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Erotica फागुन के दिन चार

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Mast mast holi ka mazaaaa.
तारीफ़ तो आप जैसे पाठकों की है जो साथ बनाये रखते हैं और कमेंट्स से हिम्मत बढ़ाते रहते हैं

सेक्सी टीनेजर गूंजा की होली का अपडेट बस थोड़ी देर में
 

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1. बनारस की शाम ( पूर्वाभास कुछ झलकियां )

shalwar-10.jpg


हम स्टेशन से बाहर निकल आये थे। मेरी चोर निगाहें छुप छुप के उसके उभार पे,... और मुझे देखकर हल्की सी मुस्कराहट के साथ गुड्डी ने दुपट्टा और ऊपर एकदम गले से चिपका लिया और मेरी ओर सरक आई ओर बोली, खुश।


“एकदम…” और मैंने उसकी कमर में हाथ डालकर अपनी ओर खींच लिया।

“हटो ना। देखो ना लोग देख रहे हैं…” गुड्डी झिझक के बोली।

“अरे लोग जलते हैं। तो जलने दो ना। जलते हैं और ललचाते भी हैं…” मैंने अपनी पकड़ और कसकर कर ली।

“किससे जलते हैं…” बिना हटे मुस्करा के गुड्डी बोली।

“मुझ से जलते हैं की कितनी सेक्सी, खूबसूरत, हसीन…”

मेरी बात काटकर तिरछी निगाहों से देख के वो बोली- “इत्ता मस्का लगाने की कोई जरूरत नहीं…”

“और ललचाते तुम्हारे…” मैंने उसके दुपट्टे से बाहर निकले किशोर उभारों की ओर इशारा किया।

“धत्त। दुष्ट…” और उसने अपने दुपट्टे को नीचे करने की कोशिश की पर मैंने मना कर दिया।

“तुम भी ना,… चलो तुम भी क्या याद करोगे। लोग तुम्हें सीधा समझते हैं…” मुश्कुराकर गुड्डी बोली ओर दुपट्टा उसने और गले से सटा लिया।

“मुझसे पूछें तो मैं बताऊँ की कैसे जलेबी ऐसे सीधे हैं…” और मुझे देखकर इतरा के मुस्करा दी।



“तुम्हारे मम्मी पापा तो…”

मेरी बात काटकर वो बोली- “हाँ सच में स्टेशन पे तो तुमने। मम्मी पापा दोनों ही ना। सच में कोई तुम्हारी तारीफ करता है तो मुझे बहुत अच्छा लगता है…” और उसने मेरा हाथ कसकर दबा दिय

“सच्ची?”

“सच्ची। लेकिन रिक्शा करो या ऐसे ही घर तक ले चलोगे?” वो हँसकर बोली।



चारों ओर होली का माहौल था। रंग गुलाल की दुकानें सजी थी। खरीदने वाले पटे पड़ रहे थे। जगह-जगह होली के गाने बज रहे थे। कहीं कहीं जोगीड़ा वाले गाने। कहीं रंग लगे कपड़े पहने। तब तक हमारा रिक्शा एक मेडिकल स्टोर के सामने से गुजरा ओर वो चीखी- “रोको रोको…”

“क्यों कया हुआ, कुछ दवा लेनी है क्या?” मैंने सोच में पड़ के पूछा।

“हर चीज आपको बतानी जरूरी है क्या?”उस सारंग नयनी ने हड़का के कहा।

वो आगे आगे मैं पीछे-पीछे।

“एक पैकेट माला-डी और एक पैकेट आई-पिल…” मेरे पर्स से निकालकर उसने 100 की नोट पकड़ा दी।


रिक्शे पे बैठकर हिम्मत करके मैंने पूछा- “ये…”

“तुम्हारी बहन के लिए है जिसका आज गुणगान हो रहा था। क्या पता होली में तुम्हारा मन उसपे मचल उठे। तुम ना बुद्धू ही हो, बुद्धू ही रहोगे…” फिर मेरे गाल पे कसकर चिकोटी काटकर उस ने हड़का के कहा।

