मैं उन सभी लोगों को धन्यवाद देना चाहती हूं जिन्होंने मेरी पिछली कविता पर अपनी प्रतिक्रियाओं से मुझे प्रेरित किया। आज एक नई कविता शुरू कर रही हूं जो एक कहानी से प्रेरित है जो मैंने यहां ससुर और बहू (कंचन और ससुर) के बीच यौन संबंधों पर पढ़ी है। इसलिए सारा श्रेय उस कहानी के लेखक को जाता है जिसने मुझे यह कविता लिखने के लिए प्रेरित किया
Part 1
मेरे ससुर का पति को आया फोन इस रविवार
बहू को जल्दी भेज दो गांव को सासु है बीमार
अनिल को काम के कारण अभी नहीं था जाना
लेकिन मुझे सुबह की ट्रेन से किया गया रवाना
पूरे रास्ते मैं रही सोचती अब कैसे कटेंगे ये दिन
मेरी चूत तो ना रह पाती थी पति के लन के बिन
औरत तो रह सकती है बिन पिए या बिन खाए
लेकिन अपने तन की भूख औरतसे सही ना जाए
इसी सोच में डूबी -2 मैं फ़िर पहुंच गई ससुराल
और घर जाते ही मैं लगी पूछने सासु माँ का हाल
शाम हुई तो ससुर जी खेतो से घर को आये लौट
पा ससुर को सामने झट से करली घूँघट की ओट
जैसी झुकी मैं छूने को पाँव पल्लू मेरा सरक गया
देख मेरी गोल चुचिया धोती में लौड़ा फ़रक गया
अच्छा किया बहू तुम आ गयी एक बार बुलाने पे
इतनी संस्कारी बहू कहां मीले आज इस जमाने में
आपके जैसे सास ससुर पाये मैने अच्छे थे मेरे कर्म
आप दोनो की नित सेवा करना ही अब है मेरा धर्म
दिन तो अच्छे से गुजर रहे थे पर ये भी थी सच्चाई
पिछले तीन महीने से मेरी चूत की हुई नहीं ठुकाई
इस् गांव की मिट्टी की खुशबू और ठंडी मस्त हवाएँ
मुझको हर पल अपने ही पतिदेव की याद दिलाये
अगली बार मैं अगर पति देव के संग यहां पर आई
तो कभी बाग में और कभी खेत में होगी मेरी ठुकाई
दिन तो युही गुजर जाताथा मेरा पर रातों की तन्हाई
मुझे सपनों में बड़ी याद आती थी मेरी कड़क ठुकाई
पतिदेव से फ़ोन पे मेरी जब भी होती थी कुछ बातें
उनको कहती जल्दी से आ जाओ कट ती नहीं है रातें