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Erotica फागुन के दिन चार

motaalund

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और

हम लोग दुकान में घुस गये। एक ग्रासरी की दुकान की तरह बस थोड़ी बड़ी। ये थोक की दुकान थी और पूरे ईस्टर्न यूपी में होली का सामान सप्लाई करती थी। बनारस की गलियां। पतली संकरी और फिर अन्दर एक से एक बड़े मकान, दुकानें बस वैसे ही ये भी। बस थोड़ी ज्यादा चौड़ी।



चौराहे पे दो पोलिस वाले सुस्ता रहे थे। पास में एक मैदान कम कचरा फेंकने की जगह पे कुछ बच्चे क्रिकेट का भविष्य उज्वल करने की कोशिश कर रहे थे, दीवालों पर पोस्टर, वाल राईटिंग पटी पड़ी थी। मर्दानगी वापस लाने वाली दवाओं से लेकर कारपोरेशन के इलेक्शन, भोजपुरी फिल्मों के पोस्टर से बिरहा के मुकाबले तक।



दुकान के दरवाजे के पास ही दीवाल पर मोटा-मोटा लिखा था- “देखो गधा मूत रहा है…” वहां गधा तो कोई था नहीं हाँ एक सज्जन जरूर साईकिल दीवार के सहारे खड़ी करके लघुशंका का निवारण कर रहे थे। एक गाय वीतरागी ढंग से चौराहे के बीचोबीच बैठी थी। दो-तीन सामान ढोने वाले टेम्पो और एक छोटा ट्रक दुकान से सटकर खड़ा था। उसमें उसी दुकान से सामान लादा जा रहा था। टेम्पो शायद आस पास के बाजारों के लिए और ट्रक आजमगढ़ बलिया के लिए।



दुकान के अन्दर भी बहुत भीड़-भाड़ नहीं थी। थोक की दुकान थी और नार्मली शायद वो फुटकर सामान नहीं बेचते थे। हाँ दो-तीन लोग जिनके ट्रक और टेम्पो बाहर खड़े थे, वो थे और दुकान के मालिक तनछुई सिल्क का कुरता पाजामा पहने उन लोगों से मौसम का हाल से लेकर राष्ट्रीय राजनीति पर चर्चा कर रहे थे।
आँखों देखा ऐसा नजारा..
जैसे सबकुछ सामने घटित हो रहा हो....
 

motaalund

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कोमल मैम

शानदार अपडेट, और मेरे जैसे पूर्व पाठक तो निश्चित ही सांस रोक कर पढ़ रहे होंगे।

सादर
सही कहा श्रीमान...
क्या पता ऊँट किस करवट बैठ जाए...
 
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motaalund

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शाॅपिंग के बहाने गुड्डी का वही दिलकश अंदाज ! वही हंसी - परिहास ! वही दिल्लगीपन !
एक बार फिर से गुड्डी के इस अल्हड़पन चरित्र का बेहतरीन वर्णन किया आपने ।
इस शाॅपिंग के दौरान आनंद साहब की वही झिझक , शर्मिलापन दिखाई पड़ी जिसका ताना अक्सर गुड्डी देती रहती है ।
इसके बाद दोनो का एक साथ बुक स्टाल पर अश्लील किताबें खरीदना , फिर फुर्सत के क्षणों मे गुड्डी द्वारा आनंद साहब का इरोटिक मसाज करना , शावर के नीचे स्नान करना और अंत मे गुड्डी का आनंद साहब को लिप सर्विस देना ; हर जगह हर मौके पर बस गुड्डी ही गुड्डी का जलवा था ।
" भांग की पकौड़ी " यह बुक्स काफी साल पहले मैने पढ़ा था । दो फ्रैंड एक दिन पिकनिक स्पाट पर जाते हैं जहां उनकी मुलाकात दो खुबसूरत लड़कियों से होती हैं । इन सभी चारों के दरम्यान सेक्सुअल सम्बन्ध स्थापित होता है लेकिन ट्विस्ट यह है कि इन्ही मे एक लड़की उन एक लड़के की भाभी बन जाती है । यह कहानी काफी इरोटिक थी ।