फिर मेरे गाल पे कसकर चिकोटी काटकर वो बोली-

“तुमसे बताया तो था ना की आज मेरा लास्ट डे है। तो क्या पता। कल किसी की लाटरी निकल जाए…”



मेरे ऊपर तो जैसे किसी ने एक बाल्टी गुलाबी रंग डाल दिया हो, हजारों पिचकारियां चल पड़ी हों साथ-साथ। मैं कुछ बोलता उसके पहले वो रिक्शे वाले से बोल रही थी- “अरे भैया बाएं बाएं। हाँ वहीं गली के सामने बस यहीं रोक दो। चलो उतरो…”

गली के अन्दर पान की दुकान। तब मुझे याद आया जो चंदा भाभी ने बोला था। दुकान तो छोटी सी थी। लेकिन कई लोग। रंगीन मिजाज से बनारस के रसिये। लेकिन वो आई बढ़कर सामने। दो जोड़ी स्पेशल पान।

पान वाले ने मुझे देखा ओर मुश्कुराकर पूछा- “सिंगल पावर या फुल पावर?”

मेरे कुछ समझ में नहीं आया, मैंने हड़बड़ा के बोल दिया- “फुल पावर…”

वो मुश्कुरा रही थी ओर मुझ से बोली- “अरे मीठे पान के लिए भी तो बोल दो। एक…”

“लेकिन मैं तो खाता नहीं…” मैंने फिर फुसफुसा के बोला।

पान वाला सिर हिला हिला के पान लगाने में मस्त था। उसने मेरी ओर देखा तो गुड्डी ने मेरा कहा अनसुना करके बोल दिया- “मीठा पान दो…”

“दो। मतलब?” मैंने फिर गुड्डी से बोला।
वो मुश्कुराकर बोली- “घर पहुँचकर बताऊँगी की तुम खाते हो की नहीं?”

मेरे पर्स से निकालकर उसने 500 की नोट पकड़ा दी। जब चेंज मैंने ली तो मेरे हाथ से उसने ले लिया और पर्स में रख लिया। रिक्शे पे बैठकर मैंने उसे याद दिलाया की भाभी ने वो गुलाब जामुन के लिए भी बोला था।


“याद है मुझे गोदौलिया जाना पड़ेगा, भइया थोड़ा आगे मोड़ना…” रिक्शे वाले से वो बोली।

“हे सुन यार ये चन्दा भाभी ना। मुझे लगता है की लाइन मारती हैं मुझपे…” मैं बोला।



हँसकर वो बोली-


“जैसे तुम कामदेव के अवतार हो। गनीमत मानो की मैंने थोड़ी सी लिफ्ट दे दी। वरना…”

मेरे कंधे हाथ रखकर मेरे कान में बोली- “लाइन मारती हैं तो दे दो ना। अरे यार ससुराल में आये हो तो ससुराल वालियों पे तेरा पूरा हक बनता है। वैसे तुम अपने मायके वाली से भी चक्कर चलाना चाहो तो मुझे कोई ऐतराज नहीं है…”

“लेकिन तुम। मेरा तुम्हारे सिवाय किसी और से…”

“मालूम है मुझे। बुद्धूराम तुम्हारे दिल में क्या है? यार हाथी घूमे गाँव-गाँव जिसका हाथी उसका नाम। तो रहोगे तो तुम मेरे ही। किसी से कुछ। थोड़ा बहुत। बस दिल मत दे देना…”

“वो तो मेरे पास है ही नहीं कब से तुमको दे दिया…”

“ठीक किया। तुमसे कोई चीज संभलती तो है नहीं। तो मेरी चीज है मैं संभाल के रखूंगी। तुम्हारी सब चीजें अच्छी हैं सिवाय दो बातों के…” गुड्डी, टिपिकल गुड्डी

तब तक मिठाई की दुकान आ गई थी ओर हम रिक्शे से उतर गए।

“गुलाब जामुन एक किलो…” मैंने बोला।

“स्पेशल वाले…” मेरे कान में वो फुसफुसाई।

“स्पेशल वाले…” मैंने फिर से दुकानदार से कहा।

“तो ऐसा बोलिए ना। लेकिन रेट डबल है…” वो बोला।

“हाँ ठीक है…” फिर मैंने मुड़कर गुड्डी से पूछा- “हे एक किलो चन्दा भाभी के लिए भी ले लें क्या?”

