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Romance श्रृष्टि की गजब रित

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भाग - 27


द्वार घंटी के आवाहन देने पर श्रृष्टि जाकर द्वार खोला और आए हुए शख्स को देखकर बोला...साक्षी तुम आओ आओ भीतर आओ।

साक्षी... श्रृष्टि तेरा तो क्या ही कहना। कितना फोन किया एक फोन रिसीव करना जरूरी नहीं समझा तुझे पता है राघव सर कितना परेशान हों रहें थे।

श्रृष्टि…सर भला क्यों परेशान होने लग गए। ओह्ह समझी आज दफ्तर जाकर लौट आईं इसलिए परेशान हों रहें होंगे। होना भी चहिए उनका आज का काम रूक जो गया। सही कहा ना।?

श्रृष्टि ने सपाट लहजे में अपनी बाते कह दिया जिसे सुनकर साक्षी सिर्फ मुंह तकती रह गई और श्रृष्टि आगे बढ़ते हुए बोलीं... साक्षी सॉरी हा वो मां हॉस्पिटल में थी और ये सूचना पाते ही मेरा सूज बुझ जवाब दे चुका था इसलिए कुछ बता नहीं पाई।

"क्या (चौकते हुए साक्षी बोली) आंटी हॉस्पिटल में है तो तू इस वक्त घर में क्या कर रहीं हैं?

"श्रृष्टि बेटा कौन आया हैं।" माताश्री जानकारी लेते हुए बोली

श्रृष्टि... मां साक्षी आई है। चल साक्षी मां से भी मिल ले।

इसके बाद दोनों माताश्री के कमरे में पहुंचे वहां साक्षी ने माताश्री का हाल चाल लिया फ़िर बोलीं... आंटी आपकी बेटी न पूरा का पूरा वावली हैं। आप की सूचना पाकर खुद तो परेशान हुइ ही साथ में ओर लोगों को भी परेशान कर दिया।

"वो तो होगी ही मां से इतना प्यार जो करती हैं।।"

साक्षी... मां से प्यार करती है ये तो अच्छी बात है मगर इसे समझना चाहिए कोई है जो इससे बहुत प्यार करता है। इसे परेशान देखकर वो भी परेशान हो जाता हैं।

कोई ओर भी श्रृष्टि को प्यार करता हैं यह सुनते ही माताश्री और श्रृष्टि समझ गई कि किसकी बात कही जा रही हैं। माताश्री कुछ बोलती उससे पहले ही श्रृष्टि बोलीं... साक्षी तू मां से बात कर मैं चाय बनाकर लाई।

साक्षी रूकने को कहा पर श्रृष्टि रूकी नहीं खैर कुछ देर में श्रृष्टि फ़िर से तीन कप चाय लेकर आई और साक्षी को देते हुए बोलीं... साक्षी तुझे तो कॉफी पीने की आदत है लेकिन हम मां बेटी को चाय पीने की आदत है। इसलिए कॉफी की जगह चाय लेकर आई हूं। तुझे बूरा तो नहीं लगेगा।

साक्षी... क्यों कल भी तो तूने मुझे चाय पिलाया था तब तो तूने मुझसे कुछ नहीं कहा अच्छा आंटी आप ही बताइए कहा लिखा है कॉफी पसंद करने वाला चाय नहीं पी सकता हैं।

"कहीं नहीं लिखा हैं।"

साक्षी... ये बात जरा अपने इस डफेर बेटी को समझाइए

डफेर सुनते ही माताश्री हंस दि और श्रृष्टि चिड़ते हुए बोलीं... मां साक्षी मुझे डफेर बोल रहीं हैं और आप इसे कुछ कहने के जगह हंस रहीं हों।

इस बार माताश्री और साक्षी दोनों श्रृष्टि की बातों पर हंस दिया फ़िर माताश्री बोलीं... श्रृष्टि बेटा इसमें छिड़ने वाली कोई बात ही नहीं हैं। तूने बाते ही मूर्खो वाली कहीं हैं।

श्रृष्टि... मां...।

श्रृष्टि एक बार फिर से चीड़ गई। माताश्री ने उसे समझा बुझा कर मना लिया बहरहाल चाय खत्म होने के बाद साक्षी फ़िर आने को बोलकर विदा लिया। साक्षी को श्रृष्टि बहार तक छोड़ने आई। बहार आकर श्रृष्टि बोलीं... साक्षी सर को बोल देना मैं कुछ दिन छुट्टी पर रहूंगी।

साक्षी... मैं क्यों बोलूं छुट्टी तुझे चाहिए तू खुद ही बोल देना।

श्रृष्टि...क्या तू मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकती हैं।

