***** *****चालीसवीं फुहार
गुलबिया
दरवाजा शायद ठीक से नहीं बंद था, दरवाजा खुल गया- “फटाक…”
और गुलबिया अंदर
“अरे हम्मे कौन याद कर रहा था?”
घुसते ही गुलबिया ने पूछा।
और मुश्कुराते हुए कामिनी भाभी ने सवाल का मुँह मेरी ओर मोड़ दिया-
“और कौन, इहे हमार तोहार छिनार ननदिया। बहुत गुस्सा हो तुम?” उन्होंने गुलबिया से बोला।
गुलबिया ने मुझे अंकवार में भर लिया और वो कुछ मुझसे पूछ पाती की उसके अनबोले सवाल का जवाब खुद कामिनी भाभी ने खुद दिया। सदर्भ और प्रसंग वही था, जस्ट गुलबिया के आने के पहले का।
कामिनी भाभी ने आँख नचाकर गुलबिया से बोला-
“हमार ननद तोहसे इसलिए गुस्सा हौ की, वो कह रही है की, भौजी हमको आपन स्पेशल हलवा अबहीं तक नहीं खिलायीं, लागत है हमको आपन ननद नहीं मानती है…”
गुलबिया ने तुरंत मेरे गाल पे एक जोर का चुम्मा लिया
अपने एक हाथ से साड़ी के ऊपर से ही मेरे चूतड़ भींचे और हँस के बोलीं-
“अरेये तो हमार सबसे पक्की असली छिनार ननद हौ। बाकि इसकी शिकायत तो सही है, लेकिन अबहीं तोके शहर जाय में 7-8 दिन है न। एक बार क्यों, बार-बार खिलाऊँगी। बल्की भरोटी में बुलायके दावत दूंगी, घबड़ा जिन। और अगर तनिको चू-चपड़ किहु न तो बस जबरदस्ती, हाथ गोड़ बाँध के…”
और साथ ही उसकी समझदार उंगलियां साड़ी के ऊपर से ही मेरी गाण्ड की दरार में दबा के हल्के से घुसा के, हालचाल पता कर रही थीं।
और गुलबिया की आँखों की चमक से पता चल गया की वो समझ गई है की रात भर पिछवाड़े जमकर हल चला है। और रात भर क्यों सुबह सबेरे भी, अभी भी मक्खन मलाई दोनों छलक रही थी।
मैंने बात बदलने की कोशिश करते हुए, अपनी भाभी के लौटने के बारे में पूछा।
पता चला की भाभी और माँ देर शाम तक आ जाएंगी। वो दोनों लोग पड़ोस के गाँव में गई थीं। घर पे बसंती और चम्पा भाभी हैं। और उन दोनों लोगों ने गुलबिया को भेजा है मुझे लाने के लिए। वो अपने साथ मेरे लिए कपड़े भी लाई है, और उसने कपड़े मुझे दे दिए।
एक टाप, जिसकी सबसे निचली बटन को छोड़के सब टूटी, (या तोड़ दी गई थीं, और मुझे सोचने की जरूरत नहीं थी की ये हरकत बसंती भौजी की थी) जिसे मैं दो साल पहले पहनना छोड़ चुकी थी और अब बहुत मुश्किल से घुस सकती थी। और कपड़ा भी बहुत पतला सा, साथ में एक स्कर्ट, वो भी दो साल पहले की, अब घुटनों से कम से कम तीन बित्ते ऊपर।
और मैं कपड़े बदलने के लिए अंदर मुड़ी तो कामिनी भाभी ने मुझे रोक लिया- “अरे हमसे सरमाय रही हो की गुलबिया से, हम तो कुल देखी चुकी हैं और…”
बात काट के गुलबिया बोली- “और हम भी देख लेंगे…”
गुलबिया बात में नहीं हाथ में विशवास करती थी और जब तक मैं कुछ समझू मेरी साड़ी का आँचल उसके हाथ में, और सर्र-
“अरे ननदों की साड़ी खोलने की बहुत ट्रेनिंग है हमको…” हँसके चिढ़ाते गुलबिया बोली।
“और क्या छिनार रंडी ननदें अपने भाइयों के सामने तो चट्ट से खोल देती हैं तो भौजाइयों से का सरम?” कामिनी भाभी ने गुलबिया की हाँ में हाँ मिलाई।
मेरी झिझक का नुकसान ये हुआ की साड़ी तो उतार के गुलबिया ने दूर फेंक दी, मुझे जो वो टाप स्कर्ट लाई थी वो भी नहीं मिली। पहले तो कामिनी भाभी अकेली थीं अब गुलबिया भी शामिल हो गई थी छेड़ने में, और जब तक तीन तिरबाचा नहीं भरवाया, कसम नहीं खिला दी, पता नहीं क्या किस-किस बात की, जिसे बोलने बताने में भी शर्म लगे, हाँ उसमें ये भी शामिल था की मैं एक दिन पूरा उसके साथ भरोटी में बिताऊँगी।
गुलबिया मेरी आँखों में झुक के देखती रही, फिर मुस्कारने लगी,
मैं भी मुस्कराने लगी, गुलबिया ने सीधे मेरे होंठों पे कस के चुम्मी ली और होंठों को कचकचा के काट लिए फिर चिढ़ाते बोली,