“नेकी और पूछ पूछ…” वो मुश्कुराई।

“एक किलो और। अलग अलग पैकेट में…” मैं बोला।

पैकेट मैंने पकड़े और पैसे उसने दिए। लेकिन मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं पा रहा था-

“हे तुमने बताया नहीं की स्पेशल क्या? क्या खास बात है बताओ ना…”



“सब चीजें बताना जरूरी है तुमको। इसलिए तो कहती हूँ तुम्हारे अंदर दो बातें बस गड़बड़ हैं। बुद्धू हो और अनाड़ी हो। अरे पागल। होली में स्पेशल का क्या मतलब होगा, वो भी बनारस में…”
बनारसी बाला ने मुस्कराते हुए भेद खोला।


सामने जोगीरा चल रहा था। एक लड़का लड़कियों के कपड़े पहने और उसके साथ।

रास्ता रुक गया था। वो भी रुक के देखने लगी। और मैं भी।



जोगीरा सा रा सा रा। और साथ में सब लोग बोल रहे थे जोगीरा सारा रा।

तनी धीरे-धीरे डाला होली में। तनी धीरे-धीरे डाला होली में।
5 महीने 20 दिन बाद आपकी कहानी पढ़ना शुरू किया है, कोशिश है कि निरंतर पढ़ने का समय मिल सके
 
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फागुन की होली की कोमल सरीखी जीजा साल मस्तियाँ
पूर्वाभास कुछ झलकियां

(२) सुबहे बनारस - गुड्डी और गूंजा
Girl-school-IMG-20231123-070153.jpg
मेरी आँखें जब थोड़ी और नीचे उतरी तो एकदम ठहर गई। उसके उभार। उसके स्कूल की युनिफोर्म, सफेद शर्ट को जैसे फाड़ रहे हों और स्कूल टाई ठीक उनके बीच में, किसी का ध्यान ना जाना हो तो भी चला जाए। परफेक्ट किशोर उरोज। पता नहीं वो इत्ते बड़े-बड़े थे या जानबूझ के उसने शर्ट को इत्ती कसकर स्कर्ट में टाईट करके बेल्ट बाँधी थी।

पता नहीं मैं कित्ती देर तक और बेशर्मों की तरह देखता रहता, अगर गुड्डी ने ना टोका होता- “हे क्या देख रहे हो। गुंजा नमस्ते कर रही है…”

मैंने ध्यान हटाकर झट से उसके नमस्ते का जवाब दिया और टेबल पे बैठ गया। वो दोनों सामने बैठी थी। मुझे देखकर मुश्कुरा रही थी और फिर आपस में फुसफुसा के कुछ बातें करके टीनेजर्स की तरह खिलखिला रही थी। मेरे बगल की चेयर खाली थी।


मैंने पूछा- “हे चंदा भाभी कहाँ हैं?”

“अपने देवर के लिए गरमा-गरम ब्रेड रोल बना रही हैं। किचेन में…” आँख नचाकर गुंजा बोली।

“हम लोगों के उठने से पहले से ही वो किचेन में लगी हैं…” गुड्डी ने बात में बात जोड़ी।

मैंने चैन की सांस ली।

तब तक गुड्डी बोली- “हे नाश्ता शुरू करिए ना। पेट में चूहे दौड़ रहे हैं हम लोगों के और वैसे भी इसे स्कूल जाना है। आज लास्ट डे है होली की छुट्टी के पहले। लेट हो गई तो मुर्गा बनना पड़ेगा…”

“मुर्गा की मुर्गी?” हँसते हुए मैंने गुंजा को देखकर बोला। मेरा मन उससे बात करने को कर रहा था लेकिन गुड्डी से बात करने के बहाने मैंने पूछा- “लेकिन होली की छुट्टी के पहले वाले दिन तो स्कूल में खाली धमा चौकड़ी, रंग, ऐसी वैसी टाइटिलें…”


