे छोड़कर उधर चल दी थी। सुबह उधर जो दूर 10-12 मिट्टी के घर दिखे थे वो अभी भी हल्के से दिख रहे थे। मैं पूछ बैठी-


“बसंती भौजी, आई रास्ता कहाँ जा रहा है?”

बसंती पहले तो खिलखिलाती रही फिर अपने ढंग से बोली-


“अरे बहुत तोहरे चूत में चींटा काटत हाउ, चला एक दिन तोहैं ए रास्ता पे भी घुमाय लाइब। अरे इहै रास्ता तो हौ भरौटी क…”

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“धत्त…”

मैं जोर से बोली, लेकिन मैं सोच रही थी की इसका मतलब सुबह चन्दा उधर ही।

थोड़ी देर में हम लोग अमराई में पहुँच गए। और काफी अंदर जाने के बाद जहां पेड़ बहुत गझिन हो गए थे वहां झूला पड़ा था, (वही जगह जहां भाभी के गाँव में सबसे पहल मैंने झूला झूला था और इसी झूले पे रात के अँधेरे में, तेज बारिश में अजय ने मेरी सील तोड़ी थी।) बादल और घने हो गए थे, हल्का अँधेरा सा हो गया था, हवा भी हल्की-हल्की चल रही थी, बस लग रहा था की अब बारिश हुई तब बारिश हुई।



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कामिनी भाभी, चम्पा भाभी, पूरबी पहले ही पहुँच गई थीं। और हम लोगों के साथ गाँव की एक दो और लड़कियां भी आ गई थीं।
 
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kartik

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Rani ji apki sochne ki Shakti kafi powerful hai erotic stories main.. koi bhi deewana ho jaye aapka aur apki desi kahani ka.. waiting next big update..
 
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Shivam Tiwari

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komal ji aage ki khani bhi dedo wait kr rha hu mai
tviyat khrab ho to vo bhi bta do ap
 
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komaalrani

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komal ji aage ki khani bhi dedo wait kr rha hu mai
tviyat khrab ho to vo bhi bta do ap

main ekdam theek hun, aap logon ki dua aur pyar ka asar hai, aaj abhi do stories men uodate diya hai aaj ya kal yahan bhi dungi keep safe , keep healthy
 

komaalrani

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झूले पे


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झूले पे मेरे पीछे कामिनी भाभी थीं और आगे बसंती।



बंसती के आगे पूरबी और कामिनी भाभी के पीछे चम्पा भाभी।


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उनके अलावा दो तीन और भौजाइयां, गाँव की लड़कियां। पेंग एक ओर से चमेली भाभी दे रही थीं और दूसरी ओर से गीता।

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चमेली भाभी ने बताया की चन्दा जब मुझे छोड़ने गई थी उसके बाद नहीं आई शायद अपनी किसी सहेली के पास चली गई होगी।

मैंने मुश्किल से अपनी मुश्कान दबाई।

जब से बसंती ने भरौटी के लौंडों के बारे में बताया था, और ये भी की वो रास्ता चन्दा जिससे गई थी, कहाँ जाता है, मुझे अंदाज हो गया था कि चन्दा रानी कहाँ अपनी ओखल में धान कुटवा रही होंगी।





कामिनी भाभी जिस तरह से मुझे देखकर मुश्कुरा रही थीं, उनका इरादा साफ नजर आ रहा था


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और जिस तरह से मैं बसंती और उनके बीच में थी, फिर आज मेरी भाभी भी नहीं थी झूले पे की कोई उनका लिहाज झिझक करता।

लेकिन मेरा ध्यान कामिनी भाभी से ज्यादा उनके पति के बारे में था, जिस तरह कल चम्पा भाभी और आज बसंती ने बताया था, सुन सोच के ही मेरी गीली हो रही थी।

पहली बार मैं जब भाभियों के साथ झूला झूलने आई थी, उससे आज मामला और ज्यादा ‘हाट हाट’ हो रहा था। ये बात नहीं थी की उस दिन मैं बच गई थी, खूब मस्त गाली भरी कजरी मैंने पहली बार सुना था, और भौजाइयों ने रगड़न मसलन भी की थी और उंगली भी।

लेकिन पहला दिन था मेरा इसलिए मैं थोड़ी हिचक रही थी और भाभियां भी थोड़ा, सोच रही थीं की कहीं कुछ ज्यादा हो गया तो मैं शहर की छोरी कहीं, बिचक गई तो?


