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Erotica सोलवां सावन

komaalrani

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चौबीसवीं फुहार

बसंती

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मैंने कुछ घबड़ाते, सम्हलते, सिमटते, घर के अंदर देखा। अंदर का पक्का हिस्सा जिधर चम्पा भाभी, भाभी की माँ रहती थी, बंद था।

मैंने कुछ राहत की सांस ली और बाकी राहत बसंती की बात से मिल गई की भाभी और उनकी माँ रवी के यहाँ गई हैं और चम्पा भाभी, कामिनी भाभी के साथ उनके घर। बसंती को बोला गया है की मुझे खाना खिला के, थोड़ी देर बाद शाम होते-होते आम के बाग़ में ले आये, वहीं जहाँ हम लोग पिछली बार झूला झूलने गए थे।

बंसती ने अंदर से दरवाजा बंद कर दिया था।

आसमान में सावन भादों के धूप छाँह की लुका छिपी चल रही थी। आँगन के पेड़ के ठीक ऊपर किसी कटी पतंग की तरह एक घने काले बादल का टुकड़ा अटक गया था, जिसकी परछाईं में आँगन में थोड़ा-थोड़ा अँधेरा छाया था। आँगन में एक चटाई जमीन पे बिछी थी और बगल में एक कटोरी में कड़वा तेल रखा था, लगता था बसंती तेल मालिश कर रही थी।

एक पल में मेरी आँखों ने आसमान में उड़ते बादलों की पांत से लेकर घर में पसरे सन्नाटे तक सब नाप लिया और ये भी अंदाज लगा लिया की घर में सिर्फ हम दोनों हैं और शाम तक कोई आने वाला भी नहीं है। तब तक बसंती ने जोर से मुझे अपनी बाँहों में भींच लिया।

उफ्फ… मैंने बसंती के बारे में पहले बताया था की नहीं, मेरा मतलब देह रूप के बारे में। चलिए अगर बताया होगा भी तो एक बार फिर से बता देती हूँ।








बसंती उम्र में मेरी भाभी की समौरिया रही होगी या शायद एकाध साल बड़ी, 25-26 साल की और चम्पा भाभी से एकाध साल छोटी। लेकिन मजाक करने में दोनों का नंबर काटती थी। लम्बाई मेरे बराबर ही रही होगी, 5’5” या 5’6”, बहुत गोरी तो नहीं, लेकिन सांवली भी नहीं, जो गेंहुआ कहते हैं न बस वैसा। लेकिन देह थी उसकी खूब भरी पूरी लेकिन एक छटांक भी मांस फालतू नहीं, सब एकदम सही जगह पे।

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दीर्घ नितम्बा और कसी-कसी चोली से छलकते गदराये जोबन, पतली कमर और एकदम गठी-गठी देह, जैसे काम करने वालियों की होती है, भरी भरी पिंडलियां।


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किसी तरह अपने दर्द को मैंने रोक रखा था। लेकिन जैसे ही बसंती ने अंकवार में पकड़कर दबाया, एक बार फिर से पिछवाड़े जोर से चिलख उठी, और बसंती समझ गई, बोली-

“क्यों बिन्नो, लगता है पिछवाड़े जम के कुदाल चली है…”


और जोर से उसके हाथ ने मेरे चूतड़ को दबोच लिया, एक उंगली सीधे कसी शलवार के बीच पिछवाड़े की दरार में घुस गई।

और अबकी चिलख जो उठी तो मैं चीख नहीं दबा पायी।

“अरे थोड़ी देर लेट जाओ, कुछ देर में दर्द कम हो जाएगा। पहली बार मरवाने में होता है…”


खिलखिलाते हुए बसंती बोली।

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बसंती मेरी सहेलियों में सहेली थी और भाभियों में भाभी,

मज़ाक करने में , गरियाने में , चिढ़ाने में चंपा भाभी से भी दो हाथ आगे, और हाँ उसका मज़ाक सिर्फ बात तक नहीं रहता था सीधे वो देह तक पहुँच जाती थी, न मानूँ तो जबरदस्ती करने में भी उसे कोई एतराज नहीं था , और अब तक मैं समझ गयी थी उसकी देह की ताकत को इसलिए चुपचाप सरेंडर करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था , और उसकी जबरदस्ती में सच कहूं तो मुझे मज़ा भी खूब आता था ,

आज सुबह ही मेंहदी लगाते , मैं सोच रही थी शलवार सूट पहन कर मैं बची रहूंगी , पर मेंहदी हाथ में लगाते लगाते उसने मुझे हल्का सा धक्का दिया मैं वहीँ चटाई पर और मेरे सम्हलने के पहले कुरता ऊपर दूध के दोनों कटोरे बाहर, और बसंती भौजी ने उधर मेंहदी रच रच के लगानी शुरू कर दी , और मेंहदी लगाने के साथ रगड़ाई मसलाई ...

