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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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इतना एहसान तो हम पर वो ख़ुदारा करते।
अपने हाथों से जिगर चाक हमारा करते।।

हम को तो दर्द-ए-जुदाई से ही मर जाना था,
चंद रोज़ और न क़ातिल को इशारा करते।।

ले के जाते न अगर साथ वो यादें अपनी,
याद करते उन्हें और वक़्त गुज़ारा करते।।

ज़िंदगी मिलती जो सौ बार हमें दुनिया में,
हम तो हर बात इसे आप पे वारा करते।।

'जोश' धुँदलाता न हरगिज़ ये मिरा शीशा-ए-दिल,
गर्द उस की वो अगर रोज़ उतारा करते।।

_______ए जी 'जोश'
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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हर मुलाक़ात में लगते हैं वो बेगाने से।
फ़ाएदा क्या है भला ऐसों के याराने से।।

कुछ जो समझा तो मुझे सब ने ही आशिक़ समझा,
बात ये ख़ूब निकाली मिरे अफ़्साने से।।

ज़िंदगी अपनी नज़र आने लगी सिर्फ़ सराब,
कभी गुज़रे जो दिल-ए-ज़ार के वीराने से।।

एक पल भी न ठहर पाओगे ऐ संग-ज़नो,
कोई पत्थर कभी लौट आया जो दीवाने से।।

तुम को मरना है तो मरना मिरे गुल होने पर,
शम्अ' कहती रही शब-भर यही परवाने से।।

फिर न देखा तुझे ऐ 'जोश' सुकूँ से बैठा,
जब से उट्ठा है तू इस शोख़ के काशाने से।।

________ए जी 'जोश'
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए।
हम तो दिल तक चाहते थे तुम तो जाँ तक आ गए।।

ना-मुरादी अपनी क़िस्मत गुमरही अपना नसीब,
कारवाँ की ख़ैर हो हम कारवाँ तक आ गए।।

उन की पलकों पर सितारे अपने होंटों पे हँसी,
क़िस्सा-ए-ग़म कहते कहते हम कहाँ तक आ गए।।

ज़ुल्फ़ में ख़ुशबू न थी या रंग आरिज़ में न था,
आप किस की आरज़ू में गुल्सिताँ तक आ गए।।

रफ़्ता रफ़्ता रंग लाया जज़्बा-ए-ख़ामोश-ए-इश्क़,
वो तग़ाफ़ुल करते करते इम्तिहाँ तक आ गए।।

ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबाँ का शुऊ'र आ जाएगा,
तुम वहाँ तक आ तो जाओ हम जहाँ तक आ गए।।

आज 'क़ाबिल' मय-कदे में इंक़लाब आने को है,
अहल-ए-दिल अंदेशा-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ तक आ गए।।

_______'क़ाबिल' अजमेरी
गायिका:- आशा भोंसले
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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अब ये आलम है कि ग़म की भी ख़बर होती नहीं।
अश्क बह जाते हैं लेकिन आँख तर होती नहीं।।

फिर कोई कम-बख़्त कश्ती नज़र-ए-तूफ़ाँ हो गई,
वर्ना साहिल पर उदासी इस क़दर होती नहीं।।

तेरा अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल है जुनूँ में आज कल,
चाक कर लेता हूँ दामन और ख़बर होती नहीं।।

हाए किस आलम में छोड़ा है तुम्हारे ग़म ने साथ,
जब क़ज़ा भी ज़िंदगी की चारा-गर होती नहीं।।

रंग-ए-महफ़िल चाहता है इक मुकम्मल इंक़लाब,
चंद शम्ओं के भड़कने से सहर होती नहीं।।

इज़्तिराब-ए-दिल से 'क़ाबिल' वो निगाह-ए-बे-नियाज़,
बे-ख़बर मालूम होती है मगर होती नहीं।।

__________'क़ाबिल' अजमेरी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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ग़म छेड़ता है साज़-ए-रग-ए-जाँ कभी कभी।
होती है काएनात ग़ज़ल-ख़्वाँ कभी कभी।।

हम ने दिए हैं इश्क़ को तेवर नए नए,
उन से भी हो गए हैं गुरेज़ाँ कभी कभी।।

ऐ दौलत-ए-सुकूँ के तलब-गार देखना,
शबनम से जल गया है गुलिस्ताँ कभी कभी।।

हम बे-कसों की बज़्म में आएगा और कौन,
आ बैठती है गर्दिश-ए-दौराँ कभी कभी।।

कुछ और बढ़ गई है अंधेरों की ज़िंदगी,
यूँ भी हुआ है जश्न-ए-चराग़ाँ कभी कभी।।

________'क़ाबिल' अजमेरी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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यूँ दिल-ए-दीवाना को अक्सर सज़ा देता हूँ मैं।
अपनी बर्बादी पे ख़ुद ही मुस्कुरा देता हूँ मैं।।

अपने दिल के ख़ून से वो गुल खिला देता हूँ मैं,
रेगज़ारों को गुलिस्ताँ की अदा देता हूँ मैं।।