अंतिम पैराग्राफ मे आपने उत्तर प्रदेश और बिहार के उन नुक्कड़ , उन चाय दुकान , उन महफिल का जिक्र किया जहां पर मर्द अक्सर राजनीतिक बातें करते रहते हैं । यह हंड्रेड पर्सेंट सच है । राजनीति पर ऐसी चर्चा शायद पुरे हिन्दुस्तान मे न होती हो जितना हमारे उत्तर प्रदेश और बिहार मे होता है ।

इरोटिका प्रसंग के साथ साथ रियलिस्टिक घटनाक्रम का वर्णन आप के लेखनी का उत्कृष्ट तत्व है ।
बहुत ही बेहतरीन अपडेट कोमल जी ।
हमेशा की तरह आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग अपडेट ।
हर तरफ जलवा.. जलवा..
गुड्डी का हीं जलवा...
 

motaalund

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Its very difficult to comment.
As I have been forced logged out in every two minutes.
Many times what ever have been typed is lost too.
Even after multiple login attempt I am able to get logged in for hardly a minute or two.
 

motaalund

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बहुत बहुत आभार

आप ऐसे सुहृदय पाठकों की संख्या बढे जो पढ़ने के साथ अपनी बात भी रखें, बस यही चाहती हूँ मैं , और फिर कहानी की गति बढ़ाना जयादा आसान होगा।

मैंने सोचा था की दिसंबर से हर सप्ताह पोस्ट करुँगी, लेकिन अगर एक बार में मैं ६-७ पार्ट्स पोस्ट करती हूँ तो ६-७ कमेंट्स की उम्मीद तो रहती ही है

अब आगे आगे देखिये,
६-७ कमेंट्स या ६-७ लोगों से कमेंट्स?
 

motaalund

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आप ने चार लाइनों में ही पूरी पोस्ट का चित्र खींच दिया, गुड्डी के अल्लड़पन और मस्ती का और आनंद बाबू की झिझक और हिचक का ।

और ये बात भी आपकी सही है की हर जगह गुड्डी का ही जलवा था, और आगे भी रहेगा

मेरी तीनो कहानियां बदलाव के मोड़ पर कड़ी हैं, इस कहानी में भी थोड़ा रस परिवर्तन होगा और उस की कुछ भूमिका इस पोस्ट के आखिरी हिस्से में भी है

बस इन्तजार हैं शायद एक दो आप ऐसे मित्र पाठक और इस भाग को पढ़ लें, कुछ कमेंट दे। इसी हफ्ते अगली पोस्ट और एक बहुत बड़ी पोस्ट और अबतक की पोस्टों से एकदम अलग

आपके कमेंट का इन्तजार रहेगा

:thanks: :thanks::thanks::thanks:
मुहब्बत के सुहाने दिन.. जवानी की हसीं रातें...
 

motaalund

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फागुन के दिन चार भाग २५

रंग

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जैसे कोई किसी बच्चे के हाथ से मिठाई छीन ले वही हालत मेरी हो रही थी।



गुड्डी ने मुझसे मेसेज पढ़ते हुये मुझसे कपड़े पहनने का इशारा किया। मेरे पास चारा ही क्या था? मैं बस शर्ट पैंट पहनते हुये उसे देख रहा था। मारो तो तुम्हीं। जिलाओ तो तुम्हीं।

मेसेज पढ़ के पहले तो वो खिलखिलायी, फिर बोली-

“अरे इत्ता मुँह मत बनाओ। यार मुझे एक काम याद आ गया था। असली चीज खरीदना तो मैं भूल ही गई थी और उसकी दुकान शाम को ही बंद हो जाती है और दूसरी बात ये तुम्हारी मलाई, ...अब ये सीधे मेरी भूखी बुल-बुल के अंदर जायेगी और कहीं नहीं। भले ही तुम्हें छ: सात घन्टे इंतजार करना पड़ जाये…”
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मैंने मोबाइल के लिये हाथ बढ़ाया तो उसने मना कर दिया, बोली-

“रास्ते में अभी टाइम नहीं है…”

और हांक के उसने मुझे रेस्टहाउस के कमरे से बाहर कर दिया-

“अरे यार सामान सब मैंने पैक कर दिया है। बस वो जो सामान थोड़ा सा रह गया है। बस एक दुकान है। जल्दी से लेकर। कहीं कुछ खाना हुआ तो खाकर सामान लेकर चल देंगे और एक बार तुम्हारे मायके पहुँच गये तो फिर तो…”

