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Erotica सोलवां सावन

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***** *****चालीसवीं फुहार

गुलबिया





दरवाजा शायद ठीक से नहीं बंद था, दरवाजा खुल गया- “फटाक…”

और गुलबिया अंदर

“अरे हम्मे कौन याद कर रहा था?”

घुसते ही गुलबिया ने पूछा।




और मुश्कुराते हुए कामिनी भाभी ने सवाल का मुँह मेरी ओर मोड़ दिया-

“और कौन, इहे हमार तोहार छिनार ननदिया। बहुत गुस्सा हो तुम?” उन्होंने गुलबिया से बोला।

गुलबिया ने मुझे अंकवार में भर लिया और वो कुछ मुझसे पूछ पाती की उसके अनबोले सवाल का जवाब खुद कामिनी भाभी ने खुद दिया। सदर्भ और प्रसंग वही था, जस्ट गुलबिया के आने के पहले का।

कामिनी भाभी ने आँख नचाकर गुलबिया से बोला-

“हमार ननद तोहसे इसलिए गुस्सा हौ की, वो कह रही है की, भौजी हमको आपन स्पेशल हलवा अबहीं तक नहीं खिलायीं, लागत है हमको आपन ननद नहीं मानती है…”

गुलबिया ने तुरंत मेरे गाल पे एक जोर का चुम्मा लिया





अपने एक हाथ से साड़ी के ऊपर से ही मेरे चूतड़ भींचे और हँस के बोलीं-

“अरेये तो हमार सबसे पक्की असली छिनार ननद हौ। बाकि इसकी शिकायत तो सही है, लेकिन अबहीं तोके शहर जाय में 7-8 दिन है न। एक बार क्यों, बार-बार खिलाऊँगी। बल्की भरोटी में बुलायके दावत दूंगी, घबड़ा जिन। और अगर तनिको चू-चपड़ किहु न तो बस जबरदस्ती, हाथ गोड़ बाँध के…”

और साथ ही उसकी समझदार उंगलियां साड़ी के ऊपर से ही मेरी गाण्ड की दरार में दबा के हल्के से घुसा के, हालचाल पता कर रही थीं।

और गुलबिया की आँखों की चमक से पता चल गया की वो समझ गई है की रात भर पिछवाड़े जमकर हल चला है। और रात भर क्यों सुबह सबेरे भी, अभी भी मक्खन मलाई दोनों छलक रही थी।

मैंने बात बदलने की कोशिश करते हुए, अपनी भाभी के लौटने के बारे में पूछा।

पता चला की भाभी और माँ देर शाम तक आ जाएंगी। वो दोनों लोग पड़ोस के गाँव में गई थीं। घर पे बसंती और चम्पा भाभी हैं। और उन दोनों लोगों ने गुलबिया को भेजा है मुझे लाने के लिए। वो अपने साथ मेरे लिए कपड़े भी लाई है, और उसने कपड़े मुझे दे दिए।

एक टाप, जिसकी सबसे निचली बटन को छोड़के सब टूटी, (या तोड़ दी गई थीं, और मुझे सोचने की जरूरत नहीं थी की ये हरकत बसंती भौजी की थी) जिसे मैं दो साल पहले पहनना छोड़ चुकी थी और अब बहुत मुश्किल से घुस सकती थी। और कपड़ा भी बहुत पतला सा, साथ में एक स्कर्ट, वो भी दो साल पहले की, अब घुटनों से कम से कम तीन बित्ते ऊपर।


और मैं कपड़े बदलने के लिए अंदर मुड़ी तो कामिनी भाभी ने मुझे रोक लिया- “अरे हमसे सरमाय रही हो की गुलबिया से, हम तो कुल देखी चुकी हैं और…”



बात काट के गुलबिया बोली- “और हम भी देख लेंगे…”


गुलबिया बात में नहीं हाथ में विशवास करती थी और जब तक मैं कुछ समझू मेरी साड़ी का आँचल उसके हाथ में, और सर्र-

“अरे ननदों की साड़ी खोलने की बहुत ट्रेनिंग है हमको…” हँसके चिढ़ाते गुलबिया बोली।





“और क्या छिनार रंडी ननदें अपने भाइयों के सामने तो चट्ट से खोल देती हैं तो भौजाइयों से का सरम?” कामिनी भाभी ने गुलबिया की हाँ में हाँ मिलाई।


मेरी झिझक का नुकसान ये हुआ की साड़ी तो उतार के गुलबिया ने दूर फेंक दी, मुझे जो वो टाप स्कर्ट लाई थी वो भी नहीं मिली। पहले तो कामिनी भाभी अकेली थीं अब गुलबिया भी शामिल हो गई थी छेड़ने में, और जब तक तीन तिरबाचा नहीं भरवाया, कसम नहीं खिला दी, पता नहीं क्या किस-किस बात की, जिसे बोलने बताने में भी शर्म लगे, हाँ उसमें ये भी शामिल था की मैं एक दिन पूरा उसके साथ भरोटी में बिताऊँगी।


गुलबिया मेरी आँखों में झुक के देखती रही, फिर मुस्कारने लगी,

मैं भी मुस्कराने लगी, गुलबिया ने सीधे मेरे होंठों पे कस के चुम्मी ली और होंठों को कचकचा के काट लिए फिर चिढ़ाते बोली,


" काहें भोरे चोकरत रही की पूरे गाँव के मरदन से गाँड़ मरवइबू, तोरी गंडिया को खूब मोट मोट लंड चाही,... बोला "



मैंने एक बार कामिनी भाभी की ओर देखा लेकिन वो तो ऐसे नादान बनी, जैसे उन्हें कुछ मालूम ही न हो , दूसरी ओर देख रही थीं। सब बदमाशी उन्ही की थी, जब मैं भैया की गोद में चढ़ी थी, उनका मोटा खूंटा मेरे पिछवाड़े धंसा था जड़ तक, वही मेरे निप्स खूब जोर जोर से मरोड़ रही थीं, और मुझसे यह सब कहलवा रही थीं,

"मैं नंबरी छिनार हूँ , गाँड़ मरवाने में आयी हूँ , जिस मरद में इस गाँव के ताकत हो मेरी गाँड़ मार के देख ले , स्साले का निचोड़ के रख दूंगी,"



और बाद में ध्यान आया मुझे खिड़की चौपट खुली थी और उसे से सटी कामिनी भाभी के धान के खेत जहाँ रोपनी लगी थी, दर्जनों रोपनी करने वाली औरतें




वहां, सब कान पारे सुन रही होंगी, खिलखिला रही होंगी, ... और भोर हो गयी थी , दिसा मैदान से लौटती औरतें सब ने, और फिर जब भैया हचक हचक के मेरी मार रहे थे उस समय भी मेरी चीख पुकार,... और गाँव की औरतों को टेलीग्राफ, एक एक मेरी बात नमक मिरच लगाकर , तभी तो गुलबिया भौजी को सब कुछ ,...



