- 21,799
- 55,378
- 259
फागुन के दिन चार भाग २५
रंग
3,38,655
जैसे कोई किसी बच्चे के हाथ से मिठाई छीन ले वही हालत मेरी हो रही थी।
गुड्डी ने मुझसे मेसेज पढ़ते हुये मुझसे कपड़े पहनने का इशारा किया। मेरे पास चारा ही क्या था? मैं बस शर्ट पैंट पहनते हुये उसे देख रहा था। मारो तो तुम्हीं। जिलाओ तो तुम्हीं।
मेसेज पढ़ के पहले तो वो खिलखिलायी, फिर बोली-
“अरे इत्ता मुँह मत बनाओ। यार मुझे एक काम याद आ गया था। असली चीज खरीदना तो मैं भूल ही गई थी और उसकी दुकान शाम को ही बंद हो जाती है और दूसरी बात ये तुम्हारी मलाई, ...अब ये सीधे मेरी भूखी बुल-बुल के अंदर जायेगी और कहीं नहीं। भले ही तुम्हें छ: सात घन्टे इंतजार करना पड़ जाये…”
मैंने मोबाइल के लिये हाथ बढ़ाया तो उसने मना कर दिया, बोली-
“रास्ते में अभी टाइम नहीं है…”
और हांक के उसने मुझे रेस्टहाउस के कमरे से बाहर कर दिया-
“अरे यार सामान सब मैंने पैक कर दिया है। बस वो जो सामान थोड़ा सा रह गया है। बस एक दुकान है। जल्दी से लेकर। कहीं कुछ खाना हुआ तो खाकर सामान लेकर चल देंगे और एक बार तुम्हारे मायके पहुँच गये तो फिर तो…”
उसने रिक्शे पे बैठते हुये मुझे समझाया।
सामान जो छूट गया था वो रंग गुलाल था। लेकिन कोई खास तरह का। वो बोली-
“यार तुम्हारी भाभी ने स्पेशली बोला था इन रंगों के लिये। रीत के यहां ब्लाक प्रिन्टिंग का काम होता था तो ये लोग यहां से रंग लेते थे एकदम पक्का रंग। दूबे भाभी ने जो कालिख लगायी थी वो भी यहीं से…”
रिक्शा गली-गली होते हुये एक बड़ी सी दुकान के सामने जा पहुँचा, तब उसने रीत का मेसेज दिखाया-
“जीजू। लोग एक पति के लिये तरसते हैं लेकिन आपकी बहना। इतनी कम उमर में बस अगर थोड़ी सी मेहनत कर दे ना तो लखपती बन सकती है। मेरा मतलब मर्दो की संख्या से नहीं था। अब तक उसकी जो बुकिंग आ चुकी है और मैंने कंफर्म की है। बस एक हफ्ते वो बनारस रह जाय और रोज 8-10 घंटे। अब पैसा कमाना है तो मेहनत तो करनी पड़ेगी…”
हम लोग दुकान में घुस गये। एक ग्रासरी की दुकान की तरह बस थोड़ी बड़ी। ये थोक की दुकान थी और पूरे ईस्टर्न यूपी में होली का सामान सप्लाई करती थी। बनारस की गलियां। पतली संकरी और फिर अन्दर एक से एक बड़े मकान, दुकानें बस वैसे ही ये भी। बस थोड़ी ज्यादा चौड़ी।
चौराहे पे दो पोलिस वाले सुस्ता रहे थे।
पास में एक मैदान कम कचरा फेंकने की जगह पे कुछ बच्चे क्रिकेट का भविष्य उज्वल करने की कोशिश कर रहे थे, दीवालों पर पोस्टर, वाल राईटिंग पटी पड़ी थी। मर्दानगी वापस लाने वाली दवाओं से लेकर कारपोरेशन के इलेक्शन, भोजपुरी फिल्मों के पोस्टर से बिरहा के मुकाबले तक।
