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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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गुज़र गए हैं जो मौसम कभी न आएँगे।
तमाम दरिया किसी रोज़ डूब जाएँगे।।

सफ़र तो पहले भी कितने किए मगर इस बार,
ये लग रहा है कि तुझ को भी भूल जाएँगे।।

अलाव ठंडे हैं लोगों ने जागना छोड़ा,
कहानी साथ है लेकिन किसे सुनाएँगे।।

सुना है आगे कहीं सम्तें बाँटी जाती हैं,
तुम अपनी राह चुनो साथ चल न पाएँगे।।

दुआएँ लोरियाँ माओं के पास छोड़ आए,
बस एक नींद बची है ख़रीद लाएँगे।।

ज़रूर तुझ सा भी होगा कोई ज़माने में,
कहाँ तलक तिरी यादों से जी लगाएँगे।।

________आशुफ़्ता चंगेजी
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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दोस्तों की बज़्म में साग़र उठाए जाएँगे।
चाँदनी रातों के क़िस्से फिर सुनाए जाएँगे।।

आज मक़्तल में लगा है सर-फिरों का इक हुजूम,
फिर किसी क़ातिल के जौहर आज़माए जाएँगे।।

ज़िक्र फिर गुज़रे ज़मानों का वहाँ छिड़ जाएगा,
वक़्त के चेहरे से फिर पर्दे उठाए जाएँगे।।

चल पड़ेगा फिर बयाँ इक चाँद से रुख़्सार का,
याद फिर ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ख़म दिलाए जाएँगे।।

बात चल निकलेगी फिर इक़रार की इंकार की,
फिर वही बचपन के भूले गीत गाए जाएँगे।।

याद आएँगे फ़साने यूँ तो सब को बज़्म में,
कुछ कहेंगे और कुछ बस मुस्कुराए जाएँगे।।

जो अँधेरे ढूँढते हैं मुँह छुपाने के लिए,
रौशनी के रू-ब-रू इक दिन वो लाए जाएँगे।।

मौत ने हर बज़्म की सूरत बदल डाली यहाँ,
रह गए कुछ यार सो वो भी उठाए जाएँगे।।

आ चलें 'आज़िम' पुराने दोस्तों के दरमियाँ,
याद की बस्ती में फिर कुछ गुल खिलाए जाएँगे।।

________'आज़िम' कोहली
 

Mr. Perfect

"Perfect Man"
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Waahh The_InnoCent bhai. Kamaal ki shayri hain______

गुज़र गए हैं जो मौसम कभी न आएँगे।
तमाम दरिया किसी रोज़ डूब जाएँगे।।

सफ़र तो पहले भी कितने किए मगर इस बार,
ये लग रहा है कि तुझ को भी भूल जाएँगे।।

अलाव ठंडे हैं लोगों ने जागना छोड़ा,
कहानी साथ है लेकिन किसे सुनाएँगे।।

सुना है आगे कहीं सम्तें बाँटी जाती हैं,
तुम अपनी राह चुनो साथ चल न पाएँगे।।

दुआएँ लोरियाँ माओं के पास छोड़ आए,
बस एक नींद बची है ख़रीद लाएँगे।।

ज़रूर तुझ सा भी होगा कोई ज़माने में,
कहाँ तलक तिरी यादों से जी लगाएँगे।।

________आशुफ़्ता चंगेजी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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गुलों को चूम कर आई सबा सी लगती थी।
थी इक नज़र पे मोअ'त्तर हवा सी लगती थी।।

मैं ज़ख़्म ज़ख़्म था लेकिन गुलाब हाथों में,
बड़ी थी चोट तो लेकिन ज़रा सी लगती थी।।

वो तुर्श-गो लब-ए-जाँ-बख़्श भी था क्या कहिए,
कि तल्ख़ बात भी उस की दवा सी लगती थी।।

सितम को हुस्न-ए-सितम कर गया वही वर्ना,
यही थी ज़िंदगी लेकिन सज़ा सी लगती थी।।

मिरी तड़प को समझता था इक इबादत वो,
मुझे भी उस की मोहब्बत दुआ सी लगती थी।।

चलो वो आँख में पानी तो दे गया वर्ना,
ये साँस अंधे कुएँ में सदा सी लगती थी।।

_________आर पी शोख़
 

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अभी हमारी मोहब्बत किसी को क्या मालूम।
किसी के दिल की हक़ीक़त किसी को क्या मालूम।।

यक़ीं तो ये है वो ख़त का जवाब लिक्खेंगे,
मगर नविश्ता-ए-क़िस्मत किसी को क्या मालूम।।

ब-ज़ाहिर उन को हया-दार लोग समझे हैं,
हया में जो है शरारत किसी को क्या मालूम।।

क़दम क़दम पे तुम्हारे हमारे दिल की तरह,
बसी हुई है क़यामत किसी को क्या मालूम।।

ये रंज ओ ऐश हुए हिज्र ओ वस्ल में हम को,
कहाँ है दोज़ख़ ओ जन्नत किसी को क्या मालूम।।

