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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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तू काश मिले मुझ को अकेली तो बताऊँ।
सुलझे मिरी क़िस्मत की पहेली तो बताऊँ।।

आने से तिरे पहले ख़बर दे दी हवा ने,
आँखों पे मिरे रख तू हथेली तो बताऊँ।।

महके हैं तिरे जिस्म की ख़ुशबू से फ़ज़ाएँ,
नाराज़ न हों चम्पा चमेली तो बताऊँ।।

क्यों तेरे मुक़द्दर में नहीं मेरी मोहब्बत,
दिखलाए तू बे-रंग हथेली तो बताऊँ।।

वीरानियाँ तन्हाइयाँ मौसम है ख़िज़ाँ का,
अनवार करो दिल की हवेली तो बताऊँ।।

चेहरे पे मिरे राज़ टटोला न करो तुम,
हमराज़ बने आँख नशीली तो बताऊँ।।

इज़हार-ए-मोहब्बत की तलब दिल में लिए हूँ,
तन्हा जो मिले तेरी सहेली तो बताऊँ।।

आँखों में तिरी याद कहीं ज़ख़्म न कर दे,
निकले ये अगर फाँस नुकीली तो बताऊँ।।

_________चाॅद अकबराबादी
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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थक जाता हूँ रोज़ के आने जाने में।
मेरा बिस्तर लगवा दो मयख़ाने में।।

उस के हाथ में फूल है मत कहिए कहिए,
उस का हाथ है फूल को फूल बनाने में।।

मैं कब से मौक़े की ताक़ में हूँ उस को,
जान-ए-मन कह दूँ जाने अनजाने में।।

आँखों में मत रोक मुझे जाना है उधर,
ये रस्ता खुलता है जिस तह-ख़ाने में।।

लाद न उस के हुस्न का इतना बोझ 'चराग़'
आ जाएगी मोच ग़ज़ल के शाने में।।

_________'चराग़' शर्मा
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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लम्हा वो तेरी याद का ऐसे गुज़र गया।
जैसे कि फूल शाख़ से टूटा बिखर गया।।

कल छाँव मिल सकेगी सभी को ये सोच कर,
जिस ने लगाए पेड़ वो बूढ़ा किधर गया।।

जो पत्थरों के बदले में देता था फल मुझे,
दौर-ए-ख़िज़ाँ बता तू कहाँ वो शजर गया।।

क़ाएम है दिल में आज भी उड़ने का हौसला,
सय्याद-ए-वक़्त लाख मिरे पर कतर गया।।

धड़कन सुनाई देती थी हर एक लफ़्ज़ में,
क्या जाने शाइरी से कहाँ वो हुनर गया।।

_________चन्दर वाहिद
 

Niks96

A professional writer is amateur who didn't quit
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तू काश मिले मुझ को अकेली तो बताऊँ।
सुलझे मिरी क़िस्मत की पहेली तो बताऊँ।।