साक्षी... कर तो बहुत कुछ सकती हूं पर करूंगी नहीं क्योंकि जब तू बिना बताए आ गई तो सर सुनकर बहुत चिंतित हों गए थे। इसलिए नहीं की तू उनके साथ लंच पर नहीं गईं। वो चिंतित इसलिए हुए थे क्योंकि उन्हें तेरी फिक्र हैं। अरे मैं भी कौन सी बाते लेकर बैठ गई अच्छा मैं चलती हूं और तू अपने छुट्टी की अर्जी खुद ही सर को फ़ोन करके लगा देना।

साक्षी चली गई और श्रृष्टि भीतर आ गई। जब वो माताश्री के कमरे में पहुंची तो देखा माताश्री किसी ख्यालों में गुम है। ये देख श्रृष्टि बोलीं... मां आप किस ख्यालों में खोए हों।

"कुछ नहीं बस ऐसे ही। अच्छा ये बोल रात के खाने में क्या बना रहीं हैं।"

श्रृष्टि... जो आप कहो

रात्रि भोजन में क्या बनाया जाएं। ये सुनिश्चित होते ही श्रृष्टि रसोई में चली गई और रात्रि भोजन की तैयारी करने लग गईं। तभी "श्रृष्टि बेटा तेरा फ़ोन बज रहा है देख ले किसका फ़ोन आया हैं।" माताश्री आवाज देते हुए बोली। तब श्रृष्टि अपना मोबाइल लेने गई तब तक कॉल कट चुका था।

स्क्रीन पर दिख रहे नाम को देख कर फटा फट एक msg टाइप करके भेज दिया और फ़ोन अपने साथ लेकर रसोई में आ गई। रसोई में आने के बाद भी कई बार मोबाइल बजा मगर श्रृष्टि नजरंदाज करके अपना काम करती रहीं। उसकी आँखे अब जवाब दे गई पर तय जो किया था

माताश्री के पांव में फैक्चर की वजह से प्लास्टर चढ़ा हुआ था इसलिए सावधानी बरते हुए श्रृष्टि ने दफ्तर में छुट्टी की अर्जी लगा दिया था। इसका पाता चलते ही माताश्री ने श्रृष्टि को डांटा कि साधारण सी चोट है इसके लिए तुझे छुट्टी लेने की जरूरत नहीं हैं। तू दफ्तर जा मैं खुद का ख्याल रख लूंगी। मगर श्रृष्टि माताश्री की एक न सुनी और घर पर ही रहीं।



 

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उधर साक्षी के जरिए राघव को भी खबर मिल चुकी थी कि किस करण श्रृष्टि चली गई थी जिसे जानकार राघव ने कहीं बार श्रृष्टि को कॉल किया लेकिन एक भी बार श्रृष्टि ने कॉल रिसीव नहीं किया बल्कि जवाब में एक msg भेज देया था।

राघव बेचारा प्यार की बुखार से पीड़ित, आशिकी का भूत सिर पर चढ़ाए बस श्रृष्टि की एक शोर्ट msg से खुद को संतुष्ट कर लेता था।

एक हफ्ते की छुट्टी के बाद श्रृष्टि दफ्तर पहुंची जहां सभी ने श्रृष्टि का अव भगत ऐसे किया जैसे श्रृष्टि कई महीनों बाद दफ्तर आई हों।

राघव की जानकारी में था कि आज श्रृष्टि दफ्तर आ रहीं हैं तो महाशय आज अपने नियत समय से पहले ही दफ्तर पहुंच गए और जा पहूंच अपनी माशूका के दीदार करने मगर बेचारे की फूटी किस्मत श्रृष्टि ने नज़र उठकर भी राघव को नहीं देखा। कुछ वक्त तक वह खड़ा रहा इस आस में की श्रृष्टि कभी तो उसकी और देखेगी लेकिन श्रृष्टि ज्यो की त्यों बनी रहीं। अंतः जाते वक्त राघव बोला... श्रृष्टि जरा मेरे कमरे में आना कुछ बात करनी हैं और हा तुमसे ही बात करनी हैं किसी ओर से नहीं इसलिए तुम्हे ही आना होगा।

इतना बोलकर राघव चला गया और श्रृष्टि असमंजस की स्थिति में फंस गई कि करे तो करे क्या? आस की निगाह से साक्षी को देखा तो उसने भी कंधा उचा कर कह दिया। मैं इसमें तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकती हूं जो करना हैं तुम्हें ही करना हैं।

अब राघव के पास जानें के अलावा श्रृष्टि के पास कोई और चारा ही नहीं बचा इसलिए श्रृष्टि राघव के पास पहुंच गई। श्रृष्टि को आया देखकर राघव के होठो पर मंद मंद मुस्कान तैर गया और आंखों से शुक्रिया अदा करते हुए राघव बोला... श्रृष्टि तुम्हारी मां की खबर जानने के लिए कितना फोन किया मगर तुमने एक बार भी बात करना ज़रूरी नहीं समझा। ऐसा क्यों?