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और मेंहदी सिर्फ जोबन पर नहीं लगी पलट कर पिछवाड़े भी और चुनमुनिया के चारो ओर , शलवार सरका कर घुटने तक कर दी थी उसने

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चंपा भाभी और मेरी भाभी के सामने , मेरी भाभियाँ बल्कि और उकसाती उसे , और उसे उकसाने में सबसे आगे तो थीं माँ ( भाभी की माँ , मैं भी उन्हें माँ ही कहती थी) आज जब मैं चंदा के यहाँ जा रही थी और वो शहर से , मेरे घर से लौट के आयीं और ये बड़ी खुशखबरी दी की अभी मुझे १२ दिन और रहने को मिलेगा भाभी के गाँव में ,... तो किसी बात पर उन्होंने बसंती को हड़का लिया ,

"हे इतने दिन हो गए और अभी तक अपनी ननद को ' खारा शरबत ' नहीं पिलाया तूने बसंती, "

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एकदम मुंह लगी थी माँ की,
,
और एक बात और, गाँव की कोई भी लड़की हो औरत हो , लड़का मर्द सब के बारे में 'असली ' जानकारी थी उसे , और सिर्फ हम लोगों की पट्टी के बारे में नहीं , भरौटी, चमरौटी, पठानटोला, सब

और जैसे मैंने कहा न सहेलियों में सहेली, वैसे तो भाभी की कजिन चंदा मेरी पुरानी सहेली थी एकदम खुल्ल्म खुल्ला वाली और भाभी की शादी जब से तय हुयी हुयी तब से , और अब तो दर्जनों, मेले में जो दोस्ती हुयी वो रतजगे में पक्की हो गयी , पूरबी , कजरी लेकिन बसंती भी , उन से बल्कि बढ़ कर थी , उस से मैं कोई बात छुपा नहीं पाती थी , और जो बात उसे पता भी चल जाए तो सीधे उसके पेट में , न मुझसे कहेगी न किसी और से ,...

जिस रात मेरी नथ अजय ने उतारी गाँव की अमराई में तेज बारिश के बीच,

कड़कती बिजली के बीच भाभी के गाँव में आधी रात में सोलहवां सावन बरसा था मेरा, भाभी के भैया ने ,


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भैया के स्साले ने अँधेरी रात में झूले पर गरजती कड़कती चमकती डराती बिजली के बीच फाड़ दी थी मेरी , दो दो बार बरसा था मेंह


और रात दो बजे जिस हालत में मैं घर लौटी थी , कोई भी देखता तो कहता की अच्छी तरह चुदवा के आ रही है , मज़ाक ही करता छेड़ता , पर गनीमत थी उस दिन बसंती ही घर पर थी , उसने पिछवाड़े का दरवाजा खोला, कुछ भी टोका नहीं , चिढ़ाया नहीं और मुझे सहारा देकर मेरी कुठरिया में, ... पक्की हमराज और मैं भी उससे पूरी तरह खुल गयी थी।

मैं जैसे ही चटाई पर बैठी, एक बार फिर जैसे ही मेरे नितम्ब फर्श पे लगे, जोर से फिर दर्द की लहर उठी।

“अरे तुम तो एकदमै नौसिखिया हो, पेट के बल लेटो, तनी एहपर कुछ देर तक कौनो जोर मत पड़े दो, आराम मिल जाएगा…”

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और मैं चट्ट से पट हो गई। सच में दुखते पिछवाड़े को आराम मिल गया। बसंती ने एक हाथ मेरे पेट के नीचे रखा और जब तक मैं समझूँ-समझूँ, मेरी शलवार का नाड़ा खुल चुका था और दोनों हाथों से उसने शलवार सरका के घुटने तक।

मैंने कुछ ना-नुकुर किया, लेकिन हम दोनों जानते थे उसमें कोई दम नहीं थी। और कोई पहली बार तो मेरे कपड़े बसंती ने उठाये नहीं, सुबह-सुबह मेहंदी लगाते हुए कुर्ता उठाकर मेरे जोबन पे, चम्पा भाभी के सामने और उसके पहले जब वो मुझे उठाने गई थी, सीधे मेरी स्कर्ट के अंदर हाथ डालकर अच्छी तरह मेरी चुनमुनिया को रगड़ा मसला था।


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कुछ देर में कुरता भी काफी ऊपर सरक चुका था लेकिन एक बात बसंती की सही थी, जब ठंडी हवा मेरे खुले चूतड़ों पे पड़ी तो धीरे-धीरे दर्द उड़ने लगा। बसंती की हथेली मेरे भरे-भरे गोरे गुदाज चूतड़ों को सहला रही थी दबोच रही थी।



