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Erotica सोलवां सावन

komaalrani

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बयालिसवीं फुहार-

घर वापसी - बसंती


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गुलबिया को भी जल्दी थी, मुझे भी। गुलबिया को अपने मर्द को खरमिटाव देने की जल्दी थी और मुझे घर पहुँचने की। दुपहरी ढल रही थी।



बाहर से ही उसने सांकल खटकाई और बसंती निकली, उसने जल्दी जल्दी बंसती को कुछ समझाया। मैंने सुनने को कोशिश नहीं की क्योंकी मुझे मालूम था की गुलबिया क्या बोल रही होगी। वही जो कामिनी भाभी ने बार-बार चेताया था, कल सुबह तक अगवाड़े पिछवाड़े नो एंट्री।



बसंती ने दरवाजा अंदर से बंद किया और आंगन में ही मुझे जोर से अंकवार में भर के भींच लिया, जैसे मैं न जाने कब की बिछुड़ी हूँ।

और आज जिस तरह बसंती देर तक मुझे अंकवार में लेकर दबा रही थी उसमें सिर्फ प्यार और दुलार था। और मैं भी उसे मिस कर रही थी। कल शाम को ही तो मैं कामिनी भाभी के घर गई थी, 24 घंटे भी नहीं हुए थे, लेकिन अब भाभी का ये घर अपना घर ही लगता था, उनकी माँ, चम्पा भाभी, बसंती, मजाक, मस्ती छेड़छाड़ अलग बात थी लेकिन ये सारे लोग मेरा ख्याल भी कितना रखते थे।



चुप्पी मैंने ही तोड़ी, पूछा- चम्पा भाभी कहाँ हैं?

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दूसरा दिन होता तो बसंती उन्हें दस गालियां सुनाती, अपने देवरों से चुदवा रही हैं, कहीं गाण्ड मरवा रही होंगी, ऐसे ही जवाब सुनने की मुझे उम्मीद थी। लेकिन वो सीधे साधे ढंग से बोली-


“अंदर कुछ काम रही हैं। बस आ रही होंगी…”



दुपहरिया बस ढल रही थी।

धूप के घर वापस जाने का समय हो गया था और वो लम्बे-लम्बे डग भरते वापस जा रही थी। आधे आँगन में धूप थी, हल्की गुनगुनी नरम-नरम और आधे में छाँह थी, मेरे कमरे से सटी हुई एक चटाई पड़ी थी, आँगन के पुराने नीम के पेड़ की छाँह में। धूप उसपर चितकबरी ड्राइंग बना रही थी।


जो आवारा बादल, गाँव के लौंडों की तरह मुझे ललचाते ऊपर से झाँक रहे थे, जब मैं कामिनी भाभी के घर से चली थी, मेरा पीछा करते-करते आँगन तक पहुँच गए थे, और अब उनके साथ और भी श्वेत श्याम बादल।

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चम्पा भाभी आईं और हम तीनों वही चटाई पर बैठ गए और गुटरगूं चालू हो गई।



पता चला की भाभी और उनकी माँ, शाम तक आ जाएंगी। कल वो लोग बगल के गाँव में किसी के यहां गई थीं। उन दोनों ने कुछ भी नहीं पूछा की कामिनी भाभी के यहां क्या हुआ?



और भी गाँव के लोगों के बारे में, बिना मेरे पूछे बसंती बोली की अजय भी भाभी लोगों के साथ गया था लेकिन वो शायद परसों आएगा। हाँ चन्दा मिली थी और पूछ रही थी।



रात भर की थकन, जिस तरह से भैया भाभी ने… देह थक के चूर-चूर हो रही थी। एक पल को भी मुश्किल से आँख लगी थी। और ऊपर से गुलबिया, शार्ट कट के नाम पे कम से कम दो चार किलोमीटर का एक्स्ट्रा चक्कर तो उसने लगवाया ही था।

मैंने लाख मना किया लेकिन बसंती बोली की मैं कुछ खा लूँ।


पर चम्पा भाभी मेरी मदद को आईं। मुझसे बोली- “थकी-थकी लग रही हो थोड़ी देर सो जा, कुछ देर बाद बसंती चाय बनाएगी तो तुझे जगा देंगे…”