मेरी बात काटकर गुड्डी बोली- “अरे तो इसीलिए तो जा रही है ये। आज टाइटिलें…”

उसकी बात काटकर गुंजा बीच में बोली- “अच्छा दीदी, बताऊँ आपको क्या टाइटिल मिली थी…”


गुड्डी- “मारूंगी। आप नाश्ता करिए न कहाँ इसकी बात में फँस गए। अगर इसके चक्कर में पड़ गए तो…”

लेकिन मुझे तो जानना था। उसकी बात काटकर मैंने गुंजा से पूछा- “हे तुम इससे मत डरो मैं हूँ ना। बताओ गुड्डी को क्या टाइटिल मिली थी?”

हँसते हुए गुंजा बोली- “बिग बी…”

पहले तो मुझे कुछ समझ नहीं आया ‘बिग बी’ मतलब लेकिन जब मैंने गुड्डी की ओर देखा तो लाज से उसके गाल टेसू हो रहे थे, और मेरी निगाह जैसे ही उसके उभारों पे पड़ी तो एक मिनट में बात समझ में आ गई। बिग बी। बिग बूब्स । वास्तव में उसके अपने उम्र वालियों से 20 ही थे।

गुड्डी ने बात बदलते हुए मुझसे कहा- “हे खाना शुरू करो ना। ये ब्रेड रोल ना गुंजा ने स्पेशली आपके लिए बनाए हैं…”

“जिसने बनाया है वो दे…” हँसकर गुंजा को घूरते हुए मैंने कहा।

मेरा द्विअर्थी डायलाग गुड्डी तुरंत समझ गई। और उसी तरह बोली- “देगी जरूर देगी। लेने की हिम्मत होनी चाहिए, क्यों गुंजा?”

“एकदम…” वो भी मुश्कुरा रही थी। मैं समझ गया था की सिर्फ शरीर से ही नहीं वो मन से भी बड़ी हो रही है।

गुड्डी ने फिर उसे चढ़ाया- “हे ये अपने हाथ से नहीं खाते, इनके मुँह में डालना पड़ता है अब अगर तुमने इत्ते प्यार से इनके लिए बनाया है तो। …”

“एकदम…” और उसने एक किंग साइज गरम ब्रेड रोल निकाल को मेरी ओर बढ़ाया। हाथ उठने से उसके किशोर उरोज और खुलकर। मैंने खूब बड़ा सा मुँह खोल दिया लेकिन मेरी नदीदी निगाहें उसके उरोजों से चिपकी थी।

“इत्ता बड़ा सा खोला है। तो डाल दे पूरा। एक बार में। इनको आदत है…” गुड्डी भी अब पूरे जोश में आ गई थी।

“एकदम…” और सच में उसकी उंगलियां आलमोस्ट मेरे मुँह में और सारा का सारा ब्रेड रोल एक बार में ही।

स्वाद बहुत ही अच्छा था। लेकिन अगले ही पल में शायद मिर्च का कोई टुकड़ा। और फिर एक, दो, और मेरे मुँह में आग लग गई थी। पूरा मुँह भरा हुआ था इसलिए बोल नहीं निकल रहे थे।

वो दुष्ट। गुंजा। अपने दोनों हाथों से अपना भोला चेहरा पकड़े मेरे चेहरे की ओर टुकुर-टुकुर देख रही थी।

“क्यों कैसा लगा, अच्छा था ना?” इतने भोलेपन से उसने पूछा की।

तब तक गुड्डी भी मेरी ओर ध्यान से देखते हुए वो बोली- “अरे अच्छा तो होगा ही तूने अपने हाथ से बनाया था। इत्ती मिर्ची डाली थी…”

मेरे चेहरे से पसीना टपक रहा था।

गुंजा बोली- “आपने ही तो बोला था की इन्हें मिर्चें पसंद है तो। मुझे लगा की आपको तो इनकी पसंद नापसंद सब मालूम ही होगी। और मैंने तो सिर्फ चार मिर्चे डाली थी बाकी तो आपने बाद में…”