आने से तिरे पहले ख़बर दे दी हवा ने,
आँखों पे मिरे रख तू हथेली तो बताऊँ।।

महके हैं तिरे जिस्म की ख़ुशबू से फ़ज़ाएँ,
नाराज़ न हों चम्पा चमेली तो बताऊँ।।

क्यों तेरे मुक़द्दर में नहीं मेरी मोहब्बत,
दिखलाए तू बे-रंग हथेली तो बताऊँ।।

वीरानियाँ तन्हाइयाँ मौसम है ख़िज़ाँ का,
अनवार करो दिल की हवेली तो बताऊँ।।

चेहरे पे मिरे राज़ टटोला न करो तुम,
हमराज़ बने आँख नशीली तो बताऊँ।।

इज़हार-ए-मोहब्बत की तलब दिल में लिए हूँ,
तन्हा जो मिले तेरी सहेली तो बताऊँ।।

आँखों में तिरी याद कहीं ज़ख़्म न कर दे,
निकले ये अगर फाँस नुकीली तो बताऊँ।।

_________चाॅद अकबराबादी
थक जाता हूँ रोज़ के आने जाने में।
मेरा बिस्तर लगवा दो मयख़ाने में।।

उस के हाथ में फूल है मत कहिए कहिए,
उस का हाथ है फूल को फूल बनाने में।।

मैं कब से मौक़े की ताक़ में हूँ उस को,
जान-ए-मन कह दूँ जाने अनजाने में।।

आँखों में मत रोक मुझे जाना है उधर,
ये रस्ता खुलता है जिस तह-ख़ाने में।।

लाद न उस के हुस्न का इतना बोझ 'चराग़'
आ जाएगी मोच ग़ज़ल के शाने में।।

_________'चराग़' शर्मा
लम्हा वो तेरी याद का ऐसे गुज़र गया।
जैसे कि फूल शाख़ से टूटा बिखर गया।।

कल छाँव मिल सकेगी सभी को ये सोच कर,
जिस ने लगाए पेड़ वो बूढ़ा किधर गया।।

जो पत्थरों के बदले में देता था फल मुझे,
दौर-ए-ख़िज़ाँ बता तू कहाँ वो शजर गया।।

क़ाएम है दिल में आज भी उड़ने का हौसला,
सय्याद-ए-वक़्त लाख मिरे पर कतर गया।।

धड़कन सुनाई देती थी हर एक लफ़्ज़ में,
क्या जाने शाइरी से कहाँ वो हुनर गया।।

_________चन्दर वाहिद
बहुत सुन्दर :applause:
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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मुझ पे मिज़राब तो है साज़ कहाँ से लाऊँ।
दिल में घर करने के अंदाज़ कहाँ से लाऊँ।।

मेरे गीतों में भी पुर-कैफ़ कशिश है लेकिन,
हो असर जिस में वो आवाज़ कहाँ से लाऊँ।।

मेरी हर बात बता देती हैं मेरी आँखें,
जो रहे दिल में ही वो राज़ कहाँ से लाऊँ।।

इंतिहा है तो कोई इब्तिदा लाज़िम होगी,
अपने अंजाम का आग़ाज़ कहाँ से लाऊँ।।

मेरे सीने में भी उड़ने की ललक है लेकिन,
तोड़ दे पिंजरा वो पर्वाज़ कहाँ से लाऊँ।।

_________चन्दर वाहिद
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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जो मेरी छत का रस्ता चाँद ने देखा नहीं होता।
तो शायद चाँदनी ले कर यहाँ उतरा नहीं होता।।

दुआएँ दो तुम्हें मशहूर हम ने कर दिया वर्ना,
नज़र-अंदाज़ कर देते तो ये जल्वा नहीं होता।।

अभी तो और भी मौसम पड़े है मेरे साए में,
मैं बरगद का शजर हूँ मुद्दतों बूढ़ा नहीं होता।।

हसीनों से तमन्ना-ए-वफ़ा कम-ज़र्फ़ रखते हैं,
ये ऐसा ख़्वाब है जो उम्र-भर पूरा नहीं होता।।

बड़े एहसान हैं मुझ पर तिरी मासूम यादों के,
मैं तन्हा रास्तो में भी कभी तन्हा नहीं होता।।

मैं जब जब शेर की गहराइयों में डूब जाता हूँ,
सिवा तेरे मिरे दिल में कोई चेहरा नहीं होता।।

________चित्रांश खरे
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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न सियो होंट न ख़्वाबों में सदा दो हम को।
मस्लहत का ये तक़ाज़ा है भुला दो हम को।।

जुर्म-ए-सुक़रात से हट कर न सज़ा दो हम को,
ज़हर रक्खा है तो ये आब-ए-बक़ा दो हम को।।