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और मैं झट से कोठरी में घुस गई। पहले तो कामिनी भाभी ने जो क्रीम, तेल, गोलियां और लड्डू दिए थे सब ताखे में सम्हाल के लगा दिए। फिर मेरी नजर पड़ी और मैं बिना मुश्कुराए नहीं रह सकी। कड़ुवे तेल की बोतल, एकदम गर्दन तक बचाबच भरी, ताखे पर सबसे ऊपर फिर मेरी निगाह उस छोटे से दरवाजे पर पड़ी जहां से अजय आया था और सारी रात निचोड़ के रख दिया था मुझे।


छोटी सी खिड़की जहां से गाँव की बँसवाड़ी और घनी अमराई दिखती थी। थकी इतनी थी की झट से नींद ने आ दबोचा। लेकिन आप कितनी भी थकी रहो, रात को, किसी भी गाँव की नई दुल्हन से पूछो, मर्द छोड़ता है क्या? और वही हालत सपनों की थी, न जाने कहाँ-कहाँ से रंग बिरंगे सपने, पंख लगाए इंद्रधनुषी।

बस सिर्फ एक बात थी की अगर सपने सेंसर होते, तो सब पर कैंची चल जाती और कुछ पर अडल्ट का सर्टिफिकेट लग जाता। सपनों की कोई सींग पूँछ भी तो नहीं होती, कहीं से शुरू कहीं से खत्म हो जाते हैं। कोई भी बीच में आ जाता है। लड़के लड़कियां, औारतें सब।
 
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komaalrani

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सपने

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छोटी सी खिड़की जहां से गाँव की बँसवाड़ी और घनी अमराई दिखती थी। थकी इतनी थी की झट से नींद ने आ दबोचा। लेकिन आप कितनी भी थकी रहो, रात को, किसी भी गाँव की नई दुल्हन से पूछो, मर्द छोड़ता है क्या? और वही हालत सपनों की थी, न जाने कहाँ-कहाँ से रंग बिरंगे सपने, पंख लगाए इंद्रधनुषी।

बस सिर्फ एक बात थी की अगर सपने सेंसर होते, तो सब पर कैंची चल जाती और कुछ पर अडल्ट का सर्टिफिकेट लग जाता। सपनों की कोई सींग पूँछ भी तो नहीं होती, कहीं से शुरू कहीं से खत्म हो जाते हैं। कोई भी बीच में आ जाता है। लड़के लड़कियां, औारतें सब।



एक लड़के के मोटे खूंटे पे मैं बैठ के झूला झूल रही थी, तभी उसने पकड़ के मुझे अपने ऊपर खींच लिया और दोनों पैर पिछवाड़े पे करके बाँध दिया। मैं हिल डुल भी नहीं सकती थी। और तब तक पीछे से दूसरे ने, कामिनी भाभी के मर्द से भी मोटा औजार रहा होगा, ठेल दिया।

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“फट गई आईई…”

मैं जोर से चीखी लेकिन चीख न निकल पाई। मेरे खुले मुँह में एक मोटा लण्ड किसी ने ठूंस दिया। उसके बाद तीनों ने हचक-हचक कर… सपने में भी दर्द के मारे मैं मरी जा रही थी। मजे से भी मैं मरी जा रही थी। गपागप-गपागप, सटासट-सटासट, तीनों छेदों में मोटा मूसल, और तभी एक कस के खिलखिलाहट भरी हँसी सुनाई दी और एक तगड़ा कमेंट।

सपने में भी ये आवाज मैं पहचान सकती थी, गुलबिया थी-

“कहो हमार छिनार ननदिया आ रहा है मजा भरौटी क लौंडन का, अरे अबहिन तो आई शुरुआत है, आधा दरजन से ऊपर अभी तेल लगाकर मुठिया रहे हैं…”


फिर गुलबिया ने उन लड़कों को लललकारा- “अरे हचक के पेलो सालों। आगे-पीछे दूनों भोसड़ा बन जाना चाहिए। जब आई भरोटी से जाए न तो चार लड़कन वाली सी भी ढीली एकर भोसड़ा हो जाना चाहिए…”

अरे अचानक मैंने उन लड़कों को पहचाना, वही तो थे जो आज भरोटी में मिले थे और जिन्हें ललचा के मैं दावत दे के आ गई थी।