श्रृष्टि... सर उस वक्त मैं बिजी रहती थी इसलिए फोन रिसीव नहीं कर पाईं। वैसे भी साक्षी से आप को खबर मिल ही गया होगा कि मां कैसी हैं तो मैं बताऊं या साक्षी बताए बात तो एक ही हैं।

राघव... तुम्हारी मां की खबर मिल ही गया था फ़िर भी मैंने इतना फोन किया कम से कम एक बार कॉल रिसीव कर लेती भला घर पर रहते हुए भी कौन इतना बिजी रहता है जो किसी से बात करने की फुरसत ही नहीं मिल रहा था।

श्रृष्टि... सर दफ्तर के काम के अलावा घर पर भी सैकड़ों काम होते हैं जिसे करना भी ज़रूरी होता हैं। आपकी ज़रूरी बाते हो गया हों तो मैं जाऊं।

राघव... श्रृष्टि मैं देख रहा हूं। कई दिन से तुम मुझे नजरंदाज कर रहें हों। मैं जान सकता हूं मुझसे ऐसा कौन सा गुनाह हों गया है जिसके लिए तुम ऐसा कर रहीं हों।

"सर गुनाह आप से नहीं मूझसे हुआ हैं। मुझे लगता है आपकी ज़रूरी बाते खत्म हों गया होगा इसलिए मैं चलती हूं बहुत काम पड़ा हैं।" सपाट लहजे में श्रृष्टि ने अपनी बाते कह दि और पलट कर चल दिया।

जब श्रृष्टि द्वार तक पहुंची तब रूक गई और आंखें मिच लिया शायद उसके आंखों में कुछ आ गई होगी तो आंखो को पोंछते हुए चली गई। राघव पहले तो अचंभित सा हों गया फ़िर श्रृष्टि को द्वार पर रूकते देखकर मंद मंद मुस्करा दिया और श्रृष्टि के जाते ही धीरे से बोला... ओ हों इतना गुस्सा चलो इसी बहाने ये तो जान गया कि तुम भी मूझसे प्यार करती हों।

जारी रहेगा….
 

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भाग - 28


जब श्रृष्टि द्वार तक पहुंची तब रूक गई और आंखें मिच लिया शायद उसके आंखों में कुछ आ गई होगी तो आंखो को पोंछते हुए चली गई। राघव पहले तो अचंभित सा हों गया फ़िर श्रृष्टि को द्वार पर रूकते देखकर मंद मंद मुस्करा दिया और श्रृष्टि के जाते ही धीरे से बोला... ओ हों इतना गुस्सा चलो इसी बहाने ये तो जान गया कि तुम भी मूझसे प्यार करती हों।

दोपहर के भोजन का समय हों चुका था। सभी आपने अपने जगह बैठ रहें थे। आज कुछ अलग ये हुआ कि साक्षी शिवम के बगल वाली कुर्सी पर बैठी थी और श्रृष्टि कमरे से बहार जा रहीं थीं ये देख साक्षी बोलीं... श्रृष्टि तू बहार कहा जा रहीं है तुझे लंच नहीं करना हैं।?

श्रृष्टि... लंच करने ही जा रही हूं वो क्या है कि आज टिफिन लेकर नहीं आई तो कैंटीन में जा रहीं हूं।

साक्षी... ठीक है फिर जल्दी से लेकर आ।

श्रृष्टि... सोच रहीं थी आज वहीं लंच कर लेती हूं।

इतना बोलकर बिना साक्षी की बात सुने श्रृष्टि चली गई और साक्षी बोलीं...पता नहीं इसे क्या हों गया?

सभी लंच करने की तैयारी कर ही रहें थे उसी वक्त राघव भी वहा आ गया। श्रृष्टि को न देखकर राघव बोला...श्रृष्टि कहा गई उसे लंच नहीं करना।

"सर श्रृष्टि मैम लंच करने ही गई हैं दरअसल मैम कह रहीं थी कि आज टिफिन नहीं लाई हैं तो कैंटीन में करने गईं हैं।" एक साथी बोला

"अच्छा" बस इतना ही बोलकर राघव मुस्करा दिया और अपना टिफिन खोलकर लंच करने लग गया। कुछ ही देर में सभी ने लंच समाप्त किया फ़िर अपने अपने काम में लग गए।

ऐसे ही कई दिन बीत गया और इन्हीं दिनों राघव जितनी भी बार वहा आता प्रत्येक बार श्रृष्टि राघव को नजरंदाज कर देती सिर्फ इतना ही नहीं लांच भी प्रत्येक दिन कैंटीन में जाकर ही करती साक्षी या दूसरे सहयोगी अपने में से खाने को कहते तो मना करके कैंटीन चला जाया करतीं थीं।

श्रृष्टि को ऐसा करते देखकर राघव भी लंच करने कैंटीन में चला जाता और श्रृष्टि के टेबल पर जाकर बैठ जाता तब श्रृष्टि उठकर दूसरे टेबल पे बैठ जाती। श्रृष्टि की बेरुखी देखकर राघव बेहद कुंठित हों जाता मगर हार नहीं मान रहा था। प्रत्येक दिन अपना क्रिया कलाप दौहराए जा रहा था।

