कुछ कहने के लिए छोड़ा नहीं आपने।
जब यह पोस्ट मैं लिख रही थी तो बस यही सोच रही थी जो मैं कहना चाहती हूँ, अकेलापन और होने वाले अकेलेपन का दर्द, और खास तौर से जब साये लम्बे होने लगे, शाम गहराने लगे, अँधेरे बढ़ने लगें, उम्र के उस पड़ाव में अकेलेपन का दर्द
सास के मन का यह डर, बिन बोला डर, कहे तो कैसे, बड़ा बेटा पहले ही चला गया बंबई और अब बड़ी बहू और छोटी बेटी भी, थोड़ी बहुत उम्मीद थी की शायद छुट्टियों में साल में दो चार बार, तीज त्यौहार, लेकिन अब साफ़ हो गया था की वो भी मुश्किल । और जब एक बेटा बहू बंबई चले गए तो क्या पता दूसरी भी, आखिर शहर का शौक सब को सताता है और वो तो शहर की रहने वाली। तो पहले महीने दो महीने में आने वाले धीरे धीरे छह महीने साल भर, बच्चों का इम्तहान, कभी मीटिंग कभी कुछ,
सिर्फ उनका घर नहीं था जहाँ बुढ़ाती औरतें सूना आंगन अगोरती हैं , और जहाँ पति का साथ हो, वहां तो तब भी, पर यहाँ अकेले और बेटे की नौकरी पे जाओ भी तो बेटा अपने काम पे बहू अपने और पास पडोसी किसी से जान पहचान नहीं , खाली बच्चे अगोरो और वो भी
आके कमरा बंद, कभी म्यूजिक कभी टीवी तो दो चार दिन बाद वापस गाँव का टिकट, इसलिए उन्होंने पहले ही बम्बई जाने से मन कर दिए
कहानी कई बार सब कुछ नहीं कहती, खास कर अनकहे दर्द को हाँ बस इशारा कर देती है और फिर ऐसे पाठक को ढूँढ़ती हैं जो उन इशारो को समझ के उस दुःख को बाँट सके
आपके कमेंट में वो पाठक नजर आता है
तन का सुख तो सब समझ लेते हैं लेकिन मन का दुःख तो बस इशारे में ही
और बहू ने भी सास के मन का डर समझा और एक बात ऐसी कही जो सुहागन की परम्परा या शायद वैधव्य के डर से जुडी है लेकिन बात एकदम मन की है "
" बस आपके साथ यहीं रहूंगी। और जिस दरवाजे से सुहागिन आयी थी, ...उसी दरवाजे से, ....जो गाँठ जोड़ कर ले आया था वो कंधे पर, .....सुहागिन आयी थी, सुहागिन जाऊंगी। "
और यहाँ बिना कहे ये साफ़ है की कहाँ जाने की बात हो रही है इसलिए सास ने बहू का मुंह दबा दिया
और मुझे पूरी उम्मीद थी की मेरे पाठक इन लाइनों का निहतार्थ जरूर समझ के इस संवाद के पीछे के दर्द को समझेंगे
आप की टिप्पणी बहुत कुछ यही इंगित करती हैं इसलिए एक बार फिर से आभार