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Serious *महफिल-ए-ग़ज़ल*

क्या आपको ग़ज़लें पसंद हैं..???

  • हाॅ, बेहद पसंद हैं।

    Votes: 12 85.7%
  • हाॅ, लेकिन ज़्यादा नहीं।

    Votes: 2 14.3%

  • Total voters
    14

The_InnoCent

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
79,152
115,978
354
सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं

बिखरा पडा है तेरे ही घर में तेरा वजूद
बेकार महफिलों में तुझे ढूंढता हूँ मैं

मैं खुदकशी के जुर्म का करता हूँ ऐतराफ़
अपने बदन की कब्र में कबसे गड़ा हूँ मैं

किस-किसका नाम लाऊँ ज़बान पर की तेरे साथ
हर रोज़ एक शख्स नया देखता हूँ मैं

क्या जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम
दुनिया समझ रही है के सच मुच तेरा हूँ मैं

पहुँचा जो तेरे दर पे महसूस ये हुआ
लम्बी सी एक कतार मे जैसे खडा हूँ मैं

ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रकीब
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं

जागा हुआ ज़मीर वो आईना है ‘क़तील’

सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं
 
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सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं

बिखरा पडा है तेरे ही घर में तेरा वजूद
बेकार महफिलों में तुझे ढूंढता हूँ मैं

मैं खुदकशी के जुर्म का करता हूँ ऐतराफ़
अपने बदन की कब्र में कबसे गड़ा हूँ मैं

किस-किसका नाम लाऊँ ज़बान पर की तेरे साथ
हर रोज़ एक शख्स नया देखता हूँ मैं

क्या जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम
दुनिया समझ रही है के सच मुच तेरा हूँ मैं

पहुँचा जो तेरे दर पे महसूस ये हुआ
लम्बी सी एक कतार मे जैसे खडा हूँ मैं

ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रकीब
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं

जागा हुआ ज़मीर वो आईना है ‘क़तील’

सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं
Beautiful poetry bro. :applause: :applause: :applause:
 
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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दो जवाँ दिलों का ग़म दूरियाँ समझतीं हैं
कौन याद करता है हिचकियाँ समझतीं हैं
तुम तो ख़ुद ही क़ातिल हो, तुम ये बात क्या जानो
क्यूँ हुआ मैं दीवाना बेड़ियाँ समझतीं हैं
बाम से उतरती है जब हसीन दोशीज़ा
जिस्म की नज़ाक़त को सीढ़ियाँ समझतीं है
यूँ तो सैर-ए-ग़ुलशन को कितने लोग आते हैं
फूल कौन तोड़ेगा डालियाँ समझतीं हैं
जिसने कर लिया दिल में पहली बार घर “दानिश”
उसको मेरी आँखों की पुतलियाँ समझतीं हैं
 
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शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
Supreme
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लब पे तेरे इक़रार-ए-मोहब्बत
शेर ग़ज़ल का लगता है
शर्म से चेहरा लाल गुलाबी
फूल कमल का लगता है
लब पे तेरे ...

दिल को नजर से टकराये भी
एक ज़माना बीत गया
चोट मगर है इतनी ताज़ा
हादसा कल का लगता है
लब पे तेरे ...

बेखुद होकर मस्त हवाएं
ऐसे कब लहराती थी
ये जादू तो हल्के हल्के
उस आँचल का लगता है
लब पे तेरे ...

हम समझे थे भूल गये हैं
वो चाहत का अफ़साना
आज मगर फिर दर्द सा
दिल में हल्का हल्का लगता है

लब पे तेरे इक़रार-ए-मोहब्बत
शेर ग़ज़ल का लगता है
शर्म से चेहरा लाल गुलाबी
फूल कमल का लगता है

लब पे तेरे ...
 
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लब पे तेरे इक़रार-ए-मोहब्बत
शेर ग़ज़ल का लगता है
शर्म से चेहरा लाल गुलाबी
फूल कमल का लगता है
लब पे तेरे ...

दिल को नजर से टकराये भी
एक ज़माना बीत गया
चोट मगर है इतनी ताज़ा
हादसा कल का लगता है
लब पे तेरे ...

बेखुद होकर मस्त हवाएं
ऐसे कब लहराती थी
ये जादू तो हल्के हल्के
उस आँचल का लगता है
लब पे तेरे ...

हम समझे थे भूल गये हैं
वो चाहत का अफ़साना
आज मगर फिर दर्द सा
दिल में हल्का हल्का लगता है

लब पे तेरे इक़रार-ए-मोहब्बत
शेर ग़ज़ल का लगता है
शर्म से चेहरा लाल गुलाबी
फूल कमल का लगता है

लब पे तेरे ...
Beautiful poetry bro. :applause: :applause: :applause:
 
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Siraj Patel

The name is enough
Staff member
Sr. Moderator
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लब पे तेरे इक़रार-ए-मोहब्बत
शेर ग़ज़ल का लगता है
शर्म से चेहरा लाल गुलाबी
फूल कमल का लगता है
लब पे तेरे ...

दिल को नजर से टकराये भी
एक ज़माना बीत गया
चोट मगर है इतनी ताज़ा
हादसा कल का लगता है
लब पे तेरे ...

बेखुद होकर मस्त हवाएं
ऐसे कब लहराती थी
ये जादू तो हल्के हल्के
उस आँचल का लगता है
लब पे तेरे ...

हम समझे थे भूल गये हैं
वो चाहत का अफ़साना
आज मगर फिर दर्द सा
दिल में हल्का हल्का लगता है

लब पे तेरे इक़रार-ए-मोहब्बत
शेर ग़ज़ल का लगता है
शर्म से चेहरा लाल गुलाबी
फूल कमल का लगता है

लब पे तेरे ...
Ati Uttam :bow:
 
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