" काहें भोरे चोकरत रही की पूरे गाँव के मरदन से गाँड़ मरवइबू, तोरी गंडिया को खूब मोट मोट लंड चाही,... बोला "
मैंने एक बार कामिनी भाभी की ओर देखा लेकिन वो तो ऐसे नादान बनी, जैसे उन्हें कुछ मालूम ही न हो , दूसरी ओर देख रही थीं। सब बदमाशी उन्ही की थी, जब मैं भैया की गोद में चढ़ी थी, उनका मोटा खूंटा मेरे पिछवाड़े धंसा था जड़ तक, वही मेरे निप्स खूब जोर जोर से मरोड़ रही थीं, और मुझसे यह सब कहलवा रही थीं,
"मैं नंबरी छिनार हूँ , गाँड़ मरवाने में आयी हूँ , जिस मरद में इस गाँव के ताकत हो मेरी गाँड़ मार के देख ले , स्साले का निचोड़ के रख दूंगी,"
और बाद में ध्यान आया मुझे खिड़की चौपट खुली थी और उसे से सटी कामिनी भाभी के धान के खेत जहाँ रोपनी लगी थी, दर्जनों रोपनी करने वाली औरतें
वहां, सब कान पारे सुन रही होंगी, खिलखिला रही होंगी, ... और भोर हो गयी थी , दिसा मैदान से लौटती औरतें सब ने, और फिर जब भैया हचक हचक के मेरी मार रहे थे उस समय भी मेरी चीख पुकार,... और गाँव की औरतों को टेलीग्राफ, एक एक मेरी बात नमक मिरच लगाकर , तभी तो गुलबिया भौजी को सब कुछ ,...
मेरे होंठों का स्वाद लेने के बाद गुलबिया ने अपने होंठ हटाए और कस के मेरे जोबन मीसते बोली,
" एही गाँव में नहीं आस पास के गाँव जवार में, आठ मरदन का बयाना आ गया है , सब को हम हाँ बोल दिए हैं , की हमार ननद कोही को ना नहीं बोलतीं, बस आवा निहुरावा और गाँड़ मार ला "
"एकदम सही कह रही हो, अब एक बार फट तो गयी ही है , ढंग से अपने भैया क हमरे सामने, कबौं गोदी में बैठ के कबौं खुदे निहुर के, इ हमार ननद रानी कुल गन सीख के, "
कामिनी भाभी जो अब तक सिर्फ सुन रही थीं , गुलबिया की की बात को और आगे बढ़ाया।
" और का ,... "
गुलबिया बोली , फिर मेरी ओर रुख करते हुए बोली, उ बँसवाड़ी देख रही हो ननद रानी,... "
खिड़की फिर एक बार खुल गयी थी और धान के दूर तक फैले खेतों के आगे, जहाँ कामिनी भाभी के धान के खेत ख़तम होते थे वहीँ, खूब बड़ी सी बँसवाड़ी थी , एकदम गझिन,
उसी के बगल में आठ दस पाकुड़ के पेड़, एक बरगद का पुराना खूब बड़ा सा छितराया, बगल में एक पगडण्डी, अब तक तो मैं गाँव की गैल डगर इतनी पहचान चुकी थी की समझ जाती, जल्दी दिन में भी कोई उधर से नहीं जाता था,... कुछ आगे जा के उसी पगडण्डी से दो फूटतीं थीं , एक अहिरौटी भरौटी की ओर और दूसरी चमरौटी की ओर,... और पगडण्डी भी इतनी पतली की मुश्किल से एक आदमी चल सकता, खूब ऊँची और दोनों ओर सरपत के बड़े बड़े झुरमुट, आदमी से भी ऊँचे, ...
मैं कुछ नहीं बोली देखती रही, ... और गुलबिया ने फिर कस के मेरे गालों पे चिकोटी काटते बोला,
" अपने सामने, एक साथ एक दो नहीं कम से कम तीन चार मरद, जैसे जहाँ एक गाँड़ मारके निकरे तो दूसरका तैयार, जउन गाँड़ से निकारे तउन मुंह में और जेकर चूसब चाटत रहबू , उ गाँड़ में , हचक के गाँड़ मारी जायेगी तोहार उहौ दिन दहाड़े,, एकदम खुले में ,... "
गुलबिया ने अपना इरादा बताया, और मैं समझ गयी थी की वो मज़ाक नहीं कर रही थी, और सुबह सुबह भैया से मरवाके इतना मजा आया था की सच बोलूं तो मेरे मन में भी,... कल तक के लिए तो अगवाड़ा पिछवाड़ा दोनों सील था, लेकिन अब जितना मेरे अगवाड़े खुजली मच रही थी उससे कहीं ज्यादा पिछवाड़े मच रही थी,
तबतक गुलबिया और कामिनी भाभी ने मिल के मुझे झुका दिया था और मौका मुआयना कर रहे थे,
और गुलबिया मेरा पिछवाड़ा सहला रही थी,
" एही गाँव में नहीं आस पास के गाँव जवार में, आठ मरदन का बयाना आ गया है , सब को हम हाँ बोल दिए हैं , की हमार ननद कोही को ना नहीं बोलतीं, बस आवा निहुरावा और गाँड़ मार ला "
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