और मुझे न जाने कैसा-कैसा लग रहा था। बस मस्ती से आँखें मुंदी जा रही थी, लग रहा था मैं बिना पंखो के बादलों के बीच उड़ रही हूँ। दर्द कहीं कपूर की तरह उड़ गया था। बसंती की उँगलियां बस… उईईईईईई, मैं जोर से चीखी-

“नहीं भौजी उधर नहीं…”

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दर्द से कराहते मैं बोली।

बसंती ने दोनों अंगूठे से पिछवाड़े का छेद फैलाकर पूरी ताकत से मंझली उंगली ठेल दी थी।
 
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बसंती की मस्ती



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मैं जोर से चीखी-

“नहीं भौजी उधर नहीं…”
दर्द से कराहते मैं बोली।




बसंती ने दोनों अंगूठे से पिछवाड़े का छेद फैलाकर पूरी ताकत से मंझली उंगली ठेल दी थी। उसकी कलाई के पूरे जोर के बावजूद मुश्किल से पहला पोर घुस पाया था।


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बसंती बोली-

“बहुत कसी है अभी…”

और फिर उंगली निकाल के जब तक मैं सम्हलूं सीधे मेरे मुँह में, और कहा-

“चल तू मना कर रही थी तो उधर नहीं तो इधर, ज़रा कस-कसकर चूसो अबकी पूरी उंगली घुसाऊँगी…”

और मैं जोर-जोर से चूसने लगी। अभी कुछ देर पहले ही तो अजय का इत्ता मोटा लम्बा चूसा था, अचानक याद आया की ये उंगली कहाँ से निकली है अभी… लेकिन बंसती से पार पाना आसान है क्या”

मैं गों गों करती रही, लेकिन उसने जड़ तक उंगली ठूंस दी।

और हँसते हुए चिढ़ाया ,

"अरे मरदन कुल गाँड़ जब मारेंगे तोहार, तो बिना लंड चुसवाये चटवाये थोड़े छोड़ेंगे , मक्खन मलाई का मजा साथ साथ,


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अरे तोहरे पिछवाड़े का ही तो है, यारन से हंस हंस के गाँड़ मरवाई हो और भौजी क ऊँगली घोंटने में छिनारपना, चाट कस के चूस जैसे अपने भैया के सालों का लंड चूसती है , जितना थूक लगेगा उतना ही अगली बार आसानी से जाएगा तोहरी गंडिया में , आपन चाटे चूसे में ऐसा नखड़ा , जब भौजाई लोग चढ़ के आपन,... "


और जब निकाली तो फिर जड़ तक सीधे गाण्ड में, और अबकी मैं और जोर से चीखी, लेकिन बंसती बोली-


“तेरी गाण्ड मारने वाले ने ठीक से नहीं मारी, रहम दिखा दी…”

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और फिर दूसरी उंगली भी घुसाने की कोशिश करने लगी।

बसंती भौजी की कोशिश और नाकमयाब हो, ऐसा हो नहीं सकता। चाहे लाख चीख चिल्लाहट मचे, और कुछ ही देर में बसंती की एक नहीं दो उँगलियां मेरी कसी गाण्ड के अंदर, पूरी नहीं सिर्फ दो पोर। जितना सुनील के मोटा सुपाड़ा पेलने पे दर्द हुआ था उससे कम नहीं हुआ, और मैं चीखी भी उतनी ही।

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लेकिन बसंती पे कुछ फरक न पड़ा, वो गरियाती रही, जिसने मेरी गाण्ड मारी उसको-

“अरे लागत है बहुत हल्के-हल्के गाण्ड मारी है उसने तेरी, हचक-हचक के जबतक लौड़ा गाण्ड में न ठेले…गाँड़ फाड़ के चाकर न कर दे, लेकिन घबड़ा मत , अब रास्ता खुल गया है , बसंती भौजी हैं न तोहार , दर्जन भर बच्चों क महतारी के भोंसडे से भी ज्यादा चौड़ी हो जायेगी ये कसी गाँड़ जबतक अपनी भाभी के गाँव से जाओगी।”

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बात उसकी सही थी, शुरू में तो मेरे चीखने चिल्लाने से सुनील ने आधे लण्ड से ही,

वो तो साल्ली छिनार चन्दा, उसने गाली देकर, जोश दिला के सुनील का पूरा लण्ड पेलवाया।

“बिना बेरहमी और जबरदस्ती के कौनो क गाण्ड पहली बार नहीं मारी जा सकती। और तुम्हारी ऐसी मस्त गाण्ड बनी ही मारने के लिए है…”