उसने रिक्शे पे बैठते हुये मुझे समझाया।

सामान जो छूट गया था वो रंग गुलाल था। लेकिन कोई खास तरह का। वो बोली-

“यार तुम्हारी भाभी ने स्पेशली बोला था इन रंगों के लिये। रीत के यहां ब्लाक प्रिन्टिंग का काम होता था तो ये लोग यहां से रंग लेते थे एकदम पक्का रंग। दूबे भाभी ने जो कालिख लगायी थी वो भी यहीं से…”

रिक्शा गली-गली होते हुये एक बड़ी सी दुकान के सामने जा पहुँचा, तब उसने रीत का मेसेज दिखाया-

“जीजू। लोग एक पति के लिये तरसते हैं लेकिन आपकी बहना। इतनी कम उमर में बस अगर थोड़ी सी मेहनत कर दे ना तो लखपती बन सकती है। मेरा मतलब मर्दो की संख्या से नहीं था। अब तक उसकी जो बुकिंग आ चुकी है और मैंने कंफर्म की है। बस एक हफ्ते वो बनारस रह जाय और रोज 8-10 घंटे। अब पैसा कमाना है तो मेहनत तो करनी पड़ेगी…”
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हम लोग दुकान में घुस गये। एक ग्रासरी की दुकान की तरह बस थोड़ी बड़ी। ये थोक की दुकान थी और पूरे ईस्टर्न यूपी में होली का सामान सप्लाई करती थी। बनारस की गलियां। पतली संकरी और फिर अन्दर एक से एक बड़े मकान, दुकानें बस वैसे ही ये भी। बस थोड़ी ज्यादा चौड़ी।

चौराहे पे दो पोलिस वाले सुस्ता रहे थे।

पास में एक मैदान कम कचरा फेंकने की जगह पे कुछ बच्चे क्रिकेट का भविष्य उज्वल करने की कोशिश कर रहे थे, दीवालों पर पोस्टर, वाल राईटिंग पटी पड़ी थी। मर्दानगी वापस लाने वाली दवाओं से लेकर कारपोरेशन के इलेक्शन, भोजपुरी फिल्मों के पोस्टर से बिरहा के मुकाबले तक।


दुकान के दरवाजे के पास ही दीवाल पर मोटा-मोटा लिखा था- “देखो गधा मूत रहा है…” वहां गधा तो कोई था नहीं हाँ एक सज्जन जरूर साईकिल दीवार के सहारे खड़ी करके लघुशंका का निवारण कर रहे थे। एक गाय वीतरागी ढंग से चौराहे के बीचोबीच बैठी थी।


दो-तीन सामान ढोने वाले टेम्पो और एक छोटा ट्रक दुकान से सटकर खड़ा था। उसमें उसी दुकान से सामान लादा जा रहा था। टेम्पो शायद आस पास के बाजारों के लिए और ट्रक आजमगढ़ बलिया के लिए।

दुकान के अन्दर भी बहुत भीड़-भाड़ नहीं थी। थोक की दुकान थी और नार्मली शायद वो फुटकर सामान नहीं बेचते थे। हाँ दो-तीन लोग जिनके ट्रक और टेम्पो बाहर खड़े थे, वो थे और दुकान के मालिक तनछुई सिल्क का कुरता पाजामा पहने उन लोगों से मौसम का हाल से लेकर राष्ट्रीय राजनीति पर चर्चा कर रहे थे।

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गुड्डी ने दूर से उन्हें नमस्ते किया और उन्होंने तुरंत पहचान लिया।

वो सिर्फ दूबे भाभी के ब्लाक प्रिंट के लिए सामान ही नहीं सप्प्लाई करते थे, बल्की पारिवारिक मित्र भी थे। और उनकी छोटी लड़की रीत के साथ पढ़ती थी। वो हम लोगों के पास आकर खड़े हो गए।

गुड्डी ने मेरा परिचय कराया और बताया की वो मेरे साथ जा रही है इसलिए रंग और होली के कुछ सामान।