लेकिन अब उस ‘रतजगे’ वाली रात के बाद मैंने सारी भौजाइयों का और उन्होंने मेरा ‘सब कुछ’ देख भी लिया और हाथ वाथ भी लगा दिया था।


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और दो चार तो जो यहाँ थीं, चम्पा भाभी, बसंती, कामिनी भाभी इन सबको पक्का पता चल गया था की मैं भी अब उन्हीं की गोल में शामिल हो गई हूँ। फिर आज मेरी भाभी भी नहीं थीं साथ में कि, कुछ उनका लिहाज, हिचक, ।

और आज एक नई गौरेया भी आई थी। मुझसे भी दो साल छोटी, अभी आठवीं पास करके नौवें में गई थी आगे सुधी पाठक एवं पाठिकाएं स्वयं समझ सकती हैं।



जी, सुनील की छोटी बहन नीरू।


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और पूरबी के साथ जब नदी नहाने गई थी तो उसके कच्चे टिकोरों की मैं ‘नाप तौल’ अच्छे से की थी।

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टिकोरे आ गए थे बस अभी थोड़े छोटे थे और मूंगफली के दाने ऐसे, बस जैसे नौवीं में पढ़ने वाली लड़कियों के होते हैं।



पूरबी ने मुझे उकसाया तो मैंने नीचे का भी हाल चेक किया, बस सुनहली झांटें, रेशम के धागे ऐसी बस आ रही थीं।



लेकिन भौजाइयों के बीच ननद आ जाये तो फिर…


और भौजाई भी कौन गुलबिया, एकदम बसंती के टक्कर की बल्की छेड़ने में, खुल के गारी देने में उससे भी दो हाथ आगे।

वही, जो हम लोगों के यहां पानी लाती थी और उसका मर्द कुंवे पे पानी भरता था, जिसकी आज इतनी बड़ाई बसंती ने की थी।

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आज गुलबिया ठीक नीरू के पीछे बैठी और मैं समझ गई की जहाँ पेंग तेजी हुई, नीरू के टिकोरे उसके हाथों में होंगे।

ओहो ओहो तनी सा धीरे-धीरे पेंग मार पिया, धीरे-धीरे पेंग मार पीया,
तनी सा धीरे-धीरे पेंग मार पिया, जरा सा धीरे-धीरे पेंग मार पिया।


एक ओर से पूरबी ने पेंग मारते हुए कजरी शुरू की।

तो गुलबिया ने छेड़ा-



“अरे धीरे-धीरे मारने में न मारने वाले को मजा न मरवाने वाली को…”

जवाब चम्पा भाभी ने दिया-

“अरे जस नया माल लेके बैठी हो तो शुरू-शुरू में धीरे-धीरे ही मारनी पड़ेगी न…”

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पूरबी और कजरी जो पेंग मार रही थी उन्होंने रफ़्तार बढ़ा दी।

और एक भौजी जो गुलबिया के पीछे बैठीं थी उन्होंने बोला-

“अरे जरा छुटकी ननदिया को जोर से पकड़ो न…”


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और गुलबिया ने नीरू के नए-नए आये उभारों के ठीक नीचे हाथ लगाते हुए कस के दबोच लिया।

मेरी हालत कुछ कम नहीं थी लेकिन मैं जानती थी क्या होनेवाला था? पेंग तेज होने के साथ ही मेरा आँचल उड़ के जैसे हटा, कामिनी भाभी ने मेरे दोनों कबूतर गपुच लिए और बसंती का हाथ मेरे चिकने पेट पे था।

पुरवा पवनवा उड़ावेला अंचरवा रामा, अरे ननदी जुबना झलकावे ला हरी।

अरे रामा ननदी, दुनों जुबना झलकावे ला हरी, अरे लौंडन के ललचावे ला हरी।

अबकी कजरी गुलबिया ने छेड़ी, और कामिनी भाभी ने जैसे उसकी ताकीद करते हुए सीधे मेरी चोली में हाथ डाल दिया


और सीधे मेरे जुबना उनके हाथ में।

बादल बहुत जोर से घिर आये थे और लग रहा था बारिश अब हुई, तब हुई।


हवा भी हल्की-हल्की चल रही थी और झूले के पेंग की रफ़्तार बहुत तेज हो गई थी। कजरी के बीच सिसकियों की आवाजें भी आ रही थीं।




