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Romance श्रृष्टि की गजब रित

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दृश्य में बदलाव

श्रृष्टि जैसे ही घर पहुंची माताश्री देखते ही पहचान गई। आज उसकी बेटी कल से ज्यादा परेशान हैं उसके अंतरमन में उफान सा आया हुआ हैं।

ये भापते ही माताश्री तूरंत श्रृष्टि को अपने पास बैठाया और बोला... श्रृष्टि बेटा क्या हुआ कुछ बात हों गई हैं जो इतना परेशान दिख रही हैं।

माताश्री का इतना ही पूछना था कि श्रृष्टि के हृदय में उपजा तूफान सैलाब का रूप ले लिया फ़िर रूदन के रूप में बहार निकल आई और श्रृष्टि मां से लिपट कर रोने लग गई।

श्रृष्टि का रूदन अन्य दिनों से अलग था। जिसने माताश्री के हृदय में खलबली मचा दिया। अब माताजी को विश्वास हो चूका था की वो जो सोच रही थी वो हो रहा है और माताजी भी डर गई


इसलिए माताश्री पुचकारते हुए बोलीं... श्रृष्टि, बेटा क्या हुआ तू ऐसे क्यों रो रहीं है?

माताश्री के पुचकारते ही श्रृष्टि का रूदान और बढ़ गया। जिसे देखकर माताश्री एक बार फ़िर पुचकारते हुए पुछा मुझे नहीं बताएगी बेटा ? क्या मै इस लायक नहीं हु जो मेरी ही बेटी के दिल में क्या चल रहा मै जान सकू ? मेरी बच्ची इतनी बड़ी हो गई की अब मा को बताने में उसे शर्म महसूस हो रही है ?

तो इस बार श्रृष्टि फफकते हुए बोलीं... मां वो न वो न शादी कर रहा हैं।

माताश्री... कौन शादी कर रहा है? हां बोल कौन (साहस माताश्री के मस्तिष्क में कुछ खिला और मताश्री बोलीं) जिसकी शादी हों रहा हैं कहीं तू उससे प्यार तो नहीं करती।

"हां" सुबकते हुए श्रृष्टि बोलीं

" कौन है वो और तू ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया।" अपनी सोच को वास्तविकता होते हुए देख रही थी | अब डर श्रुष्टि से ज्यादा मा को हो रहा था

क्या कोई ऊंचनीच हुई है ? या वहेम ?

श्रृष्टि... मां वो न वो न राघव सर हैं।

राघव सर सुनते ही मानो माताश्री पर वज्र पात हों गया हों। तूरंत श्रृष्टि को खुद से अलग किया फिर बोलीं... ये तूने क्या किया? तू भी उसी रास्ते पे चल पड़ी जिस रास्ते पर चलकर मैं पछता रहीं हूं। क्यो आखिर क्यों?

श्रृष्टि…मैंने खुद को बहुत रोकना चाहा मगर रोक ही नहीं पाई। दिल पे भला किसका बस चला हैं। प्यार तो किसी से भी हों सकता है। प्यार न अमीरी, न गरीबी, न जाति, न धर्म देखता है। वो तो बस हो जाता हैं। मुझे भी हो गया अब वो शादी कर रहें हैं। जब से उनकी शादी की बात जाना हैं। तब से मुझ पे क्या बीत रहीं हैं? मै ही जानती हूं।

"वो शादी कर रहें हैं तो तू भी इस बात को भूल जा मुझे साफ साफ दिख रहा हैं तेरा प्यार एक तरफा हैं इसलिए मेरी मान तू खुद को यही पर रोक ले।"

“बेटा एक बात सच में बता क्या तुम ने उस से अपने आप को सौपा है ? मेरा मतलब शारीरक समागम सेक्स ?