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बसंती गोल-गोल दोनों उंगलियां घुमा रही थी और बोले जा रही थी-

“अरे गाण्ड मरवावे का असल मजा तो तब है कि तू खुदै गाण्ड फैलाकर मोटे खूंटे पे बैठ जाओ।

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लेकिन ई तब होई जब हचक-हचक के कौनो मर्दन से, तब असल में गाण्ड मरौवल का मजा आई। देखा चोदे और गाण्ड मारे में बहुत फरक है, चोदे के समय धक्के पे धक्का, जोर-जोर से तोहार जइसन कच्ची कली क चूत फटी। लेकिन गाण्ड मारे में एक बार डालकर पूरी ताकत से ठेलना पड़ता है। जब तक गाण्ड क छल्ला न पार हो जाय…”

बसंती की बात में दम था।


लेकिन तब तक उसकी दोनों उँगलियां मेरी गाण्ड के छल्ले को पार कर चुकी थीं और उसने कैंची की तरह उसे फैला दिया, तो गाण्ड का छल्ला उतना फैल गया जितना सुनील के मोटे लण्ड ने भी नहीं फैलाया था। और यही नहीं उन फैली खुली उँगलियों को वो धीरे-धीरे आगे पीछे कर रही थी।

और मैं जोर-जोर से चीख रही थी।

लेकिन बसंती सिर्फ दर्द देना नहीं जानती थी बल्की मजे देना भी, और मौके का फायदा उठाना भी। जब मैं दर्द से दुहरी हो रही थी, उसने मेरा कुर्ता कंधे तक उठा दिया और अब मेरे गोल-गोल गुदाज उभार भी खुले हुए थे।


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एक हाथ उन खुले उभारों को कभी पकड़ता, कभी सहलाता, कभी दबाता। कभी निपल जोर से पकड़कर वो पुल कर देती।

और कब दर्द मजे में बदल गया मुझे पता ही नहीं चला। साथ में नीचे की मंजिल पे अब दुहरा हमला हो रहा था।

एक हा
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थ की हथेली मेरी चूत पे रगड़-घिस्स कर रही थी




और दूसरे हाथ का हमला मेरे पिछवाड़े बदस्तूर जारी था। गाण्ड में घुसी अंगुलिया गोल-गोल घूम रही थीं, खरोंच रही थीं और जब वो वहां से निकली तो सीधे नीचे वाले मुँह से ऊपर वाले मुँह में… और हलक तक।

बसंती से कौन जीत सका है आज तक। और बात बदलने में भी और केयर करने दोनों में बसंती नंबर एक। वो बोली-

“चलो अब थोड़ा मालिश कर दूँ, सारा दर्द एकदम गायब हो जाएगा। फिर खाना…”

बसंती दर्द देने में भी माहिर थी और दर्द दूर करने में, लेकिन मजा दोनों हालत में आता था। मेरी टाइट शलवार अब आलमोस्ट उतर चुकी थी और कुरता बस कंधों तक सिमटा पड़ा था। मैं पेट के बल लेटी थी, मेरे खुले गोरे गदराये उरोज चटाई पर दबे, और मस्त नितम्ब उभरे हुए। बसंती ने कहा-

“हे सर पे कड़ा-कड़ा लग रहा है, ये लगा लो…”

बसंती ने अपना ब्लाउज उतार के मेरे सर के नीचे रख दिया और तेल लगी उसकी उँगलियां मेरे कंधे दबाने लगी और थोड़ी ही देर में उन उँगलियों ने मेरी देह की सारी थकान, सब दर्द, जिस तरह सुनील और अजय ने मिलकर मुझे रगड़ा था, सब गायब। बस हल्की-हल्की नींद सी मेरी आँखों में छा रही थी।


लेकिन मुझे लग रहा था जल्द ही बसंती की उँगलियां फिर एक बार, वहीं पहुँच जाएंगी… और फिर मस्ती में मेरी देह… लेकिन बसंती तड़पाने और तरसाने में भी उतनी ही माहिर थी जितनी जवानी की आग लगाने में।

कन्धों के बाद उसके दोनों हाथ मेरी पीठ को मींजते-मींजते जब कूल्हों तक आये तो मुझे लगा की अब, अब… लेकिन बसंती तो बसंती, उसने दोनों कूल्हों को जोर-जोर से दबाया, मेरे नितम्बों का सारा दर्द निकाल दिया और यहाँ तक की जब उसने जोर से दोनों हाथों से दोनों नितम्बों को फैलाकर मेरे पिछवाड़े के छेद को पूरी ताकत से फैलाया, मुझे लगा अब फिर से…

