और फायरिंग भी समय समय पर...दोनों सन्नद्ध अपनी अपनी अपनी बन्दूक ताने तैयार,
देवर वही जो भाभी को कोई कमी न महसूस होने दे
और फायरिंग भी समय समय पर...दोनों सन्नद्ध अपनी अपनी अपनी बन्दूक ताने तैयार,
देवर वही जो भाभी को कोई कमी न महसूस होने दे
फिर तो सोने पे सुहागा...और जब तक देवरानी नहीं आती पूरी तरह काबू में रहता है और कई बारी समझदार भौजाई अपनी ही कोई चचेरी, मौसेरी, पड़ोस की बहन देवरानी बना के ले आती है,
एक खुमार सा छा जाता है...आपने दो लाइन में सब बात कह दी जब पलाश फूलते हैं आम बौराते हैं तो भौजाइयां भी बौराने लगती है।
इमरतिया अभी तक सास के हक का रोल अदा कर रही थी...सुगना जानती थी, जबतक इमरतिया रहेगी, ससुर जी का काम चलता रहेगा, और वो मन करने पर भी मन मारे बैठे रहेंगे झिझक और लोकलाज से, सुगना को देख के ललचाते रहेंगे,
फिर इमरतिया भी सुगना को यह जताती थी की ससुर इमरतिया के ही मुट्ठी में हैं,
और इमरतिया गाँव घर में गाती भी बहुत थी, पर बात आपकी सही है
क्या खूब कही है...मजा आग को धीरे धीरे सुलगाने का ही है
ML Bhai...bahut dinon baad nazar aa rahe ho...hope sab kushal mangal...is story ke baad hopefully aap mere story par bhi padharogeएक खुमार सा छा जाता है...
दो किसी भी उम्र की स्त्रियां आपस में सहेली बन जाती है...जवान होती बेटी की सबसे बड़ी सहेली उसकी माँ ही होती है, खास तौर से अगर कोई भौजाई न हो और देह के रहस्य वही खोल के उसे बताती है समझाती है। कभी चोटी गूंथते, कभी रसोई में साथ काम करते, कभी चिढ़ाते, खिजाते,
मनपसन्द मेहनताना....एकदम और सुगना भौजी ने मेहनत भी की हिना को पटाने में, गरमाने में और उसके बहाने गिन गिन के एक एक कली को फूल बनाने की जिम्मेदारी भी उनके जिम्मे वो भी महीने भर के अंदर,
तो मेहनत का मेहनताना तो मिलना ही था।
लेकिन मुर्गे के विशेष मांस को जरुर मैरिनेट करके मानेंगी...उपवास तोड़ने के लिए नयी उम्र की नयी फसल से ज्यादा अच्छा क्या होगा, सुगना भौजी अपना जांगर पूरा दिखाएंगी, वो काटे जाते मुर्गे की तरह फड़फड़ायेगा, तड़फड़ायेगा, और फिर,
आखिर अनुभव किस दिन काम आएगा...मारने की बारी आने पर ससुर चूकने वाले थोड़े ही हैं
लेकिन अब मुसीबत के मारे फालिज मार दिया है , खुद का खड़ा होना मुशिकल है तो,