श्रुष्टि “नहीं मा ऐसा कुछ नहीं जो आप सोच रही हो


मा के कलेजे पे ठंडक पहोची चलो एक बात से तो डरना नहीं है


श्रृष्टि... नहीं मां मेरा प्यार एक तरफा नहीं हैं। मैंने कई बार भापा है वो भी मूझसे प्यार करते।

"अच्छा अगर वो भी तुझे प्यार करते तो शादी क्यों कर रहें हैं। सोच जरा।"

माताश्री की बातों से श्रृष्टि को स्तब्ध कर दिया। वो कुछ बोल ही नहीं पाई मगर उसके मस्तिष्क में विचार चल पडा, उसका मस्तिष्क बार बार उससे कह रहा था की मां सही कह रहीं है अगर उन्हें मूझसे प्यार होता तो सभी के जानने पर हा क्यों कहते कि उनकी शादी की बात सही है..।

श्रृष्टि विचारों में खोई थी की माताश्री उसके विचारों में सेंद मरते हुए बोलीं...श्रृष्टि मैंने तुझे पहले ही कहा था। कुछ लोग हाव भाव से कुछ दर्शाते है और उनके मस्तिष्क में कुछ ओर चलता हैं। तेरे राघव सर भी शायद उन्हीं में से एक हैं। देख तेरी मां होने के नाते मैं तेरा अहित कभी नही चाहूंगी और ये भी नहीं चाहूंगी कि जो गलती मैंने किया जिसकी सजा मैं आज भी भुगत रही हूं। तू भी वही गलती दोहराए इसलिए मैं बस इतना ही कहुंगी जो भी फैंसला लेना सोच समझ कर लेना ताकि तुझे भविष्य में पछतावा न हो।

माताश्री की बातों ने एक बार फिर से श्रृष्टि के मन मस्तिस्क में खलबली मचा दिया। कुछ देर तक उसके मस्तिस्क में मची खलबली उसे परेशान करती रही। सहसा ही आंखो से आंसु पोछकर बोलीं... मां मुझे एक काफ चाय मिल सकता है।

"ठीक है तू हाथ मुंह धोकर आ मैं चाय बनाती हूं।"

श्रृष्टि उठकर कमरे में चल दिया और माताश्री रसोई की ओर "अभी तो कितना रो रहीं थी सहसा उसके स्वर में इतना बदलाब कैसे आ गया। हे प्रभू जो मेरी बेटी के लिए सही हो वहीं करना उसके भविष्य के साथ खिलवाड़ मत करना जैसे मेरे भविष्य के साथ किया था बस इतनी सी मेरी विनती मान लेना।" बोलते हुए चल दिया।

श्रृष्टि ने कौन सा फैंसला लिया जिससे उसका रूदन स्वर में बदलाव आ गया जिसे भापकर माताश्री प्रभू से विनती करने लग गई। यह तो बस समय ही बता पाएगा बहरहाल माताश्री रसोई में प्रवेश किया ही था कि द्वार घंटी ने किसी के आगमन का संकेत दे दिया।
 
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"कौन है" बोलकर माताश्री द्वार खोलने बढ़ गई। द्वार खोलते ही सामने खड़े शख्स ने बोला... आंटी जी श्रृष्टि यहीं पर रहती हैं।







"जी हा! आप कौन?"

"जी मैं उसी के साथ काम करती हूं मेरा नाम साक्षी हैं।"

"हों तुम ही हो साक्षी तुम्हारी बहुत चर्चा सूना था। आओ भीतर आओ।"

साक्षी को बैठाकर माताश्री श्रृष्टि को आवाज देते हुए बोलीं... श्रृष्टि बेटा देख तेरी साक्षी मैम आई हैं। जल्दी से बहार आ जा (फिर साक्षी से बोलीं) बेटा तुम बैठो मैं चाय लेकर आई।

इतना बोल कर माताश्री रसोई में चली गई

अब उधर वोही समय पे श्रुष्टि के कमरे में

रोज की तरह आज श्रुष्टि के चहरे पर वो खास तरीके की मुश्कान गायब थी| आज उसे वोही दर्पण उसे दुश्मन लगा जहा जाके अपने शरीर को देखती और फुला नहीं समाती थी आज उसे इस अकेलेपन से उब रही थी जहा वो मा से दूर होते ही उस अकेलेपन की मज़ा लेती थी अपने सपनो को बूनती रहती थी