दुकान के दरवाजे के पास ही दीवाल पर मोटा-मोटा लिखा था- “देखो गधा मूत रहा है…” वहां गधा तो कोई था नहीं हाँ एक सज्जन जरूर साईकिल दीवार के सहारे खड़ी करके लघुशंका का निवारण कर रहे थे। एक गाय वीतरागी ढंग से चौराहे के बीचोबीच बैठी थी।
दो-तीन सामान ढोने वाले टेम्पो और एक छोटा ट्रक दुकान से सटकर खड़ा था। उसमें उसी दुकान से सामान लादा जा रहा था। टेम्पो शायद आस पास के बाजारों के लिए और ट्रक आजमगढ़ बलिया के लिए।
दुकान के अन्दर भी बहुत भीड़-भाड़ नहीं थी। थोक की दुकान थी और नार्मली शायद वो फुटकर सामान नहीं बेचते थे। हाँ दो-तीन लोग जिनके ट्रक और टेम्पो बाहर खड़े थे, वो थे और दुकान के मालिक तनछुई सिल्क का कुरता पाजामा पहने उन लोगों से मौसम का हाल से लेकर राष्ट्रीय राजनीति पर चर्चा कर रहे थे।
-----------------------------------
गुड्डी ने दूर से उन्हें नमस्ते किया और उन्होंने तुरंत पहचान लिया।
वो सिर्फ दूबे भाभी के ब्लाक प्रिंट के लिए सामान ही नहीं सप्प्लाई करते थे, बल्की पारिवारिक मित्र भी थे। और उनकी छोटी लड़की रीत के साथ पढ़ती थी। वो हम लोगों के पास आकर खड़े हो गए।
गुड्डी ने मेरा परिचय कराया और बताया की वो मेरे साथ जा रही है इसलिए रंग और होली के कुछ सामान।
उसकी बात काटकर उन्होंने एक गुमास्ते को बुलाया और कहा की इसको बता दो। मुझे लगा की गुड्डी पता नहीं क्या-क्या बोले और देर भी हो रही थी तो लिस्ट मैंने उसे पकड़ा दी। उन्होंने मेरा परिचय उन सज्जन से भी कराया जिनकी ट्रक बाहर लद रही थी, ये कहकर की तुम्हारे शहर के ही हैं और जब उन्होंने बताया की जायसवाल जनरल स्टोर तो मैं तुरंत समझ गया।
चौक पे डिलाईट टाकिज के बगल में ही तो है, और उन्होंने भी बताया की हमारे घर के लोगों से वो भी परिचित हैं।
तब तक मैंने दुकान के एक कोने में चाइनीज पिचकारियां देखीं तो मैंने उनसे कहा की अरे पिचकारियां भी चीनी,... तो वो हँसकर बोलो चलो तुम्हें दिखलाता हूँ।
तरह-तरह की पिचकारियां, रंग और साथ में ही नीचे खुले डब्बों में हल्दी, धनिया, मिर्च पिसी तरह-तरहकर मसाले तभी मेरी निगाह पीतल की दो पिचकारियों पे पड़ी खूब लम्बी मोटी।
मैंने उनसे पूछा।
हँसकर वो बोले-
“अरे भैया पहले हमको भी शौक था। एक-एक पिचकारी में आधी बाल्टी तक रंग आ जाता है और धार इतनी तीखी की मोटे से मोटा कपड़ा भी फाड़कर रंग अंदर। लेकिन अब किसकी कलाई में इतना जोर है की इसको चलाये? इसलिए तो अब बस प्लास्टिक और वो भी बच्चे। बड़े तो होली खेलने निकलते नहीं और खेलते भी हैं तो सूखे रंग या पोतने वाले रंग। पिचकारी कहाँ…”
मुझे लगा की इनकी कहानी कहीं लम्बी ना हो जाय इसलिए मैंने सीधे पूछा- “कितने की है?”