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गुलबिया एकदम पास आ गई थी और सपने में मैं वो देख रही थी जो कल मैंने शाम को सच में देखा था। झूले के बाद जब पानी बरसने लगा था तो वहीं कीचड़ में लिटाकर, पटक कर, नीरू। अरे वही सुनील की बहन जो मुझसे भी थोड़ी छोटी है, और गुलबिया, बसंती, चम्पा भाभी सबकी ननद लगती है।

बसंती ने कस के उसे दबोच रखा था और गुलबिया सीधे उसके ऊपर, साड़ी उठा के, अपनी मोटी-मोटी जाँघों से कस के उसका सर दबोच के…चारों ओर बारिश की बूंदें बरस रही थीं, और गुलबिया की बुर से, हल्की-हल्की सुनहली धार, नीरू छटपटा रही थी, छोटे-छोटे किशोर चूतड़ पटक रही थी, लेकिन बसंती और गुलबिया की पकड़,


सपने में मैं कहीं भी नहीं थी, लेकिन सपनों का क्या भरोसा?



कुछ देर में नीरू की जगह मैं थी और मेरे ऊपर बसंती।



चम्पा भाभी, चमेली भाभी, मेरी भाभी की माँ सब बसंती को ललकार रही थी- पिला दे, पिला दे।

कुछ देर बाद बसंती ने सुनहला शरबत, मैंने आँखें बंद कर ली पर सपने में आँखें बंद करने से क्या होता है? हाँ कुछ देर में सपना जरूर बदल गया। बसंती और गुलबिया दोनों मेरे बगल में थी, मेरी गोरी चिकनी जाँघे फैली थीं, मैं देख नहीं पा रही थी, लेकिन कुछ देर में मैंने वहां एक जीभ महसूस की, पहले हल्के-हल्के फिर जोर से मेरी चूत चाट रहा था।



अपने आप जैसे मैं पिघल रही थी, मेरी जाँघे खुद-ब-खुद खुल रही थी, फैल रही थी। मैं एकदम आपे में नहीं थी। बस मन कर रहा था की…



और वो जीभ भी, पहले ऊपर से नीचे तक जोर-जोर से चाटने के बाद, उसने जैसे उंगली की तरह मेरी गुलाबी पंखुड़ियों को फैलाया और, सीधे अंदर। फिर गोल-गोल अंदर घूमने लगी।



“नहीं राकी नहीं, अभी नहीं, तुम बहुत शैतान हो गए हो, लालची छोड़, बस कर, बाद में बाद में…” मैं नींद में बोल रही थी। अपने हाथ से हटाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उसकी जीभ का असर, मस्ती से मेरी गीली हो गई।



तब तक झिंझोड़ के मैं जगाई गई- “बहुत चुदवासी हो रही हो छिनार, अरे बिना राकी से चुदवाए तुझे जाने नहीं दूंगी लेकिन अभी तो उठो…”



मैंने मुश्किल से आँखें खोली। चम्पा भाभी थीं। और जिसे मैं सपने में राकी की जीभ समझी थी, वो चम्पा भाभी की हथेली और उंगलियां थी।



उन्होंने छोटी सी स्कर्ट को उलट दिया था और जो मुझे जगाने का उनका तरीका था, अपनी गदोरी से मेरी चूत को हल्के-हल्के रगड़ मसल रही थीं, और जब मैंने मस्त होकर खुद अपनी जाँघे फैला दी तो उंगली का एक पोर बल्की उसकी भी टिप सिर्फ, खुले फैले निचले गुलाबी होंठों के बीच।



मैं एकदम पनिया गई थी, मन कर रहा था बस कोई हचक के… लेकिन मैं भी जानती थी कल सुबह तक उपवास है, भूखी ही रहना होगा…”



“आ गई है न चल आज से राकी तेरे हवाले फिर से। तुझे बहुत भूख लग रही होगी न, बसंती हलवा बना रही है तेरा फेवरिट…”चंपा भाभी बोलीं।


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लेकिन मेरे दिमाग में तो कामिनी भाभी की बातें याद आ रही थी, जब वो गुलबिया को उकसा रही थी, मुझे ‘खिलाने पिलाने’ के लिए। कहीं बसंती भी कुछ, और मैं कुछ कर भी तो नहीं सकती थी। घर में सिर्फ बसंती और चम्पा भाभी ही तो थीं, और चम्पा भाभी कौन कामिनी भाभी से कम थीं।