मेरे होंठों का स्वाद लेने के बाद गुलबिया ने अपने होंठ हटाए और कस के मेरे जोबन मीसते बोली,


" एही गाँव में नहीं आस पास के गाँव जवार में, आठ मरदन का बयाना आ गया है , सब को हम हाँ बोल दिए हैं , की हमार ननद कोही को ना नहीं बोलतीं, बस आवा निहुरावा और गाँड़ मार ला "


"एकदम सही कह रही हो, अब एक बार फट तो गयी ही है , ढंग से अपने भैया क हमरे सामने, कबौं गोदी में बैठ के कबौं खुदे निहुर के, इ हमार ननद रानी कुल गन सीख के, "

कामिनी भाभी जो अब तक सिर्फ सुन रही थीं , गुलबिया की की बात को और आगे बढ़ाया।

" और का ,... "

गुलबिया बोली , फिर मेरी ओर रुख करते हुए बोली, उ बँसवाड़ी देख रही हो ननद रानी,... "


खिड़की फिर एक बार खुल गयी थी और धान के दूर तक फैले खेतों के आगे, जहाँ कामिनी भाभी के धान के खेत ख़तम होते थे वहीँ, खूब बड़ी सी बँसवाड़ी थी , एकदम गझिन,





उसी के बगल में आठ दस पाकुड़ के पेड़, एक बरगद का पुराना खूब बड़ा सा छितराया, बगल में एक पगडण्डी, अब तक तो मैं गाँव की गैल डगर इतनी पहचान चुकी थी की समझ जाती, जल्दी दिन में भी कोई उधर से नहीं जाता था,... कुछ आगे जा के उसी पगडण्डी से दो फूटतीं थीं , एक अहिरौटी भरौटी की ओर और दूसरी चमरौटी की ओर,... और पगडण्डी भी इतनी पतली की मुश्किल से एक आदमी चल सकता, खूब ऊँची और दोनों ओर सरपत के बड़े बड़े झुरमुट, आदमी से भी ऊँचे, ...



मैं कुछ नहीं बोली देखती रही, ... और गुलबिया ने फिर कस के मेरे गालों पे चिकोटी काटते बोला,

" अपने सामने, एक साथ एक दो नहीं कम से कम तीन चार मरद, जैसे जहाँ एक गाँड़ मारके निकरे तो दूसरका तैयार, जउन गाँड़ से निकारे तउन मुंह में और जेकर चूसब चाटत रहबू , उ गाँड़ में , हचक के गाँड़ मारी जायेगी तोहार उहौ दिन दहाड़े,, एकदम खुले में ,... "



गुलबिया ने अपना इरादा बताया, और मैं समझ गयी थी की वो मज़ाक नहीं कर रही थी, और सुबह सुबह भैया से मरवाके इतना मजा आया था की सच बोलूं तो मेरे मन में भी,... कल तक के लिए तो अगवाड़ा पिछवाड़ा दोनों सील था, लेकिन अब जितना मेरे अगवाड़े खुजली मच रही थी उससे कहीं ज्यादा पिछवाड़े मच रही थी,



तबतक गुलबिया और कामिनी भाभी ने मिल के मुझे झुका दिया था और मौका मुआयना कर रहे थे,

और गुलबिया मेरा पिछवाड़ा सहला रही थी,



" एही गाँव में नहीं आस पास के गाँव जवार में, आठ मरदन का बयाना आ गया है , सब को हम हाँ बोल दिए हैं , की हमार ननद कोही को ना नहीं बोलतीं, बस आवा निहुरावा और गाँड़ मार ला "
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सेंचुरी,...पिछवाड़े











मैं कुछ नहीं बोली देखती रही, ... और गुलबिया ने फिर कस के मेरे गालों पे चिकोटी काटते बोला,

" अपने सामने, एक साथ एक दो नहीं कम से कम तीन चार मरद, जैसे जहाँ एक गाँड़ मारके निकरे तो दूसरका तैयार, जउन गाँड़ से निकारे तउन मुंह में और जेकर चूसब चाटत रहबू उ गाँड़ में , हचक के गाँड़ मारी जायेगी तोहार उहौ दिन दहाड़े,, एकदम खुले में ,...


गुलबिया ने अपना इरादा बताया, और मैं समझ गयी थी की वो मज़ाक नहीं कर रही थी, और सुबह सुबह भैया से मरवाके इतना मजा आया था की सच बोलूं तो मेरे मन में भी,... कल तक के लिए तो अगवाड़ा पिछवाड़ा दोनों सील था, लेकिन अब जितना मेरे अगवाड़े खुजली मच रही थी उससे कहीं ज्यादा पिछवाड़े मच रही थी,

तबतक गुलबिया और कामिनी भाभी ने मिल के मुझे झुका दिया था और मौका मुआयना कर रहे थे,

और गुलबिया मेरा पिछवाड़ा सहला रही थी,



गाँव में जितनी भौजाइयां थीं सब एक से एक और सब मैं छोटी ननद थीं तो मेरे पीछे , लेकिन गुलबिया सबसे रसीली थी और सबसे एक हाथ नहीं कम से कम कम दस हाथ आगे,

उसका हाथ लगते ही इत्ती जोर की चीटियां काट रही थी की मन कर रहा था अभी कोई स्साला पिछवाड़े ठेल दे, भले दरद के मारे जान निकल जाय, ...



एक ऊँगली मेरी दरार पर , और मुझसे बोली,



" अइसन मस्त गाँड़ तबै तो, ननद रानी अब तो ई गुलबिया का वादा , रोज पांच छह,... "




मैं खड़ी हो गयी थी जोर से चीखी और गुलबिया के गले लिपट गयी ,



" नहीं भौजी नहीं, रोज पांच छह बार एक दो बार तो ,... लेकिन पांच छह बार मेरी तो जान निकल जायेगी "



और गुलबिया और कामिनी भाभी दोनों जोर जोर से हंसने लगी देर तक हंसती रहीं , फिर बड़ी मुश्किल से पहले कामिनी भाभी की हंसी रुकी और मुझे गले लगा लिया और कस के मेरे पिछवाड़े को मुट्ठी में दबाते बोलीं,


" अरे ननद रानी तुम तो बहुत भोरी हो, पांच छह बार नहीं , पांच छ मरद गाँड़ मारेंगे तोहार "

और बाकी बात गुलबिया ने पूरी की.