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लेकिन नहीं, उसके हाथ अब सीधे सरक के मेरी जाँघों और टखनों तक पहुँच गए थे। मेरे पैरों का सारा दर्द उसकी उँगलियों ने जैसे चूस लिया था। और ‘वो वाली’ फीलिंग मुझे उसकी उँगलियों ने नहीं, बल्की उसके गदराये भरे-भरे ठोस उरोजों ने दी जब हल्के से उसने, अपने उभारों को मेरी पान ऐसी चिकनी पीठ पे हल्के से सहलाया और, धीरे-धीरे नीचे की ओर।


एक बार फिर उसकी उँगलिया मेरे भरे-भरे चूतड़ों पे थीं। और अबकी वो जोर-जोर से उसे दबा रही थी, मसल रही थी, कोई मर्द क्या मसलेगा ऐसे, और साथ में उसके जोबन मेरी पीठ पे।


एक बार उसने फिर गाण्ड के छेद को, और अबकी पहले से भी जोर से…



जब अच्छी तरह छेद खुल गया तो सीधे कटोरी से, टप-टप-टप, कड़वे तेल की बूँदें, एक के बाद एक। एक चौथाई कटोरी तो मेरी गाण्ड में उसने डाल दिया होगा।

कड़वे तेल का असर होना तुरंत शुरू हो गया, छरछराना लेकिन मुझे मालूम था मुझे क्या करना है और मैंने जोर से गाण्ड भींच ली।

लेकिन असली असर था, बंसती की उँगलियों का।

जैसे ही मैंने गाण्ड का छेद भींचा, बसंती की तेल से सनी गदोरी सीधे मेरी चुनमुनिया पर, जिसके अंदर अभी भी अजय की गाढ़ी-गाढ़ी रसीली मलाई बची थी।

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और हल्के से सहलाने के साथ बसंती की अनुभवी हथेली ने मेरी चिकनी चमेली को धीमे-धीमे भींचना शुरू कर दिया।

मस्ती से मेरी आँखें भिंच गयीं, कड़वे तेल का छरछराना परपराना सब मैं भूल गई। और जैसे चूत की रगड़ाई काफी नहीं थी, बसंती के दूसरे हाथ ने हल्के से मेरी चूची को पकड़ा और दबाना, रगड़ना, मसलना सब कुछ चालू हो गया।

असर ये हुआ की गाण्ड के अंदर का छरछराना परपराना मैं सब भूल गई। पांच दस मिनट में ही मस्ती में चूर।

लेकिन कड़वा तेल अंदर अपना काम कर रहा था, खास तौर से गाण्ड के छल्ले पर, जहाँ सुनील के मोटे लण्ड ने उसे फैलाकर, जब वह रगड़ते दरेरते घुसता था, लगता था अंदर कहीं-कहीं छिल भी गया था। और जब मुझे लगा कि मैं एक बार फिर झड़ने के कगार पे हूँ, चूत की पुत्तियां अपने आप जोर-जोर से भिंच रही थीं, लग रहा था अब कि तब।

तब तक बसंती ने अपने दोनों हाथ हटा लिए और मेरी पतली कमर पकड़कर मुझे फिर डागी पोज में कर दिया। घुटने दोनों मुड़े हुए और चटाई पर, चूतड़ हवा में, और कहा-



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“हाँ बस ऐसे ही, जइसन गाण्ड मरवावे बदे गंड़िया उठाये रहलूं न, बस एकदम वैसे…” और वो गायब।


और लौटी तो उसके हाथ में एक शीशी थी, और उसमें कुछ सफेद मलाई जैसा।

बिना कुछ कहे पिछवाड़े का छेद उसने फैलाया और सीधे वो शीशी से मेरी गाण्ड में, और कहा-

“अरे ई कामिनी भाभी क स्पेशल क्रीम है, खास गाण्ड फड़वाने के बाद के लिए बस एका घोंट लो, और दस मिनट अइसे गाण्ड उठाय के रहो, कुल दर्द गायब। और तब तक हम खाना ले आते हैं…”

बंसती की बात एकदम सही थी, एकदम ठंडा, पूरा अंदर तक। और कुछ ही देर में सारी चिलख, दर्द, परपराना सब गायब। मैं पिछवाड़े का छेद भींचे, एकदम चुपचाप वैसे ही पेट के बल लेटी रही।

ये तो मुझे बहुत बाद में पता चला की कामिनी भाभी की वो क्रीम, दर्द तो एकदम गायब कर देती थी, अंदर कुछ चोट खरोंच हो तो उसके लिए भी एंटी-सेप्टिक का काम करती थी, लेकिन साथ में दो काम और करती थी।