वो हँसकर बोले- “अरे ले जाओ तुम जो कहोगे लगा देंगे वैसे ही पड़ी है…”
गुड्डी सामान चेक करके देख रही थी।
रंग
3,38,655
जैसे कोई किसी बच्चे के हाथ से मिठाई छीन ले वही हालत मेरी हो रही थी।
गुड्डी ने मुझसे मेसेज पढ़ते हुये मुझसे कपड़े पहनने का इशारा किया। मेरे पास चारा ही क्या था? मैं बस शर्ट पैंट पहनते हुये उसे देख रहा था। मारो तो तुम्हीं। जिलाओ तो तुम्हीं।
मेसेज पढ़ के पहले तो वो खिलखिलायी, फिर बोली-
“अरे इत्ता मुँह मत बनाओ। यार मुझे एक काम याद आ गया था। असली चीज खरीदना तो मैं भूल ही गई थी और उसकी दुकान शाम को ही बंद हो जाती है और दूसरी बात ये तुम्हारी मलाई, ...अब ये सीधे मेरी भूखी बुल-बुल के अंदर जायेगी और कहीं नहीं। भले ही तुम्हें छ: सात घन्टे इंतजार करना पड़ जाये…”
मैंने मोबाइल के लिये हाथ बढ़ाया तो उसने मना कर दिया, बोली-
“रास्ते में अभी टाइम नहीं है…”
और हांक के उसने मुझे रेस्टहाउस के कमरे से बाहर कर दिया-
“अरे यार सामान सब मैंने पैक कर दिया है। बस वो जो सामान थोड़ा सा रह गया है। बस एक दुकान है। जल्दी से लेकर। कहीं कुछ खाना हुआ तो खाकर सामान लेकर चल देंगे और एक बार तुम्हारे मायके पहुँच गये तो फिर तो…”
उसने रिक्शे पे बैठते हुये मुझे समझाया।
सामान जो छूट गया था वो रंग गुलाल था। लेकिन कोई खास तरह का। वो बोली-
“यार तुम्हारी भाभी ने स्पेशली बोला था इन रंगों के लिये। रीत के यहां ब्लाक प्रिन्टिंग का काम होता था तो ये लोग यहां से रंग लेते थे एकदम पक्का रंग। दूबे भाभी ने जो कालिख लगायी थी वो भी यहीं से…”
रिक्शा गली-गली होते हुये एक बड़ी सी दुकान के सामने जा पहुँचा, तब उसने रीत का मेसेज दिखाया-
“जीजू। लोग एक पति के लिये तरसते हैं लेकिन आपकी बहना। इतनी कम उमर में बस अगर थोड़ी सी मेहनत कर दे ना तो लखपती बन सकती है। मेरा मतलब मर्दो की संख्या से नहीं था। अब तक उसकी जो बुकिंग आ चुकी है और मैंने कंफर्म की है। बस एक हफ्ते वो बनारस रह जाय और रोज 8-10 घंटे। अब पैसा कमाना है तो मेहनत तो करनी पड़ेगी…”
हम लोग दुकान में घुस गये। एक ग्रासरी की दुकान की तरह बस थोड़ी बड़ी। ये थोक की दुकान थी और पूरे ईस्टर्न यूपी में होली का सामान सप्लाई करती थी। बनारस की गलियां। पतली संकरी और फिर अन्दर एक से एक बड़े मकान, दुकानें बस वैसे ही ये भी। बस थोड़ी ज्यादा चौड़ी।
चौराहे पे दो पोलिस वाले सुस्ता रहे थे।
पास में एक मैदान कम कचरा फेंकने की जगह पे कुछ बच्चे क्रिकेट का भविष्य उज्वल करने की कोशिश कर रहे थे, दीवालों पर पोस्टर, वाल राईटिंग पटी पड़ी थी। मर्दानगी वापस लाने वाली दवाओं से लेकर कारपोरेशन के इलेक्शन, भोजपुरी फिल्मों के पोस्टर से बिरहा के मुकाबले तक।