जो भी श्रृष्टि कर रहीं थी इससे श्रृष्टि भी आहत हों रहीं थी। जब भी राघव आकर चला जाता तब श्रृष्टि की भावभंगिमा बदल जाती जिसे देखकर साक्षी श्रृष्टि के पास जाकर बोली...श्रृष्टि जब तुझे राघव सर के साथ ऐसा सलूक करके बूरा लगता हैं तो क्यों कर रहीं हैं।

श्रृष्टि... मैं भला राघव सर के साथ कैसा व्यवहार करने लगी जिससे मुझे बूरा लगेगा।

साक्षी...सब जानकर भी अंजान बनने का स्वांग न कर मैं सब देख रही हूं और समझ भी रहीं हूं जब भी तू सर को नजरंदाज करती है प्रत्येक बार तू उदास हों जाती हैं और तेरी आंखें छलक आती है फिर भी तू ऐसा क्यों कर रही हैं? ये बात मेरे समझ से परे हैं।

श्रृष्टि... मैं भाला स्वांग क्यों करने लग गई? मैने न कभी स्वांग किया है न ही करती हूं और रहीं बात मेरे आंखें छलकने की तो उस वक्त कोई धूल का कर्ण चला गया होगा।

साक्षी... श्रृष्टि बार बार एक ही किस्सा कैसे दौहराया जा सकता है? तू कह रहीं हैं तो मान लेती हूं। अच्छा सुन इस इतवार को मैं तेरे घर आ रही हूं तू घर पर तो रहेगी न।

श्रृष्टि... तुझे मैंने कभी रोका हैं? जब मन करें तब आ जाना।

साक्षी... रोका तो नहीं है पर सुनने में आया है तू आज कल इतवार को भी बहुत बिजी रहने लगीं है बस इसलिए पूछ लिया।

साक्षी ने जो कहा उसे सुनकर श्रृष्टि समझ गई की साक्षी का इशारा किस ओर है इसलिए बिना कुछ कहे अपने काम में लग गई। कुछ देर काम करने के बाद साक्षी जा पहुंची राघव के पास साक्षी को आया देखकर राघव बोला...साक्षी कुछ काम बना कुछ पता चला ? श्रृष्टि क्यों ऐसा कर रहीं हैं।?
 

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साक्षी... सर पता तो नही चला लेकिन अब पता चल जायेगा मैं इतवार को उसके घर जा रहीं हूं और कैसे भी करके उससे जानकर ही रहूंगी कि वो आपको नजरंदाज क्यों कर रहीं हैं जबकि ऐसा करके वो दुखी हो जाती हैं।

राघव... तभी तो तुम्हें पता करने को कहा क्योंकि कई बार मैंने भी गौर किया है। श्रृष्टि मुझे नजरंदाज कर रही हैं या फिर सपाट लहजे में कुछ कह देती हैं उसके अगले ही क्षण उसकी आंखें डबडबा जाती हैं।

साक्षी... बस कुछ दिन और फ़िर सब पता कर लूंगी।

राघव... चलो ये भी करके देख लेता हूं। अच्छा ये बताओं तुम्हारा और शिवम का कहा तक पहुंचा है बेचारे को अभी तक लटका रखा हैं। उसे हा या न में जवाब क्यों नहीं दे देती।

साक्षी... सर शिवम को मैंने परख लिया है वो मेरी मापदंड में बिल्कुल खरा उतरता है। बस आप और श्रृष्टि के बीच जो थोड़ी बहुत दूरी है उसे खत्म कर दूं फिर शिवम जो सुनना चाहता है उसे उसके पसंदगी का जवाव दे दूंगी।

राघव... मतलब की तुम बेचारे को अभी और तराशने वाली हों।

साक्षी... हां! अभी तरसेगा तभी तो मेरे पीछे खर्चा करेगा ही ही ही।

राघव... तुम भी न चलो जाओ अब कुछ काम भी कर लो अलसी कहीं कि हां हां हां।

इसके बाद साक्षी चली गईं। काम काज में यह दिन बीत गया शाम को श्रृष्टि रात्रि भोजन बना रहीं थी माताश्री भी उसके बगल में थी जो उसकी मदद कर रही थीं।

श्रृष्टि सब्जी बना रहीं थीं मगर उसका ध्यान सब्जी पर नहीं कहीं और थीं। जिसे देखकर माताश्री उसके कंधे पर हाथ रख दिया। स्पर्श का आभास होते ही श्रृष्टि आंखें मिच लिया ये देख माताश्री बोलीं... क्या हुआ श्रृष्टि आंखें क्यों मिच लिया?