एक तो वो गाण्ड को फिर से पहले जैसा ही टाइट कर देती थी, जैसे उसके अंदर कुछ गया ही न हो… एकदम कसी कच्ची कली की तरह। लेकिन दूसरी चीज और खतरनाक थी, उसमें कुछ ऐसा पड़ा था की कुछ देर बाद ही गाण्ड में बड़े-बड़े चींटे काटने लगते थे, और बस मन करता था कि कोई हचक के मोटा, लम्बा पूरा अंदर तक पेल दे।

और जब बसंती दस की जगह पंद्रह मिनट में लौटी, हाथ में थाली लिए तो, बिना ब्लाउज के भी साड़ी को उसने अपने उभारों पे ऐसे लपेट के रखा था…




बस थोड़ा-थोड़ा दिखता लेकिन हाँ कटाव उभार सब महसूस होता था। और मेरे बगल में बैठ गयीं, धम्म से।

शरारत में मैं कौन बसंती भौजी से कम थी। उसके दोनों गरमागरम जलेबी की तरह रसभरे उभार, साड़ी से झलक रहे थे, और मैंने एक झटके में उसकी साड़ी खींच दी, और कहा-

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“काहे भौजी, का छिपायी हो, उहौ आपन ननदी से…”



और दोनों उभार छलक कर बाहर, जितने बड़े-बड़े उतने ही कड़े-कड़े और ऊपर से दोनों घुन्डियां, एकदम खड़ी।
 

kartik

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Mast update.. aur aap jo images dalti ho usse aur maza aata hai update padhne ka... Guddi rani kaa to sach me bura haal kar diya pichhwade ka thik se chal bhi nhi paa rahi... solwa savan teez barshaat main aise mousam mai mitha mitha dard liye kitna romantic ho gayi Guddi rani to.. apna mein ashiq hero rocky dikh nhi raha hai apni heroine Guddi rani ki mulaqat nahi ho payi usse aise mousam main maza aa jaye hero heroine ko aamne saamne ho jaye to.. waiting more big update next...
 
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chodumahan

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आखिर पिछवाड़े का उद्घाटन हो ही गया ....वो भी रगड़-रगड़ के...आखिर सहेली ही काम आई और ललकार-ललकार के अपने यारों के मजे दिलवाए...
अब गाँव का कोई मर्द नहीं छूटना चाहिए जिसकी बारिश इसके ताल-पोखरे में ना हो...
 

komaalrani

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Mast update.. aur aap jo images dalti ho usse aur maza aata hai update padhne ka... Guddi rani kaa to sach me bura haal kar diya pichhwade ka thik se chal bhi nhi paa rahi... solwa savan teez barshaat main aise mousam mai mitha mitha dard liye kitna romantic ho gayi Guddi rani to.. apna mein ashiq hero rocky dikh nhi raha hai apni heroine Guddi rani ki mulaqat nahi ho payi usse aise mousam main maza aa jaye hero heroine ko aamne saamne ho jaye to.. waiting more big update next...


Thanks so much
 
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komaalrani

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Sirf guddi nahi bhai sabki chut chudai karao mote lund se taki chikhe


welcome to the thread, please do read my other threads too and this story from the beginning, thanks
 

komaalrani

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***** *****मस्ती ही मस्ती



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मेरा एक हाथ झटाक से सीधे वहीं।


लेकिन बजाय बुरा मानने के बसंती भौजी ने एक लाइफ टाइम आफर दिया, अपनी बुर दिखाने का-


“अरे तोहार चुनमुनिया तो हवा खिलाने के लिए खोल दिए हैं, तुम कहोगी की भौजी आपन ना दिखाइन…”

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लेकिन जैसे कहते हैं न टर्म्स एंड कंडीशंस अप्लाई, बस वही बात… बसंती भौजी ने मेरी आँखें बंद करा दीं और बोला कि मैं उंगली से देखूं।

मैं मान गई।

धीरे-धीरे उनका हाथ मुझे उनकी जांघ की सीढ़ी से चढ़ाते हुए, मेरे हाथ की उँगलियां, खूब चिकनी एकदम मक्खन, मांसल लेकिन गठी… धीमे-धीमे मेरी उँगलियां चढ़ती गयीं, और फिर झांटों का झुरमुट और वहीं बसंती भाभी की उंगली ने मेरा हाथ छोड़ दिया।


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एक कौर खाना सीधे मेरे मुँह में। उनके हाथ से दाल रोटी भी इतनी मीठी लग रही थी की जैसे पूड़ी हलवा हो। और मेरी उंगली, अब इतनी भोली भी नहीं थी।



झांटों के बगीचे में उसने रास्ते ढूँढ़ लिया, और फिर तो, बसंती भौजी की बुर की पुत्तियां, खूब उभरीं-उभरीं कुछ देर तक तो अंगूठा और तर्जनी दबा-दबाकर उनका स्वाद ले रहा था, और फिर गचाक्क… गप से मेरी उंगली उनके नीचे वाले मुँह में घुस गई और उनके निचले होंठों ने जोर से उसे दबोच लिया।

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जैसे मैंने बंसती भाभी की मेरे मुँह में कौर खिलाते उंगली को शरारत से दांत से दबोच लिया और हल्के से काट कर पूछा-

“भौजी, आपने खाया?”