उसकी बात काटकर उन्होंने एक गुमास्ते को बुलाया और कहा की इसको बता दो। मुझे लगा की गुड्डी पता नहीं क्या-क्या बोले और देर भी हो रही थी तो लिस्ट मैंने उसे पकड़ा दी। उन्होंने मेरा परिचय उन सज्जन से भी कराया जिनकी ट्रक बाहर लद रही थी, ये कहकर की तुम्हारे शहर के ही हैं और जब उन्होंने बताया की जायसवाल जनरल स्टोर तो मैं तुरंत समझ गया।

चौक पे डिलाईट टाकिज के बगल में ही तो है, और उन्होंने भी बताया की हमारे घर के लोगों से वो भी परिचित हैं।


तब तक मैंने दुकान के एक कोने में चाइनीज पिचकारियां देखीं तो मैंने उनसे कहा की अरे पिचकारियां भी चीनी,... तो वो हँसकर बोलो चलो तुम्हें दिखलाता हूँ।

तरह-तरह की पिचकारियां, रंग और साथ में ही नीचे खुले डब्बों में हल्दी, धनिया, मिर्च पिसी तरह-तरहकर मसाले तभी मेरी निगाह पीतल की दो पिचकारियों पे पड़ी खूब लम्बी मोटी।

मैंने उनसे पूछा।

हँसकर वो बोले-

“अरे भैया पहले हमको भी शौक था। एक-एक पिचकारी में आधी बाल्टी तक रंग आ जाता है और धार इतनी तीखी की मोटे से मोटा कपड़ा भी फाड़कर रंग अंदर। लेकिन अब किसकी कलाई में इतना जोर है की इसको चलाये? इसलिए तो अब बस प्लास्टिक और वो भी बच्चे। बड़े तो होली खेलने निकलते नहीं और खेलते भी हैं तो सूखे रंग या पोतने वाले रंग। पिचकारी कहाँ…”

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मुझे लगा की इनकी कहानी कहीं लम्बी ना हो जाय इसलिए मैंने सीधे पूछा- “कितने की है?”


वो हँसकर बोले- “अरे ले जाओ तुम जो कहोगे लगा देंगे वैसे ही पड़ी है…”

गुड्डी सामान चेक करके देख रही थी।
मानव मनोविज्ञान और उनके शरारतों पर आपको महारथ हासिल है...
एक-एक दृश्य का वर्णन यूं किया कि सब कुछ आँखों देखा बयान हो रहा हो और एक चलचित्र पेश कर दिया...
 

motaalund

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रंग में भंग
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हमारे कुछ समझ में नहीं आया। जो दुकान के मालिक थे उनका चेहरा एकदम अचानक से उतर गया। सामने दो लड़के खड़े थे, वो दोनों टी-शर्ट और जीन्स में थे 22-24 साल के, कपड़े थोड़े तुड़े मुड़े। दाढ़ी थोड़ी सी बढ़ी। एक के हाथ में साइकिल की चेन लिपटी थी।


उन्होंने घबड़ाकर गुड्डी से कहा-

“बेटा तुम लोग चलो, हम तुम्हारा सामान भेजवा देंगे बाद में। जरा जल्दी निकलो…”

हमने चारों ओर देखा दुकान में कोई नहीं, ना काम करने वाले ना बाकी ग्राहक सभी गायब, और तभी घडरर की आवाज हुई और हमने जब दरवाजे की ओर देखा तो शटर एक आदमी बंद कर रहा था और जब मुड़कर उसने दुकान के मालिक को देखा तो लगता है उन्होंने मौत देख ली।

बस बेहोश नहीं हुए।

उसकी उम्र थोड़ी ज्यादा लग रही थी 28-30 साल की, पैंट के साथ एक काली शर्ट अन्दर टक की हुई। लेकिन मसल्स बहुत डेवलप, पैंट की जेबें थोड़ी फूली कमर के पास भी उसी तरह शर्ट फूली एक हाथ में चांदी का कड़ा। वो कुछ बोला नहीं सिर्फ दुकान के मालिक को देखता रहा।


“आप। आपने बेकार में तकलीफ की, खबर कर देते मैं हाजिर हो जाता। आप मेरी। मुझे तो इन लोगों ने बताया। नहीं की…”

दुकान के मालिक की घिघ्घी बंधी हुई थी। दोनों हाथ जुड़े हुए आँखों में डर नाच रहा था।


