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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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रौशनी को तीरगी का क़हर बन कर ले गया।
आँख में महफ़ूज़ थे जितने भी मंज़र ले गया।।

अजनबी सा लग रहा हूँ आज अपने आप को,
आइने के सामने मैं किस का पैकर ले गया।।

क्यूँ नज़र आती नहीं अब काटी सत्ह-ए-आब पर,
खींच कर नद्दी के सर से कौन चादर ले गया।।

फिर हुई आमादा-ए-पैकार पेड़ों से हवा,
फिर कोई झोंका कई पत्ते उड़ा कर ले गया।।

रोकते ही रह गए दीवार-ओ-दर 'आसिफ़' मुझे,
मैं मगर चुप-चाप ख़ुद को घर से बाहर ले गया।।

_______एजाज़ 'आसिफ़'
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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न अपने-आप को इस तरह दर-ब-दर रखते।
पलट के आते अगर हम भी कोई घर रखते।।

अजीब वहशत-ए-शब थी कि शाम ढलते ही,
तमाम लोग मुंडेरों पर अपने सर रखते।।

जो अपनी फ़त्ह के नश्शे में चूर थे वो भला,
सुलगते शहर के मंज़र पे क्या नज़र रखते।।

ये और बात कि सरसब्ज़ थे बहुत लेकिन,
हम ऐसे पेड़ न बन पाए जो समर रखते।।

जिन्हें हवा की रिफ़ाक़त अज़ीज़ थी 'शहज़ाद'
वो अपने पाँव भला क्या ज़मीन पर रखते।।

________क़मर रज़ा 'शहज़ाद'
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए।
मैं पीना चाहता हूँ पिला देनी चाहिए।।

अल्लाह बरकतों से नवाज़ेगा इश्क़ में,
है जितनी पूँजी पास लगा देनी चाहिए।।

दिल भी किसी फ़क़ीर के हुजरे से कम नहीं,
दुनिया यहीं पे ला के छुपा देनी चाहिए।।

मैं ख़ुद भी करना चाहता हूँ अपना सामना,
तुझ को भी अब नक़ाब उठा देनी चाहिए।।

मैं फूल हूँ तो फूल को गुल-दान हो नसीब,
मैं आग हूँ तो आग बुझा देनी चाहिए।।

मैं ताज हूँ तो ताज को सर पर सजाएँ लोग,
मैं ख़ाक हूँ तो ख़ाक उड़ा देनी चाहिए।।

मैं जब्र हूँ तो जब्र की ताईद बंद हो,
मैं सब्र हूँ तो मुझ को दुआ देनी चाहिए।।

मैं ख़्वाब हूँ तो ख़्वाब से चौंकाइए मुझे,
मैं नींद हूँ तो नींद उड़ा देनी चाहिए।।

सच बात कौन है जो सर-ए-आम कह सके,
मैं कह रहा हूँ मुझ को सज़ा देनी चाहिए।।

_________राहत इंदौरी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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मैं लाख कह दूँ कि आकाश हूँ ज़मीं हूँ मैं।
मगर उसे तो ख़बर है कि कुछ नहीं हूँ मैं।।

अजीब लोग हैं मेरी तलाश में मुझ को,
वहाँ पे ढूँड रहे हैं जहाँ नहीं हूँ मैं।।

मैं आइनों से तो मायूस लौट आया था,
मगर किसी ने बताया बहुत हसीं हूँ मैं।।

वो ज़र्रे ज़र्रे में मौजूद है मगर मैं भी,
कहीं कहीं हूँ कहाँ हूँ कहीं नहीं हूँ मैं।।

वो इक किताब जो मंसूब तेरे नाम से है,
उसी किताब के अंदर कहीं कहीं हूँ मैं।।

सितारो आओ मिरी राह में बिखर जाओ,
ये मेरा हुक्म है हालाँकि कुछ नहीं हूँ मैं।।

यहीं हुसैन भी गुज़रे यहीं यज़ीद भी था,
हज़ार रंग में डूबी हुई ज़मीं हूँ मैं।।

ये बूढ़ी क़ब्रें तुम्हें कुछ नहीं बताएँगी,
मुझे तलाश करो दोस्तो यहीं हूँ मैं।।

________राहत इंदौरी
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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यही वफ़ा का सिला है तो कोई बात नहीं।
ये दर्द तुम ने दिया है तो कोई बात नहीं।।

यही बहुत है कि तुम देखते हो साहिल से,
सफ़ीना डूब रहा है तो कोई बात नहीं।।

ये फ़िक्र है कहीं तुम भी न साथ छोड़ चलो,
जहाँ ने छोड़ दिया है तो कोई बात नहीं।।

तुम्ही ने आइना-ए-दिल मिरा बनाया था,
तुम्ही ने तोड़ दिया है तो कोई बात नहीं।।

किसे मजाल कहे कोई मुझ को दीवाना,
अगर ये तुम ने कहा है तो कोई बात नहीं।।

_________राज़ इलाहाबादी
 

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लज़्ज़त-ए-ग़म बढ़ा दीजिए।
आप फिर मुस्कुरा दीजिए।।

