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बहुत सी पुरानी यादों को संजो कर सम्हाल कर गठरी में बाँध कर बैठती हूँ, कभी मौका देख के निकाल के उन यादों को पुरानी रस्मो को इन सब कहानियों के बहाने ताज़ा कर लेती हूँ, और फिर बांध बूंध के, सर पर लाद के आगे की ओर निकल पड़ती हूँ, ...और वो बेचारा तीनों बार हार जाता है,... फिर मौरी सेरवाने में नयी बहु, उसकी दुल्हन के सामने गांव की भौजाई सब अपनी ननदों को उसकी बहन को उसी का नाम लग लगा के खूब गरियाती है, लेकिन बगल में बैठी 'मिठाई ' के लालच में वो सब कुछ करता है,...
अब तो मौरी का चलन लगभग खत्म हीं हो गया है...
लेकिन फिर भी कहीं कहीं....
मौरी सेरवाने की कंगन खोलने की रस्म बस अब यादें रह गयी हैं