वो आदमी कुछ नहीं बोला। बस उन्हें देखता रहा अपनी फूली हुई जेब पे हाथ रखकर। लेकिन जो दोनों हम तीनों के पास खड़े थे उनमें से एक बोला-

“अब तो साहब आ ही गए हैं। तेरे ससुर क नाती। महीना शुरू हुए 10 दिन होई गवा है। होली अब गिन के 4 दिन बची है। त इ छूटकवा आय रहा की नाय। बोल? और ओके टरकाय दिया की… अरे एकरे तो सिर पे खून नाच रहा था। उ तो हम रोके एकरा के, ....की पुरान रिश्ता है। बड़मनई हैं और आप…”

“उ,… उ,..तो बाबू साहब की इहां हम शुरूये में,… और होली के अलगे से…”

जो दुकान के मालिक थे, थोड़ी उनकी हिम्मत बंधी की कोई जैसे गलत फहमी हुई हो और अब वो सुलझ जायेगी। उनके हाथ अभी जुड़े हुए थे।

“बाबू साहब तो ठीक है। लेकिन इहो तो हमरो साहब,… इनके लिए? दो बार फोन करवाये। त का साहेब कुछ बोलते ना तो का कपारे पे चढ़ा के ससुर का नाती नचबा…”

वो आदमी चालू हो गया।

“नहीं नहीं गलती होई गई मालिक माफ कय दिहल जाय। अब आगे से। अबहिंये…”

वो झुके जा रहे थे गिड़गिड़ा रहे थे, बस रो नहीं रहे थे।



“भूल गए। पिछली बार तुम्हरी लौंडिया ले गए थे तीन दिन के लिए, तबे किश्त बंधी थी। तब।....तब बाबू साहेब नहीं इहे साहब बचाए थे, नहीं तो हमार तो पूरा मन था की ससुरी को गाभिन करके भेजते। इ तो साहब तुम्हारि पुरानी,… बस खियाल आ गया। वरना मड़ुआडीह में बैठाय देते। रोज 10-10 मर्द ऊपर से उतरते ना, ता जतना तुम बक रहे हो उतना त उ ससुरी महीना में अपनी चूत से उगल देती। नाहीं तो बम्बई लेजाकर बेच आते। कच्ची माल थी उस बकत। त अब तू आपन दुकान सम्हाला,… अब तोहरी बिटिया एक नई दुकान खोलिहें। और जेतना लेवे के होई हम लोग ले लेब…”

हमलोगों के पास खड़ा आदमी फिर चालू हो गया।

अब तो वो बिचारे अलमोस्ट दंडवत होकर माफी मांगने लगे।


लेकिन गुड्डी बोली, जो दहसी हुई खड़ी थी-


“चाचा जी नहीं…”


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बस गुड्डी का ये बोलना जहर हो गया।

हमारे पास जो दो लोग थे उनमें से जो साइलेंट टाईप का था उसने गुड्डी की बांह कसकर पकड़ ली और अपनी ओर खींच लिया।



दरवाजे के पास खड़ा तीसरा आदमी अब बोला-

“तो ये तुम्हारी भतीजी है?”



“नहीं नहीं जी। ऐसा कुछ नहीं। अरे ऐसे ही बोल रही है सौदा लेने आई थी, बस। ये लोग तो बस जा रहे थे बस। इसका मुझसे कोई लेना देना नहीं, बस छोड़ दीजिये इसे। हे जाओ तुम लोग कहाँ रुके हो? हम सब वो कुछ नहीं रखते। जाओ…”

दरवाजे के पास खड़ा आदमी मुश्कुरा रहा था, और एक हाथ से उसने जेब से गुटका निकाला और खाने लगा।

जिसने गुड्डी को पकड़ रखा था उसने दूसरा हाथ उसकी कमर पे रख दिया और अपनी ओर खींचा कसकर।



दूसरे ने सेठजी का कंधा पकड़ा और कहने लगा-

“अच्छा इनसे कुछ लेना देना नहीं तो ये तुम्हें चाचा जी क्यों बोल रही थी? दूसरे फिर तुम इसे बचाने के लिए काहे झूठ पे झूठ बोले जा रहे हो?”