दुकान के दरवाजे के पास ही दीवाल पर मोटा-मोटा लिखा था- “देखो गधा मूत रहा है…” वहां गधा तो कोई था नहीं हाँ एक सज्जन जरूर साईकिल दीवार के सहारे खड़ी करके लघुशंका का निवारण कर रहे थे। एक गाय वीतरागी ढंग से चौराहे के बीचोबीच बैठी थी।
दो-तीन सामान ढोने वाले टेम्पो और एक छोटा ट्रक दुकान से सटकर खड़ा था। उसमें उसी दुकान से सामान लादा जा रहा था। टेम्पो शायद आस पास के बाजारों के लिए और ट्रक आजमगढ़ बलिया के लिए।
दुकान के अन्दर भी बहुत भीड़-भाड़ नहीं थी। थोक की दुकान थी और नार्मली शायद वो फुटकर सामान नहीं बेचते थे। हाँ दो-तीन लोग जिनके ट्रक और टेम्पो बाहर खड़े थे, वो थे और दुकान के मालिक तनछुई सिल्क का कुरता पाजामा पहने उन लोगों से मौसम का हाल से लेकर राष्ट्रीय राजनीति पर चर्चा कर रहे थे।
-----------------------------------
गुड्डी ने दूर से उन्हें नमस्ते किया और उन्होंने तुरंत पहचान लिया।
वो सिर्फ दूबे भाभी के ब्लाक प्रिंट के लिए सामान ही नहीं सप्प्लाई करते थे, बल्की पारिवारिक मित्र भी थे। और उनकी छोटी लड़की रीत के साथ पढ़ती थी। वो हम लोगों के पास आकर खड़े हो गए।
गुड्डी ने मेरा परिचय कराया और बताया की वो मेरे साथ जा रही है इसलिए रंग और होली के कुछ सामान।
उसकी बात काटकर उन्होंने एक गुमास्ते को बुलाया और कहा की इसको बता दो। मुझे लगा की गुड्डी पता नहीं क्या-क्या बोले और देर भी हो रही थी तो लिस्ट मैंने उसे पकड़ा दी। उन्होंने मेरा परिचय उन सज्जन से भी कराया जिनकी ट्रक बाहर लद रही थी, ये कहकर की तुम्हारे शहर के ही हैं और जब उन्होंने बताया की जायसवाल जनरल स्टोर तो मैं तुरंत समझ गया।
चौक पे डिलाईट टाकिज के बगल में ही तो है, और उन्होंने भी बताया की हमारे घर के लोगों से वो भी परिचित हैं।
तब तक मैंने दुकान के एक कोने में चाइनीज पिचकारियां देखीं तो मैंने उनसे कहा की अरे पिचकारियां भी चीनी,... तो वो हँसकर बोलो चलो तुम्हें दिखलाता हूँ।
तरह-तरह की पिचकारियां, रंग और साथ में ही नीचे खुले डब्बों में हल्दी, धनिया, मिर्च पिसी तरह-तरहकर मसाले तभी मेरी निगाह पीतल की दो पिचकारियों पे पड़ी खूब लम्बी मोटी।
मैंने उनसे पूछा।
हँसकर वो बोले-
“अरे भैया पहले हमको भी शौक था। एक-एक पिचकारी में आधी बाल्टी तक रंग आ जाता है और धार इतनी तीखी की मोटे से मोटा कपड़ा भी फाड़कर रंग अंदर। लेकिन अब किसकी कलाई में इतना जोर है की इसको चलाये? इसलिए तो अब बस प्लास्टिक और वो भी बच्चे। बड़े तो होली खेलने निकलते नहीं और खेलते भी हैं तो सूखे रंग या पोतने वाले रंग। पिचकारी कहाँ…”
मुझे लगा की इनकी कहानी कहीं लम्बी ना हो जाय इसलिए मैंने सीधे पूछा- “कितने की है?”
वो हँसकर बोले- “अरे ले जाओ तुम जो कहोगे लगा देंगे वैसे ही पड़ी है…”
गुड्डी सामान चेक करके देख रही थी।
Last edited: