होली घर आंगन की , देवर का सिंगार पटार
( फागुन का दिन चार से )
किसी भाभी ने घड़ी देख ली और घबड़ाने लगी।
अरे एक बजने वाला है। अबहीं कालोनी में जाना है देर हो रही है।
हर साल होली की शुरूआत के बाद सभी ननद भाभियां, कालोनी में जहाँ से लड़कियां औरतें नहीं आ पाती थी वहां जाती थी और फिर उन सबकी ऐसी तैसी।
बस क्या था। पल भर में साड़ी वालियों ने अपनी साड़ी लपेट ली। कुछ के फटे ब्लाउज़ बचे थे वो भी पहन लिए। साया, ब्रा पैंटी तो सबके खेत रहे थे। टाप और स्कर्ट वालियों ने बस फटे टाप को किसी तरह ऊपर बाँध लिया। ब्रा पैंटी उनकी तो भाभियों ने चिथड़े चिथड़े कर दी थी। हाँ रंग से गीले होने से टाप और साड़ियां दोनों पारदर्शी हो गई थी और उभारों से एकदम चिपकी। लेकिन सबसे बुरी हालत मेरी थी।
मेरे तो सारे कपड़े फाड़ दिए गए थे। मैंने बोला- “मैं क्या पहनूंगा?”
तो एक लड़की बोली- “ऐसे ही चलिए…”
लेकिन भाभी ने गुड्डी की ओर देखा तो वो मेरी बचत में आ गई। मेरा पिछवाड़ाडा सहलाते हुए बोली,
" अरे नहीं अब ये मेरी जिम्मेदारी है। बीस आने में मेरी मम्मी ने खरीदा है बोली लगाकर। अगर किसी लौंडेबाज की नजर पड़ गई तो, रात तक चार बच्चो के माँ की तरह हो जायेगी। लेकिन मेरे पास लड़कों के कपड़े तो हैं नहीं। जो है वो। "
और थोड़ी देर में मेरा श्रृंगार उन दुष्टों ने मिलकर शुरू कर दिया और इसमें लड़कियां और भाभियां दोनों मिली थी-
रसिया को नार बनाऊँगी रसिया को।
सारा माहौल इसी गाने से गूंज गया था। मिश्रायिन भाभी और मेरी भाभी, सारी भाभियों को ललकार रही थी। और भाभियों के साथ लड़कियां भी इस अभियान में जुट गई थी। मैं बिचारा एक फटे पेटीकोट को, टावेल की तरह लपेट के, अपनी बची खुची लाज सम्हालने में लगा था।
और इस अभियान की पहल कर रही थी। और कौन- गुड्डी। वो एक पैकेट लेकर आई जिसमें एक साड़ी थी और भी बहुत कुछ, जिसके बारे में कल रात मैंने उससे पूछा था। तो उसने मुझे घुड़क दिया था- “तुमसे मतलब?”
और मेरी भाभी भी। मुश्कुराकर आँख नचाकर बोली, अरे मालूम हो जायेगा कल।
वो पैकेट जब खुला तो उसमें से क्या नहीं निकला।
वो सब स्प्रिंग लोडेड गहने, आर्टिफिशयल, जो कल गुड्डी ने मेरे पैसे से मुझसे ही खरीदवाये थे। चूड़ियां, मेकअप का सामान, ब्रा और एक और बंद पैकेट। गुड्डी के साथ उसकी ताजा बनी सहेली, लतिका (वही समोसेवाली) शामिल थी और लतिका ने एक-दो और लड़कियों को बुला लिया था की इसे नेल आर्ट्स बहुत अच्छी आती है। गाइडेंस रीतू भाभी की थी।
पैर के श्रृंगार में शीला भाभी और कालोनी की एक-दो और भाभियां। शीला भाभी ने तो महावर की पूरी बोतल मेरे दोनों पैरों पे खाली कर दी, खूब गाढा चौड़ा उनके साथ एक भाभी रच रच के ऐसे डिजाइन बना रही थी। जैसे गौने की दुल्हन के बनाते हैं (और अगले दिन उसकी ननदें चिढ़ाती हैं, जब दुल्हे के माथे पे वही महावर लगी नजर आती है। क्यों भाभी रात में भैया से पैर छुलवा रही थी क्या)
पैरों पे सुहागरात के पहले एक ग्राम्या का जो श्रृंगार होता है वो चल रहा था। तो मेरे हाथों पे लतिका और उस की हम उम्र सहेलियां हाथों में पूरा शहरी ब्यूटी पारलर खुल गया था। एक हाथ में लतिका तो दूसरे में उसकी सहेली। पिंक नेल पैंट डिजाइन बनाकर और साथ में कलाई तक वही डिजाइने। तब तक रीतू भाभी की निगाह मेरे तम्बू में बम्बू पे पड़ गई।
और लतिका से वो बोली- “अरे इसका इलाज तो कर…”
लतिका ने तने खड़े जंग बहादुर को देखा। तो पहले तो वीर बहूटी हो गई। फिर कुछ शर्माते कुछ लजाते बोली-