" और यह गाँव क कउनो मर्द एक बार में अइसन मस्त मुलायम गाँड़ मार के छोड़ने वाले नहीं दो तीन बार तो कम से कम , तो अब जोड़ लो दस दिन में , .... उ का कहते हैं, ... "



और अबकी बात कामिनी भाभी ने पूरी की, ... " सेंचुरी '

" हाँ वही, सौ बार से ऊपर पिछवाड़े में मूसल चली गाँव से वापस जाने के पहले "

गुलबिया ने हिसाब जोड़ दिया।



मैं डर के मारे सिहर रही थी लेकिन सोच रही थी गुलबिया की बात गलत नहीं थी, कल रात से आज सुबह तक भैया ने तीन बार,...


गुलबिया अभी भी मेरा पिछवाड़ा सहला रही थी बहुत हलके हलके , आग लगा रही थी , और अबकी कामिनी भाभी से बोली,


" हम बहुत ननदन क पिछवाड़ा देखे , एहू से कम उमर वालिन क, लेकिन अइसन मस्त आज तक नहीं देखे, मरदन क हालात तो सच में ख़राब होय जात होई "



" एकदम सही कह रही हो , एकरे भैया एकर गाँड़ मार के अइसन लहालोट हो गए थे , आज बहुत जरूरी था शहर जाना लेकिन उनका मन ही नहीं कर रहा था , ... बहुत मुश्किल से समझा बुझा के भेजा। ई तोहार बहिन कौन भागी जारही हैं अबहीं तो आठ दस दिन रहेंगी , कल सांझ के लौट आओगे तो दुबारा,... "

कामिनी भाभी ने गुलबिया की बात पूरी की.

और बात कामिनी भाभी की एकदम सही थी, भैया का जाने का एकदम मन नहीं था, मैं बाथरूम से सुन रही थी।


गुलबिया की ऊँगली बार बार मेरे पिछवाड़े की दरार पर, कस दबाती वो बोली,

" जब तक लौटोगी न तो तोहरे शहर क जउन चवन्नी छाप रंडी हईन न उनके भोसड़े से भी चौड़ा तोहार ई पिछवाड़ा होय जाई। "

कामिनी भाभी को देखते हुए मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी मुस्कान दबायी, और कामिनी भाभी ने भी कोशिश कर के मुस्कान रोकी पर मुझे आँख के इशारे से बरजा की मैं चुप रहूं,...

मैं चुप रही।



कामिनी भाभी ने मुझे बोला था और मुझे उनकी बात पर पूरा विश्वास था,

" स्साली गदहा घोडा से भी मरवाय के आओगी न, अगली बार भी तोहें इतना दर्द होगा जितना पहली बार, मारे दर्द के जान निकल जायेगी,... और मारने वाले को भी उतनी मेहनत करनी पड़ेगी जैसे पहली बार किसी की कुवारी बिन फटी मार रहा हो, ... अरे जब तक दरद न हो , खूब मेहनत न हो तब तक न गाँड़ मारने वाले को मजा न गाँड़ मरवाने वाली को "



और तरीका भी बहुत सिम्पल था , भौजी ने एक जड़ी बूटी वाले मलहम की शीशी दी थी , निकलने के पहले याद से आगे पीछे दोनों ओर ऊँगली जड़ तक डाल के अच्छे से और फिर खूब कस के भींच के दस मिनट,... और फिर रात में सोने के पहले भी वही ट्रिक, ... कामिनी भाभी की गारंटी, गाँव में जब आयी थी उस समय जैसी टाइट थी आगे पीछे दोनों ओर वैसे ही टाइट, ... कोई मारने वाला बता नहीं सकता की पहले भी कोई खूंटा घोंटा है ,...

और उसके साथ गुलबिया ने पूरा मौका मुआयना भी किया, सिर्फ आँखों से नहीं, उंगलियों से भी, पहले ऊपर की मंजिल का, मेरी चूचियों पे जो भैया के दांतों के निशान थे, भौजी के नाखूनों की खरोचें थी, सब एक-एक, और उसके बाद नीचे की मंजिल भी, आगे भी, पीछे भी, और खूब खुश होकर गुलबिया ने पहले मुझे देखा और फिर अचानक झप्प से अंकवार में भरते, दबोचते बोलीं।


“अब हो गई हो मस्त माल, हमार असली ननद, अब तो तोहरे ऊपर चार-चार मर्द एक साथ चढ़ने चाहिए, आगे-पीछे एक साथ, रात भर, दो चोदे, दो मुठियावत खड़ा रहें, एक निकारे दूसरा डारे, एको पल खाली न रहे…” ___

क्या मस्त चूम चूस रही थी गुलबिया भौजी, सच में गाँव की सारी लड़कियां जो जो उस ननद लगती थीं सब कहतीं थी , गुलबिया तो नंदों को चूम चूस के ही एक पानी झाड़ देती है, किसी भी मरद से ज्यादा गरम कर देती थी,



मेरी सच में हालत खराब हो रही थी , छोटे छोटे जोबना पथरा रहे थे , चुनमुनिया चुनचुना रही थी ,

वो अपनी जीभ से कभी मेरे गोरे गोरे गाल चाटने लगती तो कभी जीभ मुंह में पेल कर, क्या कोई लौंडा मुंह में लंड पेलेगा, ...



कामिनी भाभी बगल में खड़ी मुस्करा रही थीं मेरी खराब होती हालत देख रही थीं , उनकी और गुलबिया की जोड़ी के आगे तो चार चार बच्चों की माँ ननदें भी पानी मांग लेती थीं , और मैं तो एकदम नयी बछेड़ी थी, हफ्ते भर पहले तक एकदम कोरी कुँवारी,



एक हाथ से गुलबिया अभी भी मेरा सर पकडे थी और मुस्कराते हुए मेरी आँखों में आँखे डाल के चिढ़ाते हुए पूछा,

" सच बोल ननद रानी, गाँड़ मरवाने में खूब मज़ा आया न "


गुलबिया के सामने चुप रहने का रास्ता नहीं था , मैं मुस्कराती रही , फिर हलके से सर हिला के आँखे झुका के बोली,



" हाँ भौजी "




वो जोर से खिलखिलाने लगी , और हंस के बोली, ...