श्रृष्टि... मां लगता है सब्जी की मिर्ची वाली भाप आंखो में चला गया है।

"जा आंखें धो ले तब तक सब्जी मैं देख लेती हू।"

श्रृष्टि तूरंत ही सिंक में आंखो को धोने लग गई। बहरहाल खाना बन जाने के बाद दोनों मां बेटी साथ में खाना लगाकर खाने लग गई। खाना खाते वक्त भी श्रृष्टि का ध्यान खाने पर नहीं कहीं ओर था ये देखाकर माताश्री मुस्कुराते हुए बोली... श्रृष्टि तेरा ध्यान किधर हैं।

माताश्री की आवाज कानों को छूते ही श्रृष्टि का ध्यान भंग हुआ फिर श्रृष्टि बोलीं... बस मां काम को लेकर कुछ सोच रहीं थीं।

"तू काम की नहीं अपने सर के बारे में सोच रहीं थी। क्यों मैने सही कहा न?" अब मैंने भी बाल धुप में सफ़ेद नहीं किये है ही ही ही

इतना सुनते ही श्रृष्टि चौक कर माताश्री की और देखा और माताश्री मुस्कुरा दि। जिसे देखकर श्रृष्टि नज़रे घुमा लिया ओर बोलीं…नहीं तो मां मैं भला उनके बारे में क्यों सोचने लगीं।

"अच्छा! चल कोई बात नही मैंने शायद गलत ख्याल पाल लिया होगा। अच्छा सुन तू अपने सर और खुद के बारे मे जो भी फैंसला लेना सोच समझकर लेना और अभी तक नहीं सोचा हैं तो उस पर गौर से सोचना।"

इतना बोलकर माताश्री मुस्कुरा दिया। श्रृष्टि माताश्री को गौर से देखने लगी और समझने की कोशिश करने लगी कि मां ऐसा कहकर मुस्कुरा क्यों रही है उनके मुस्कुराने के पीछे वजह किया है पर श्रृष्टि कोई वजह तलाश ही नहीं पाई तो खाने में व्यस्त हो गईं।

ऐसे ही दिन बीतता गया और इतवार का दिन भी आ गया। दिन के करीब 12 बजे द्वार घंटी ने बजकर किसी के आने का संकेत दिया। श्रृष्टि जाकर दरवाजा खोला और आए हुए शख्स को देखकर बोलीं... साक्षी आने में कितनी देर कर दी मैं कब से तेरा वेइट कर रही थीं।

साक्षी... अच्छा मेरे आने का या फ़िर किसी ओर के आने का बेसबरी से वेइट कर रहीं थी।

श्रृष्टि... अरे जब आने वाली तू थी तो किसी और के आने का भला मैं क्यों वेइट करने लगीं।

साक्षी... वो क्या है न राघव सर भी तुझसे अकेला मिलना चाहते हैं तो मैंने सोचा शायद तू राघव सर के आने का वेट कर रहीं होगी इसलिए बोला था। अच्छा बता आंटी कहा हैं दिख नहीं रहीं।

"तू बैठ मैं चाय लेकर आती हूं। मां कुछ काम से बजार गई हैं।" इतना बोलकर श्रृष्टि रसोई की और चली गई। दो पल रूककर साक्षी भी रसोई की और चली गई। वह जाकर देखा श्रृष्टि का एक हाथ फ्रीज के डोर पर है और दुसरा हाथ उसके आंखों के पास है ये देखकर साक्षी बोलीं... श्रृष्टि क्या हुआ।

अचानक साक्षी की आवाज सुन कर श्रृष्टि सकपते हुए बोली... वो फ्रिज का डोर खोल रहा था तो शायद कुछ आंखों में चली गईं।

श्रृष्टि की बाते सुनकर साक्षी मुस्कुरा दिया फिर दो कदम आगे बढ़कर श्रृष्टि के कांधे पर हाथ रखकर बोली….फ्रिज का डोर तो बंद है फिर बिना डोर खुले तेरे आंखो में कुछ कैसे जा सकता हैं। ? और आजकल तेरी आँखों में कुछ ज्यादा ही कण घुस रहे है है ना?

श्रृष्टि का झूठ पकड़ा गया और उसके पास प्रतिउत्तर देने के लिए कुछ बचा ही नहीं था। इसलिए बिना कुछ बोले फ्रिज से दूध निकलकर चाय चढ़ा दिया। गैस पे चाय धीमी आंच पर पक रही थी और साक्षी बोलीं... श्रृष्टि कभी कभी हम कितना भी झूठा स्वांग रचा ले लेकिन कभी न कभी हमारा झूठ पकड़ा ही जाता हैं। आज तेरा भी झूठ पकड़ा गया। तू भले ही राघव सर के प्रति कितना भी बेरूखी दिखा ले मगर भीतर ही भीतर तू भी कूड़ती रहती हैं। खुद को कोसती रहती हैं कि तूने उनके साथ ऐसा क्यों किया। श्रृष्टि मैं सही कह रहीं हूं ना?।

जारी रहेगा…
 

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Friends

Being a proud
Sanatani (the FIRST religion of the universe) let me wish you through this platform

Congratulations to all
Sanatani for 5251st Birth Anniversary (Birthday) of LORD Shri KRISHNA (BHAGVAAN)

Today our pray should to
Lord Shri KRISHNA begging blessings to our Country (BHARAT) and all Bharatiya

Let us move forward in our life by f
ollowing GEETA .............And make our life peaceful and prosperous

By this we also moving forward on this story ...........



