मुकाबला
वो अपने जमाने का जबर्दस्त बाक्सर रहा होगा। इतना होने के बाद भी वो तुरंत बाक्सिंग के पोज में और एक मुक्का जबर्दस्त मेरे चेहरे की ओर। मैं बाक्सर न हूँ, न था इसलिए जवाब मेरे पैर ने बल्की पैर की एंड़ी ने दिया। सीधे दोनों पैरों के बीच किसी भी पुरुष के सबसे संवेदनशील स्थल पर, और उसका बैलेंस बिगड़ गया। वो सीधे मेरे पैरों के सामने धड़ाम गिरा।
मैं जानता था वो उन दोनों मोहरों की तरह नहीं हैं। सामने से निपटना उससे मुश्किल है। फिर भले ही उसका चाकू और रिवाल्वर अब उससे दूर है, लेकिन क्या पता उसके पास कोई और हथियार हो?
मौके का फायदा उठाकर मैं ठीक उसके पीछे पहुँच गया। पलक झपकते मैंने चेन भी उठा ली। ये आर्डिनरी चेन नहीं थी, चेन का एक फेस बहुत पतला, शार्प लेकिन मजबूत था। गिटार के तार की तरह। ये चेन गैरोटिंग के लिए भी डिजाइन थी। दूर से चेन की तरह और नजदीक आ जाए तो गर्दन पे लगाकर। गैरोटिंग का तरीका माफिया ने बहुत चर्चित किया लेकिन पिंडारी ठग वही काम रुमाल से करते थे।
प्रैक्टिस, सही जगह तार का लगना और बहुत फास्ट रिएक्शन तीनों जरूरी थे।
पनद्रह बीस सेकंड के अन्दर ही वो अपने पैरों पे था और बिजली की तेजी से अपने वेस्ट बैंड होल्स्टर से उसने स्मिथ एंड वेसन निकाली, माडल 640।
मैं जानता था की इसका निशाना इस दूरी पे बहुत एक्युरेट। इसमें 5 शाट्स थे। लेकिन एक ही काफी था। उसने पहले मुझे सामने खोजा फिर गुड्डी की ओर। तब तक तार उसके गले पे। पहले ही लूप बनाकर मैंने एक मुट्ठी में पकड़ लिया था और तार का दूसरा सिरा दूसरे हाथ में, तार सीधे उसके ट्रैकिया के नीचे। छुड़ाने के लिए जितना उसने जोर लगाया तार हल्का सा उसके गले में धंस गया। वो इस पेशे में इतना पुराना था की समझ गया था की जरा सा जोर और।
लेकिन मैं उसे गैरोट नहीं करना चाहता था। मेरे पैर के पंजे का अगला हिस्सा सीधे उसके घुटने के पिछले हिस्से पे पूरी तेजी से, और घुटना मुड़ गया। और दूसरी किक दूसरे घुटने पे। वो घुटनों के बल हो गया। लेकिन रिवालवर पर अब भी उसकी ग्रिप थी, और तार गले में फँसा हुआ था।
मैंने उसके कान में बोला-
“मैं पांच तक गिनूंगा गिनती और अगर तब तक रिवाल्वर ना फेंकी…”
गले पे दबाव, आक्सीजन की सप्प्लाई काट रहा था और उसके सोचने की शक्ति, रिफ्लेक्सेज कम हो रहे थे। मैंने चेन अब बाएं हाथ में ही फँसा ली थी और गिनती गिन रहा था- 1... 2.... 3
और मेरे दायें हाथ का चाप पूरी ताकत से उसके कान के नीचे। चूँकि वो घुटने के बल झुका था, ये दुगनी ताकत से पड़ा। रिवाल्वर अपने आप उसके हाथ से छूट गई। मैंने तार थोड़ा और कसा। अब उसकी आँख के आगे अँधेरा छा रहा था। एक बार उसने फिर उठने की कोशिश की। मैंने उसे उठने दिया और वो पूरा खड़ा भी नहीं हुआ था की फिर पूरे पैरों के जोर से, घुटने के पीछे वाले हिस्से में, दोनों पैरों में। अब तो वो पूरी तरह लेट गया था।
मैंने टाइम पे चेन छोड़ दी थी वरना उसका गला,...