इसका मतलब दोनों की मिली भगत थी। मेरी आँखों से पानी निकल रहा था। बड़ी मुश्किल से मेरे मुँह से निकला- “पानी। पानी…”

“ये क्या मांग रहे हैं…” मुश्किल से मुश्कुराहट दबाते हुए गुंजा बोली।

गुड्डी- “मुझे क्या मालूम तुमसे मांग रहे हैं। तुम दो…” दुष्ट गुड्डी भी अब डबल मीनिंग डायलाग की एक्सपर्ट हो गई थी।

पर गुंजा भी कम नहीं थी- “हे मैं दे दूंगी ना तो फिर आप मत बोलना की। …” उसने गुड्डी से बोला।


यहाँ मेरी लगी हुई थी और वो दोनों।

“दे दे। दे दे। आखिर मेरी छोटी बहन है और फागुन है तो तेरा तो…” बड़ी दरियादिली से गुड्डी बोली।

बड़ी मुश्किल से मैंने मुँह खोला, मेरे मुँह से बात नहीं निकल रही थी। मैंने मुँह की ओर इशारा किया।

“अरे तो ब्रेड रोल और चाहिए तो लीजिये ना…” और गुंजा ने एक और ब्रेड रोल मेरी ओर बढ़ाया- “और कुछ चाहिए तो साफ-साफ मांग लेना चाहिए। जैसे गुड्डी दीदी वैसे मैं…”

वो नालायक। मैंने बड़ी जोर से ना ना में सिर हिलाया और दूर रखे ग्लास की ओर इशारा किया। उसने ग्लास उठाकर मुझे दे दिया लेकिन वो खाली था। एक जग रखा था। वो उसने बड़ी अदा से उठाया।

“अरे प्यासे की प्यास बुझा दे बड़ा पुण्य मिलता है…” ये गुड्डी थी।

“बुझा दूंगी। बुझा दूंगी। अरे कोई प्यासा किसी कुंए के पास आया है तो…” गुंजा बोली और नाटक करके पूरा जग उसने ग्लास में उड़ेल दिया। सिर्फ दो बूँद पानी था।

“अरे आप ये गुझिया खा लीजिये ना गुड्डी दीदी ने बनायी है आपके लिए। बहुत मीठी है कुछ आग कम होगी तब तक मैं जाकर पानी लाती हूँ। आप खिला दो ना अपने हाथ से…”

वो गुड्डी से बोली और जग लेकर खड़ी हो गई।

गुड्डी ने प्लेट में से एक खूब फूली हुई गुझिया मेरे होंठों में डाल ली और मैंने गपक ली। झट से मैंने पूरा खा लिया। मैं सोच रहा था की कुछ तो तीतापन कम होगा। लेकिन जैसे ही मेरे दांत गड़े एकदम से, गुझिया के अन्दर बजाय खोवा सूजी के अबीर गुलाल और रंग भरा था। मेरा सारा मुँह लाल। और वो दोनों हँसते-हँसते लोटपोट।

तब तक चंदा भाभी आईं एक प्लेट में गरमागरम ब्रेड रोल लेकर। लेकिन मेरी हालत देखकर वो भी अपनी हँसी नहीं रोक पायीं, कहा- “क्या हुआ ये दोनों शैतान। एक ही काफी है अगर दोनों मिल गई ना। क्या हुआ?”

मैं बड़ी मुश्किल से बोल पाया- “पानी…”

उन्होंने एक जासूस की तरह पूरे टेबल पे निगाह दौडाई जैसे किसी क्राइम सीन का मुआयना कर रही हों। वो दोनों चोर की तरह सिर झुकाए बैठी थी। फिर अचानक उनकी निगाह केतली पे पड़ी और वो मुश्कुराने लगी। उन्होंने केतली उठाकर ग्लास में पोर किया। और पानी।