“ये तो। मैंने अभी तो किया। लेकिन इस पे तो कुछ असर ही नहीं पड़ता…”
रीतू भाभी हँसते-हँसते दुहरी हो गईं बोली
" तू तो ना मेरी पक्की ननद है। तुझे सपने में भी ना अपने भाइयों के खड़े औजार ही नजर आते हैं। अरे मेरे देवर का हथियार है ऐसे थोड़े ही सोने वाला है। मैं बताती हूँ।"
और उन्होंने लतिका की सहेली के बाल से उसके पिंक साटिन रिबन खोल लिए और लतिका को कुछ समझाया। फिर क्या था लतिका और उसके सहेली ने पहले तो फटे चिथड़े पेटीकोट का वो आवरण हटाया। दोनों के मुँह से एक साथ निकल गया वाउ। सो हाट।
रीतू भाभी ने प्यार से दोनों को हड़काया- अरे सालियों, छिनारों लार बाद में टपकाना। तेरा भाई है जब चाहे तब घोंट लेना। पहले जो बताया है वो काम करो। और वो दोनों किशोरियां, कच्ची कलियां काम पे लग गई। वो दोनों झुकी 'अपने काम' में लगी थी।
और मैं उनके फटे, टाप्स से झांकते बड़े-बड़े टिकोरे निहार रहा था।
और तभी उन दोनों की बात से पता चला की दोनों नवीं में गई थी अभी। और उनकी क्लास की चंडाल चौकड़ी ने ये तक किया था की जिसकी पहले फटेगी। वही क्लास की हेड गर्ल बनेगी और लतिका की सबसे पहले फटी। और भाभियों के साथ कित्ती उसकी सहेलियों के फोन पे उसका वीडियो सबूत था। वो दोनों इसका मतलब गूंजा और गुड्डी की मझली बहन के बराबर उम्र की थी। इसका मतलब उन दोनों सालियों पे भी मैं नंबर लगा सकता था।
लतिका जोर से मेरे जंगबहादुर को दबाकर मेरे जांघ से चिपका के सटाए हुए थी। और उसकी सहेली (रीमा नाम था उसका) उसे अपनी गुलाबी रिबन से मेरे जांघ से बाँध रही थी कसकर। रिबन खतम हो गया। लेकिन मेरा आठ इंची का सुपाड़ा अभी भी खुला था। लतिका की सहेली उससे भी एक हाथ आगे थी बोली- यार एक आइडिया है और मेरे खुले सुपाड़े से झांकते पी-होल (मूत्र छिद्र) के ठीक नीचे उसने गुलाबी लिपस्टिक से एक स्माइली बना दी।
दोनों किशोरियां खुलकर खिलखिला के हँसी अपने बाड़ी आर्ट को देखकर। लेकिन लतिका बोली यार ये खुल सकता है कुछ और करना पड़ेगा और उसकी निगाह रीमा की कमर की ओर पड़ी। रीमा ने मुश्कुराते हुए ना ना कहा। लेकिन लतिका कहाँ सुनाने वाली थी। उसने दोनों हाथों से उसकी स्कर्ट उठायी और थांग खिंच दी। बस दो इंच की गुलाबी, लेसी पट्टी की तरह।
और रीमा का भरत पुर भी एकदम मस्त चिक्कन मक्खन, गुलाबी बस दो-चार ताजा निकलेकरसर के फूल की तरह सुनहली बस निकलती हुई झांटे। उसे देखकर जंग बहादुर एकदम विप्लव पे उतारू। दोनों किशोरियों ने तुरंत थांग से उसे दुबारा रैप किया और तब तक गुड्डी आ गई उनकी सहायता करने को। आखीरकार, जंग बहादुर की मालेकिन तो वही थी।
वो एक मेडिकल टेप का बण्डल लायी थी। और अब तीनों ने मिलकर उसे अच्छी तरह कसकर टेप कर दिया। रीमा की निगाहें आँगन में कुछ ढूँढ़ रही थी। और उसने किसी ननद की पैंटी देख ली। आँगन फटी चिथड़ी ब्रा पैंटी पेटीकोट से पटा पडा था।
और वो एक पैंटी उठाकर ले आई और तीनों ने मिलकर मुझे पहना दिया और जोर से हाई फाइव कर के बोली- अब ये बच्चू काबू में आ गए और उसके बाद वो तीनों काम पे जुट गईं। वही चूडियां जो कल गुड्डी ने मुझसे खरीदवाई थी, लाल हरी। लतिका और रीमा तो चूड़ी पहनाने वालियों को भी मात कर रही थी। वही चिढ़ाना, वही अदा, उसी तरह उंगलियों को मोड़कर एक के बाद एक चूड़ी। मैंने एक-दो के बाद मना कर दिया। तो गुड्डी ने चढ़ाया उन दोनों को-
“अरे कल ये खुद खुशी खुशी अपनी पसंद से खरीद के ले आये थे। अब नखड़ा बना रहे हैं, पहनाओ कुहनी तक…”