madhuagrawal1978
Member
- 241
- 305
- 63
Welcome to threadSuper se uper update![]()
आपके इस कमेंट ने फागुन के दिन चार के अंत में तीन शहरों की कहानी में बनारस का जो जिक्र आया था और पूर्वांचल का वो याद दिला दी, बस उसे जस का तस दुहरा दे रही हूँ।गोदान , कल्याण स्टेशन , डोंबिवली , अंबरनाथ , बचपन में मेला ओए जुटे के घर.
और वो आख़िरी सवाल इतने खेती होने के बाद भी मुंबई क्यों ??
ये अपडेट काफ़ी पर्सनल लेवल पे है , काफ़ी बेहतरीन लिखा है आपने komaalrani जी![]()
आपने सब कुछ कह दियाजब हम पढ़ते हुए... एक बार में पढ़ नहीं पाए...
हर बार कुछ रुक कर.. अपने आँखों पर हाथ फेरकर...
तो लिखते समय उनकी हालत क्या होगी... ये तो वही जानती होंगी....
मेरी तरफ से भी शत-शत नमन...
और उसकी भौजाई भी तो कौनगाली से लेकर चढ़वाने तक में...
क्या कहूं,ऊपर चारों पोस्ट के लिए यही एक कमेंट कर रहा हूँ...
उस क्षेत्र और आस-पास के क्षेत्रों की यही व्यथा कथा है..
अपने जड़ से दूर.. अपनों के लिए...
कभी पंजाब.. कभी दिल्ली मुंबई.. या फिर खाड़ी के देशों में...
दिन रात अपने को खपाते रहते हैं...
अपनों के सपने लिए..
कभी फोन करके अपने दिल को सांत्वना देते हैं तो कभी गाँव से आए लोगों से बात करके.. हाल चाल पता करते रहते हैं...
कुछ न कुछ जिम्मेदारियों को निभाना है..
और उसके लिए ये कष्ट तो उठाना हीं पड़ेगा... परदेश में जाके उनकी उन्नति... लेकिन अपना क्षेत्र उन सुख सुविधाओं से वंचित...
दशकों से किसी व्यवसाय या रोजगार का माहौल बनाने पर किसी का ध्यान गया नहीं.. या फिर जाती फायदे के लिए...
इसलिए अपने डार से बिछड़ कर अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन...
केवल पर्व त्योहार... (जब सारी ट्रेन फुल चल रही हो.. किसी तरह बर्थ का इंतजाम हो जाए.) अपने से मिलने की खुशी और उमंग लिए...
आपने सभी पात्रों के भावों को .. उनके डर को.. माँ की दशा को दर्शाने में .. रुंधे गले से गितवा भी..
कितनी चुलबुली और शरारती अब तक लगती थी... लेकिन वही गितवा और अरविंद...
द्रवित कर दिया आपने... आँखें नम हो गईं... अक्षर धुंधले पड़ गए...
एक बार नहीं... कई बार...
दिल पर एक गहरी छाप छोड़ गया.. कुछ जाने अंजाने पहलुओं को छू गया...
ये अपडेट पिछले कुछ अपडेट्स में छोटा था..
लेकिन अब तक के पोस्ट किए गए अपडेट्स पर भारी था...
बल्कि आपने हम सबको भावनाओं के बवंडर में ऐसा फंसा दिया कि... दोस्त संगी साथी घर-बार सबकी पुरजोर कशिश उभर आई...
बस आपसे यही आग्रह है कि... गितवा की माँ को "मैं हूँ न सावित्री,... सत्यवान को ले आउंगी,... इतना बरत पूजा , झूठ नहीं जायेगी,..." निराश नहीं लौटना चाहिए...
आपके इस कमेंट ने फागुन के दिन चार के अंत में तीन शहरों की कहानी में बनारस का जो जिक्र आया था और पूर्वांचल का वो याद दिला दी, बस उसे जस का तस दुहरा दे रही हूँ।
लेकिन ये दर्द सिर्फ एक शहर का नहीं, शायद पूरे पूर्वांचल का है, और जमाने से है। मारीशस, फिजी, गुयाना, पूर्वांचल के लोग गए, और शूगर केन प्लांटेशन से लेकर अनेक चीजें, उनकी मेहनत का नतीजा है। वहां फैली क्रियोल, भोजपुरी, चटनी संगीत यह सब उन्हीं दिनों के चिन्ह है।
और उसके बाद अपने देश में भी, चाहे वह बंगाल की चटकल मिलें हो।
बम्बई (अब मुम्बई) और अहमदाबाद की टेक्सटाइल मिल्स पंजाब के खेत, काम के लिए। और सिर्फ काम की तलाश में ही नहीं, इलाज के लिए बनारस, लखनऊ, दिल्ली जाते हैं। पढ़ने के लिए इलाहबाद, दिल्ली जाते हैं।
लेकिन कौन अपनी मर्जी से घर छोड़कर काले कोस जाना चाहता है? उसी के चलते लोकगीतों में रेलिया बैरन हो गई, और अभी भी हवाओं में ये आवाज गूँजती रहती है-
भूख के मारे बिरहा बिसरिगै, बिसरिगै कजरी, कबीर।
अब देख-देख गोरी के जुबना, उठै न करेजवा में पीर।