" अरे नन्दो , भाई चोद पूरे गाँव को मालूम हो गया है की हमार ननद रात भर अपने भैया से खूब हचक हचक के मजे ले ले के गाँड़ मरवाई हो हमार त कुल ननद भाई चोद हैं, ... "


कुछ देर तक उन्होंने मुझे छोड़ दिया और बस मुझे देखती रही मुस्कराती रहीं, फिर एक जबरदस्त चुम्मी लेकर, मेरी आँखों में झाँक के धीरे से बोलीं,



" अच्छा ननदो, ई बतावा, एकदम सच्च , हमार कसम,... ओकरे बाद जो तोहरे भैया चटाये थे ओहमें मजा आया था, ... "


" अरे नन्दो , भाई चोद पूरे गाँव को मालूम हो गया है की हमार ननद रात भर अपने भैया से खूब हचक हचक के मजे ले ले के गाँड़ मरवाई हो हमार त कुल ननद भाई चोद हैं, ... "

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देह का दर्शन



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मैं जोर से शर्मा गई, सुबह की बात याद करके। भौजी भी न, पहले तो जबरदस्ती, दो उंगली मेरे पिछवाड़े हचक के पेल दीं, चार पांच मिनट गोल-गोल घुमाती रहीं फिर मेरे मुँह में जबरन डाल के मंजन कराया, खूब रगड़-रगड़ के, और मुँह भी नहीं धोने दिया और अब ऊपर से कह रही हैं की, मैंने…


भौजी ने तबतक मुझे कस के अंकवार में भर लिया। और तौलिए से मेरी देह रगड़ते पोंछते बोलीं-

“बोल तुझे ये तेरा जोबन कैसा लगता है, है न लौंडों को ललचाने के लायक? सारा गाँव मरता है इस पे, बोल है न दिखाने के लायक?”

मेरे गाल शर्म से गुलाल हो रहे थे, फिर भी मैंने हामी में सर हिलाया।

“अब बोलो ये वाला जोबना दिखाओगी की दुपट्टे में छिपा के रखोगी?” कामिनी भाभी ने फिर पूछा।

कल ही तो उन्होंने सिखाया था। मैं चट से बोली-

“अरे भौजी अब दुपट्टा अगर डालूंगी भी तो एकदम गले से चिपका के, आखिर ये जोबन दिखाने ललचाने की तो ही उम्र है…”



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एकदम सही, और बोल तुझे मैं कैसी लगती हूँ?

“बहुत प्यारी मस्त माल…” चिढ़ाते हुए मैंने उन्हें भींच के चूम लिया।



और भौजी ने देह का दर्शन समझाना शुरू कर दिया-

“देखो सब कितना ख्याल करते है देह का, तेल फुलेल, लिपस्टिक, पाउडर, गहना, कपड़ा, सब कुछ तो एही देह को सजाने के लिए, जिससे देह अच्छी लगे, सुन्दर लगे, और जितना सुख है न सब इसी देह से है, चाहे स्वाद का मजा हो, चाहे अच्छी चीज देखने का मजा, छूने का मजा हो, सुनने का मजा हो सब तो इसी देह से, इसी देह को मिलता है। तो फिर देह को देखने में, दिखाने में कौन शर्म लाज? और जब अई शर्म लाज टूटती है न तभी असली मजा खुल के आता है…”



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बात में भाभी के दम था, यहां आने तक मैं एकदम छुईमुई थी, कोई इधर-उधर हाथ भी लगाता था तो मैं बिदक जाती थी। कोई लड़का सामने से गुजर भी जाता था तो बस मुझे लगता था की कहीं मेरे कच्चे टिकोरों को तो नहीं, और मैं दुपट्टे से अच्छी तरह छोटे-छोटे नए आये जोबन को…

लेकिन पहले ही दिन भाभी के गाँव में जब सोहर हो रहा था तो सब लोग इतने खुल के गालियां गा रहे थे, मुझसे भी कम उमर की लड़कियां एकदम खुल के मजा ले रही थीं, और झूले पे तो कितनी भाभियों ने मेरे उभारों पे हाथ डाला, अंदर भी।

रही सही झिझक मेरी सहेली चन्दा ने रात में जब वो मेरे पास सोई तब खत्म कर दी और फिर रतजगे, जब बिना उमर, रिश्ते का लिहाज किये रतजगे में सबके कपड़े उतरे और सबने खूब मजे लिए,

भाभी की बातें खाते समय भी जारी रहीं- “सबसे बड़ा मजा जानती हो का है?”“चुदाई…”

खिलखिलाते हुए मैं बोली, अब मैं अपनी भौजी की पक्की ननद हो गई थी।



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“एकदम…”

हँसते हुए कामिनी भाभी बोलीं-

“और इसलिए की इसमें देखने का, चखने का, छूने का, सुनने का सब मजा मिलता है। और असली चुदाई भी यही है जिसमें अई कुल हो। अच्छा एक बात बताओ? जब झड़ते समय तोहार भैय्या कटोरा भर रबड़ी तोहरी चूत में डलले रहलें तो मजा मिला था की नहीं?”


और जब तक मैं उनकी बात का जवाब देती भौजी ने दूसरा सवाल दाग दिया-

“और जब तोहरे पिछवाड़े आपन पिचकारी से मलाई छोड़ले रहें तब?”


मैं खिलखिला पड़ी-

“अरे भौजी आई कौन पूछने की बात है। सबसे ज्यादा मजा तो ओहि टाइम आता है। और उस मलाई का स्वाद भी कितना मीठा होता है…”

मुझे गाँव के लड़कों की याद आ गई, अजय, सुनील, दिनेश सबने अपनी मलाई चखाई थी।



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“और उस मलाई का एक फायदा और है?” कामिनी भाभी का क्विज टाइम चल रहा था।

कुछ देर मैंने सिर खुजाया, सोचा, फिर मेरी चमकी-

“अरे भौजी अगर उसको, ओहि से तो दुनियां चलती है। मर्द देता है, औरत घोंटती है तभी तो केहाँ केहाँ होता है सृष्टि चलती है, यू तो अमृत है…”

मैं भी कामिनी भाभी की तरह बोलने लगी थी।

भौजी बड़ी जोर से मुश्कुरार्ई-

“तू और तोहार सारे खानदान वाली, मजा ले ले के लण्ड चूसती हो, उसकी मलाई गटकती हो, तो उँहा से निकलने वाली बाकी चीज में, और फिर अपने खुद की देह से निकली, काहें मुँह बिचकाती हो…”



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मैं समझ गई, कामिनी भाभी का इशारा।

सुबह भइया ने मेरे पिछवाड़े कटोरी भर मलाई निकालने के बाद अपना खूंटा मेरे मुँह में, मैं बहुत ना-नुकुर कर रही थी, लेकिन भला हो भोजी और भैया का, जबरदस्ती उन्होंने, और उसके बाद भौजी ने मंजन भी… मैंने ऐसा भोला सा चेहरा बनाई थी, जैसे मानो कह रही हो ऊप्स भाभी गलती हो गई, आगे से नहीं होगी।

और भाभी ने गुरुज्ञान दे दिया-

“अरे जउने देह से मजे ही मजे है, उससे निकलने वाली चीज भी…”

भौजी की बात में ब्रेक लग गया था क्योंकी वो एक दूसरे काम में लग गई थीं, खाने के बाद। मेरी कुछ खास जगहों का साज सिंगार करने में, वो मुझे उस जगह ले गई जहाँ उनके लेप, लोशन, क्रीम, मलहम, सौंदर्य प्रसाधन, जड़ी बूटियां, वटी, लेप आदि रहते थे। सबसे पहले उन्होंने मेरे जोबन पे उरोज कल्प नामक लेप किया, स्तनों को सुदृढ़ और बड़ा करने वाला।