दोस्तों

सनातनी (ब्रहमांड का पहला धर्म ) होने का गर्व के साथ मै इस फोरम के जरिये ,आप (हम) सब को बधाईया देना चाहती हु

भगवान श्री कृष्ण की 5,251 का जन्मोस्तव की बहोत बहोत बधायिया उनकी कृपा मेरे देश भारत और हम सब भारतीयो पे बनी रहे बस यही भगवान श्री कृष्ण से प्रार्थना के साथ

चलिए आइये हम सब अपनी जिंदगी में
श्री कृष्ण के भगवद गीता में बताये हुए रास्ते को अनुसरते हुए अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाते हुए ..............

इस कहानी में भी आगे बढ़ते हुए ..............

 

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भाग - 29


साक्षी ने जो कहा यहीं सच था। श्रृष्टि जब भी राघव को नजरंदाज कर देती या फ़िर कोई कड़वी बातें कह देती थी उसके बाद वो खुद को कोसती रहती थी और आंखों से नीर बहा देती थी। ऐसे करते हुए कई बार पकड़ी भी गई। पकड़े जानें पर अपने सामने मौजूद वस्तु का बहाना बनाकर टाल देती थीं।

आज जब साक्षी ने उसकी झूठ को पकड़ लिया और उसके हाल-ए-दिल बयां कर दिया तब श्रृष्टि खुद को रोक नहीं पाई और साक्षी से लिपट कर फाफक पड़ी फ़िर रोते हुए बोलीं...साक्षी तू सही कह रहीं हैं सर के साथ जब भी बूरा वर्ताव किया। प्रत्येक बार मुझे उनसे ज्यादा तकलीफ हुआ बहुत ज्यादा तकलीफ हुआ फिर भी सहती रहीं।

कुछ देर श्रृष्टि को रोकर जी हल्का करने दिया। जब श्रृष्टि कुछ संभली तब साक्षी बोलीं... ये आशिकी का बुखार भी बड़ा अजीब होता है जब चढ़ती है सहन शक्ति बढ़ जाती हैं। वहा राघव सर तेरी बेरूखी सहकर भी हंस रहें थे मुस्कुरा रहे थे और यहां तू उनसे बेरूखी दिखाकर कुढ़ती रहती थी। तू जानती हैं। इस मामले में शिवम भी कुछ कम नहीं हैं। बेचारे को न जानें मैंने कितनी कड़वी बातें सुनाया, कितना डांटा बिना एक लफ्ज़ बोले सब सहता रहा। आखिर सहता नहीं तो क्या करता उस पर भी आशिकी का भूत सवार था और मुझे प्यार जो करता हैं। मुझे आज समज में आता है उस शिवम् की स्थिति के बारे में दुःख भी बहोत हुआ अपर अब क्या करू ???

कहते है जब कोई आहत हो या चोटिल हों तब ध्यान भटकने के लिए कुछ ऐसी बातें कह दो जिसकी अपेक्षा उसने कभी किया न हों जिससे उसका ध्यान कुछ पल के लिए भटक जाता है। बिल्कुल वैसा ही श्रृष्टि के साथ हुआ। जो अभी तक आहत थी। साक्षी का कथन सुनकर श्रृष्टि अचंभित हों गई और साक्षी से अलग होकर एक टक बिना पलके झपकाए देखने लगी। उसे ऐसा करते देखकर साक्षी बोलीं...क्या हुआ तू मुझे ऐसे क्यों देख रही है? तुझे क्या लगता है प्यार सिर्फ तू और राघव सर ही कर सकते हैं। बाकी कोई नहीं कर सकता हैं।

श्रृष्टि... ऐसा नहीं है प्यार तो सभी कर सकते हैं ताज्जुब की बात ये है की हिटलर को भी प्यार होता है। प्यार पर किसी का मालिकाना हक थोड़ी न है। मुझे तो बस इसलिए झटका लगा की उसने कभी किसी को आभास ही नहीं होने दिया की उसके मन में ऐसी कोई बात है।

साक्षी... बड़ा छुपा हुआ आशिक है। मुझे भी उसकी आशिकी भा गई। अब मैं भी प्यार की दरिया में इश्क का नाव लिए उतर गई रे।

श्रृष्टि... अच्छा तो बता न ये कब और कैसे हुआ?

