कामदेव का जादू कुछ क्षण यूँ ही चलता रहा, और जब वो जादुई पल समाप्त हुए, तो दोनों यूँ ही शर्मसार हो गए। समीर पलट कर लौट गया, और मीनाक्षी शरमा कर खुद में ही सिमट गई। आज उसको लगा कि उसका सर्वस्व समीर लेता गया। यदि लज्जा ने मीनाक्षी की दृष्टि को रोक न लिया होता, और उसने अपने पति के शरीर पर उस एकमात्र वस्त्र की ओर देख लिया होता, तो उसको पता चल जाता कि कामदेव के जादू का समीर पर क्या असर हुआ है।
(अब आगे)
शाम को दोनों परिवार मीनाक्षी और समीर के घर पर इकठ्ठा हुए।
मीनाक्षी ने पहले से ही समीर को सख़्त हिदायत दे रखी थी कि वो आज रसोई में न आएँ, और उसको ही सारा काम करने दें। इसलिए उसकी इच्छा का मान रखते हुए समीर ने उसको सारा काम तो नहीं, लेकिन ज्यादातर काम करने को दिया। मीनाक्षी ने पूरे उत्साह से विभिन्न पकवान बनाए और सभी के आने की राह देखने लगी।
सबसे पहले मीनाक्षी के माता पिता ही आए। समीर ने दोनों के पैर छू कर दोनों का अभिनन्दन किया। मिसेज़ वर्मा अपने बांके दामाद को चूमे बिना न रह सकीं। वर्मा जी उनके जितना एक्सप्रेसिव तो नहीं थे, लेकिन उन्होंने भी समीर के कंधों पर हाथ रख कर उसकी कुशल क्षेम पूछी। अपनी बेटी को देख कर दोनों ही बहुत खुश हुए - वो बहुत खुश और स्वस्थ दिख रही थी। उसके चेहरे पर वैसी मुस्कराहट थी, जैसी कई वर्षों पहले होती थी। मिसेज़ वर्मा तो मीनाक्षी के साथ रसोई चलीं गईं उसका हाथ बँटाने और साथ ही एकांत में उसका हाल चाल लेने। समीर और वर्मा जी अकेले ड्राइंग रूम में रह गए।
वो समीर से बात करने में थोड़ा हिचकिचा रहे थे। ज्यादातर इधर उधर की ही बातें कर रहे थे। असहज थे। ‘काम कैसा चल रहा है’, ‘ऑफिस में सब ठीक है’, ‘बढ़िया घर है’, ‘कॉलोनी की अच्छी लोकेशन है’ वगैरह वगैरह। कुछ देर के बाद उनकी बातें घूम फिर कर राजनीति की चर्चा पर आ गई। जब पुरुषों के बीच में उतनी जान पहचान नहीं होती, तब उनके लिए कारगिल, पार्लियामेंट पर आतंकवादियों का हमला, गोधरा - यह सब डिसकस करना ज्यादा आसान होता है। यह सब टॉपिक्स एक न्यूट्रल ग्राउंड पर होते हैं - इसलिए यहाँ व्यक्तिगत ठेस लगने की के कम चान्सेस होते हैं।
वर्मा जी भी क्या करें! उनके मन में एक दुविधा सी थी - समीर उनके बेटे का मित्र है और समीर उनकी बेटी का पति भी है। अब वो किस वाले समीर से बात करें, उनको समझ ही नहीं आती। एकलौती पुत्री के पिता होने के नाते वो शुरुवात में ही चाहते थे कि समीर से पूरी निर्लज्जता से पूछ लें, कि तुम जैसे विवाह वाले दिन थे वैसे ही हो अभी तक, या अभी अपना रंग बदल दिया? समाज का सताया हुआ पुरुष और करे भी तो क्या करे?
लेकिन जब वो अपनी बेटी के मुखारविंद पर प्रसन्नता और आत्मविश्वास की चमक देखते हैं, तो यह प्रश्न ही उनके लिए बेमानी हो जाता है। उनके मन में एक ग्लानि का भाव भी आ जाता है। यह लड़का जिसने उनकी पगड़ी उछलने से बचा लिया, जिसने उनका समाजिक और आत्म सम्मान दोनों ही न सिर्फ बचा लिया, बल्कि बढ़ा भी दिया, उस लड़के बारे में वो अभी भी ऐसा सोचते हैं यह सोच कर उनको ग्लानि हुई।
वो कमरे की दीवारों पर समीर और मीनाक्षी की अंतर्राष्ट्रीय कलाकारों के साथ 2 - 3 मढ़ी हुई तस्वीरें लगी देखते हैं। मीनाक्षी ने उन तस्वीरों में पाश्चात्य परिधान पहना हुआ है। ‘कैसी प्यारी सी लगती है वो!’ उसकी मुस्कान देख कर वर्मा जी को अच्छा लगता है। उसकी यह मुस्कान देखे तो एक मुद्दत हो गई है। उनको याद था कि जब उसकी शादी तय हुई थी, तब भी वो ऐसी खुश नहीं थी। बिटिया सब देख रही थी - कैसे उसके पिता का संचित धन उसकी शादी के व्यर्थ के इंतजाम में जाया हो रहा था। वो कैसे खुश होती?