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और फिर उनकी अपनी बनायी कुछ खासी जड़ी बूटियों से बनी एक क्रीम, मेरी दोनों जाँघे अच्छी तरह फैला के मेरी योनि में जड़ तक भरा। कुछ लेप फिसल कर बाहर भी आ गया। भौजी ने उसे चूत के चारों ओर फैला के रगड़ दिया, और मुझे बोला की मैं कस के अपनी बुरिया भींच लूँ।


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और फिर यही काम उन्होंने पलटकर पिछवाड़े के छेद में भी किया, एकदम बचाबच ऊपर तक क्रीम भर दिया।

और उसे भी मैंने भींच लिया। कुछ ही देर में एक अजब सनसनाहट, ठंडक और चुनचुनाहट आगे-पीछे महसूस होने लगी।

भौजी मेरी हालत देखकर मुश्कुरा रही थीं, चिढ़ाते हुए बोलीं- कैसा लग रहा है?

फिर उन्होंने समझाया- “इसका असर होने में टाइम लगता है, मैंने अगवाड़ा पिछवाड़ा दोनों ही तेरा सील कर दिया है। कल सुबह तक कुछ भी नहीं जाना चाहिए इसके अदंर, फिर चाहे जम के मूसल चलवाना। जो भी रगड़ा रगड़ी में अंदर गड़बड़ हुआ होगा, छिल विल गया होगा, सब कुछ ठीक हो जाएगा कल सुबह तक। उसके अलावा एकदम टाइट कर देगी…”

असर अब धीरे-धीरे मेरी पूरी देह पर हो रहा था, एक अजीब मस्ती, गनगनाहट, आँखें मुंदी जा रही थी,



“अरे तुझे खाने के बाद कुछ मीठा तो खिलाया नहीं…” भाभी बोलीं, और खींच के मुझे पलंग पे। हाँ इस बार धान के खेत और अमराई वाली खिड़की अच्छी तरह बंद थी।

Mast
 
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komaalrani

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" एही गाँव में नहीं आस पास के गाँव जवार में, आठ मरदन का बयाना आ गया है , सब को हम हाँ बोल दिए हैं , की हमार ननद कोही को ना नहीं बोलतीं, बस आवा निहुरावा और गाँड़ मार ला "
🔥🔥🔥

Thanks so much
 

komaalrani

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कामिनी भाभी की सीख




कपड़े मुझे अपने हाथ से पहनाते गुलबिया बोली,


“अरे हमार ननद है, हलवा खिलाऊँगी भी और इसका हलवा बनवाऊँगी भी…”


- हाँ, टाप का जो सबसे निचला बचा खुचा बटन था वो भी उसने नहीं बंद किया, नतीजा ये था की सिर्फ मेरी गहराइयां ही नहीं, बल्की गोलाईयां भी साफ-साफ नजर आ रही थीं और जरा सा झुक जाऊँ तो कंचे की तरह कड़े-कड़े गोल निपल भी झलक जाते थे।

मैं गुलबिया के साथ निकलने वाली थी की कामिनी भाभी को कुछ याद आया और बोलीं-


“अरे तेरे लिए एक झोले में लगाने बाली क्रीम और बाकी सब रखा सामान…”





उनकी बात पूरी होने के पहले ही मैं अंदर चली गई थी। उस झोले में क्या-क्या नहीं था और साथ में एक पुर्जे पे खाने का टाइम, नहाने के बाद और सोने के पहले नीचे, आगे-पीछे लगाने वाली क्रीम, उरोज कल्प, रोज रात में और कहीं बाहर निकलने के पहले और लड्डू खास जड़ी बूटी पड़ा, रात में और एक सुबह खाने का।


लेकिन मेरे कान बाहर चिपके थे, कामिनी भौजी ने सब कुछ, यहां तक की कैसे भइया ने सुबह-सुबह मेरी गाण्ड मारने के बाद सीधे मेरे मुँह में, और कुछ जोर-जबरदस्ती के बाद मैंने सब चाट चूट के साफ कर दिया और कैसे भाभी ने मुझे स्पेशल वाला मंजन अपनी उंगली से।

मैं सरमा भी रही थी लेकिन मस्ती भरी गुदगुदी भी हो रही थी।



मैं जब बाहर निकली तो वो गुलबिया को चेता रही थीं की मेरे आगे-पीछे, दोनों छेद उन्होंने सील कर दिए हैं, स्पेशल क्रीम से, तो कल सुबह तक चिड़िया कोई चारा वारा नहीं खायेगी, उंगली भी नहीं। कल भोर भिनसारे तक का उपवास है, और ये बात वो बसंती और चम्पा भौजी को बता दे।


झोला गुलबिया ने मेरे हाथ से ले लिया और जब हम दोनों बाहर निकले, क्या मस्त मौसम था।



धरती ने धानी चूनर जैसे ओढ़ ली हो, चारों ओर हरियाली के इतने शेड्स, धुली-धुली भोर की बारिश के बाद, टटकी अमराई, जैसे रात भर पिया के संग जगने जगाने के बाद, दुल्हन नहा धो के एकदम ताजी-ताजी, बालों से पानी की बूंदें टपकती हुई, बस उसी तरह अमराई के पत्तों से अभी भी बूंदें रह-रहकर चू रही थीं।



पानी तेज बरसा था, जगह-जगह कीचड़ हो गया था। दूर-दूर तक हरे गलीचे की तरह दिखते धान के खेतों में अभी भी बित्ते भर से ज्यादा ही पानी लगा था। मेडों पर कतार से ध्यान में लीन साधुओं की तरह, सारसों की पांते, और आसमान जो कुछ देर तक एकदम साफ था, अब फिर गाँव के आवारा लौंडों की तरह धूम मचाते कुछ बादल के टुकड़े, जैसे धानी चुनरी पहने जमीन को ललचाई निगाहों से देख रहे हो। हल्की-हल्की पुरवाई भी चल रही थीं, नमी से भरी।



मैं इसी में खोयी थी की मुझे पता ही नहीं चला की मुझे आगे के रास्ते के बजाय, गुलबिया, पिछवाड़े के रास्ते ले आई, जिस कमरे में कल मैं सोई थी और सुबह भी भैय्या के साथ, उसके पीछे, जहाँ खुली खिड़की से धान के खेत दिख रहे थे और रोपनी करने वालों के मीठे गाने सुनाई पड़ रहे थे, उसी ओर।



मैंने उसकी ओर देखा तो मुश्कुरा के वो बोली- “अरे एहर से ननद रानी जल्दी पहुँच जाबू। लेकिन हमार हाथ पकड़ले रहा, वर्ना बहुत कीचड़ हौ…”