ये वोही कमरा था जहा उसके सपनो की महक आती थी आज वो दुर्गन्ध में परिवर्तित हो चुकी थी

आज उसके शरीर में कोई ज़नज़नाहत महेसुस नहीं हो रही थी, उसके पैरो से वो मोर अपनी थान्गानाट गायब हो गई थी ये वोही कमरा था जहा वो हर लड़की की तरह अपनी श्रुष्टि सजाती थी अपने राजकुमार के साथ आज वोही कमरा था और वोही पलंग जहा सोती थी और वोभी वोही श्रुष्टि थी पर सपने टूटे हुए थे



श्रुष्टि अपनी ही बुनी हुई काल्पनिक श्रुष्टि को खो चुकी थी



तभी मा की आवाज़ आई और थोड़ी देर में श्रृष्टि हल्की बनावटी मुस्कान होठो पर लिए कमरे से बहार आई और साक्षी को देखकर बोलीं...अरे साक्षी तुम मेरे घर में।

साक्षी... क्यों नहीं आ सकती (फिर मन में बोलीं) थैंक गॉड श्रृष्टि सामान्य लग रही हैं।

श्रृष्टि... अरे मैं तो बस इसलिए कहा तुम्हे मेरे घर का पता नहीं मालूम था न।

साक्षी... पाता नहीं मालूम था अब तो चल गया वो भी सिर्फ तेरे वजह से तू दफ्तर से इतनी परेशान होकर निकली मुझे लगा तू कुछ कर न बैठें इसलिए मैं तेरा पीछा करते करते आ गई बस गली में घुसते ही तू ओझल हो गई वरना तेरे साथ ही तेरे घर पे आ जाती। और हां तू स्कूटी बहोत तेज़ चलाती है

श्रृष्टि...चलो अच्छा हुआ इसी बहाने मेरा गरीब खाना भी देख लिया और उस बात को भूल जाना क्योंकि वो मेरी एक बचकाना हरकत थी जो अब मैं समझ चुकी हूं अच्छा तू बैठ मैं देखती हूं चाय बना की नहीं फिर चाय पीते हुए बाते करेंगे।

श्रृष्टि की बातों ने साक्षी को अचंभित कर दिया साथ ही उसके व्यवहार भी जो लंच के बाद किसी से बात नहीं कर रहीं थी घर आते ही बदल गई सिर्फ़ इतना ही नहीं जो परेशानी और उदासी उसकी चेहरे पर देखा था वो भी गायब हों गया।

कुछ देर तक साक्षी इसी विचार में मगन रही मगर श्रृष्टि में आई बदलाब ने उसके विचार को ध्वस्त कर दिया। कुछ ही देर में चाय नाश्ता लेकर दोनों मां बेटी आ गई फ़िर तीनों में शुरू हुआ बातों का दौरा। जो की लंबा चला फ़िर साक्षी विदा लेकर कल दफ्तर में मिलते है बोलकर चली गई।

जारी रहेगा….
पता नहीं अब कहानी क्या मोड़ ले रही है जान ने की कोशिश करेंगे अगले एपिसोड में ......
 

sunoanuj

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भाग - 23


शाम होते होते श्रृष्टि का हाल ऐसा हों गया। जैसे अनगिनत तूफान उसके अंदर उमड़ रहे हो और उसके जड़ में आने वालों के परखाचे उड़ा दे।

छुट्टी का वक्त होते ही श्रृष्टि दफ़्तर से ऐसे निकली मानों वो वहां किसी को जानती ही नहीं सभी उसके लिए अजनबी हों। ये देखकर साक्षी मन ही मन खुद को कोसने लगीं। सहसा उसके ख्यालों में कुछ उपजा "नहीं वो ऐसा नहीं कर सकतीं है।" बोलते हुए तुरंत दफ्तर से बहार भागी।