गनीमत थी कमरे से बाहर आँगन में आते ही रसोई से मीठी-मीठी सोंधी-सोंधी बेसन के भूने जाने की महक आ रही थी। सच में मेरा फेवरिट, बेसन का हलवा।



मौसम भी बदल गया था। सांझ ढलने लगी थी, धूप अब नीम के पेड़ की फुनगियों पर अटकी थी और रही सही उसकी गरमी, आवारा बादल कम कर रहे थे, जो झुण्ड बना के किरणों से लुका छिपी खेल रहे थे। हवा में भी मस्ती और नमी थी, लगता था आस-पास के गाँव में कहीं ताजा पानी बरसा है।
 
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***** *****बसंती

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मौसम के साथ-साथ चम्पा भाभी का मूड भी अब मस्ती भरा हो रहा था। उन्होंने मजे से मुझे प्यार से धक्का देकर चटाई पर गिरा दिया, और खुद मेरे बगल में आके लेट गईं। उनकी शरारतें जो मुझे जगाने के साथ जो शुरू हुई थीं, दुगुनी ताकत से चालू हो गईं।



एक बार फिर से स्कर्ट उठा के उन्होंने मेरी कमर तक कर दिया और बोलीं- “अरे जरा इसको भी तो हवा खाने दो, काहें अपनी बुलबुल को हरदम पिजड़े में रखती हो?”



लेकिन मैं क्यों छोड़ती उन्हें, आखिर थी तो मैं भी उनकी ननद। मैंने ऊपर की मंजिल पे हमला किया और ब्लाउज के ऊपर से ही गदराए जोबन अब मेरी मुट्ठी में थे, और चटपट-चटपट उनकी दो चार चुटपुटिया बटनों ने साथ छोड़ दिया और कबूतर पिंजड़े से बाहर झांकने लगे।



उन्हें भी मालुम था की प्रेम गली के अंदर आज आना जाना बंद था, लेकिन गली के बाहर भी तो जादू की बटन थी। बस दोनों भरी-भरी रसीली मोटी-मोटी चूत की पुत्तियों के किनारे-किनारे चम्पा भौजी की रस भरी उंगलियां, और कभी-कभी एक झटके में हथेली से रगड़ देतीं और मेरी सिसकियां निकल जाती।



तभी ढेर सारे घी की महक और बेसन के हलवे में दूध डालने की झनाक की आवाज आई, और मेरा ध्यान उधर चला गया।



चम्पा भाभी का दूसरा हाथ मेरे टाप के अंदर, आखिर ऊपरी मंजिल में तो कोई रोक टोक थी भी नहीं, और जोर से उन्होंने टाप के अंदर ही मेरा निपल पुल कर दिया।



जवाब में मेरा हाथ भी उनके ब्लाउज के अंदर घुस गया और यही तो वो चाहती थीं, एक कमिसन किशोरी के हाथ जोबन मर्दन, मसलना रगड़ना। और वो मैंने शुरू कर दिया।



उनकी उंगलियों ने मेरे ऊपर और नीचे दोनों हमला कर दिया।



तबतक रसोई से बंसती की आवाज आई- हलवा बन गया है, निकाल के ले आऊँ या…



उनकी बात पूरी भी नहीं हुई थी की चम्पा भाभी ने जवाब दे दिया- “अरे इस छिनार को सीधे कड़ाही से गरम-गरम हलवा खिलाओ तभी तो…”



और अबकी बात बसंती ने काटी, बोलीं- “हलवा खिलाऊँगी भी और हलवा बनाऊँगी भी…” बसंती ने रसोई से ही जवाब दिया, और कुछ देर में सच में सीधे वो रसोई से कड़ाही ही लेकर बाहर निकली।



बेसन के हलवे की सोंधी सोंधी मीठी-मीठी महक मेरे नथुने में भर गई। मेरा सारा ध्यान उधर ही था।



लेकिन बंसती का ध्यान मेरी खुली जाँघों और चम्पा भाभी की वहां खोज बीन करती उंगलियों पर। उसने चम्पा भाभी से शिकायत की- “अरे अकेले-अकेले इस कच्ची कली का मजा लूट रही हो?”