रास्ता तो कुछ दिख नहीं रहा था, धान के दूर तक फैले खेत, बगल में घनी अमराई और उसके पास ही गन्ने के खेत। लेकिन मैंने गुलबिया का हाथ पकड़ लिया, गनीमत था की कामिनी भाभी ने जो पिछवाड़े अंदर तक उंगली डाल-डाल के जो अपनी स्पेशल क्रीम लगाई थी, उससे दर्द करीब-करीब खत्म हो गया था। बस एक थोड़ी सी फटन सी बाकी थी और ऊँच नीच पैर पड़ने पर हल्की सी चिलखन हो जाती थी।



गुलबिया लगभग मुझे खींचते हुए धान के खेत की ओर के गई, जिधर रोपनी वाली औरतें अभी भी रोपनी कर रही थी, और उनके गाने की आवाजें अब एकदम साफ-साफ सुनाई दे रही थी।




मैं किसी तरह बचती बचाती चल रही थी। मुझे इस बात का कोई ध्यान भी नहीं था की सुबह-सुबह भैया ने जो मेरी पिछवाड़े वाली ओखली में अपना मोटा मूसल चलाया था, खुली खिड़की से उनमें से कुछ ने देखा भी होगा और मेरी चीखने की आवाजें तो शर्तिया सबने सुनी होंगी।


ऊपर से भौजी ने उस समय मुझसे क्या-क्या नहीं कबुलवाया था वो भी खूब जोर-जोर से- “भइया मेरी गाण्ड मारो हचक-हचक के, पूरे गाँव से मरवाऊँगी, सबको अपनी गाण्ड दूंगी, पता नहीं क्या-क्या?” वो कान बंद रखने पर भी सुनाई पड़ता।


लेकिन मैं बस उस समय किसी तरह कीचड़ से बचाते अपने को, सम्हल-सम्हल के चल रही थी। गुलबिया की उंगली जोर से थामे, कोई रास्ता नहीं दिख रहा था।

तभी एक मेड़ दिखी, दो तिहाई सूखी थी, दोनों ओर वो रोपनी वालियां, और गुलबिया मुझे उधर ही खींच के ले गई, मैं पीछे-पीछे, बस नीचे देखते, एक पैर के ठीक पीछे दूसरा पैर।



और एक रोपनी वाली, पहचानती मैं भी उसको थी, गाँव के रिश्ते से मेरी भाभी ही लगती थी, रतजगा में मैंने उसे बहुत छेड़ा था। गुलबिया से हँस के बोली-


“कहाँ ले जा रही हो आई मस्त माल फांस के, पिछवाड़ा तो बहुते मस्त है, क्या चूतड़ मटका रही है…”



तब तक एक दूसरी जो गाँव की लड़की यानि गाँव के रिश्ते से गुलबिया की छुटकी ननद लगती थी, चुलबुली, तीखी मिर्ची की तरह, मुझे छेड़ती बोली-

“तभी सबेरे-सबेरे, कामिनी भौजी के मर्द तभी सटासट गपागप पिछवाड़े, और इहो चूतड़ उठाय-उठाय के…”



“अरे हमार भईय्या क कौन गलती है? ऐंकर गंड़िये अइसन मस्त है, भैय्या क छोड़ा, गाँव क कुल लौंडन बौरा गए हैं…” दूसरी लड़की बोली।



मैं शर्म से लाल हो रही थी।

कुछ समझ में नहीं आ रहा था की कैसे उनसे आँखें मिलाऊँ?

इसका मतलब सुबह की बात, सबको मालूम हो गई थी। मेरी ऑंखें जमीन से गड़ी हुई थीं। अचानक पता नहीं, पैर में कुछ कांटा सा गड़ा, या पता नहीं कीचड़ लगा, या किसी ने हल्के से धक्का दिया। मैं थोड़ा सा झुक गई, और फिर तो, स्कर्ट मेरी वैसे भी मुश्किल से दो बित्ते की भी नहीं रही होगी, पैंटी पहनना तो गाँव पहुँचते ही छूट गया था, बस चुनमुनिया और गोलकुंडा दोनों की झलक।



लेकिन गुलबिया भी उसने पीछे से दबा के मुझे निहुरा दिया, अच्छी तरह, बस जरा सा इधर-उधर उठने की कोशिश करती तो पक्का चपाक से कीचड़ में गिरती। और गुलबिया ने स्कर्ट उठा के सीधे मेरी कमर पे और सबको दावत दे दी-

“अरे तनी नजदीक से देख ला न?”



एक रोपनी कर रही लड़की जो मेरी उम्र की ही रही होगी और खूब बढ़ चढ़ के बोल रही थी, पास आई और खनकती आवाज में बोली-

“एतना मस्त, पूरे गाँव जवार में आग लगावे वाली हौ, हमरे भैय्या क कौन दोष जो सबेरे भिनसारे चांप दिहलें इसको…”



जो औरत गुलबिया को टोक रही थी, और रतजगे में आई थी उसने थोड़ी देर तक मेरे पिछवाड़े हाथ फिराया, और अपने दोनों हाथों से पूरी ताकत से मेरे कटे गोल तरबूजों ऐसे चूतड़ों को फैलाने की पूरी कोशिश की, लेकिन गोलकुंडा का दर्रा जरा भी न खुला।

एक हाथ प्यार से मारती बोली- “अभी-अभी मरवाई है, एतना मोट मूसल घोंटीती है साल्ली, तबहियों, एतना कसा…”


गुलबिया ने और आग लगाई- “तबै तो पूरे गाँव क लौंडन और मर्दन क लिए चैलेन्ज है ये, आई केहू क मना नहीं करेगी…”

एक लड़की बोली- “अरे आई तो हम अपने कान से सुने थे, अभी थोड़ी देर पहिले…”

दूसरी औरत बोली- “अरे एक गाँव क लौंडन सब नंबरी गाण्ड मारने वाले हैं। जब आई लौटेंगी न अपने मायके तो आई गाण्ड का भोसड़ा हो जाएगा, पूरा पांच रुपैया वाली रंडी के भोसड़ा की तरह। पोखरा की तरह छपर-छपर करिहें सब, एस चाकर होय जाई…”



पहले तो मुझे बड़ा ऐसा वैसा लग रहा था लेकिन अब उनकी बातें सुनने में मजा आ रहा था। सोचा की बोलूं- “इतनों को देख लिया, उनका भी देख लूंगी…”

कामिनी भाभी की मंतर पे मुझे पूरा भरोसा था, उन्होंने असीसा था की मैं चाहे दिन रात मरवाऊँ, आगे-पीछे, न गाभिन होऊँगी, न कोई रोग दोष और अगवाड़ा पिछवाड़ा दोनों ऐसे ही कसा रहेगा, जैसा तब जब मैं गाँव में छुई मुई बन के आई थी। लेकिन चुप ही रही।

तब तक गुलबिया ने मुझे पकड़ के सीधा कर दिया और हम लोग फिर मेड़-मेड़ चल पड़े। पीछे से कोई बोली भी की कहाँ ले जा रही हो इसे?