रेगिस्तान में प्यासे आदमी को कहीं झरना नजर आ जाए वो हालत मेरी हुई। मैंने झट से उठाकर पूरा ग्लास खाली कर दिया। तब जाकर कहीं जान में जान आई। जब मैंने ग्लास टेबल पे रखा तब चन्दा भाभी ने मेरा चेहरा ध्यान से देखा। वो बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोकने की कोशिश कर रही थी लेकिन हँसी रुकी नहीं। और उनके हँसते ही वो दोनों जो बड़ी मुश्किल से संजीदा थी। वो भी। फिर तो एक बार हँसी खतम हो और मेरे चेहरे की और देखें तो फिर दुबारा। और उसके बाद फिर।

“आप ने सुबह। हीहीहीही। आपने अपना चेहरा। ही ही शीशे में। हीहीहीही…” चन्दा भाभी बोली।

“नहीं वो ब्रश नहीं था तो गुड्डी ने। उंगली से मंजन। फिर…” मैंने किसी तरह समझाने की कोशिश की मेरे समझ में कुछ नहीं आ रहा था।



“जाइए जाइए। मैंने मना तो नहीं किया था शीशा देखने को। मगर आप ही को नाश्ता करने की जल्दी लगी थी। मैंने कहा भी की नाश्ता कहीं भागा तो नहीं जा रहा है। लेकिन ये ना। हर चीज में जल्दबाजी…” ऐसे बनकर गुड्डी बोली।

गुंजा- “अच्छा मैं ले आती हूँ शीशा…”

और मिनट भर में गुंजा दौड़ के एक बड़ा सा शीशा ले आई। लग रहा था कहीं वाशबेसिन से उखाड़ के ला रही हो और मेरे चेहरे के सामने कर दिया।

मेरा चेहरा फक्क हो गया। न हँसते बन रहा था ना।

तीनों मुश्कुरा रही थी।

मांग तो मेरी सीधी मुँह धुलाने के बाद गुड्डी ने काढ़ी थी। सीधी और मैंने उसकी शरारत समझा था। लेकिन अब मैंने देखा। चौड़ी सीधी मांग और उसमें दमकता सिन्दूर। माथे पे खूब चौड़ी सी लाल बिंदी, जैसे सुहागन औरतें लगाती है। होंठों पे गाढ़ी सी लाल लिपस्टिक और। जब मैंने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला तो दांत भी सारे लाल-लाल।

अब मुझे बन्दर छाप दन्त मंजन का रहस्य मालूम हुआ और कैसे दोनों मुझे देखकर मुश्कुरा रही थी। ये भी समझ में आया। चलो होली है चलता है।

चन्दा भाभी ने मुझे समझाया और गुंजा को बोला- “हे जाकर तौलिया ले आ…”

उन्होंने गुड्डी से कहा- “हे हलवा किचेन से लायी की नहीं?”

मैं तुरंत उनकी बात काटकर बोला- “ना भाभी अब मुझे इसके हाथ का भरोसा नहीं है आप ही लाइए…”

हँसते हुए वो किचेन में वापस में चली गईं। गुंजा तौलिया ले आई और खुद ही मेरा मुँह साफ करने लगी। वो जानबूझ कर इत्ता सटकर खड़ी थी की उसके उरोज मेरे सीने से रगड़ रहे थे। मैंने भी सोच लिया की चलो यार चलता है इत्ती हाट लड़कियां।

मैंने गुड्डी को चिढ़ाते हुए कहा- “चलो बाकी सब तो कुछ नहीं लेकिन ये बताओ। सिंदूर किसने डाला था?”

गुंजा ने मेरा मुँह रगड़ते हुए पूछा- “क्यों?”