जब साक्षी लिफ्ट का सहारा लेकर नीचे पहुंची। ठीक उसी वक्त श्रृष्टि उसके सामने से निकल गई। श्रृष्टि किस ओर जा रहीं है ये देखकर साक्षी तुरंत अपनी कार लेकर उस ओर चल दि।

जितनी रफ़्तार से साक्षी कार को दौड़ा सकती थी दौड़ा रहीं थीं और श्रृष्टि की रफ्तार भी कुछ कम नहीं था। वो स्कूटी की कान अंतिम छोर तक उमेठकर दौड़ाए जा रहीं थीं।

दोनों के बीच पकड़म पकड़ाई जोरों पर थीं। रास्ते पर अजबाही करती दूसरी गाडियां भी थी और कुछ ज्यादा ही था। जिससे साक्षी को आगे निकलने में कुछ दिक्कत आ रही थी मगर श्रृष्टि हल्की सी गली मिलते ही स्कूटी ऐसे निकल रहीं थी मानों उसे किसी बात की परवाह ही न हों।

ट्रैफिक से निकलकर जब खाली रस्ता मिला तब जल्दी से श्रृष्टि तक पहुंचने के लिए साक्षी ने कार की रफ्तार बड़ा दिया। जब तक साक्षी पास पहुंचती तब तक श्रृष्टि एक गली में घुस गई।

साक्षी को गली में घुसने में थोड़ा देर हों गया। जब वो गली में घुसा श्रृष्टि जा चुकी थी। अब साक्षी के सामने दुस्वरी ये थी इस अंजान गली में श्रृष्टि को ढूंढे तो ढूंढे कहा तो कार को रोक कर बोलीं... ये पगली कुछ कर न बैठें अब मैं क्या करूं उसका घर कहा है कैसे ढूंढू कोई और दिख भी नहीं रहा। हे प्रभू उसके मन में कोई गलत ख्याल न आने देना मैं कान पकड़ती हूं कभी किसी से ऐसा मजाक नहीं करूंगी तब तो बिल्कुल भी नहीं जब मामला दो दिलों का हों।

वो अपने आप को कोसती रही .......जिस चीज़ पे मेरा हक़ नहीं वो चीज़ को मै हासिल करने की चाहत में मै दो दिलो को तोड़ रही हु !!!!!!

सोच अगर ये हादसा मेरे साथ हुआ होता तो मै क्या करती ?

मुझे श्रुष्टि के बारे में सोचना चाहिए

क्या मै अपनी चाहतो में ये भी भूल गई की मै भी एक नारी हु ? और नारी के मन और दिल से खेलने पर नारी पे क्या गुजरती है?

क्या ये मेरा मजाक था ? या फिर ......


हे भगवान् मुझे माफ़ कर मेरी गलती सुधारने का एक मौक़ा दे मेरी खातिर नहीं तो उस भोली नादान लड़की के लिए

Bhaut hee gajab ka suspense full episode hai ….
 
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vickyrock

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"कौन है" बोलकर माताश्री द्वार खोलने बढ़ गई। द्वार खोलते ही सामने खड़े शख्स ने बोला... आंटी जी श्रृष्टि यहीं पर रहती हैं।







"जी हा! आप कौन?"

"जी मैं उसी के साथ काम करती हूं मेरा नाम साक्षी हैं।"

"हों तुम ही हो साक्षी तुम्हारी बहुत चर्चा सूना था। आओ भीतर आओ।"

साक्षी को बैठाकर माताश्री श्रृष्टि को आवाज देते हुए बोलीं... श्रृष्टि बेटा देख तेरी साक्षी मैम आई हैं। जल्दी से बहार आ जा (फिर साक्षी से बोलीं) बेटा तुम बैठो मैं चाय लेकर आई।