तो गुलबिया ने भद्दी सी गाली देके बात टाल दी।



जहाँ धान के खेत खत्म होते थे उसके पहले ही गन्ने के खेत शुरू हो गये थे और गुलबिया मुझे ले के उसमें धंस गई।
 
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komaalrani

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धरती ने धानी चूनर जैसे ओढ़ ली हो, चारों ओर हरियाली के इतने शेड्स, धुली-धुली भोर की बारिश के बाद, टटकी अमराई, जैसे रात भर पिया के संग जगने जगाने के बाद, दुल्हन नहा धो के एकदम ताजी-ताजी, बालों से पानी की बूंदें टपकती हुई, बस उसी तरह अमराई के पत्तों से अभी भी बूंदें रह-रहकर चू रही थीं।


पानी तेज बरसा था, जगह-जगह कीचड़ हो गया था। दूर-दूर तक हरे गलीचे की तरह दिखते धान के खेतों में अभी भी बित्ते भर से ज्यादा ही पानी लगा था। मेडों पर कतार से ध्यान में लीन साधुओं की तरह, सारसों की पांते, और आसमान जो कुछ देर तक एकदम साफ था, अब फिर गाँव के आवारा लौंडों की तरह धूम मचाते कुछ बादल के टुकड़े, जैसे धानी चुनरी पहने जमीन को ललचाई निगाहों से देख रहे हो। हल्की-हल्की पुरवाई भी चल रही थीं, नमी से भरी।



कामिनी भाभी की सीख




कपड़े मुझे अपने हाथ से पहनाते गुलबिया बोली,


“अरे हमार ननद है, हलवा खिलाऊँगी भी और इसका हलवा बनवाऊँगी भी…”


- हाँ, टाप का जो सबसे निचला बचा खुचा बटन था वो भी उसने नहीं बंद किया, नतीजा ये था की सिर्फ मेरी गहराइयां ही नहीं, बल्की गोलाईयां भी साफ-साफ नजर आ रही थीं और जरा सा झुक जाऊँ तो कंचे की तरह कड़े-कड़े गोल निपल भी झलक जाते थे।

मैं गुलबिया के साथ निकलने वाली थी की कामिनी भाभी को कुछ याद आया और बोलीं-


“अरे तेरे लिए एक झोले में लगाने बाली क्रीम और बाकी सब रखा सामान…”





उनकी बात पूरी होने के पहले ही मैं अंदर चली गई थी। उस झोले में क्या-क्या नहीं था और साथ में एक पुर्जे पे खाने का टाइम, नहाने के बाद और सोने के पहले नीचे, आगे-पीछे लगाने वाली क्रीम, उरोज कल्प, रोज रात में और कहीं बाहर निकलने के पहले और लड्डू खास जड़ी बूटी पड़ा, रात में और एक सुबह खाने का।


लेकिन मेरे कान बाहर चिपके थे, कामिनी भौजी ने सब कुछ, यहां तक की कैसे भइया ने सुबह-सुबह मेरी गाण्ड मारने के बाद सीधे मेरे मुँह में, और कुछ जोर-जबरदस्ती के बाद मैंने सब चाट चूट के साफ कर दिया और कैसे भाभी ने मुझे स्पेशल वाला मंजन अपनी उंगली से।

मैं सरमा भी रही थी लेकिन मस्ती भरी गुदगुदी भी हो रही थी।



मैं जब बाहर निकली तो वो गुलबिया को चेता रही थीं की मेरे आगे-पीछे, दोनों छेद उन्होंने सील कर दिए हैं, स्पेशल क्रीम से, तो कल सुबह तक चिड़िया कोई चारा वारा नहीं खायेगी, उंगली भी नहीं। कल भोर भिनसारे तक का उपवास है, और ये बात वो बसंती और चम्पा भौजी को बता दे।


झोला गुलबिया ने मेरे हाथ से ले लिया और जब हम दोनों बाहर निकले, क्या मस्त मौसम था।



धरती ने धानी चूनर जैसे ओढ़ ली हो, चारों ओर हरियाली के इतने शेड्स, धुली-धुली भोर की बारिश के बाद, टटकी अमराई, जैसे रात भर पिया के संग जगने जगाने के बाद, दुल्हन नहा धो के एकदम ताजी-ताजी, बालों से पानी की बूंदें टपकती हुई, बस उसी तरह अमराई के पत्तों से अभी भी बूंदें रह-रहकर चू रही थीं।



पानी तेज बरसा था, जगह-जगह कीचड़ हो गया था। दूर-दूर तक हरे गलीचे की तरह दिखते धान के खेतों में अभी भी बित्ते भर से ज्यादा ही पानी लगा था। मेडों पर कतार से ध्यान में लीन साधुओं की तरह, सारसों की पांते, और आसमान जो कुछ देर तक एकदम साफ था, अब फिर गाँव के आवारा लौंडों की तरह धूम मचाते कुछ बादल के टुकड़े, जैसे धानी चुनरी पहने जमीन को ललचाई निगाहों से देख रहे हो। हल्की-हल्की पुरवाई भी चल रही थीं, नमी से भरी।



मैं इसी में खोयी थी की मुझे पता ही नहीं चला की मुझे आगे के रास्ते के बजाय, गुलबिया, पिछवाड़े के रास्ते ले आई, जिस कमरे में कल मैं सोई थी और सुबह भी भैय्या के साथ, उसके पीछे, जहाँ खुली खिड़की से धान के खेत दिख रहे थे और रोपनी करने वालों के मीठे गाने सुनाई पड़ रहे थे, उसी ओर।



मैंने उसकी ओर देखा तो मुश्कुरा के वो बोली- “अरे एहर से ननद रानी जल्दी पहुँच जाबू। लेकिन हमार हाथ पकड़ले रहा, वर्ना बहुत कीचड़ हौ…”



रास्ता तो कुछ दिख नहीं रहा था, धान के दूर तक फैले खेत, बगल में घनी अमराई और उसके पास ही गन्ने के खेत। लेकिन मैंने गुलबिया का हाथ पकड़ लिया, गनीमत था की कामिनी भाभी ने जो पिछवाड़े अंदर तक उंगली डाल-डाल के जो अपनी स्पेशल क्रीम लगाई थी, उससे दर्द करीब-करीब खत्म हो गया था। बस एक थोड़ी सी फटन सी बाकी थी और ऊँच नीच पैर पड़ने पर हल्की सी चिलखन हो जाती थी।