साक्षी... कब कैसे ये भी जान लेना पर पहले मुझे चाय पिला और जो मैं जानने आई हूं एक एक वाक्य सच सच बता देगी तब ही मैं अपनी बताऊंगी।

श्रृष्टि को समझते देर नहीं लगी की साक्षी क्या जानने आई है इसलिए चुप्पी सद लिया और पलट गई। वह चाय उबालकर गिर चुका था तो साफ सफाई करके दुबारा चाय चढ़ा दिया। चाय बनते ही दो कप में डालकर बहार आ गई और बैठे एक कप साक्षी को पकडा दिया फिर दुसरा कप खुद ले लिया। चाय की चुस्कियां लेते हुए साक्षी बोलीं... श्रृष्टि चाय तो तूने बड़ा बेहतरीन बनाया हैं। अब उतनी ही बेहतरीन तरीके से वो बता जो मैं जानना चहती हूं।

श्रृष्टि... बताना ज़रूरी हैं।?

साक्षी... हां ज़रूरी है।

कुछ देर की चुप्पी छाया रहा। इतने वक्त में श्रृष्टि के मस्तिस्क में विचार चलता रहा फ़िर चुप्पी तोड़ते हुए श्रृष्टि बोलीं…सर से मेरी बेरूखी की वजह सिर्फ उनकी शादी हैं।

इतना बोलकर श्रृष्टि नज़रे चुराने लग गई और साक्षी बोलीं... झूठ सफेद झूठ क्योंकि राघव सर की शादी की बात झूठी थी। यह बात मैंने ही फैलाया था। ये बात मैं तुझे बता चुकी थी और क्यों फैलाया था यह भी तुझे बता चुकी थी फ़िर भी तू उनसे बेरूखी दिखाती रहीं। तो जाहिर सी बात है वजह दूसरी हैं। अब मुझे वहीं दूसरी वजह जानना हैं।

यह सुनकर श्रृष्टि नज़रे झुका लिया और मूल वजह बताने में हिचकिचने लग गई। यह देखकर साक्षी बोलीं...श्रृष्टि राघव सर से मुझे इतना तो पता चल गया कि तू बीती घटनाओं को बताकर सहानुभूति पाने वालो में से नहीं है यह बात तूने खुद राघव सर को बोला था लेकिन अब मामला सहानुभूति की नहीं बल्कि दो दिलों का हैं जो एक दुसरे से बहुत प्यार करते हैं मगर उसी एक वजह के कारण तू आगे कदम बढ़ाने से डर रहीं हैं।

श्रृष्टि... वो वजह मां है।

"आंटी पर क्यों?" चौकते हुए बोलीं

श्रृष्टि... तू मां सुनके इतना चौकी क्यों?

साक्षी... मैं तो बस ऐसे ही चौक गई थी अब तू ये बता आंटी वजह कैसे हों सकती हैं?

श्रृष्टि... मां नही मां के साथ घटी एक घटना मूल वजह हैं।

साक्षी...यार तूने क्या मुझे पागल समझा है कभी कहती है आंटी ही वजह है कभी कहती है उनके साथ घटी एक घटना वजह हैं। यार जो कहना है ठीक ठीक बता यूं मुझे शब्दों में न उलझा।

श्रृष्टि... बात उस वक्त की है जब मां की शादी नहीं हुई थी और मां एक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हुआ करती थी। उस वक्त मां की मुलाकात दक्ष नाम की एक शख्स से हुआ जो कि मेरा बाप हैं। दोनों की मुलाकाते दिन वा दिन बढ़ती गई और मां को उनसे प्यार हों गया। शुरू शुरू में मां उनसे कतराती थीं लेकिन एक दिन पापा ने खुद मां को प्रपोज कर दिया। मां तो पहले से ही उनके प्यार में डूबी हुईं थी इसलिए उन्होंने हां कर दिया।

जब बात शादी की आई तो पापा टाला मटोली करने लग गए। सहसा एक दिन वो खुद से शादी को मान गए। जब ये बात नाना नानी को बता दिया गया। तो उन्होंने मना कर दिया क्योंकि वो रूढ़ी वादी सोच के थे और प्रेम विवाह के सख्त खिलाफ थे।

"अजीब ख्यालात के लोग है। जिन्होंने प्रेम का पाठ पढ़ाया उनकी अर्चना करते हैं। वखान सुनाते हैं और खुद भी सुनते है लेकिन जब वही प्रेम उनके बच्चे करते हैं तो उनकी रूढ़ी वादी सोच आड़े आ जाती हैं।" बात काटते हुए साक्षी बीच में बोलीं