इतना बोल कर माताश्री रसोई में चली गई

अब उधर वोही समय पे श्रुष्टि के कमरे में

रोज की तरह आज श्रुष्टि के चहरे पर वो खास तरीके की मुश्कान गायब थी| आज उसे वोही दर्पण उसे दुश्मन लगा जहा जाके अपने शरीर को देखती और फुला नहीं समाती थी आज उसे इस अकेलेपन से उब रही थी जहा वो मा से दूर होते ही उस अकेलेपन की मज़ा लेती थी अपने सपनो को बूनती रहती थी

ये वोही कमरा था जहा उसके सपनो की महक आती थी आज वो दुर्गन्ध में परिवर्तित हो चुकी थी

आज उसके शरीर में कोई ज़नज़नाहत महेसुस नहीं हो रही थी, उसके पैरो से वो मोर अपनी थान्गानाट गायब हो गई थी ये वोही कमरा था जहा वो हर लड़की की तरह अपनी श्रुष्टि सजाती थी अपने राजकुमार के साथ आज वोही कमरा था और वोही पलंग जहा सोती थी और वोभी वोही श्रुष्टि थी पर सपने टूटे हुए थे




श्रुष्टि अपनी ही बुनी हुई काल्पनिक श्रुष्टि को खो चुकी थी



तभी मा की आवाज़ आई और थोड़ी देर में श्रृष्टि हल्की बनावटी मुस्कान होठो पर लिए कमरे से बहार आई और साक्षी को देखकर बोलीं...अरे साक्षी तुम मेरे घर में।

साक्षी... क्यों नहीं आ सकती (फिर मन में बोलीं) थैंक गॉड श्रृष्टि सामान्य लग रही हैं।

श्रृष्टि... अरे मैं तो बस इसलिए कहा तुम्हे मेरे घर का पता नहीं मालूम था न।

साक्षी... पाता नहीं मालूम था अब तो चल गया वो भी सिर्फ तेरे वजह से तू दफ्तर से इतनी परेशान होकर निकली मुझे लगा तू कुछ कर न बैठें इसलिए मैं तेरा पीछा करते करते आ गई बस गली में घुसते ही तू ओझल हो गई वरना तेरे साथ ही तेरे घर पे आ जाती। और हां तू स्कूटी बहोत तेज़ चलाती है

श्रृष्टि...चलो अच्छा हुआ इसी बहाने मेरा गरीब खाना भी देख लिया और उस बात को भूल जाना क्योंकि वो मेरी एक बचकाना हरकत थी जो अब मैं समझ चुकी हूं अच्छा तू बैठ मैं देखती हूं चाय बना की नहीं फिर चाय पीते हुए बाते करेंगे।

श्रृष्टि की बातों ने साक्षी को अचंभित कर दिया साथ ही उसके व्यवहार भी जो लंच के बाद किसी से बात नहीं कर रहीं थी घर आते ही बदल गई सिर्फ़ इतना ही नहीं जो परेशानी और उदासी उसकी चेहरे पर देखा था वो भी गायब हों गया।

कुछ देर तक साक्षी इसी विचार में मगन रही मगर श्रृष्टि में आई बदलाब ने उसके विचार को ध्वस्त कर दिया। कुछ ही देर में चाय नाश्ता लेकर दोनों मां बेटी आ गई फ़िर तीनों में शुरू हुआ बातों का दौरा। जो की लंबा चला फ़िर साक्षी विदा लेकर कल दफ्तर में मिलते है बोलकर चली गई।

जारी रहेगा….
पता नहीं अब कहानी क्या मोड़ ले रही है जान ने की कोशिश करेंगे अगले एपिसोड में ......
कहीं साक्षी सृष्टि की इस बात का गलत फायदा ना उठा ले
 
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कहीं साक्षी सृष्टि की इस बात का गलत फायदा ना उठा ले
Ye sakshi se dar lagta hai muje to.... Pehle hi keh chuki hu
 

sunoanuj

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Waiting for next update….
 

