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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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ये रात दिन का बदलना नज़र में रहता है।
हमारा ज़ेहन मुसलसल सफ़र में रहता है।।

नज़र में उस की तो वुसअ'त है आसमानों की,
गो देखने को परिंदा शजर में रहता है।।

हमारा नाम वो ले ले तो लोग चौंक उट्ठें,
कि फ़र्द फ़र्द हमारे असर में रहता है।।

शजर शजर जो समर है तो देख ख़ुद को भी,
जहान-ए-नौ का तसव्वुर समर में रहता है।।

हर एक बात का बिल्कुल यक़ीन आया मगर,
हमारा ख़ौफ़ तुम्हारे अगर में रहता है।।

तुझे गुमाँ है कि मंज़िल पे तो पहुँच भी गया,
हर एक शख़्स यहाँ रहगुज़र में रहता है।।

उसे सुकून है इस से कि हम को चैन नहीं,
बस इक जुनून हमारी ख़बर में रहता है।।

नहीं है कुछ भी वो ऐ 'साद' बस ख़याल सा है,
मगर ख़याल का सौदा तो सर में रहता है।।

_________सादुल्लाह 'साद'
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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है उसी शहर की गलियों में क़याम अपना भी।
एक तख़्ती पे लिखा रहता है नाम अपना भी।।

भीगती रहती है दहलीज़ किसी बारिश में,
देखते देखते भर जाता है जाम अपना भी।।

एक तो शाम की बे-मेहर हवा चलती है,
एक रहता है तिरे कू में ख़िराम अपना भी।।

कोई आहट तिरे कूचे में महक उठती है,
जाग उठता है तमाशा किसी शाम अपना भी।।

एक बादल ही नहीं बार-ए-गराँ से नालाँ,
सरगिराँ रहता है इक ज़ोर कलाम अपना भी।।

कोई रस्ता मिरे वीराने में आ जाता है,
उसी रस्ते से निकलता है दवाम अपना भी।।

एक दिल है कि जिसे याद हैं बातें अपनी,
एक मय है कि जिसे रास है जाम अपना भी।।

यूँही लोगों के पस-ओ-पेश में चलते चलते,
गर्द उड़ती है बिखर जाता है नाम अपना भी।।

मुब्तला कार-ए-शब-ओ-रोज़ में है शहर 'नवेद'
और इसी शहर में गुम है कोई काम अपना भी।।

__________अफ़ज़ाल 'नवेद'
 

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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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अपनी आँखों के समंदर में उतर जाने दे।
तेरा मुजरिम हूँ मुझे डूब के मर जाने दे।।

ऐ नए दोस्त मैं समझूँगा तुझे भी अपना,
पहले माज़ी का कोई ज़ख़्म तो भर जाने दे।।

आग दुनिया की लगाई हुई बुझ जाएगी,
कोई आँसू मेरे दामन पर बिखर जाने दे।।

ज़ख़्म कितने तेरी चाहत से मिले हैं मुझको,
सोचता हूँ कि कहूँ तुझसे मगर जाने दे।।

___________________________________
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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लुटा के राह-ए-मोहब्बत में हर ख़ुशी मैं ने।
लिया है ग़म का सहारा अभी अभी मैं ने।।

न जाने क्यूँ तिरी चश्म-ए-करम को सह न सका,
तिरे सितम तो सहे थे हँसी ख़ुशी मैं ने।।

वहीं पे आ गए आँखों में दफ़अ'तन आँसू,
जहाँ भी देख ली हँसती हुई कली मैं ने।।

न खा सकेंगी निगाहें मिरी फ़रेब सुकूँ,
कि धड़कनों ही मैं पाई है ज़िंदगी मैं ने।।

________सबा अफ़ग़ानी
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं।
इश्क़ ही इश्क़ की क़ीमत हो ज़रूरी तो नहीं।।

एक दिन आप की बरहम-निगही देख चुके,
रोज़ इक ताज़ा क़यामत हो ज़रूरी तो नहीं।।

मेरी शम्ओं को हवाओं ने बुझाया होगा,
ये भी उन की ही शरारत हो ज़रूरी तो नहीं।।

अहल-ए-दुनिया से मरासिम भी बरतने होंगे,
हर नफ़स सिर्फ़ इबादत हो ज़रूरी तो नहीं।।

दोस्ती आप से लाज़िम है मगर इस के लिए,
सारी दुनिया से अदावत हो ज़रूरी तो नहीं।।

पुर्सिश-ए-हाल को तुम आओगे उस वक़्त मुझे,
लब हिलाने की भी ताक़त हो ज़रूरी तो नहीं।।