और जो आदमी गुड्डी को पकड़े हुए था…, उससे बोला-

“हे जरा साली की चूची दाब के तो बता। ये स्साली तो सेठजी की बेटी से भी ज्यादा करारा माल लग रही है…”
पहले पोस्ट के अंत और इस पोस्ट के शुरुआत में कुछ कंटीन्यूटी की कमी लगी..
जैसे दो-चार लाइन पोस्ट होने से रह गए हों...

और पूर्वांचल की विडंबना यही है कि यहाँ इंडस्ट्री से ज्यादा गुंडों की भरमार है...
कोई भी बिजनेस हाउस इन्वेस्ट करने से पहले वहाँ के माहौल को देखती है...
और इसी कारण वहाँ के लोग दूसरे प्रदेशों में जाकर काम-काज ढूंढते हैं...
 

motaalund

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पलटा पासा

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दूसरे ने सेठजी का कंधा पकड़ा और कहने लगा-

“अच्छा इनसे कुछ लेना देना नहीं तो ये तुम्हें चाचा जी क्यों बोल रही थी? दूसरे फिर तुम इसे बचाने के लिए काहे झूठ पे झूठ बोले जा रहे हो?”

और जो आदमी गुड्डी को पकड़े हुए था…, उससे बोला-

“हे जरा साली की चूची दाब के तो बता। ये स्साली तो सेठजी की बेटी से भी ज्यादा करारा माल लग रही है…”

मेरे कुछ समझ में नहीं आ रहा था की क्या करें-

“भैया हम लोगों को जाने दो। हम लोगों से कोई मतलब नहीं है बस। चले जा रहे हैं…”

बोलते गिड़गिड़ाते मैं नीचे झुका, जैसे मैं उनके पाँव पड़ने की की कोशिश कर रहा हूँ। और नीचे झुकते ही रंगों के डिब्बो के साथ-साथ एक खुले बरतन में लाल पिसी मिर्च का पाउडर और बगल में हल्दी का पाउडर।

झुके-झुके लाल पाउडर मैंने उठाया और तेजी से ऊपर उठाते हुए उसकी आँखों में पूरा का पूरा झोंक दिया।

जैसे ही वो सम्हलता, दूसरी मुट्ठी फिर।

अबकी आँख के साथ नाक और मुँह में। छींक से उसकी बुरी हालत हो गई।



तभी गुड्डी ने साथ-साथ, दूसरे आदमी के पैर में अपनी लम्बी तीखी हील भी पहले तो कसकर घुसा दी और फिर गोल-गोल घुमाने लगी। उसकी पकड़ ढीली हो गई और गुड्डी के दोनों हाथ छूट गए। गुड्डी ने उस आदमी के पेट में पूरी ताकत लगाकर अपनी कुहनी दे मारी।



बस वो मौका मिल गया जो मैं चाहता था।

दोनों से एक साथ निपटना असंभव था और दोनों के पास ही हथियार थे। चाकू, कट्टा या ऐसे कुछ भी।

गुड्डी को मैंने हल्का सा धक्का दिया और वो उस आदमी को लिए दिए सामान के ढेर के बीच जा गिरी।

जिसकी आँख में मैंने मिर्च झोंकी थी वो अब कुछ संभल रहा था।

आँखें खोलने की कोशिश करते हुए वो अपने साथी से बोला-

“पकड़ ले साली को। इस सेठ की लौंडिया को तो तीन दिन में छोड़ दिया था सिर्फ एक ओर से मजा लेकर। इसकी तो चूत का भोंसड़ा बना देंगे। और तुझे तो गाण्ड पसंद है न…”

मैं समझ रहा था ये सिर्फ बोल नहीं रहा है।

और हमारे पास सिर्फ एक रास्ता था, हमला।

मैंने जूते पूरी ताकत से उसके घुटने पे दे मारे और एक के बाद एक, चार बार वहीं। एक पैर उसका खतम हो गया।

लेकिन उसके गिरने से पहले ही मैंने एक हाथ से उसे पकड़ा और दूसरे हाथ से एक चाप सीधे उसके कान के नीचे और अब वो जो गिरा तो मैं समझ गया की कुछ देर की छुट्टी।