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भाग - 24


राघव का हाल भी श्रृष्टि से दूजा नहीं था। वो भी उतना ही परेशान था बस बदहवास नहीं हुआ था। खुद पर काबू रखा हुआ था। वैसे तो राघव जल्दी घर नहीं जाता था इसकी वजह बरखा थीं। मगर आज उसका मन कही पे नहीं लगा तब घर चला गया। तिवारी भी उसी वक्त घर पर मौजूद था और बेटे को जल्दी आया देखकर उसके साथ कुछ वक्त बिताना चाहा इसलिए साथ में चाय पीने की फरमाइश कर दी।

बेमन से राघव पिता की बात मान लिया और उनके साथ बैठ गया। तिवारी बातों के दौरान ध्यान दिया कि राघव का ध्यान कहीं ओर है और उसके सामने रखा कॉफी पड़ा पड़ा ठंडा हों रहा था लेकिन राघव अभी तक एक भी घूंट नहीं पिया था। ये देख तिवारी जी बोले... राघव क्या हुआ बेटा तुझे कोई परेशानी है?

राघव... नहीं तो

तिवारी... क्यों झूठ बोल रहा हैं? मैं कब से देख रहा हूं कॉफी पड़े पड़े ठंडा हों रहा है और तू पीने के जगह कहीं और खोया हुआ हैं।

"तुम्हें तो सिर्फ़ अपने बेटे की परेशानी दिखती हैं। कभी इतना ही ध्यान मेरे बेटे पर भी दे दिया करो।" बरखा कमरे से बहार आ रहीं थी तो दोनों बाप बेटे की बाते सुनकर तंज का भाव शब्दों में घोलकर बोलीं

तिवारी... ये बात तुम कह रहीं हों जरा अपनी गिरेबान में झांककर देखो कभी तुमने मां होने का एक भी फर्ज निभाया? कभी राघव को पास बैठाकर एक मां की तरह उससे उसकी परेशानी पुछा? नही कभी नहीं मगर मैंने कभी अरमान और राघव में भेद नहीं किया दोनों को एक समान बाप का प्यार दिया।

बरखा... मैं तो करती हूं और आगे भी करती रहूंगी क्योंकि राघव मेरा सगा नहीं सौतेला हैं...।

राघव इतना सुनते ही उठकर चला गया और तिवारी बोला...बस करो बरखा ओर कब तक ऐसे ही मेरे बेटे को उसी के सामने सौतेला होने का एहसास करवाते रहोगे वो तो तुम दोनों से कभी भी भेद भाव नहीं करता हैं फ़िर तुम और अरमान सगा सौतेला का भेद क्यों करते हों? ना मैंने कभी सगा सौतेले का भेद किया हैं।

बरखा...मैं तो जो भी करती हूं सामने से करती हूं। तुम जो भी करते हो वो सब दिखावा करते हों। अगर दिखावा नहीं करते तो जायदाद में दोनों को बराबर हिस्सा देते। अरमान को कम और राघव को ज्यादा नहीं देते।

बातों का रूख बदलते देख तिवारी उठे और कमरे की और जाते हुए बोले...उसके लिए भी तुम दोनों मां बेटे ही ज़िम्मेदार हों जीतना दिया उसी में खुश हों लो वरना वो भी छीन लूंगा और मुझे ऐसा करने पर मजबुर न करो।

इतना बोलकर तिवारी कमरे में चला गया और बरखा दो चार बाते और सुनाया फ़िर अपने कमरे में चली गइ।

अजीब विडंबना में दोनों बाप बेटे जिए जा रहे हैं। दो पल बैठकर एक दूसरे की परेशानी भी जान नहीं पा रहे हैं। आज कोशिश की पर वो भी सिर्फ बरखा के कारण धारा का धारा रह गया।

रात्रि भोजन का वक्त हों चुका था मगर राघव कमरे से एक पल के लिए बाहर ही नहीं आया था। ये बात जानते ही तिवारी बेटे को बुलाने चले गए। कई आवाज देने के बाद राघव बाहर आया तब तिवारी बोला... चल बेटा भोजन कर ले।

