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आपका रिव्यू एक बार पढ़ने से मन नहीं भरता।गुड्डी , उसकी मां , बहनें , फ्रैंड , पड़ोसन सभी ने उल्टी गंगा बहा कर रखा है । ऐसा लगता है जैसे इस बार किसी औरत का नही बल्कि एक मर्द का चीरहरण हो रहा है ।
आनंद साहब के लिए एक तरह का यह चीरहरण ही था । इतना पेशेंस , इतना सहनशक्ति , इतना सीधापन हर किसी लड़के मे नही होता ।
लेकिन आनंद साहब करे भी तो क्या करे ! यह दिल का मामला जो है । गुड्डी के हुस्न का जलवा जो है । उसकी अदाएं , उसकी नखरे , उसकी बातें या फिर उसकी शरारतें का जो है ।
मार्च का महीना चल रहा है । इसका मतलब फागुन के दिन चल रहे है । इस पुरे माह गांव के लगभग हर बस्ती मे , हर इलाके मे फागुन के लोकगीत गाये - बजाए जाते हैं जो अत्यंत ही कर्णप्रिय होते है । लोग अपने अपने ग्रूप बनाकर झाल - ढोल , गाजे - बाजे के साथ द्वार - द्वार जाकर होली के लोकगीत गाते हैं ।
मुझे याद है होली के दिन की शुरुआत मिट्टी - गोबर और कपड़े फाड़कर होती थी । दोपहर का पुरा समय एक दूसरे को गहरे रंग से सराबोर करके होती थी । ठंडाई और भांग के दौर से होती थी । और शाम - रात को अबीर - गुलाल और ड्राई फ्रूट के साथ गले मिलन के साथ इस पावन पर्व की समाप्ति होती थी ।
वैसे यह सब धीरे धीरे विलुप्त होते जा रहा है ।
आप के फागुन पर दिए हुए अपडेट वापस हमे उसी दौर मे ले जाते है ।
आप के यह अपडेट कभी-कभी हमे भाव - विह्वल कर देता है।
" जाने कहां गए वो दिन ।"
जहां तक ताश और जुआ खेलने की बात है , उस दौरान मै भी ऐसे मौके का एक पात्र बना रहा । मनोरंजन का यह भी एक बहुत बड़ा अंग था ।
आपकी स्टोरी बहुत अच्छी तरीके से आगे बढ़ रही है । धीरे धीरे किरदार के संख्या मे भी इजाफे हो रहे है । किरदारों का चरित्र भी शनैः शनैः डेवलप हो रहा है ।
आनंद साहब फिलहाल बिन ब्याहे दुल्हे का लुत्फ उठा रहे है । गुड्डी लाख कहे , पर आनंद साहब अपने शर्मीलेपन और अनाड़ीपन से निजात तो नही पाने वाले ।
बहुत बहुत खुबसूरत अपडेट कोमल जी ।
आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग अपडेट ।
एक तो अपनी तारीफ़ किसे नहीं अच्छी लगती, और फिर तारीफ़ करने वाला एक मश्हूरो मारूफ लिखने वाला है जिनकी राय की हर शख्स कदर करता है सर आंखों पे उसका हर लफ्ज़ रखता है।
और दूसरी बात आप के साथ अतीत की गलियों में सफर करने का लुत्फ़ भी मिलता है। मेरी कहानियों में वो अतीत वो माटी की पुकार हलकी कशिश ही सही आती है और आप उसे दुहराकर और ताजा बना देते हैं और फिर लगता है लिखना अकारज नहीं गया।
लेकिन सबसे बड़ी बात आप सिर्फ क्या कहा गया उसपे जोर नहीं देते बल्कि कैसे कहा गया, कथ्य के साथ जो शिल्प है उस पर भी आपकी पारखी नजर जाती है।
आप के कमेंट पर सिर्फ एक रस्म पूरा करने वाला धन्यवाद देने से मन नहीं भरता बल्कि वो एक बतकही में तब्दील हो जाती है।
अब जो आपने होली के मंजरकशी की बात की,...
