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ऐ उम्र-ए-नाज़ तुझ को गुज़ारे गुज़र न था।
हम बोरिया-नशीनों का कोई भी घर न था।।
दुनिया-ए-हस्त-ओ-बूद में मेरे सिवा तुझे,
सब काबिल-ए-क़ुबूल थे मैं मो'तबर न था।।
ये दिल जो मेरे सीने में बजता है रात-दिन,
वो दर्द सह चुका है कि जो मुख़्तसर न था।।
इक चाँद रो रहा था सर-ए-आसमान-ए-इश्क़,
तारों की अंजुमन में कोई चारागर न था।।
ये शोर-ओ-ग़लग़ला है कि लुटता है मय-कदा,
क्या वाँ पे कोई 'ग़ालिब'-ए-आशुफ़्ता-सर न था।।
थे अंदरून-ए-ज़ात कई लाख हादसात,
लेकिन तुम्हारी याद से दिल बे-ख़बर न था।।
इम्काँ चहार सू था सफ़र का मगर 'क़मर'
तन्हा खड़ा हुआ था कोई हम-सफ़र न था।।
_________क़मर अब्बास 'क़मर'
हम बोरिया-नशीनों का कोई भी घर न था।।
दुनिया-ए-हस्त-ओ-बूद में मेरे सिवा तुझे,
सब काबिल-ए-क़ुबूल थे मैं मो'तबर न था।।
ये दिल जो मेरे सीने में बजता है रात-दिन,
वो दर्द सह चुका है कि जो मुख़्तसर न था।।
इक चाँद रो रहा था सर-ए-आसमान-ए-इश्क़,
तारों की अंजुमन में कोई चारागर न था।।
ये शोर-ओ-ग़लग़ला है कि लुटता है मय-कदा,
क्या वाँ पे कोई 'ग़ालिब'-ए-आशुफ़्ता-सर न था।।
थे अंदरून-ए-ज़ात कई लाख हादसात,
लेकिन तुम्हारी याद से दिल बे-ख़बर न था।।
इम्काँ चहार सू था सफ़र का मगर 'क़मर'
तन्हा खड़ा हुआ था कोई हम-सफ़र न था।।
_________क़मर अब्बास 'क़मर'