“एकदम नहीं, आओ न मिल बाँट के खाएंगे इसको…” हँसते हुए चम्पा भाभी बोलीं।



लेकिन मेरी निगाहें हलवे पर थीं, इतना गरम-गरम हलवा, देसी घी तो तैर रहा था, लेकिन खाऊँगी कैसे? चम्मच वम्मच तो कुछ था नहीं।



चम्पा भाभी और बसंती दोनों ही मेरे तन और मन दोनों की जरूरतें मुझसे ज्यादा समझती थीं और वो भी बिना बोले, और इस बार फिर यही हुआ- “अरे ननद रानी, दो-दो भौजाइयों के होते हुए तू काहे आपन हाथ इश्तेमाल करोगी, हम दोनों के हाथ हैं न तुम्हारे लिए…”



और एक बार फिर चम्पा भाभी और बसंती ने मुझे मिल के बाँट लिया। एक बार चम्पा भाभी खिलाती तो अगली बार बसंती और कभी हाथ से तो कभी अपने मुँह से सीधे। मेरे दोनों हाथ भी बिजी थे, एक हाथ तो पहले ही चम्पा भाभी के ब्लाउज में घुसा था, दूसरे ने बसंती के ब्लाउज में सेंध लगा दी। मेरे लिए तो दोनों भौजाइयां थीं।



बंसती की बदमाशी या मेरी लापरवाही, जरा सा हलवा मेरे टाप पे गिर गया और फिर एक झटके में बसंती बोली- “अरे इतना महंगा, खराब हो जाएगा, उतार दो इसको…” और वो और चम्पा भाभी मिलके… मेरा टाप अगले पल चटाई के दूसरी ओर पड़ा था।



लेकिन उस समय मस्ती में मुझे भी परवाह नहीं थी और परवाह करके कर भी क्या सकती थी, चम्पा भाभी और बसंती की जुगलबंदी के आगे। उनमें से एक ही काफी थी, मुझसे क्या खेली खाई ननदों से निबटने के लिए और जब बसंती और चम्पा भाभी मिल जाएं तो हर ननद जानती थी कि सरेंडर के अलावा कोई चारा भी नहीं होता था। सरेंडर करो और जम के मजे लो।



मैंने भी वही किया।



बंसती अपने मुँह से हलवा खिलाती, हँसती खिलखिलाती, मुझे छेड़ती, बोली- “अरे ननद रानी, आज कूचा कुचाया खाय ला, बाहाने (कल) पचा पचाया खाए क मिली…”



मेरे मन में कामिनी भाभी की बात याद आ गई जो गुलबिया को वो चढ़ा रही थीं और गुलबिया भी हँस के कह रही थी- “अरे अभी तो आई सात आठ दिन रहेंगी न, रोज बिना नागा खिलाऊँगी, और सीधे से न मनेहें तो जबरदस्ती…”



पूरा नहीं तो कुछ-कुछ मैं भी समझ रही थी उसकी बातें, इधर चम्पा भाभी आँख के इशारे से बसंती को बरज रही थी की वो ऐसी बातें न करें की कहीं मैं बिचक न जाऊँ।



पर बसंती इस समय पूरे मूड में थी। वो कहाँ मानने वाली, एक हाथ से उसने जोर से मेरे निपल को उमेठा, पूरी ताकत से और फिर अपने मुँह से सीधे मेरे मुँह में। मेरा मुँह हलवे से भरा था और वो बोली- “अरे रानी थोड़ा बहुत जबरदस्ती तो करनी ही पड़ेगी, बुरा मत मानना, और बुरा मान भी जाओगी तो कौन हम छोड़ने वाले हैं…”



अब चम्पा भाभी भी बसंती के रंग में रंग गई थीं, मुझे देखकर नजरों से सहलाती, ललचाती बोलीं- “अरे अइसन कम उमर क लौंडियन क साथ तो, जबरदस्ती में ही… थोड़ा बहुत हाथ गोड़ पटकिहें, चिखिहें चिल्लइहें, तबै तो असली मजा आता है…”
 

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बूंदन बूंदन - पहली बारिश का मज़ा