मैंने उसका दायां हाथ पकड़ा और कलाई के पास से एक बार क्लाकवाईज और दूसरी बार एंटीक्लाकवाईज पूरी ताकत से। कलाई अच्छी तरह टूट गई। दूसरे हाथ की दो उंगलियां भी। अब वो बहुत दिन तक रिवाल्वर क्या कोई भी हथियार और उसके बाद पैर।
फिर तो जो भी मेरा गुस्सा था, कोहनी से घुटनों से आग बनकर निकला उसके चमचों की हिम्मत कैसे हुए गुड्डी को हाथ लगाए और फिर रीत की सहेली के साथ,... ये हरकत?
कुछ ही देर में दायीं कुहनी, पंजा और बायां पैर नाकाम हो चुका था।
सेठजी अभी भी परेशान थे। उन्हें अपने से ज्यादा हम लोगों की चिंता थी-
“भैया तुम लोग चले जाओ जल्दी। वरना तुम जानते नहीं ये कौन हैं? चूहे के चक्कर में सांप के बिल में हाथ दे दियो हो। भाग जाओ जल्दी…”
और वो हम लोगों से हाथ जोड़े खड़े थे।
तभी मुझे खयाल आया सबसे खतरनाक हथियार तो मैंने छीना ही नहीं- इसका मोबाइल।
जेब से मैंने उसके मोबाइल निकाले और चेक किया। गनीमत थी की आखिरी डायल नम्बर आधे घंटे से ज्यादा पहले का था। मैंने सिम निकालकर अपने फोन में डाला और सारी फोन बुक, डायल और रिसीव नम्बर अपने मोबाइल में ट्रांसफर कर लिए।
मैंने उन्हें हिम्मत दिलाई- “अरे नहीं ऐसा कुछ नहीं है। पुलिस कानून कुछ है की नहीं आप लगाइए ना फोन पोलिस को…”
जमीन पर पड़ा हुआ वो बास नुमा छोटा चेतन हँसने लगा।
सेठजी ने मेरे कान में फुसफुसा के कहा- “अरे है सब कुछ है। लेकिन एनही की है…” और फिर बोले- “आप लोग जाओ…”
गुड्डी ने हुकुम दागा- “आप भी ना। बिचारे इन्हीं को बोल रहे हैं। बाहर थे ना दो ठो पोलिस वाले बुलाइये ना…”
सेठजी और मैंने मिलकर शटर खोला। दुकान के बाहर सन्नाटा पसरा पड़ा था। दूर दराज तक गली में सन्नाटा था। पोलिस वाला तो दूर, वो क्रिकेट खेलते बच्चे, सामान वाली ट्रक और टेम्पो, कुछ नहीं थे। यहाँ तक की सारी खिड़कियां तक बंद थी। सिर्फ गाय अभी भी चौराहे पे मौजूद थी, जुगाली करती।
दुकान के अन्दर घुस के मैंने अबकी गुड्डी से बोला-
“हे तुम फोन लगाओ ना पोलिस वालों को…” और उसने 100 नंबर लगाया। बड़ी देर तक घंटी जाने के बाद फोन उठा।
सब सुनने के बाद कोई बोला- “अरे काहे जान ले रही हो बबुनी भेजते हैं। थे तो दू ठे ससुरे वहीं चौराहावे पे। कौनो कतल वतल त न हुआ है ना?”
( ये चुने हुए अंश " फागुन के दिन चार " के हैं लम्बी कहानी कहिये, उपन्यास कहिये। कुछ मित्रों का अनुरोध था इसे रिपोस्ट करने का।
कैसा लगेगा इसलिए एक छोटा सा दृश्य है अपनी राय जरूर बताइये, रिपोस्ट करूँ, न करूँ। अगर ८-१० नियमिंत पढ़ने वाले कमेंट देने वाले मिल गए तो,... अपनी राय जरूर बताइये। )