बस्तियाँ आग में बह जाएँ कि पत्थर बरसें,
हम अगर सोए हुए हैं तो जगा दो हम को।।

हम हक़ीक़त हैं तो तस्लीम न करने का सबब,
हाँ अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो मिटा दो हम को।।

ख़िज़्र मशहूर हो इल्यास बने फिरते हो,
कब से हम गुम हैं हमारा तो पता दो हम को।।

ज़ीस्त है इस सहर-ओ-शाम से बेज़ार ओ ज़ुबूँ,
लाला-ओ-गुल की तरह रंग-ए-क़बा दो हम को।।

शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक,
सोच कर जुर्म-ए-तमन्ना की सज़ा दो हम को।।

जुरअत-ए-लम्स भी इम्कान-ए-तलब में है मगर,
ये न हो और गुनाहगार बना दो हम को।।

क्यूँ न उस शब से नए दौर का आग़ाज़ करें,
बज़्म-ए-ख़ूबाँ से कोई नग़्मा सुना दो हम को।।

मक़्सद-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर,
बैठ जाएँगे जहाँ चाहो बिठा दो हम को।।

हम चटानें हैं कोई रेत के साहिल तो नहीं,
शौक़ से शहर-पनाहों में लगा दो हम को।।

भीड़ बाज़ार-ए-समाअत में है नग़्मों की बहुत,
जिस से तुम सामने अभरो वो सदा दो हम को।।

कौन देता है मोहब्बत को परस्तिश का मक़ाम,
तुम ये इंसाफ़ से सोचो तो दुआ दो हम को।।

आज माहौल को आराइश-ए-जाँ से है गुरेज़,
कोई 'दानिश' की ग़ज़ल ला के सुना दो हम को।।

_______एहसान 'दानिश'
 

VIKRANT

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न सियो होंट न ख़्वाबों में सदा दो हम को।
मस्लहत का ये तक़ाज़ा है भुला दो हम को।।

जुर्म-ए-सुक़रात से हट कर न सज़ा दो हम को,
ज़हर रक्खा है तो ये आब-ए-बक़ा दो हम को।।

बस्तियाँ आग में बह जाएँ कि पत्थर बरसें,
हम अगर सोए हुए हैं तो जगा दो हम को।।

हम हक़ीक़त हैं तो तस्लीम न करने का सबब,
हाँ अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो मिटा दो हम को।।

ख़िज़्र मशहूर हो इल्यास बने फिरते हो,
कब से हम गुम हैं हमारा तो पता दो हम को।।

ज़ीस्त है इस सहर-ओ-शाम से बेज़ार ओ ज़ुबूँ,
लाला-ओ-गुल की तरह रंग-ए-क़बा दो हम को।।

शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक,
सोच कर जुर्म-ए-तमन्ना की सज़ा दो हम को।।

जुरअत-ए-लम्स भी इम्कान-ए-तलब में है मगर,
ये न हो और गुनाहगार बना दो हम को।।

क्यूँ न उस शब से नए दौर का आग़ाज़ करें,
बज़्म-ए-ख़ूबाँ से कोई नग़्मा सुना दो हम को।।

मक़्सद-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर,
बैठ जाएँगे जहाँ चाहो बिठा दो हम को।।

हम चटानें हैं कोई रेत के साहिल तो नहीं,
शौक़ से शहर-पनाहों में लगा दो हम को।।

भीड़ बाज़ार-ए-समाअत में है नग़्मों की बहुत,
जिस से तुम सामने अभरो वो सदा दो हम को।।

कौन देता है मोहब्बत को परस्तिश का मक़ाम,
तुम ये इंसाफ़ से सोचो तो दुआ दो हम को।।

आज माहौल को आराइश-ए-जाँ से है गुरेज़,
कोई 'दानिश' की ग़ज़ल ला के सुना दो हम को।।

_______एहसान 'दानिश'
Greatttt shubham bro. Such a mind blowing poetries. :applause::applause::applause:
 
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