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जब बसंती और चम्पा भाभी मिल जाएं तो हर ननद जानती थी कि सरेंडर के अलावा कोई चारा भी नहीं होता था। सरेंडर करो और जम के मजे लो।

मैंने भी वही किया।

बंसती अपने मुँह से हलवा खिलाती, हँसती खिलखिलाती, मुझे छेड़ती, बोली-

“अरे ननद रानी, आज कूचा कुचाया खाय ला, बेहने (कल) पचा पचाया खाए क मिली…”

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मेरे मन में कामिनी भाभी की बात याद आ गई जो गुलबिया को वो चढ़ा रही थीं और गुलबिया भी हँस के कह रही थी-

“अरे अभी तो आई सात आठ दिन रहेंगी न, रोज बिना नागा खिलाऊँगी, और सीधे से न मनेहें तो जबरदस्ती…”

पूरा नहीं तो कुछ-कुछ मैं भी समझ रही थी उसकी बातें, इधर चम्पा भाभी आँख के इशारे से बसंती को बरज रही थी की वो ऐसी बातें न करें की कहीं मैं बिचक न जाऊँ।


पर बसंती इस समय पूरे मूड में थी। वो कहाँ मानने वाली, एक हाथ से उसने जोर से मेरे निपल को उमेठा, पूरी ताकत से और फिर अपने मुँह से सीधे मेरे मुँह में। मेरा मुँह हलवे से भरा था और वो बोली-

“अरे रानी थोड़ा बहुत जबरदस्ती तो करनी ही पड़ेगी, बुरा मत मानना, और बुरा मान भी जाओगी तो कौन हम छोड़ने वाले हैं…”

अब चम्पा भाभी भी बसंती के रंग में रंग गई थीं, मुझे देखकर नजरों से सहलाती, ललचाती बोलीं-

“अरे अइसन कम उमर क लौंडियन क साथ तो, जबरदस्ती में ही… थोड़ा बहुत हाथ गोड़ पटकिहें, चिखिहें चिल्लइहें, तबै तो असली मजा आता है…”


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और देखते-देखते हम तीनों मिल के हलवा चट कर गए।

वास्तव में बहुत स्वादिष्ट था और मुझे भूख भी लगी थी। मैं सच में अपने होंठ चाट रही थी। कड़ाही में कुछ हलवा अभी बचा था, तलछट में लगा। चम्पा भाभी ने बसंती को इशारा किया और मुझे हल्के से धक्का देकर चटाई पे गिरा दिया,मेरी कोमल कलाइयां चम्पा भाभी की मजबूत गिरफत में।



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बंसती ने करो के हलवा निकाला, चम्पा भाभी ने दबा के मेरा मुँह खोलवा दिया, और सीधे बंसती ने सारा का सारा मेरे मुँह के अंदर… हलवा इतना गरम था की, लग रहा था मुँह जल गया।

मैं चिल्लाई- पानी, पानी।

बसंती तो सिर्फ कड़ाही में रसोई से हलवा लाई थी, न ग्लास न पानी।
चम्पा भाभी ने बसंती की देखकर मजे से मुश्कुराया।

“पानी, जल गया, पानी…”

मुश्किल से मैं बोल पा रही थी, दोनों को बारी-बारी से देखते मैंने गुहार लगाई।

“अरे बसंती, पियासे को पानी पिलाने से बहुत पुन्न मिलता है, बेचारी चिल्ला रही है, पिला दे न…” मुश्कुरा के चम्पा भाभी ने बसंती से बोला।

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“और क्या ननद की पियास भौजाई नहीं बुझाएगी तो कौन बुझाएगा? और ये खुदे मांग रही है…”

और बसंती मेरे ऊपर, उसकी दोनों टांगों ने मेरे कंधों बाहों को कस के दबा लिया था, मेरे सर को चम्पा भाभी ने दोनों हाथों से पकड़ लिया था, मैं एक सूत नहीं हिल सकती थी। बसंती ने अपनी साड़ी सरका के कमर तक कर ली, मेरे मुँह से बस कुछ ही दूर।

मेरे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।

“बोलो, ननद रानी, पिला दूँ पानी बहुत पियास लगी है न?” मेरी आँखों में आँखें डाल के पूछा।