अब इस भाग में " खयी के पान बनारस वाला " में अनेक दृश्य हैं और जैसे पेंटिंग में कोलाज या फिल्मो में मोंताज होता है जहाँ कई दृश्य मिल कर एक अलग अहसास चित्रित करते हैं, बिलकुल उसी तरह, ... और उस में बनारस की गलियों का भी चित्र है, फगुनहट का , देर शाम का और उन के बैकग्राउंड में गुड्डी और आनंद की अनकही बढ़ती प्रणय बेल का,
और गली बनारस की पतली, संकरी लम्बी और दोनों ओर घर भी दुकाने भी, गलियों में से निकलती और संकरी गलियां, जैसे बात से बात निकलती है,...
यहाँ बात से बात निकलने की उपमा गली से निकलती गली की बात कहती ही है हमें टी. एस इलियट की मशहूर कविता की इन लाइनों की भी याद दिला देता है,
Streets that follow like a tedious argument
फागुन हो बनारस हो न हो, चाहे वह सेमी क्लासिकल होरी, धमार हो या शुद्ध भोजपुरी गाने,
गली के शुरू में ही जहाँ लग रहा था कोई गाने की बैठकी चल रही थी, एक मीठी मीठी आवाज आ रही थी होरी की,
कैसी होरी मचाई,...
इतते आवत कुँवरी राधिका, उतते कुँवर कन्हाई
खेलत फाग परस्पर हिलमिल, यह सुख बरनि न जाई
घर-घर बजत बधाई
और उस गाने ने ही आनंद और गुड्डी दोनों को ट्रांसफार्म कर दिया, ... खेलत फाग परस्पर हिलमिल,, बनारस का रस लेने के लिए सुनने वाले को रसिक होना पड़ता है, रस का अहसास होना चाहिए और गुड्डी तो ठेठ बनारसी और अपने रस में उसने आनंद को भी मिला लिया,...
गुड्डी ने जिस तरह मुझे देखा, छरछरराती हजार पिचकारियां एक साथ चल पड़ी,.. बिना रंगे, रंगो से मैं नहा उठा,... हम दोनों आगे आगे पीछे से पीछा करती धीमी होती ठुमरी
अब इस समय गुड्डी या आनंद शायद कुछ भी बोलते तो रस भंग होता, सिर्फ पलकों का उठना गिरना, हलकी सी मुस्कान और बहुत हुआ तो हथेली का दबाना, दबना बहुत कुछ कह देता है,
एक चित्र है मुंडेर पर से रंग उंडेलने का,
एक बड़ी सी बिंदी, काजल भरी आंखे,... खिलखलाती हंसती,..मुंडेर से एक बड़ा लोटा गाढ़े गुलाबी रंग का,...
भांग की दूकान, गुलाल, रंग और पिचकारी की दुकाने,... मैंने कोशिश की है एक फागुनी शाम का चित्र खींचने की
और साथ में गुड्डी का छेड़ना, चिढ़ाना तो है ही लेकिन एक अनकही बात भी इस गली में होती है
गुड्डी के खींचने से मैं बच तो गया लेकिन एक दो छींटे मेरी भी सफ़ेद शर्ट पर
तभी बड़ी जोर की भगदड़ मची, ...
गुड्डी ने कस के मेरा हाथ पकड़ लिया और खिंच के एकदम पीछे, सट के चिपक के ढाल सी खड़ी हो गयी,
गुड्डी चिढ़ाती है तो बचाती भी है चाहे मुंडेर से गिरते रंग से हो, या फिर वृषभ देव से गली के रेले से,... आनंद से पहले उसे आहट हो जाती है आशंकित हो उठती है वो और सामने,
वामा सिर्फ पुरुष के लिए रमणी ही नहीं, उसकी शक्ति भी है ऊर्जा भी है उसे विश्वास भी दिलाती है।
एक बार फिर कोटिश आभार आपका, समय निकाल कर इस सूत्र पर आने का,... आने वाले हिस्सों में भी आप का साथ चाहूंगी,
धन्यवाद