बेटी से जब वो एकांत में पूछते हैं तो बेटी उनके दामाद का ऐसा बखान करती है की मानों मायके में उसको पिंजरे में बंद कर के रखा गया था। फिर उनको लगा कि शायद यह बात सही ही हो - उन्होंने मीनाक्षी को पारम्परिक तरीके से पाल पास कर बड़ा किया है। बस जो बात उन्होंने बाकियों से भिन्न करी वो यह थी कि उन्होंने उसको पढ़ाने लिखाने में कोई कोताही नहीं करी। बाकी संस्कार तो पूरे दिए। खैर, उनकी बिटिया प्रसन्न है! और क्या चाहिए।
समीर की सास के लिए उससे बात करना, वर्मा जी की अपेक्षा ज्यादा आसान साबित हुआ। ‘बेटा तुम अच्छे से हो?’, ‘मेरी बेटी तुम्हारा ख़याल रखती है ठीक से?’, ‘हर काम में दक्ष है। इसलिए निःसंकोच जो चाहिए, उसको बोल दिया करो’, ‘थोड़ा ढंग से खाया पिया करो…. कमज़ोर से लग रहे हो’ वगैरह।
वो स्त्री हैं। उनको समझ आता है अपनी बेटी का हाव भाव। जब मीनाक्षी रह रह कर मुस्कुराते हुए समीर को देखती है, तो वो समझ जाती हैं कि अंततः उनकी बेटी को एक सुखी घर मिल गया है। जब वो समीर को मीनाक्षी का हाथ बँटाते देखती हैं, तो वो समझ जाती हैं कि समीर उनकी बेटी को प्रेम से रखता है। वो देख लेती हैं कि उनकी बेटी स्वस्थ है। उसके चेहरे पर एक नई लालिमा है।
कुछ देर में उनके समधी भी आ जाते हैं।
“माफ़ कीजिएगा भाई साहब! आने में ज़रा देर हो गई। दरअसल पंद्रह अगस्त, दिवाली, और छब्बीस जनवरी को मेरे ऑफिस में मैं दावत का इंतजाम रखता हूँ। बेटे के की शादी के कारण इस बार की दावत थोड़ा ज्यादा हो गई। हा हा हा हा!”
“हा हा हा हा हा!” वर्मा जी समझ गए कि कैसी पार्टी हुई थी।
मीनाक्षी की माँ सब देख रही हैं।
समीर की माँ उनसे मिलने से पहले मीनाक्षी से मिलती हैं। वो उसको गले लगाती हैं, और उसको चूमती हैं। उसके कान में सहेलियों की तरह खुसुर पुसुर करती हैं। मीनाक्षी भी दाँत निकाले अपनी सास की बातों पर अल्हड़ता से हंसती है। यह सब करने के बाद फिर आ कर वो उनसे और उनके पति से मिलती हैं। मीनाक्षी की माँ बिलकुल भी बुरा नहीं मानतीं अगर समीर की माँ उनसे न भी मिलतीं! क्योंकि उनको एक बात का पक्का विश्वास हो गया था -
‘सच में, उनकी बेटी इस घर में बहू नहीं, बेटी ही बन कर आई है!’
थोड़ी ही देर बाद आदेश भी आ जाता है। और घर में हंसी ठहाकों का दौर चलने लगता है।
रात्रिभोज के बाद वर्मा जी, समीर के पिता से बोले, “भाई साहब, हमारी इच्छा है कि बिटिया को घर लिवा लाएँ। शादी के बाद से आई नहीं।”
“भाई साहब, अब ये तो आप मीनाक्षी बिटिया से ही पूछ लीजिए। वो जैसा चाहेगीं वही होगा। हमारी तरफ से कोई रोक-टोक थोड़े ही है!”
“बोलो बिटिया!”
“पापा, वो मैं.... अभी नहीं।” मीनाक्षी ने तपाक से बोला, “मैं अभी नहीं आ सकती। अभी तो यहाँ का ही सब सेटअप करना है। और नई नई जॉब है।”
पिता के चेहरे पर निराशा देख कर वो आगे बोलती है, “दशहरा या दिवाली पर प्लान करते हैं।”
कह कर उसने समीर की तरफ देखा। उसकी आँखों में एक नटखटपन था। मिसेज़ वर्मा से वो नटखटपन छुप न पाया। वर्मा जी यह सब नहीं देख पाते। आदेश अपने दोस्त से बतियाने में व्यस्त था। वर्मा जी कुछ बोलने वाले हुए ही थे, कि मिसेज़ वर्मा ने उनको रोक दिया।
“ठीक है बेटा! हाँ, सही बात है अभी कैसे आओगी! जब भी फुर्सत मिले आ जाना। समीर बेटे के साथ।”
वर्मा जी को आश्चर्य हुआ। उनकी ही तरह उनकी पत्नी भी चाहती थीं की मीनाक्षी घर आ जाए, और कुछ समय साथ में बिताए। लेकिन यहाँ तो उसका सुर ही पलट गया।
बाद में जब उन दोनों को कुछ क्षणों का एकांत मिला, तो वो अपने पति से मुस्कुराते हुए बोलीं, “बिटिया को लिवा लाने की बात छोड़ दीजिए। वो बहुत खुश है यहाँ। मैं बताऊंगी आपको बाद में। लेकिन यकीन मानिए मेरा, मीनाक्षी बहुत खुश है।”