जो सख़्त बात सुने दिल तो टूट जाता है,
इस आईने की नज़ाकत किसी को क्या मालूम।।

किया करें वो सुनाने को प्यार की बातें,
उन्हें है मुझ से अदावत किसी को क्या मालूम।।

ख़ुदा करे न फँसे दाम-ए-इश्क़ में कोई,
उठाई है जो मुसीबत किसी को क्या मालूम।।

अभी तो फ़ित्ने ही बरपा किए हैं आलम में,
उठाएँगे वो क़यामत किसी को क्या मालूम।।

जनाब-ए-'दाग़' के मशरब को हम से तो पूछो,
छुपे हुए हैं ये हज़रत किसी को क्या मालूम।।

________'दाग़' देहलवी
 

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ज़िंदगी कर गई तूफ़ाँ के हवाले मुझ को।
ऐ अजल कशमकश-ए-ग़म से छुड़ा ले मुझ को।।

कुछ तो ले काम तग़ाफ़ुल से वफ़ा के पैकर,
ये तिरा प्यार कहीं मार न डाले मुझ को।।

वाह री क़िस्मत कि कहाँ मंज़िल-ए-मक़्सूद मिली,
जब मज़ा देने लगे पाँव के छाले मुझ को।।

आख़िरी वक़्त तलक साथ अंधेरों ने दिया,
रास आते नहीं दुनिया के उजाले मुझ को।।

कोई भी मोहसिन ओ रहबर ही नहीं है मेरा,
यूँ तो 'दानिश' हैं बहुत चाहने वाले मुझ को।।

________'दानिश' अलीगढ़ी
 

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सफ़र में ऐसे कई मरहले भी आते हैं।
हर एक मोड़ पे कुछ लोग छूट जाते हैं।।

ये जान कर भी कि पत्थर हर एक हाथ में है,
जियाले लोग हैं शीशों के घर बनाते हैं।।

जो रहने वाले हैं लोग उन को घर नहीं देते,
जो रहने वाला नहीं उस के घर बनाते हैं।।

जिन्हें ये फ़िक्र नहीं सर रहे रहे न रहे,
वो सच ही कहते हैं जब बोलने पे आते हैं।।

कभी जो बात कही थी तिरे तअल्लुक़ से,
अब उस के भी कई मतलब निकाले जाते हैं।।

_______आबिद अदीब
 

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बाग़-ए-दिल में कोई ग़ुंचा न खिला तेरे बाद।
भूल कर आई न इस सम्त सबा तेरे बाद।।

तेरी ज़ुल्फ़ों की महक तेरे बदन की ख़ुशबू,
ढूँढती फिरती है इक पगली हवा तेरे बाद।।

वही मेले वही पनघट वही झूले वही गीत,
गाँव में पर कोई तुझ सा न मिला तेरे बाद।।

अंधी रातों की स्याही मिरा मक़्दूर हुई,
कोई तारा मिरे आँगन न गिरा तेरे बाद।।

दे दिया अपने दिल-ओ-जान का इक इक क़तरा,
और क्या चाहती है तेरी सदा तेरे बाद।।

जिस्म मेरा था मगर रूह का मालिक था और,
कैसी अय्यारी का ये राज़ खुला तेरे बाद।।

हद-ए-इमकान तलक किरनें वफ़ा की बिखरें,
जिस्म मेरा कई ज़ख़्मों से सजा तेरे बाद।।

तू ही ग़ालिब नहीं इक जौर-ए-फ़लक का मारा,
मेरे घर आया है तूफ़ान-ए-बला तेरे बाद।।

किसी ख़ुश-फ़हमी में रहता है तू बदनाम-'नज़र'
कौन रक्खेगा तुझे याद भला तेरे बाद।।

________बदनाम 'नज़र'
 

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रात दिन उस के तमाशे देखता रहता हूँ मैं।
क्या बताऊँ किस क़दर हैरत-ज़दा रहता हूँ मैं।।

जानता हूँ ये हवा मुझ को उड़ा ले जाएगी,
बाँधता फिर भी नहीं ख़ुद को खुला रहता हूँ मैं।।

चाँद सूरज क़ुमक़ुमों ने क्या बिगाड़ा है मिरा,
रौशनी वालों से इतना क्यूँ ख़फ़ा रहता हूँ मैं।।

बंध गए हैं अब्र कुछ दामन से मेरे इस तरह,
कोई भी मौसम हो चाहे भीगता रहता हूँ मैं।।

सूरतें जो आश्ना थीं हो गईं धुंदली सभी,
अब तो बस परछाइयों से ही घिरा रहता हूँ मैं।।

दस्तकें तो छोड़िए आवाज़ भी लाज़िम नहीं,
मैं हूँ दरवाज़ा मोहब्बत का खुला रहता हूँ मैं।।

________देशराज क़ैफ
 
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