हाँ अब तो आनंद बाबू की बारी है..आभार, धन्यवाद, थैंक्स
जो भी कहूं कम है। गुड्डी के रोमांस के प्रसंग के, पद्माकर की कविता को और एक एक पंक्ति को आपने जैसे पढ़ा, सराहा और पंक्तियों को रेखांकित किया, मैं और मेरी कहानी दोनों धन्य हो गए।
होली के प्रसंग का 'द एन्ड ' लगभग समझिये क्योंकि अभी एक पात्र जिस के साथ होली की छेड़छाड़ शुरू हुयी थी, जिसने सुबह सुबह मिर्चे वाले ब्रेड रोल खिलाये थे आनंद बाबू को उस के साथ तो होली अभी बची है और वो कसम धरा के गयी थी, की जबतक मैं न आऊं आप जाइयेगा नहीं, आनंद बाबू की मुंहबोली, छोटी साली,
गुंजा
और छोटी साली के बिना तो होली अधूरी ही रहती है तो अगली पोस्ट पूरी तरह गुंजा पर
तो बस एक दो प्रसंग और होली के फिर कहानी धीरे धीरे करवट लेगी, फागुन के एक दूसरे रंग की ओर,
गुड्डी के घर से बाहर निकलेगी,
और एक बार फिर से इन्तजार रहेगा, आपके शब्दों की अमृत वर्षा का
एक बार फिर से आभार
गुंजा को मोटे मिर्चे खिलाने की....