मुँह जल रहा था मुश्किल से मेरे मुँह से निकला- पानी।


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सांझ ढल रही थी। सुनहली धूप नीम के पेड़ की फुनगियों से टंगी छन-छन कर नीचे उतर रही थी।

“पिला दूँ, एक बूँद भी लेकिन इधर-उधर हुआ न तो बहुत पीटूंगी…” वो बोली।

पूरी ताकत से उसने मेरे गालों को दबा रखा था और मेरा मुँह खुला हुआ था चिड़िया की तरह। पिघलती सुनहली धूप मेरे ऊपर गिर रही थी जैसे पिघलते सोने की एक-एक बूँद हो, मेरे खुले मुँह में एक सुनहली बूँद बंसती की छलक कर, फिर दूसरी, फिर तीसरी, सीधे…

मैंने दीये की तरह की अपनी बड़ी-बड़ी आँखें बंद कर लीं। जाँघों के बीच बंसती ने मेरे सर को दबोच रखा था, पहले पिघलता सोना बूँद बूँद फिर, छरर छरर, सुनहली शराब।



“ऐ छिनरो आँख खोल, देख खोल के…”

बसंती जोर से बोली और कस के मेरे निपल नोच लिए।

दर्द से मैं बिलबिला उठी और चट से मेरी आँखें खुल गई, बूँद बूँद बसंती की, बुर से, सीधे मेरे मुँह में। और अब बसंती ने मेरा मुँह सील कर दिया, और फिर तो, जैसे कोई शैम्पेन की बोतल मुँह में लगाकर उड़ेल दे, पूरी की पूरी, एक बार में, घल घल

मैंने कुछ देर मुँह में रोकने की कोशिश की पर बंसती के आगे चलती क्या? एक तो उसने एक हाथ से मेरे निपल को पूरी ताकत से उमेठ दिया, और फिर मेरे नथुनों को दूसरे हाथ से भींच दिया। मुँह उसकी बुर ने सील कर रखा था, पहले ही।

“घोंट, रंडी क जनी, हरामजादी, भड़वे की, घोंट पूरा, वरना एक बूँद साँस को तड़पा दूंगी…”

अपने आप मेरा गला खुल गया, और सब धीमे-धीमे अंदर, चार पांच मिनट तक,

बसंती अभी उठी भी नहीं थी की बाहर से सांकल खटकाने की आवाज आई। साड़ी का यही फायदा है, बसंती सिर्फ खड़ी हो गई और साड़ी ने सब कुछ ढँक लिया।

बाहर गुलबिया थी, बसंती की बुलाने आई थी। बिंदु सिंह की बछिया बियाने वाली थी इसलिए उसको और बसंती को बुलाया था। गुलबिया अंदर तो नहीं आई लेकिन जिस तरह से वो मुझे देखकर मुश्कुरा रही थी, ये साफ था की वो समझ गई थी कि बसंती मेरे साथ क्या कर रही थी?

उसने ये भी बोला- “भाभी और उनकी माँ गाँव में तो आ गई है लेकिन वो लोग दिनेश के यहाँ रुकी है, और उन्होंने कहलवाया है की वो लोग आठ बजे के बाद ही आएंगी, इसलिए खाना बना लें और मैंने खाना खा लूँ, उन लोगों का इन्तजार न करूँ…”



बादल एक बार फिर से घिर रहे थे, एक बार फिर दरवाजे से झाँक के बंसती ने मुझे देखकर मुश्कुराते हुए बोला- “घबड़ाना मत, घंटे भर में आ जाऊँगी…” और गुलबिया के साथ चल दी।

जिस तरह से वो गुलबिया से बतिया रही थी, ये साफ लग रहा थी की उसने सब कुछ,

और मैंने चम्पा भाभी की ओर देखा। मुझे लगा की शायद वो मुझे चिढ़ाए, खिझाएं, लेकिन, बस उन्होंने मेरी ओर देखा और मुश्कुरा दीं। और मैंने शर्माकर आँखें नीचे कर लीं।
 
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Naina

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304
लो, सावन बहका है
बूँदों पर है खुमार, मनुवा भी बहका है।