गुलबिया लगभग मुझे खींचते हुए धान के खेत की ओर के गई, जिधर रोपनी वाली औरतें अभी भी रोपनी कर रही थी, और उनके गाने की आवाजें अब एकदम साफ-साफ सुनाई दे रही थी।




मैं किसी तरह बचती बचाती चल रही थी। मुझे इस बात का कोई ध्यान भी नहीं था की सुबह-सुबह भैया ने जो मेरी पिछवाड़े वाली ओखली में अपना मोटा मूसल चलाया था, खुली खिड़की से उनमें से कुछ ने देखा भी होगा और मेरी चीखने की आवाजें तो शर्तिया सबने सुनी होंगी।


ऊपर से भौजी ने उस समय मुझसे क्या-क्या नहीं कबुलवाया था वो भी खूब जोर-जोर से- “भइया मेरी गाण्ड मारो हचक-हचक के, पूरे गाँव से मरवाऊँगी, सबको अपनी गाण्ड दूंगी, पता नहीं क्या-क्या?” वो कान बंद रखने पर भी सुनाई पड़ता।


लेकिन मैं बस उस समय किसी तरह कीचड़ से बचाते अपने को, सम्हल-सम्हल के चल रही थी। गुलबिया की उंगली जोर से थामे, कोई रास्ता नहीं दिख रहा था।

तभी एक मेड़ दिखी, दो तिहाई सूखी थी, दोनों ओर वो रोपनी वालियां, और गुलबिया मुझे उधर ही खींच के ले गई, मैं पीछे-पीछे, बस नीचे देखते, एक पैर के ठीक पीछे दूसरा पैर।



और एक रोपनी वाली, पहचानती मैं भी उसको थी, गाँव के रिश्ते से मेरी भाभी ही लगती थी, रतजगा में मैंने उसे बहुत छेड़ा था। गुलबिया से हँस के बोली-


“कहाँ ले जा रही हो आई मस्त माल फांस के, पिछवाड़ा तो बहुते मस्त है, क्या चूतड़ मटका रही है…”



तब तक एक दूसरी जो गाँव की लड़की यानि गाँव के रिश्ते से गुलबिया की छुटकी ननद लगती थी, चुलबुली, तीखी मिर्ची की तरह, मुझे छेड़ती बोली-

“तभी सबेरे-सबेरे, कामिनी भौजी के मर्द तभी सटासट गपागप पिछवाड़े, और इहो चूतड़ उठाय-उठाय के…”



“अरे हमार भईय्या क कौन गलती है? ऐंकर गंड़िये अइसन मस्त है, भैय्या क छोड़ा, गाँव क कुल लौंडन बौरा गए हैं…” दूसरी लड़की बोली।



मैं शर्म से लाल हो रही थी।

कुछ समझ में नहीं आ रहा था की कैसे उनसे आँखें मिलाऊँ?

इसका मतलब सुबह की बात, सबको मालूम हो गई थी। मेरी ऑंखें जमीन से गड़ी हुई थीं। अचानक पता नहीं, पैर में कुछ कांटा सा गड़ा, या पता नहीं कीचड़ लगा, या किसी ने हल्के से धक्का दिया। मैं थोड़ा सा झुक गई, और फिर तो, स्कर्ट मेरी वैसे भी मुश्किल से दो बित्ते की भी नहीं रही होगी, पैंटी पहनना तो गाँव पहुँचते ही छूट गया था, बस चुनमुनिया और गोलकुंडा दोनों की झलक।



लेकिन गुलबिया भी उसने पीछे से दबा के मुझे निहुरा दिया, अच्छी तरह, बस जरा सा इधर-उधर उठने की कोशिश करती तो पक्का चपाक से कीचड़ में गिरती। और गुलबिया ने स्कर्ट उठा के सीधे मेरी कमर पे और सबको दावत दे दी-

“अरे तनी नजदीक से देख ला न?”



एक रोपनी कर रही लड़की जो मेरी उम्र की ही रही होगी और खूब बढ़ चढ़ के बोल रही थी, पास आई और खनकती आवाज में बोली-

“एतना मस्त, पूरे गाँव जवार में आग लगावे वाली हौ, हमरे भैय्या क कौन दोष जो सबेरे भिनसारे चांप दिहलें इसको…”



जो औरत गुलबिया को टोक रही थी, और रतजगे में आई थी उसने थोड़ी देर तक मेरे पिछवाड़े हाथ फिराया, और अपने दोनों हाथों से पूरी ताकत से मेरे कटे गोल तरबूजों ऐसे चूतड़ों को फैलाने की पूरी कोशिश की, लेकिन गोलकुंडा का दर्रा जरा भी न खुला।

एक हाथ प्यार से मारती बोली- “अभी-अभी मरवाई है, एतना मोट मूसल घोंटीती है साल्ली, तबहियों, एतना कसा…”


गुलबिया ने और आग लगाई- “तबै तो पूरे गाँव क लौंडन और मर्दन क लिए चैलेन्ज है ये, आई केहू क मना नहीं करेगी…”

एक लड़की बोली- “अरे आई तो हम अपने कान से सुने थे, अभी थोड़ी देर पहिले…”

दूसरी औरत बोली- “अरे एक गाँव क लौंडन सब नंबरी गाण्ड मारने वाले हैं। जब आई लौटेंगी न अपने मायके तो आई गाण्ड का भोसड़ा हो जाएगा, पूरा पांच रुपैया वाली रंडी के भोसड़ा की तरह। पोखरा की तरह छपर-छपर करिहें सब, एस चाकर होय जाई…”



पहले तो मुझे बड़ा ऐसा वैसा लग रहा था लेकिन अब उनकी बातें सुनने में मजा आ रहा था। सोचा की बोलूं- “इतनों को देख लिया, उनका भी देख लूंगी…”

कामिनी भाभी की मंतर पे मुझे पूरा भरोसा था, उन्होंने असीसा था की मैं चाहे दिन रात मरवाऊँ, आगे-पीछे, न गाभिन होऊँगी, न कोई रोग दोष और अगवाड़ा पिछवाड़ा दोनों ऐसे ही कसा रहेगा, जैसा तब जब मैं गाँव में छुई मुई बन के आई थी। लेकिन चुप ही रही।

तब तक गुलबिया ने मुझे पकड़ के सीधा कर दिया और हम लोग फिर मेड़-मेड़ चल पड़े। पीछे से कोई बोली भी की कहाँ ले जा रही हो इसे?



तो गुलबिया ने भद्दी सी गाली देके बात टाल दी।



जहाँ धान के खेत खत्म होते थे उसके पहले ही गन्ने के खेत शुरू हो गये थे और गुलबिया मुझे ले के उसमें धंस गई।
आपका कोई तोड़ नहीं।
 
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