ऐसी मंज़िल पर मुझे पहुँचा दिया है इश्क़ ने,
मेरा जो क़ातिल है उस को भी दुआ देता हूँ मैं।।

क्यूँ किसी का नाम ले कर इश्क़ को रुस्वा करूँ,
अपने दिल की आग को ख़ुद ही हवा देता हूँ मैं।।

ज़िक्र यूँ करता हूँ अपने ग़म का अपने दर्द का,
होश वालों को भी दीवाना बना देता हूँ मैं।।

क्या गुज़रती है मिरे दिल पर ख़ुदारा कुछ न पूछ,
दुश्मनों को जब तलक घर का पता देता हूँ मैं।।

अपनी ही आवाज़ ख़ुद लगती है मुझ को अजनबी,
जब अकेले में कभी तुझ को सदा देता हूँ मैं।।

नश्तर-ए-याद-ए-ग़म-ए-जानाँ से 'क़ैसर' इन दिनों,
ज़ख़्म जो सोते हैं उन को फिर जगा देता हूँ मैं।।

_________'क़ैसर' सिद्दीक़ी
 

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ये कैसे जानता गर शहर में आया नहीं होता।
यहाँ दीवार होती है मगर साया नहीं होता।।

रिसालत की बिना गर झूट पर रक्खी गई होती,
रसूलों को भी तो दुनिया ने झुठलाया नहीं होता।।

ये ख़्वाब-ए-सुब्ह क्या करते तमन्ना की हिना-बंदी,
अगर तारीख़ ने अपने को दोहराया नहीं होता।।

जो अमृत छोड़ कर हम लोग भी विश-पान कर लेते,
तो अपने ख़ून में ये साँप लहराया नहीं होता।।

मैं अपने क़त्ल का उस पर कभी शक भी नहीं करता,
अगर वो मुस्कुराते वक़्त शरमाया नहीं होता।।

अगर कुछ काम आती इस्तिलाह-ए-साग़र-ओ-मीना,
तो मेरी तिश्नगी ने मुझ को बहकाया नहीं होता।।

जनाब-ए-'मीर' रोते हैं तो 'क़ैसर' शौक़ से रोएँ,
हमारे अहद में अब कोई हम-साया नहीं होता।।

________'क़ैसर' सिद्दीक़ी
 

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तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे।
मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे।।

तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे,
तुम्हें भुलाने में शायद मुझे ज़माना लगे।।

जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो,
कि आस-पास की लहरों को भी पता न लगे।।

वो फूल जो मिरे दामन से हो गए मंसूब,
ख़ुदा करे उन्हें बाज़ार की हवा न लगे।।

न जाने क्या है किसी की उदास आँखों में,
वो मुँह छुपा के भी जाए तो बेवफ़ा न लगे।।

तू इस तरह से मिरे साथ बेवफ़ाई कर,
कि तेरे बा'द मुझे कोई बेवफ़ा न लगे।।

तुम आँख मूँद के पी जाओ ज़िंदगी 'क़ैसर'
कि एक घूँट में मुमकिन है बद-मज़ा न लगे।।

________'क़ैसर'-उल जाफ़री
गायक:- अनूप जलोटा
 

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अपनी तन्हाई की पलकों को भिगो लूँ पहले।
फिर ग़ज़ल तुझ पे लिखूँ बैठ के रो लूँ पहले।।

ख़्वाब के साथ कहीं खो न गई हो आँखें,
जब उठूँ सो के तो चेहरे को टटोलूँ पहले।।

मेरे ख़्वाबों को है मौसम पे भरोसा कितना,
बा'द में फूल खिलें हार पिरो लूँ पहले।।

देखना है वो ख़फ़ा रहता है मुझ से कब तक,
मैं ने सोचा है कि इस बार न बोलूँ पहले।।

दोस्तों ने मुझे वो दाग़ दिए हैं 'क़ैसर'
वो भी आ जाएँ तो दरवाज़ा न खोलूँ पहले।।

________'क़ैसर'-उल जाफ़री
 

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सहमी है शाम जागी हुई रात इन दिनों।
कितने ख़राब हो गए हालात इन दिनों।।

या'नी कि मैं ख़ुदा से बहुत दूर हो गया,
उठते नहीं दुआ को मिरे हाथ इन दिनों।।

रूठी हुई है चाँद से इक चाँदनी दुल्हन,
बे-नूर है ये तारों की बारात इन दिनों।।

ना-आश्ना-ए-सोज़िश-ए-ग़म है तमाम शहर,
समझे न तुम भी हिद्दत-ए-जज़्बात इन दिनों।।

उतरा है मेरी आँख में बादल का इक हुजूम,
हर सुब्ह-ओ-शाम होती है बरसात इन दिनों।।

मुद्दत हुई कि छूट गया ख़ुद से अपना नफ़्स,
तुम से भी हो सकी न मुलाक़ात इन दिनों।।

ये शेर-ओ-शायरी का ही फ़ैज़ान है 'क़मर'
दुश्मन भी कर रहा है तिरी बात इन दिनों।।

________क़मर अब्बास 'क़मर'
 
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