और तब तक टप-टप बूंदें पड़ने लगी और मैं समझ गई की अब भौजाइयां और जोश में आ जाएंगी, और हुआ भी वही।


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मुश्किल से दिख रहा था।



कहीं दूर बिजली भी चमक रही थी। सब लोग अच्छी तरह भींज गए थे, लेकिन न झूले की रफ़्तार कम हुई और न भौजाइयों की शरारतों की।




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komaalrani

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सावन की मस्ती

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कामिनी भौजी ने जरा साथ हाथ और अंदर किया और, ब्लाउज का कपड़ा एक तो एकदम घिसा हुआ और पुराना था, फिर एकदम टाइट भी,

जरा सा कामिनी भाभी के तगड़े हाथ का जोर और,

चर्र चरर,

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और बसंती ये मौका क्यों छोड़ती, जहाँ जरा सा फटा था,

वहीं से पकड़ के सीधे नीचे तक, एक उभार अब खुल के बाहर।



ई हाउ जुबना क ताकत देखा एकदम चोली फाड़ देहलस…”


एक भौजाई बोली।

तो बसंती बोली अरे एह ननद के भाई लोग हमार फाड़े हैं तो एनकर फायदे क जिमेदारी भौजाई क है…”



और एक बचा हुआ हुक भी तोड़ दिया।

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एक-एक उभार बसंती और कामिनी भाभी ने बाँट लिया और कामिनी भाभी के एक हाथ दोनों जाँघों के बीच, सीधे प्रेम गली में।

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बस गनीमत थी कि अब अँधेरा इतना हो गया था की कुछ दिख नहीं रहा था, बारिश भी तेज हो गई थी। बस बिजली जब चमकती तो,

और नीरू की हालत और ज्यादा खराब हो रही थी,

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गुलबिया के साथ दो और भौजाइयों ने उसे दबोच लिया था।

और कामिनी भाभी की चतुर चालाक उंगली मेरी दोनों मांसल रसीली पनियाई चूत की पुत्तियों के बीच रगड़ घिस्स कर रही थी,



एक निपल बसंती की मुट्ठी में तो दूसरा उभार कामिनी भाभी के हाथों में और अब तो ब्लाउज का कवच भी नहीं था।

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चूंचियां एकदम पथरा गई थीं।



बस मन कर रहा था की, किसी तरह…





लेकिन आँगन में जैसे बंसती भौजी ने तड़पाया, तीन बार किनारे तक ले गईं, लेकिन बिना झाड़े छोड़ दिया। बस वही हालत कामिनी भाभी भी मेरी कर रही थीं।

मैं सिसक रही थी, तड़प रही थी, चूतड़ पटक रही थी।

मस्ती के चककर में गाने बंद हो गए थे, हाँ पेंगे और जोर-जोर से लग रही थीं।

किसी भौजी ने मुझे ललकारा-

“अरे काहें मुस्स भड़क बइठल हो तानी कौनो मोटा लण्ड घुसेड़ल हो का?”


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मैंने मुँह बनाया की मुझे कजरी नहीं आती तो कामिनी भाभी ने बोला-

“अरे रतजगा में जो सुनाया था उहे सुना दो, हम सब साथ देंगे न।

तब तक गुलबिया की आवाज सनाई पड़ी-

“कौनो बात न अगर न सुनावे क मन होय तो, बिलौजवा के बाद आई साडियों फाड़ के तुहरे गंड़ियां में घुसेड़ देब और नंगे नचाइब। बोला गइबू की नचबू?”

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अब तो कोई सवाल ही नहीं था मैं चालू हो गई,

तानी धीरे-धीरे डाला बड़ा दुखाला रजऊ,

मस्त जुबनवा चोली धईला, गाल त कई देहला लाल।
काहें धँसावत बाड़ा भाला, बड़ा दुखाला रजउ।

और उस गाने की ताल पर कामिनी भाभी की उंगली मेरी खूब पनियाई चूत में जिस तरह अंदर-बाहर हो रही थी,

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मुझे लग रहा था अब गई कि तब गई।

लेकिन तब तक अरररा कर एक पेड़ की डाल गिरी और हम सब कूदकर झूले से उतर गए की कहीं ये डाल भी नहीं,


किसी ने बोला की चला जाय क्या?
 

komaalrani

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