सैकड़ों दर हैं ज़माने में गदाई के लिए,
आप ही का दर-ए-दौलत हो ज़रूरी तो नहीं।।

बाहमी रब्त में रंजिश भी मज़ा देती है,
बस मोहब्बत ही मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं।।

ज़ुल्म के दौर से इकराह-ए-दिली काफ़ी है,
एक ख़ूँ-रेज़ बग़ावत हो ज़रूरी तो नहीं।।

एक मिस्रा भी जो ज़िंदा रहे काफ़ी है 'सबा'
मेरे हर शेर की शोहरत हो ज़रूरी तो नहीं।।

________'सबा' अकबराबादी
 

Mr. Perfect

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Waahh The_InnoCent bhai super duper shayri______


अपनी आँखों के समंदर में उतर जाने दे।
तेरा मुजरिम हूँ मुझे डूब के मर जाने दे।।

ऐ नए दोस्त मैं समझूँगा तुझे भी अपना,
पहले माज़ी का कोई ज़ख़्म तो भर जाने दे।।

आग दुनिया की लगाई हुई बुझ जाएगी,
कोई आँसू मेरे दामन पर बिखर जाने दे।।

ज़ख़्म कितने तेरी चाहत से मिले हैं मुझको,
सोचता हूँ कि कहूँ तुझसे मगर जाने दे।।

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VIKRANT

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उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं।
इश्क़ ही इश्क़ की क़ीमत हो ज़रूरी तो नहीं।।

एक दिन आप की बरहम-निगही देख चुके,
रोज़ इक ताज़ा क़यामत हो ज़रूरी तो नहीं।।

मेरी शम्ओं को हवाओं ने बुझाया होगा,
ये भी उन की ही शरारत हो ज़रूरी तो नहीं।।

अहल-ए-दुनिया से मरासिम भी बरतने होंगे,
हर नफ़स सिर्फ़ इबादत हो ज़रूरी तो नहीं।।

दोस्ती आप से लाज़िम है मगर इस के लिए,
सारी दुनिया से अदावत हो ज़रूरी तो नहीं।।

पुर्सिश-ए-हाल को तुम आओगे उस वक़्त मुझे,
लब हिलाने की भी ताक़त हो ज़रूरी तो नहीं।।

सैकड़ों दर हैं ज़माने में गदाई के लिए,
आप ही का दर-ए-दौलत हो ज़रूरी तो नहीं।।

बाहमी रब्त में रंजिश भी मज़ा देती है,
बस मोहब्बत ही मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं।।

ज़ुल्म के दौर से इकराह-ए-दिली काफ़ी है,
एक ख़ूँ-रेज़ बग़ावत हो ज़रूरी तो नहीं।।

एक मिस्रा भी जो ज़िंदा रहे काफ़ी है 'सबा'
मेरे हर शेर की शोहरत हो ज़रूरी तो नहीं।।

________'सबा' अकबराबादी
Greattt bro. Such a mind blowing poetries. :applause::applause::applause:
 

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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हवा के वास्ते इक काम छोड़ आया हूँ।
दिया जला के सर-ए-शाम छोड़ आया हूँ।।

कभी नसीब हो फ़ुर्सत तो उस को पढ़ लेना,
वो एक ख़त जो तिरे नाम छोड़ आया हूँ।।

हवा-ए-दश्त-ओ-बयाँबाँ भी मुझ से बरहम है,
मैं अपने घर के दर-ओ-बाम छोड़ आया हूँ।।

कोई चराग़ सर-ए-रहगुज़र नहीं न सही,
मैं नक़्श-ए-पा को बहर-गाम छोड़ आया हूँ।।

अभी तो और बहुत उस पे तब्सिरे होंगे,
मैं गुफ़्तुगू में जो इबहाम छोड़ आया हूँ।।

ये कम नहीं है वज़ाहत मिरी असीरी की,
परों के रंग तह-ए-दाम छोड़ आया हूँ।।

वहाँ से एक क़दम भी न जा सकी आगे,
जहाँ पे गर्दिश-ए-अय्याम छोड़ आया हूँ।।

मुझे जो ढूँढना चाहे वो ढूँढ ले 'एजाज़'
कि अब मैं कूचा-ए-गुमनाम छोड़ आया हूँ।।

________'एजाज़' रहमानी
 
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