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So beautiful poetry bro.लुत्फ़ इश्क़ में पाए हैं कि जी जानता है।
रंज भी इतने उठाए हैं कि जी जानता है।।
जो ज़माने के सितम हैं वो ज़माना जाने,
तूने दिल इतने दुखाए हैं कि जी जानता है।।
तुम नहीं जानते अब तक ये तुम्हारे अंदाज़,
वो मेरे दिल में समाए हैं कि जी जानता है।।
इन्हीं क़दमों ने तुम्हारे इन्हीं क़दमों की क़सम,
ख़ाक में इतने मिलाए हैं कि जी जानता है।।
दोस्ती में तेरी दरपर्दा हमारे दुश्मन,
इस क़दर अपने पराए हैं कि जी जानता है।।
_________'दाग़' देहलवी
Amazing bro.अजब जूनून-ए-मुसाफ़त में घर से निकला था,
ख़बर नहीं है कि सूरज किधर से निकला था,
ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया,
अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था,
ये तीर दिल में मगर बे-सबब नहीं उतरा,
कोई तो हर्फ़ लब-ए-चारागर से निकला था,
मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया,
कि दिल का दर्द मेरे चश्म-ए-तर से निकला था,
वो कैसे अब जिसे मजनू पुकारते हैं ‘फ़राज़’,
मेरी तरह कोई दिवाना-गर से निकला था,