लेकिन मैं कनखियों से देख रहा था की दूसरा जिसे मैं गुड्डी के साथ धक्का देकर गिरा दिया था अब अपने पैरों पे खड़ा था और उसके हाथ की चेन हवा में लहरा रही थी और अगले ही पल ठीक मेरे ऊपर। अगर मैं झटके से बैठता नहीं। और बैठे-बैठे ही मैंने मेज जिस पर सामान रखा था उसकी ओर दे मारा।

लेकिन वो सम्हल गया और पीछे खिसक गया। चेन अभी भी उसके हाथ में लहरा रही थी। मैं चेन की रेंज से तो बाहर हो गया था, क्योंकि अब बीच में मेज और गिरा हुआ सामान था लेकिन मैं भी उसे पकड़ नहीं सकता था।



तब तक नीचे गिरे आदमी ने उठने की कोशिश की और मैंने बायां हाथ बढ़ाकर उसका दायां हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा। जैसे ही वो थोड़ा उठा, मेरे खाली हाथ ने एक चाप उसके दायें हाथ की कुहनी पे दे मारा और साथ ही में पैर उसके घुटने पे। मैं अपने निशाने के बारे में कांफिडेंट था की अब सारे कार्टिलेज घुटने और कुहनी के गए। और वो अब उठने के काबिल नहीं है।


दूसरा चेन वाला ज्यादा फुर्तीला और स्मार्ट था। मेज से बस वो आधे मिनट ही रुक पाया और घूमकर पीछे से उसने फिर चेन से मेरे ऊपर वार किया। मैं अब फँस गया। मेरे उन आर्म्ड कम्बैट के लेशन तब काम आते जब वो पास में आता और चेन से एक-दो बार से ज्यादा बचना मुश्किल था। वो एक बार अगर हिट कर देती तो। और फिर गुड्डी।



बचते हुए मैं दुकान के दूसरे हिस्से पे आ गया था, जहाँ इन्सेक्ट रिपेलेंट, मास्किटो रिपेलेंट ये सब रखे थे। और अब मैंने चेन वाले को पास आने दिया। वो भी समझदार था अब वो दूर से चेन नहीं घुमा रहा था। अपनी ताकत उसने बचा रखी थी और जब वो मेरे नजदीक आया तो चेन उसने फिर लहराई।

लेकिन मैंने हाथ में पीछे पकड़े काकरोच रिपेलेंट को खोल लिया था और पूरा स्प्रे सीधे उसकी आँख में।

एक पल के लिए उसकी हालत खराब हो गई और इतना वक्त मेरे लिए काफी था और मैंने पहले तो उसकी वो कलाई पकड़कर मोड़ दी जिसमें चेन थी। एक बार क्लाकवाइज और दुबारा एंटीक्लाक वाइज और वो लटक के झूल गई।



उसने बाएं हाथ से चाकू निकालने की कोशिश की, लेकिन तब तक मेरी उंगलियां सारी एक साथ उसके रिब केज पे। वो दर्द से झुककर दुहरा हो गया और मेरी कुहनी उसके गले के निचले हिस्से पे। साथ में घुटना उसकी ठुड्डी पे। जब तक वो सम्हलता मैंने उसकी दूसरी कलाई भी तोड़ दी।



“बचो…” गुड्डी जोर से चीखी।
हीरो भी.. लेकिन साउथ इंडियन हीरो की तरह नहीं...
रियलिस्टिक हीरो...
और उपलब्ध साधनों का भरपूर इस्तेमाल...
साथ में ट्रेनिंग ने सोने पर सुहागा का काम किया...
 

motaalund

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चाक़ू और तीसरा आदमी


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और जब वो मेरे नजदीक आया तो चेन उसने फिर लहराई।

लेकिन मैंने हाथ में पीछे पकड़े काकरोच रिपेलेंट को खोल लिया था और पूरा स्प्रे सीधे उसकी आँख में।

एक पल के लिए उसकी हालत खराब हो गई और इतना वक्त मेरे लिए काफी था और मैंने पहले तो उसकी वो कलाई पकड़कर मोड़ दी जिसमें चेन थी। एक बार क्लाकवाइज और दुबारा एंटीक्लाक वाइज और वो लटक के झूल गई।



उसने बाएं हाथ से चाकू निकालने की कोशिश की, लेकिन तब तक मेरी उंगलियां सारी एक साथ उसके रिब केज पे। वो दर्द से झुककर दुहरा हो गया और मेरी कुहनी उसके गले के निचले हिस्से पे। साथ में घुटना उसकी ठुड्डी पे। जब तक वो सम्हलता मैंने उसकी दूसरी कलाई भी तोड़ दी।