“तूहूँ न, अरे हमार प्यारी-प्यारी ननदिया भूखी रहे और हम खाय लेब…”

बसंती ने बहुत प्यार से जवाब दिया।


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और मैं सब कुछ हार गई, गच्च से पूरी उंगली मैंने बसंती भौजी के निचले मुँह में जड़ तक ठेल दी और शरारत से बोली-


“झूठ भौजी, मुझे मालूम है भौजी तू का का गपागप खात हो, घोंटत हो और आपन छोटकी ननदिया क ना पूछी हो…”

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“अरे अब आगे आगे देखना, अबहीं त तू घोंटब शुरू कइली हौ, एक से एक लम्बा, मोट-मोट घोंटाउब न, एक साथ दो-दो, तीन-तीन…”

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बंसती भौजी ने अपनी बात की ताकीद करते हुये साथ में अपनी उंगली मेरी कच्ची सहेली के मुँह में ठेल दी, और फिर तो घचाघच-घचाघच, सटासट-सटासट।

और जवाब मेरे ऊपर वाले मुँह ने दिया। एक हाथ से मैंने भौजी का सर पकड़ा और फिर मेरे होंठ उनके होंठों के ऊपर और मेरा आधा खाया, कुचला सीधे मेरी जीभ के साथ उनके मुँह में, और कुछ देर तक उनकी जीभ ने मेरी जीभ के साथ चल कबड्डी खेला, फिर क्या कोई लड़की लण्ड चूसेगी जैसे वो मेरी जीभ चूस रही थीं।

इतना मज़ा , इतना रस कभी नहीं आया था एक साथ दोनों मुंह में घुसा , दोनों में रस की धारा , ... बंसती की ऊँगली मेरी बिलिया में और मेरी बसंती क बुरिया में , हम दोनों ननद भौजाई की जीभ एक दूसरे के मुंह में घुसी धंसी ,


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और साथ साथ मैं सीख भी रही थी मजे लेना, मुंह का रस , नीचे वाले मुंह का रस , बसंती की उँगलियाँ जिस तरह मेरी प्रेम गली के अंदर खेल तमाशा कर रही थीं ,मुझे पागल बना रही थीं , उसी तरह अब मेरी उँगलियाँ भी बसंती के अंदर , मैंने पांच छह दिनों के अंदर कितनों का मूसल घोंट लिया था , अजय , सुनील, दिनेश, रवि , राजीव, ... लेकिन जो आग बसंती की ऊँगली लगा रही थी , कभी अंदर बाहर , कभी गोल गोल , कभी प्रेम गली के अंदर किसी ख़ास जगह पर चम्मच की तरह मरोड़ कर कुरेदने लगती तो मैं मस्ती से उछल पड़ती ,


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मैं समझ रही थी ये मस्ती के साथ मेरी ट्रेनिंग भी है , मैंने सुना था की प्रेम गली के शुरू में , थोड़ा अंदर कुछ नर्व एंडिंगस होती हैं बस वहीँ, ... और आज बसंती के साथ मैं भी सीख गयी थी, वहां दरेरना रगड़ना , और कई बार बसंती जब पूरी ताकत से जड़ तक पेलती तो बस जान नहीं निकलती ,

हाँ चीख तो नहीं सकती थी क्योंकि बसंती ने वहां अपनी मोटी जीभ घुसेड़ दी। और मैं चूस रही थी जैसे भाभी के गाँव के किसी लौंडे का लंड चूस रही होऊं।

साथ में खाना पीना भी जारी था , बसंती भौजी की बाईं ऊँगली अपनी ननद की बिलिया में थी , और दाएं से कौर बनाकर खाना उन्होंने मेरे मुंह में तो मैंने मना कर दिया और फिर वो कौर उनके मुंह में , अच्छी तरह कुचा कुचाया , बसंती के थूक से लिसड़ा सीधे बसंती के मुंह से मेरे मुंह में ,

इतना स्वादिष्ट रसीला खाना कभी नहीं लगा था , साथ में मुंह में जीभ की कबड्डी

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उसके बाद तो सब कौर कभी उनके मुँह से मेरे मुँह में, और कभी मेरे मुँह में और साथ में हम दोनों खुलकर एक दूसरे के होंठ का, मुँह का रस ले रहे थे।