राघव... पापा आप कर लिजिए मुझे भूख नहीं हैं।

तिवारी... चल रहा है की फिर से सुरसुरी करना शुरू करू।

राघव... नहीं पापा चलिए आप की सुरसुरी सहने से अच्छा भोजन ही कर लेता हूं।

दोनों बाप बेटे खाने के मेज पर आ के बैठ गए। भोजन लगाया जा रहा था उसी वक्त बरखा भी आ कर बैठ गई। निवाला मुंह में डालते हुए बरखा बोलीं... यहां बाप अपने बेटे के साथ बैठे भोजन कर रहा हैं मगर मेरा बेटा वहां भोजन किया भी कि नहीं ये तक किसी ने नहीं पुछा।

तिवारी... उसके लिए तुम हों न घड़ी घड़ी फ़ोन करके पूछ ही लेती हो तो फिर दूसरे को पूछने की जरूरत ही क्या है? अब तुम चुप चाप भोजन करो। यहां बैठना अच्छा नहीं लग रहा हैं तो अपने कमरे में जा सकती हों।

एक निवाल बनाकर राघव को खिलाते हुए बोला...आज मैं अपने बेटे को अपने हाथ से खाना खिलाता हूं और एक सौतेली मां को दिखा देना चाहता हूं वो भाले ही मेरे बेटे को मां का प्यार दे चाहे न दे लेकिन एक बाप मां और बाप दोनों का प्यार देना जानता हैं।

बरखा... हा हा...।

"चुप बरखा बिल्कुल चुप एक भी शब्द न बोलना नहीं तो तुम्हारे लिए अच्छा नहीं होगा। मुझे इतना भी मजबुर न कारो की मुझे तुम पर हाथ उठाना पड़े।" तिवारी ने अपनी बाते लगभग चीखते हुए बोला।

तिवारी का गर्म तेवर देखकर बरखा चुप हो गई और चुप चाप भोजन करने लग गई।

तिवारी खुद से निवाला बनाकर राघव को खिलाए जा रहा था। कुछ निवाला खाने के बाद राघव खुद से निवाला बनाकर खाने लगा। राघव खुद से खा तो रहा था मगर उसके मस्तिस्क के किसी कोने में दोपहर के भोजन का वो दृश्य बार बार चल रहा था जब श्रृष्टि भोजन अधुरा छोड़कर चली गइ थी।

वो दृश्य मस्तिस्क में उभरते ही उस वक्त का पूरा दृश्य चलचित्र की तरह राघव के सामने चलने लग गया और राघव के चहरे पर एक बार फ़िर से परेशानी की लकीरें आ गया। बगल में बैठा बाप इसे भाप गया तो एक हाथ से राघव का हाथ थाम लिया।

स्पर्श का आभास होते ही राघव के सामने चल रहा चलचित्र अदृश्य हों गइ और राघव हाथ में लिया हुआ निवाला प्लेट में छोड़कर चला गया।

"राघव भोजन तो पूरा करता जा।" रोकते हुए तिवारी बोला

बरखा...अरे जानें दो क्यों गला फाड़ रहे हो उसे भूख नहीं होगा, होता तो भोजन अधुरा छोड़कर नहीं जाता।

तिवारी...बरखा मैंने तुमसे बोला था चुप रहना फिर क्यों अपना मुंह खोला, तुम्हें दिख नहीं रहा वो किसी बात से परेशान हैं।

बरखा…परेशान तो होगा ही रोज पता नहीं बहार से क्या गंदा संदा खा पीकर आता हैं। जा कर देखे कहीं तुम्हारे बेटे का लिवर सीवर सड़ तो नही गया।

बरखा की बातों ने तिवारी का पारा इतना चढ़ा दिया की वो खुद पर काबू नहीं रख पाया। तिवारी झट से अपना खुर्शी छोड़ा और चटाक, चटाक की आवाज वहा गूंज उठा। सहसा क्या हुआ ये बरखा के समझ से परे था और तिवारी यहां नहीं रूके एक के बाद एक कई चाटा ओर मारा फ़िर लगभग चीखते हुए बोला…बरखा आज तुम्हारे जुबान से जो निकला वो मेरे सहन सीमा को पार कर गया। आज तुम्हें चेतावनी देता हूं आज के बाद तुम अपनी ये सड़ी हुई सुरत लेकर मेरे बेटे के सामने आइ तो तुम्हरा वो हस्र करुंगा कि आईने में अपनी सूरत देखने से कतराओगे।