“बचो…” गुड्डी जोर से चीखी।
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मैं उस तीसरे आदमी को भूल ही गया था।

अब तक वो चूहे बिल्ली की लड़ाई की तरह हम लोगों को देख रहा था। उसे पूरा कांफिडेंस था की उसके दोनों मोहरे मुझसे निपटने के लिए काफी थे, और वो अपना हाथ गन्दा नहीं करना चाहता था। दूसरा, आर्गेजेशन में वो अब मैंनेजमेंट पोजीशन में पहुँच चुका था लेकिन अब दूसरे बन्दे के गिरने के बाद उसके हाथ में चाकू था और तेजी से उसने मेरी ओर फेंका।
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निशाना उसका भयानक था।
मेरे बगल में हटने के बावजूद वो मेरी शर्ट फाड़ते हुए हल्के से बांह में लगा।



अगर गुड्डी ना बोली होती,.. तो सीधे गले में।



डेड लाक की हालत थी। उसने पलक झपकते जेब से रिवाल्वर निकाल लिया था और ये कोई कट्टा (देसी पिस्तोल) नहीं था की मैं रिस्क लूं की शायद ये फेल कर जाय।

उसने नहीं चलाया।


मैं पल भर सोचता रहा फिर मेरी चमकी।

दो बातें थी। एक तो उसके मोहरे को मैंने पकड़ लिया था और उस गुत्थमगुत्था में गोली किसे लगेगी ये तय नहीं हो सकता था। दूसरे दिन का समय था, चारों ओर बस्ती थी और गोली चलने की आवाज सुनकर कोई भी आ सकता था।

मैंने एक रिस्क लिया। उस चेन वाले मोहरे को आगे करके मैं बढ़ा। ये बोलते हुए-

“प्लीज गोली मत चलाना, मैं निहत्था हूँ। हम लोगों से कोई मतलब नहीं बस हम दोनों को निकल जाने दीजिये प्लीज। बाकी आपके और सेठजी के बीच है बस हम दोनों को…”

वो थोड़ा डिसट्रैक्ट हुआ लेकिन रिवालवर ताने रहा, और कहा-

“हे इसको छोड़ो पहले। फिर हाथ ऊपर…”

“बस-बस जी करता हूँ जी गोली नहीं जी…”

मैं गिड़गिड़ा रहा था।


उस चेन वाले के हाथ से मैंने चेन ले ली और मुट्ठी में लेकर चेन वाले मोहरे को उसकी ओर थोड़ा धक्का देकर छोड़ दिया। उसके घुटने और कुहनी तो जवाब दे ही चुके थे, वो धड़ाम से उसके सामने जा गिरा। मैंने हाथ ऊपर कर लिया था ये बोलते हुए की

"जी देखिये,.... मेरे हाथ ऊपर है,... प्लीज।"

जैसे ही वो चेन वाला उसके पैरों के पास गिरा, उसका ध्यान बंट गया और मेरे लिए इतना वक्त काफी था।

मैंने पूरी ताकत से चेन उसके रिवाल्वर वाले हाथ पे दे मारी।

रिवाल्वर छटक के दूर गिरी। मैंने पैरों से मारकर उसे गुड्डी की ओर फेंक दिया।



वो अपने जमाने का जबर्दस्त बाक्सर रहा होगा।

इतना होने के बाद भी वो तुरंत बाक्सिंग के पोज में और एक मुक्का जबर्दस्त मेरे चेहरे की ओर। मैं बाक्सर न हूँ, न था इसलिए जवाब मेरे पैर ने बल्की पैर की एंड़ी ने दिया। सीधे दोनों पैरों के बीच किसी भी पुरुष के सबसे संवेदनशील स्थल पर, और उसका बैलेंस बिगड़ गया। वो सीधे मेरे पैरों के सामने धड़ाम गिरा।



मैं जानता था,.... वो उन दोनों मोहरों की तरह नहीं हैं।
बाल-बाल बचे..
वो लोग भी कम नहीं...
कुछ प्रेजेंस ऑफ माइंड हीं काम कर पाएगा...
 
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