चाँद कब तक गहन में रहे,
अब तो ज़ुल्फ़ें हटा दीजिए।।

मेरा दामन बहुत साफ़ है,
कोई तोहमत लगा दीजिए।।

क़ीमत-ए-दिल बता दीजिए,
ख़ाक ले कर उड़ा दीजिए।।

आप अँधेरे में कब तक रहें,
फिर कोई घर जला दीजिए।।

इक समुंदर ने आवाज़ दी,
मुझ को पानी पिला दीजिए।।

________राज़ इलाहाबादी
गायक:- चंदन दास
 

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राज़ ये सब को बताने की ज़रूरत क्या है।
दिल समझता है तिरे ज़िक्र में लज़्ज़त क्या है।।

जिस में मोती की जगह हाथ में मिट्टी आए,
उतनी गहराई में जाने की ज़रूरत क्या है।।

अपने हालात पे माइल-ब-करम वो भी नहीं,
वर्ना इस गर्दिश-ए-दौराँ की हक़ीक़त क्या है।।

क़ाबिल-ए-दीद है आहिस्ता-ख़िरामी उन की,
आ दिखाऊँ तुझे ज़ाहिद कि क़यामत क्या है।।

उन के दामन पे जो गिरता तो पता चल जाता,
ऐ मिरी आँख के आँसू तिरी क़ीमत क्या है।।

बन के आए हैं ख़रीदार अरब के बूढ़े,
हाए मुफ़्लिस तिरी बेटी की भी क़िस्मत क्या है।।

मुँह भी देखा नहीं मैं ने कभी मय-ख़ाने का,
तौबा तौबा मुझे तौबा की ज़रूरत क्या है।।

________राज़ इलाहाबादी
 

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हुजूम-ए-गर्दिश-ए-दौराँ है क्या ग़ज़ल कहिए।
दिल-ओ-दिमाग़ परेशाँ है क्या ग़ज़ल कहिए।।

ये किस ने आग लगा दी गुलों के दामन में,
धुआँ धुआँ सा गुलिस्ताँ है क्या ग़ज़ल कहिए।।

जलाए जाते हैं अब घर में आँसुओं के चराग़,
अजीब जश्न-ए-चराग़ाँ है क्या ग़ज़ल कहिए।।

ये सीटियों की सदा रात का ये सन्नाटा,
सुकूत-ए-शहर-ए-ख़मोशाँ है क्या ग़ज़ल कहिए।।

घिरा हुआ है चमन नरग़ा-ए-सियासत में,
बहार शो'ला-ब-दामाँ है क्या ग़ज़ल कहिए।।

जो 'राज़' मुल्क में अम्न-ओ-अमाँ की बात करे,
अब उस के वास्ते ज़िंदाँ है क्या ग़ज़ल कहिए।।

_________'राज़' इलाहाबादी
 

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मदहोशियों से काम लिया है कभी कभी।
हाथ उन का हम ने थाम लिया है कभी कभी।।

मय-कश भुला सकेंगे न साक़ी का ये करम,
गिरतों को उस ने थाम लिया है कभी कभी।।

साक़ी ने जो पिलाई हमारी ही थी ख़रीद,
हम से भी उस ने दाम लिया है कभी कभी।।

क्या बात है कि तर्क-ए-तअल्लुक़ के बावजूद,
हम ने तुम्हारा नाम लिया है कभी कभी।।

ऐ फ़र्त-ए-शौक़ हम ने तसव्वुर के फ़ैज़ से,
नज़्ज़ारा उन का आम लिया है कभी कभी।।

ठुकराता कैसे हुस्न की इस पेश-कश को मैं,
मजबूर हो के जाम लिया है कभी कभी।।

देखा कभी नहीं उन्हें ऐ 'राज़' बज़्म में,
जल्वा कनार-ए-बाम लिया है कभी कभी।।

__________'राज़' लाइलपूरी
 

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दर्द को अश्क बनाने की ज़रूरत क्या थी।
था जो इस दिल में दिखाने की ज़रूरत क्या थी।।

हम ने जो कुछ भी किया अपनी मोहब्बत में किया,
गो समझते हैं ज़माने की ज़रूरत क्या थी।।

हो जो चाहत तो टपक पड़ती है ख़ुद आँखों से,
ऐ मिरे दोस्त बताने की ज़रूरत क्या थी।।

इतने हस्सास हैं साँसों से पिघल जाते हैं,
बिजलियाँ हम पे गिराने की ज़रूरत क्या थी।।

ऐसे लगता है कि कमज़ोर बहुत है तू भी,
जीत कर जश्न मनाने की ज़रूरत क्या थी।।

_________सादुल्लाह शाह
 
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