बागों में मेले हैं
फूलों के ठेले हैं,
झूलों के मौसम में
साथी अलबेले हैं।

कलियों पर है उभार, भँवरा भी चहका है।

ऋतुएँ जो झाँक रहीं
मौसम को आँक रहीं,
धरती की चूनर पर
गोटे को टाँक रहीं।

उपवन पर हो सवार, अम्बुआ भी लहका है।

कोयलिया टेर रही
बदली को हेर रही,
विरहन की आँखों को
आशाएँ घेर रही।

यौवन पर है निखार, तन-मन भी दहका है।

सभी के सभी मनमोहक अपडेट थे, जिसे पढ़ कर जैसे दिन ही बन जाये | अपडेट लिखते-लिखते आप कई बातें ऐसी पहलुओं को जोड़ देती हैं जो की मन को लुभा दे | आप अपडेट और कहानी के अभी तक के सार को बड़े अच्छे से जोड़ती हो| किरदारों के बीच के कामुक क्रियाकलाप की क्या परिभाषा होती है ये आपने अपने अपडेट में बहुत अच्छे से पेश कि है|
वेसे narrations में आपने कमाल कर दि है... शब्दों का ऐसा कमाल काफी कम देखने को मिलता है... चाहे इरोटिका के जरिये सही पर हर शब्द के अंदर भावनाये कूट कूट के भरी हुई है.. हर किसी के बस की बात नहीं होती भावनाओ को प्रदर्शित करना जो की आपने बेहतरीन ढंग से कि है...
ऐसे ही लिखती रहिये और हम पाठको का मनोरंजन करती रहिये.... :applause: :applause:
 
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snidgha12

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जे तो हमारी मा और बुआ कि कहानी लगती है... जबे भी दौनों मिलती हैं... बस यही सब होता है
 

komaalrani

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जे तो हमारी मा और बुआ कि कहानी लगती है... जबे भी दौनों मिलती हैं... बस यही सब होता है


स्वागत है, आपका इस सूत्र पर , एकदम सही कहा आपने अरे यही तो ननद भौजाई का रिश्ता है, जिंदगी की मिठास है,
 
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komaalrani

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लो, सावन बहका है
बूँदों पर है खुमार, मनुवा भी बहका है।

बागों में मेले हैं
फूलों के ठेले हैं,
झूलों के मौसम में
साथी अलबेले हैं।

कलियों पर है उभार, भँवरा भी चहका है।

ऋतुएँ जो झाँक रहीं
मौसम को आँक रहीं,
धरती की चूनर पर
गोटे को टाँक रहीं।

उपवन पर हो सवार, अम्बुआ भी लहका है।

कोयलिया टेर रही
बदली को हेर रही,
विरहन की आँखों को
आशाएँ घेर रही।

यौवन पर है निखार, तन-मन भी दहका है।

सभी के सभी मनमोहक अपडेट थे, जिसे पढ़ कर जैसे दिन ही बन जाये | अपडेट लिखते-लिखते आप कई बातें ऐसी पहलुओं को जोड़ देती हैं जो की मन को लुभा दे | आप अपडेट और कहानी के अभी तक के सार को बड़े अच्छे से जोड़ती हो| किरदारों के बीच के कामुक क्रियाकलाप की क्या परिभाषा होती है ये आपने अपने अपडेट में बहुत अच्छे से पेश कि है|
वेसे narrations में आपने कमाल कर दि है... शब्दों का ऐसा कमाल काफी कम देखने को मिलता है... चाहे इरोटिका के जरिये सही पर हर शब्द के अंदर भावनाये कूट कूट के भरी हुई है.. हर किसी के बस की बात नहीं होती भावनाओ को प्रदर्शित करना जो की आपने बेहतरीन ढंग से कि है...
ऐसे ही लिखती रहिये और हम पाठको का मनोरंजन करती रहिये.... :applause: :applause:



आप की इन पंक्तियों ने इस कहानी का रस निचोड़ के रख दिया,

और आप का आना भी सावन भादों से कम नहीं, आप के आते ही हरियाली छा जाती है ,...
 
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Naina

Nain11ster creation... a monter in me
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आप की इन पंक्तियों ने इस कहानी का रस निचोड़ के रख दिया,

और आप का आना भी सावन भादों से कम नहीं, आप के आते ही हरियाली छा जाती है ,...
🇮🇳🇮🇳 स्वंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🇮🇳🇮🇳
 
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