बदलाव की कहानी,
मेरी कहानियों में एक अंतर्निहित थीम होती है, बदलाव की, वैसे तो हम लोग हर रोज हर पल बदलते रहते हैं, काल और स्थान के परिप्रेक्ष्य में भी और अपने खुद के परिप्रेक्ष्य में भी,
एक ग्रीक दार्शनिक हेराक्लाइटस ने कहा था, " आप किसी उसी नदी में दुबारा कदम नहीं रख सकते। "
क्योंकि, कुछ नदी बदल जाती है , कुछ आप बदल जाते हैं.
और इस बदलाव में कुछ ऐसे बिंदु भी आते हैं जब वह बदलाव परिलक्षित होने लगता है , जैसे किचेन में चाय का पानी चूल्हे पर चढ़ाने पर गरम तो वह पहले पल से ही होने लगता है , लेकिन जब वह खदबदाने लगता है, भाप निकलने लगती है तो लगता है, हाँ गरम हो गया।
तो बदलाव के ऐसे शिखर इस कहानी में भी कई बार आएं जैसे एक दिशा में बहती नदी किसी दूसरी दिशा में मुड़ जाए, 'इनके' परिप्रेक्ष्य में मैं कहूँगी, जोरू का गुलाम का दूसरा भाग ही, या वो कई भाग जिसमें बर्थडे के तीन दिनों का वर्णन है, उस बदलाव के एक मुख्य बिंदु की तरह थे,
उसी तरह से पिछले कुछ भाग , गुड्डी के साथ हुए बदलाव के लिए,
हाँ एक बात, भले कुछ फोर्स्ड लगे, कुछ जबरदस्ती पर पहली बाद तो इस कहानी के साथ ' फेम डॉम ' का टैग लगा भी है, लेकिन यह बदलाव सिर्फ उन्ही चीजों को बाहर लाता था जो मन में कहीं न कहीं कुलबुलाते रहते हैं, या फ्रायड की शब्दावली का प्रयोग करूँ तो 'इड' जैसे ' सुपर ईगो ' से दबा रहता है, जैसे इनके साथ था , अच्छे बच्चे ये नहीं करते, अच्छे बच्चे वो नहीं करते, एक प्रोटोटाइप से कन्फर्म करके एक्सेप्टेंस पाने की भावना, या गुड्डी के साथ भी जैसे इनकी बर्थ दे के प्रसंग में उन्होंने खुद याद किया, की कैसे में ये जब वो लग रहा था सो रही है तो उन्होंने उसके किशोर बस आ रहे उभारों को कपडे के ऊपर से छुआ था , सहलाया था, और गुड्डी ने फोन पर इनसे बात में भी और पिछले पार्ट्स में भी उसके अंदर के भाव बस बाहर आ गए,
और उन बदलावों के साथ संबंधों का स्वरूप भी एक नया रूप ले लेता है, कुछ खट्टी यादों को मीठे रिश्ते भुला देते हैं,
हाँ ये आरोप लगते हैं , लगते रहेंगे, की मेरी कहानी में चीजों को कुछ ख़ास प्रसंगो को मनोभावों को बहुत बढ़ा चढ़ा कर,
लेकिन ये बात कला के सभी रूपों के लिए सही है, और उनका अभिप्राय भी है , जब हम किसी मशहूर व्यक्ति की नाक बड़ी और पतली नुकीली देखते हैं और उसे पहचान जाते हैं तो कैरकेचरिस्ट का पर्पज सर्व हो जाता है, भले ही वास्तविक जीवन में उसकी नाक इतनी नुकीली या बड़ी न हो,
इसी तरह हमें इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप में एक सेल को जब देखते हैं और माटोकॉंड्रिया, न्यूक्लियस का चित्र खींचते है या कोई जेनटिक बायोलॉजिस्ट जींस की विवेचना करता है
कोई श्रृंगार रस का कवि नायिका के लिए यह कहता है की आँखे कानों से बाते कर रही हैं , लेकिन अगर किसी लड़की की आँखे वास्तव में कानों तक हों तो बजाय सुन्दर लगने के वो अप्राकृतिक ही लगेंगी, पर पढ़ने वाला यह समझ जाता है की नायिका की आँखे बड़ी बड़ी हैं ,
बस इसी तरह, बिना अलंकार के साहित्य आभूषण विहीन स्त्री की तरह है, ( भले ही वह आभूषण लज्जा का , चितवन का या मुस्कान का ही क्यों न हो )
और यह बात इरोटिक रचनाओं में और थोड़ी बढ़ती है क्योंकि उसका भाव ही काम भाव को जगाना है
और हमें यह मानना चाहिए की काम, चार पुरुषार्थों में एक है,
मैं कहानी के साथ पढ़ने वालों से कभी कभी कुछ कहने सुनने की भी कोशिश करतीं और एकदम सन्नाटा हो तो खुद से ही,
तो चलिए एक बार फिर कहानी आगे बढ़ाते हैं,...