“इसलिए की सिन्दूर दान के बाद सुहागरात भी तो मनानी पड़ेगी ना। अरे सिन्दूर चाहे कोई डाले सुहागरात वाला काम किये बिना तो पूरा नहीं होगा ना काम…” मैंने हँसते हुए कहा।
 

komaalrani

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लगभग एक दशक और कहानी का नवीकरण..
कोई भी दर्जी पुराने कपड़े को छोटा बड़ा करने या कुछ चेंज करने के बजाय नए कपड़े पर काम करना आसान समझता है..
लेकिन आपकी हिम्मत को सलाम...
क्या ही खूब घटनाओं और किरदारों के बीच समन्वय किया है...
नई पात्र श्वेता... छुटकी भी अपने अलग रंग में..
संध्या भाभी के किरदार में इजाफा ..
गुंजा... चंदा भाभी.. दूबे भाभी.. और सबसे बढ़कर गुड्डी...
और रीत तो एवरग्रीन है हीं..
आनंद बाबू का तो जैसे द्रौपदी की चीरहरण हीं हो रहा है... और कृष्ण की तरह दूबे भाभी ने आनंद बाबू को बचा लिया..
हर पात्र अपनी एक अलग छाप छोड़ रहा है...
आपके लिखने की शैली और विविधता साथ में संवादों में हास्य व्यंग्य..
होंठों पर बरबस मुस्कान ले आती है...
और होली के सीन तो जैसे ऊपर से नीचे तक सराबोर कर जाते हैं...
जोगीड़ा... कबीरा.. तो होली का एक अलग हीं समां बना लेते हैं...
साथ में लोकगीत और फिल्मी गानों का सम्मिश्रण ..
छवियों को आँखों के रास्ते दिल में उतार देता है...

और क्या कहूं .. इतना लिखने में हीं एक घंटे से ऊपर लग गया...
तो आपको इतनी बड़ी कहानी के हर सीन को सोचने और फिर लिखने में कितना समय और मेहनत लगता होगा...
और ऊपर से सीन के मुताबिक पिक्चर और GIF खोजना भी कम दुष्कर कार्य नहीं है...
ये तो स्वतः सोचने वाली बात है.. कि आपके इस प्रयास के लिए जितनी भी सराहना करें कम है...
लेकिन शायद आपके कहानी के अनुसार बराबरी करने वाले कमेंट्स लिखने की क्षमता सबमे नहीं है...

यही दिल से कामना है कि आप लिखती रहें और हम अनवरत पढ़ते रहें.

आपका आभार और धन्यवाद.
बी दर्जिन आपकी शुक्रगुजार हैं की आपने हुनर की क़द्र की वर्ना ब्रांडेड और रेडीमेड के जमाने में इन तकलीफो को कौन समझता है।

असल में कोशिश मेरी भी यही थी की किसी तरह बक्से से निकाल के थोड़ा तह वह कर के, झाड़ झुड़ के पुराना माल टिका दूँ, लेकिन मेरी परेशानी ये नहीं की मेरे कहानियों के चाहने वाले कम हैं, वो तो उनकी किस्मत और ऊपर वाले की रहमत है, लेकिन असली परेशानी, जो भी थोड़े बहुत हैं, वो बहुत ही जानकार, नुक्स निकालने वाले और हद दर्जे के जानकार है और मेरी कहानियां भी पक्की बेवफा हैं , जो उनकी वफादार हैं, जैसे लड़की, ससुराल जाने के बाद माँ की जगह सास के साथ खड़ी हो जाती है, ( सास बहु वाली नहीं मेरी कहानी, मोहे रंग दे और छुटकी वाली सास बहू) एकदम उसी तरह।

और गलती मेरी भी थी किसी बच्ची की कोई ड्रेस सीने को दे और जब तक ड्रेस बन के तैयार हो, तो वो बच्ची माशा अल्ला अच्छी खासी जवान हो जाये, तो ड्रेस कैसे फिट आएगी। पायंचे छोटे होंगे, कहीं ज्यादा ही टाइट होगी, तो जब पहली बार यह कहानी पोस्ट हुयी तो जैसे सीरियल में होता है करेक्टर में बदलाव आ जाता है और कई बार शुरूआती दौर से मैच नहीं खाती।पूरे चार साल लग गए थे उस कहानी को पोस्ट होने में

और इस बात को पकड़ा मेरे अजीज दोस्त सूत्रधार जी ने जो बहुत कम बोलते हैं, सूत्र में कहते हैं, लेकिन उस सूत्र में पूरे समीकरण की व्याख्या हो जाती है। और पहली बात उन्होंने पकड़ी रीत के बारे में।