नीचे बसंती भौजी की बुर उसी स्वाद के साथ मेरी उंगली भींच रही थी। और अब वो खुलकर बखान कर रही थीं गाँव के मर्दों का किसका कित्ता बड़ा और कित्ता मोटा है कौन कित्ती देर तक चोद सकता है। हाँ, एक बात सब में थी की सबके सब मेरे जुबना के दीवाने हैं।

बात बदलने के लिए मैंने कमान अपने हाथ में ले ली और शिकायत की-


“भौजी हमारे पिछवाड़े तो… हमार तो जान निकल गई और आप कह रही थीं की ठीक से नहीं मारा…”




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“एकदम सही कह रह थी मैं, अरे असली पहचान ई है की अगर हचक-हचक के गाण्ड मारी जायेगी न तुहार, तो बस खाली कलाई के जोर से एक बार में दो उँगरी सटाक से घोंट लेबू… और घबड़ा जिन, ई कामिनी भाभी के मर्द, जउने दिन उनके नीचे आओगी न त बस, तब पता चलेगा गाण्ड मरवाई क असली मजा…”

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बसंती ने हाल खुलासा बयान किया, और मेरा ध्यान चम्पा भाभी की बात ओर चला गया, कल इसी आँगन में तो, ऊ कह रही थीं यही बात।


मेले में उन्होंने देखा था मुझे, और तभी से… एकदम बजरबट्टू।

उसके बाद जो कामिनी भाभी रतजगा में आई और उन्होंने मुझे अच्छी तरह ‘खुलकर’ देखा, तो चम्पा भाभी को बताया। और चम्पा भाभी भी बोलीं उनसे-


“अरे अगर गाँव में सावन बरस रहा है तो उनसे कह दो न उहै बेचारे काहें प्यासे रहें। छक के आपन पियास बुझावें न…”

मेरा ध्यान फिर बसंती की बात की ओर गया। आज जब कामिनी भाभी आई थीं तो फिर वही बात कर रही थीं।

उसके बाद तो भौजी ने जो बात बताई कामिनी भाभी के पति के बारे में की मेरे कान खड़े हो गए।


कामिनी भाभी के पति शादी के पहले शुद्ध बालक भोगी थे।



लेकिन शादी के बाद कामिनी भाभी ने उनकी हालत सुधार दी,

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पर अभी भी हफ्ते दस दिन में अगर कहीं कोई कमसिन नमकीन लौंडा दिख गया तो वो बिना उसका शिकार किये नहीं मानते और कामिनी भाभी भी बुरा नहीं मानती, बल्की उन्हें अगर कहीं कोई शिकार दिख गया तो उसे खुद पटा करके…

और उनका भी फायदा हो जाता है क्योंकी उस रात वो दुगुनी ताकत से।


फिर उसके साथ कामिनी भाभी को भी तो कच्ची कलियों का शौक है, लड़के लड़की में भेद वो भी नहीं करतीं। फिर खिलखिलाते हुए बसंती भौजी ने पूछा-


“जानती हो कामिनी का पिछवाड़ा इतना चौड़ा काहे है?”



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बात बसंती भौजी की एकदम सही थी, जवाब भी उन्होंने दिया-

“अरे दूसरे तीसरे उनके मर्द पिछवाड़े का बाजा जरूर बजाते हैं। और ओह दिन तो पूरे गाँव में मालूम हो जाता है, आधे दिन ऊ उठ नहीं पाती। उनका लण्ड एक तो ऐसे पूरा मूसल है और जउन मर्दन को लौंडेबाजी की आदत होती है न उनका वैसे ही देर में, लेकिन… ऊ तो गाण्ड में तीस-चालीस मिनट से पहले नहीं… उहो पूरी ताकत से तूफान मेल चलाते हैं…”


साथ-साथ भौजी की उंगली भी मेरी ओखली में चल रही थी।

और मस्ती से मेरी हालत ख़राब हो रही थी। लेकिन मुझे विश्वास नहीं हुआ और मैं बोल पड़ी-

“सच में भौजी, तीस-चालीस मिनट… बिस्वास नहीं होता…”

बसंती जोर से खिलखिलाई और कसकर मेरे खड़े निपल उमेठ के बोली-

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“पूछें नाउ ठाकुर केतना बाल। कहेन मालिक अगवे गिरी।
अरे बहुते जल्द, तुहूं घोंटबू उनकर, तो अगले दिन हम पूछब न तोसे, कहो कैसे लगा।
अगवाड़ा पिछवाड़ा दोनों एक हो जाई…”

और हम दोनों एक साथ हँस पड़े।


मेरी उंगली भी भौजी की बुर में बुरी तरह अंदर-बाहर हो रही थी।


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kartik

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Chhota update bada chahiye rani ji. dil mange more..apki koi dusri kahani mai rocky wala jesa seen hai kya?
 
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