बरखा को इतने चाटे पड़े की उसका हुलिया बिगड़ गया। बिना बालों को छुए करीने से कड़े और जुड़ा किए हुए बालों को अस्त व्यस्त कर दिया गया।

तिवारी का रौद्र रूप बरखा के लिए किसी सदमे से कम न था इससे पहले भी बरखा ने न जानें कितनी वाहियात बाते कहीं थी मगर उस वक्त तिवारी सिर्फ टोकने के अलावा कुछ नहीं किया और आज वो हुआ जिसका आशा (इल्म) शायद बरखा को न थी, न ही तिवारी ने कभी किसी महिला के साथ किया होगा।

मेज पर रखा पानी उठाकर गट गट पी गया फिर गहरी गहरी सांसे लेकर तिवारी ने अपने गुस्से को ठंडा किया फिर बोला...बरखा तुम्हारी हरकतें और कड़वी बातों ने आज मुझे वो करने पर मजबुर कर दिया जो न मैंने कभी सोचा था न ही कभी किया था और हा जो भी बाते मैने गुस्से में कहा ये मत सोचना की मैं भूल जाऊंगा भले ही मैंने गुस्से में कहा हो मगर एक एक बाते सच हैं आज के बाद तुम्हारी सुरत मुझे या मेरे बेटे को दिखा तो तुम्हारा गत इससे भी बूरा करुंगा। मुझे ऐसा बहुत पहले कर देना चहिए था जिससे मेरे बेटे को इतना जलील न होना पड़ता चलो देर से ही सही अब से उसे उसके घर में जलील नहीं होना पड़ेगा।

इतना कहाकर एक प्लेट में खाना लगाया ओर राघव के कमरे की ओर जाते हुए बोला... मैं राघव को भोजन करवाने जा रहा हूं जब लौट कर आऊं तब तुम मुझे यहां नहीं दिखनी चहिए और हां अभी अभी तुम्हारे साथ जो भी हुआ इसकी भनक अरमान को नहीं लगना चाइए अगर उसे पाता चला तो तुम्हारा गत क्या होगा ये मैं भी नहीं जानता बस इतना कहुंगा बहुत बूरा होगा।

बरखा का मुह जैसे काटो तो खून ना निकले जैसा हो गया था शायद डर भी गई थी|


राघव के कमरे पे पहुचकार द्वार खटखटाया फ़िर बोला... राघव दरवाजा खोल और भोजन कर ले बेटा।

राघव... पापा...।

"राघव कोई बहाना नहीं चलेगा तू द्वार खोलता है कि मैं कुछ करूं।" झिड़कते हुए तिवारी बोला

राघव ने तुरंत द्वार खोल दिया फ़िर दोनों भीतर चले गए। राघव को बेड पर बैठने को कहकर खुद भी बैठ गए फ़िर राघव को खुद से भोजन करवाने लग गए। राघव ना ना करता रहा पर तिवारी माने नहीं डांट डपट कर जीतना भोजन लाया था लगभग सभी भोजन राघव को खिला दिया फ़िर प्लेट रखकर बोले... अब बोल तू किस बात से इतना परेशान हैं।

राघव...मैं कहा परेशान हूं लगता हैं आपको भ्रम हुआ था।

तिवारी...अच्छा मुझे भ्रम हुआ था ! ! मै तो कभी तुम्हारी उम्र में था ही नहीं शायद ऐसे ही बचपन से सीधा बुढा !!!! चल माना की मुझे भ्रम हुआ था मगर भोजन के वक्त तू किन ख्यालों में गुम था और मेरा स्पर्श पाते ही बना बनाया निवाला छोड़कर आ गया।

जारी रहेगा….


 
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