रीत इस कहानी की जान है। लेकिन होली की सीन में जो पहले रीत का जिक्र था वो बाद के ( मध्यांतर के बाद के ) उसके किरदार से मैं ये तो नहीं कहूँगी, की मेल नहीं खाता लेकिन कुछ लोगो को, जिसमे मैं भी शुमार हूँ, दुबारा पढ़ने पर जोर जोर से खटक रहा था। इसलिए बहुत कुछ सम्हाल के रीत में कुछ बदलाव इस तरह करना पड़ा की उसकी अहमियत न कम हो और आगे की पोस्टो से मैच करे ।

दूसरा मामला गुंजा का था, मेरी एक परेशानी और है मैं पोस्ट लिख के कहीं अलग से सेव नहीं करती और किया भी तो कभी डिलीट होगया कभी वाइरस खा गया तो कभी लैपटॉप बदल गया। लेकिन ये काम भी मेरे दोस्तों ने किया, विशेष रूप से जौनपुर जी ने उन्होंने उन्हें पइदी ऍफ़ में बदला, लेकिन पता नहीं क्यों ( और इस फोरम के पी डी ऍफ़ में भी वो गलती है ) एक बड़ा सा भाग छूट गया है, बात गुंजा से शुरू होती है और अचानक आनंद बाबू घर से जाने लगते हैं। तो करीब उस को भी फिर से लिखना पड़ा।

कहानी के बाद के हिस्सों में गुड्डी की बहनो का और गुड्डी की मम्मी का जिक्र बार बार आता है, लेकिन जब आनंद बाबू बनारस में थे बस बहुत हल्का सा, इसलिए वो किरदार भी बढे, और गुड्डी -आनंद बाबू के रिश्ते में रोमांस की शुरुआत की बात भी करनी थी तो ढेर सारा
फ्लैश बैक भी,

और कुछ मित्रों ने इरोटिका कांटेट बढ़ाने की बात की थी तो गुंजा और संध्या भाभी का विस्तार कुछ उसके कारण भी,

बहुत से बाते और भी हैं लेकिन वो स्प्वॉयलर अलर्ट की कैटगरी में आती है।

और आंनद बाबू का नाम भी इस बार बार आया है , कहानी में भी कमेंट्स में भी। परेशानी ये थी की ये मेरी अकेली कहानी है जो एक पुरुष के द्वारा फर्स्ट परसन में है और आनंद बाबू बार बार अपना नाम तो ले नहीं सकते और बातचीत में भी हम कहाँ किसी का नाम लेकर बात करते हैं और गुड्डी शुद्ध भारतीय नारी है, आनंद बाबू पर हक़ जताने में, हड़काने में और उनके मायके वालों को बुरा भला कहने में

लेकिन मेरी एक गुरु हैं, लेडी डाक्टर, उन्होंने मुझे अच्छी तरह समझा दिया की नाम कहानी की जरूरत है तो किसी भी जुगाड़ से पढ़ने वालों के मन में हीरो का नाम तो होना ही चाहिए इसलिए बार बार आनंद बाबू और अपनी होने वाली ससुराल में है तो बाबू ,

अब ये ड्रेस कैसे बन रही है अब आप ऐसे लोग रेगुलर आएंगे तो पता चलेगा ।

एक बार फिर से धन्यवाद, आप पुराने मित्र पाठक है इसलिए आपका इतना समय लिया।
 
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बहुत ही शानदार और लाजवाब अपडेट है पहले बेचारे आनंद को बिना कपड़ो के बाजार जाने का आदेश दे दिया लेकिन दुबे भाभी ने बचा लिया आनंद को कपड़े तो मिले लेकिन दुल्हन की तरह श्रृंगार कर दिया जैसे गावो में बारात जाने के बाद महिला दुल्हन और दूल्हा बनकर मस्ती करती हैं
बहुत बहुत धन्यवाद आपके कमेंट्स के लिए और साथ देने के लिए

अगला अपडेट जल्द
 

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फागुन के दिन चार भाग १९

गुंजा और गुड्डी

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