श्रृष्टि…इन्हीं लोगों को ही दोहरा चरित्र वाले कहते है। ये दिखावा कुछ ओर करते है और इनके मन मस्तिष्क में कुछ ओर ही चलता रहता हैं। खैर छोड़ इन बातों को तू आगे सुन... बहुत मान मुनावल किया गया। मगर नाना नानी नहीं माने तब पापा के कहने पर दोनों ने भागकर शादी कर लिया। यहीं एक गलती मां से हों गई। खैर शादी को साल भर बीता ही था की मां को पता चलने लग गई कि पापा भी दौहरे चरित्र वाले है वो जैसा दिखते है वैसा नहीं हैं।

पापा एक छोटा मोटा बिजनेस मैन थे और इनकी आकांक्षा बहुत बडी थीं। पापा मां को ताने देते थे कि उन्होंने सिर्फ उसने शादी इसलिए किया ताकी वो नाना नानी से मदद लेकर अपना व्यापार बड़ा कर सके मगर भागकर शादी करने की वजह से नाना नानी ने मां से सारे संबंध तोड़ लिए और उनकी मनसा धरी की धरी रह गई।

मां ने बहुत कोशिश किया कि उनका वैवाहिक जीवन ठीक चले इसलिए उन्होंने नाना नानी से बात करने की बहुत कोशिश किया मगर उनकी सारी कोशिशे विफल रहीं। इस बीच मैं भी दुनिया में आ चुकी थी पर मेरे आने के बाद भी पापा में कोई बदलाव नहीं आया और जब मैं लगभग तीन या चार साल की थी तब पापा ने मां के सामने डाइवर्स पेपर रख दिया। पेपर देखकर मां बोलीं कि आपके आकांक्षा के आगे मेरा प्यार इतना क्षिण हो गया कि आप मुझे डाइवर्स देने पर आ गए। मेरे बारे में नहीं तो कम से कम हमारी बेटी के बारे में सोच लेते। तब पापा बोले मुझे तुमसे कभी प्यार था ही नहीं मुझे तो बस तुम्हारे बाप की थोड़ी सी दौलत चहिए था जब वो मुझे नहीं मिल रहा तो भला मैं तुम्हें क्यों झेलूं वैसे भी मैंने मेरा इंतजाम कर लिया हैं तुम्हें डाइवर्स देकर उससे शादी करके उसके बाप की अपार संपत्ति का मालिक बनकर मौज करुंगा।


और हां ये श्रुष्टि मेरी ही है उसका कोई प्रमाणपत्र तो है नहीं

मा ने अपने चरित्र पर लांछन लेते हुए भी मां मनाने की बहुत जतन किया बहुत दुहाई दिया पर पापा नहीं माने अंतः मां ने डाइवर्स पेपर पे हस्ताक्षर कर दिया और निकल आए उस वक्त मां का मन किया की आत्महत्या कर ले लेकिन मेरी सुरत देखकर वो ये भी नहीं कर पाए आखिर करते भी तो कैसे मां इतनी निष्ठुर थोड़ी न थी जो मुझे इस दुनिया में अकेले छोड़कर चली जाती।

बाद में मां नाना नानी के पास भी गए पर उन्होंने ये कहकर मना कर दिया कि उनके लिए मां मर चुकी है। नाना नानी कि बात न मानकर मां ने जो गलती किया उसकी सजा मां को मिल रहीं थीं और मां के भाग जानें की वजह से समाज में जो उनकी किरकिरी हुआ था उसके लिए मां से कोई वास्ता नहीं रखना चाहते थे इसलिए उन्होंने मां को उनके हाल पर छोड़ दिया।

तब मां वो शहर छोड़कर यहां आ बसी और यहां एक कॉलेज में जॉब करना शुरू किया फिर मुझे पल पोसकर इस काबिल बनाया की मैं खुद के दाम पर दुनिया के कंधे से कंधा मिलाकर चल पाऊं। अब तू ही बता न, मां ने कौन सी गलती किया जो उन्हे ऐसी सजा मिली सिर्फ इतना ही न की वो एक दोहरे चरित्र वाले इंसान से प्यार किया। हां मानती हूं मां को भाग कर शादी नहीं करना चाइए थी जो उनकी सबसे बडी गलती थी। या शायद उनका अंधा प्रेम उनसे ये सब करवा दिया

मुझे सिर्फ इस बात का डर है कि सर भी दोहरे चरित्र के न हों और मुझे भी ऐसा कोई कदम उठाना पड़े जो मां ने उठाया था। इसलिए मैं खुद को बहुत रोकना चाहा मगर उनके भाव भंगिमा देखकर न जाने कैसे वो मेरे दिल में जगह बना लिया मैं समझ ही नहीं पाई और जब तूने शादी की झूठी खबर दिया तब मैं बहुत आहत हुई थीं और मां के समझाने पर मैं खुद को सामान्य कर लिया फिर खुद को आगे बढ़ने से रोकने के लिए सर के साथ बेरूखी वाला सलूक करने लग गइ। उससे सर जितने आहत होते थे उससे कहीं ज्यादा मैं आहत होती थी।

जारी रहेगा...
 
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