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***** *****तैतीसवीं फुहार -
सुबह सबेरे अगली सुबह
पता नहीं, भाभी की चिकोटियां की तरह नटखट सुनहली धूप ने मुझे जगाया या बाहर से आ रही मीठी-मीठी गानों की गुनगुनाहट ने। लेकिन मुश्किल से जब मैंने अलसाते-अलसाते आँखें खोली, तो धूप काफी अंदर तक आ गई थीं। एक टुकड़ा धूप का जैसे मेरे बगल में बैठ के मुझे निहार रहा था।
मैंने इधर-उधर निगाह डाली, न तो कामिनी भौजी दिखीं, न भैय्या, यानी कामिनी भाभी के पति।
लेकिन जब मैंने अपने ऊपर निगाह डाली तो खुद लजा गई। एकदम निसुती, कपड़े का एक धागा भी नहीं मेरे ऊपर और रात के सारे निशान बाकी थे। खुले उभारों पर दांतों के और नाखूनों के निशान काफी ऊपर तक,
जाँघों के और चद्दर पर भी गाढ़ी सफेद थक्केदार मलाई अभी भी बह रही थी।
देह कुछ दर्द से कुछ थकान से एकदम चूर-चूर हो रही थी। उठा नहीं जा रहा था।
एक पल के लिए मैंने आँखें बंद कर लीं, लेकिन धूप सोने नहीं दे रही थी। दिन भी चढ़ आया था। किसी तरह दोनों हाथों से पलंग को पकड़ के, बहुत मुश्किल से उठी। और बाहर की ओर देखा। खिड़की पूरी तरह खुली थी। मतलब अगर कोई बगल से निकले और जरा सी भी गर्दन उचका के देखे तो, सब कुछ… मैं जोर से लजा गई।
इधर-उधर देखा तो पलंग के बगल में वो साड़ी जो मैंने रात में पहन रखी थी, गिरी पड़ी थी। किसी तरह झुक के मैंने उसे उठा लिया और बस ऐसे तैसे बदन पर लपेट लिया।
खिड़की के बाहर रात की बारिश के निशान साफ-साफ दिख रहे थे। भाभी की दूर-दूर तक फैली अमराई नहाईं धोई साफ-साफ दिख रही थी। और बगल में जो उनके धान के खेत थे, हरी चूनर की तरह फैले, वहां बारिश का पानी भरा था। ढेर सारी काम वाली औरतें झुकी रोपनी कर रही थीं और सोहनी गा रही थीं।
उनमें से कई तो मुझे अच्छी तरह जानती थीं जो मेरी भाभी के यहाँ भी काम करती थीं और रतजगे में आई थीं। बस गनीमत था की वो झुक के रोपनी कर रही थीं, इसलिए वहां से वो मुझे और मेरी हालत नहीं देख सकती थी।
बारिश ने आसमान एकदम साफ कर दिया था। जैसे पाठ खत्म होने के बाद कोई बच्चा स्लेट साफ कर दे। हाँ दूर आसमान के छोर पे कुछ बादल गाँव के आवारा लौंडों की तरह टहल रहे थे। हवा बहुत मस्त चल रही थी। हल्की-हल्की ठंडी-ठंडी। रात की हुई बरसात का असर अभी भी हवा में था।
किसी तरह दीवाल का सहारा लेकर मैं खिड़की के पास खड़ी थी। रात का एक-एक दृश्य सामने पिक्चर की तरह चल रहा था, किस तरह कामिनी भाभी ने मेरी कोमल किशोर कलाइयां कस-कस के बाँधी थीं, मैं टस से मस भी नहीं हो सकती थी। और फिर आधी बोतल से भी ज्यादा कड़ुवा तेल की बोतल सीधे मेरे पिछवाड़े के अंदर तक, घर के सारे कुशन तकिये, मेरे चूतड़ के नीचे।
लेकिन अब मुझे लग रहा है की भौजी ने बहुत सही किया। अगर मेरे हाथ उन्होंने बांधे नहीं होते तो जितना दर्द हुआ, भैय्या का मोटा भी कितना है, मेरी कलाई से ज्यादा ही होगा। और वो तो उन्होंने अपनी मोटी-मोटी चूची मेरे मुँह में ठूंस रखी थी, वरना मैं चीख-चीख के, फिर तो भैया अपना मोटा सुपाड़ा ठूंस भी नहीं पाते।
पीछे से तेज चिलख उठी, और मैंने मुश्किल से चीख दबाई। रसोई से कामिनी भाभी के काम करने की आवाज आ रही थी और मैं उधर ही चल पड़ी।
सुबह सबेरे अगली सुबह
पता नहीं, भाभी की चिकोटियां की तरह नटखट सुनहली धूप ने मुझे जगाया या बाहर से आ रही मीठी-मीठी गानों की गुनगुनाहट ने। लेकिन मुश्किल से जब मैंने अलसाते-अलसाते आँखें खोली, तो धूप काफी अंदर तक आ गई थीं। एक टुकड़ा धूप का जैसे मेरे बगल में बैठ के मुझे निहार रहा था।
मैंने इधर-उधर निगाह डाली, न तो कामिनी भौजी दिखीं, न भैय्या, यानी कामिनी भाभी के पति।
लेकिन जब मैंने अपने ऊपर निगाह डाली तो खुद लजा गई। एकदम निसुती, कपड़े का एक धागा भी नहीं मेरे ऊपर और रात के सारे निशान बाकी थे। खुले उभारों पर दांतों के और नाखूनों के निशान काफी ऊपर तक,
जाँघों के और चद्दर पर भी गाढ़ी सफेद थक्केदार मलाई अभी भी बह रही थी।
देह कुछ दर्द से कुछ थकान से एकदम चूर-चूर हो रही थी। उठा नहीं जा रहा था।
एक पल के लिए मैंने आँखें बंद कर लीं, लेकिन धूप सोने नहीं दे रही थी। दिन भी चढ़ आया था। किसी तरह दोनों हाथों से पलंग को पकड़ के, बहुत मुश्किल से उठी। और बाहर की ओर देखा। खिड़की पूरी तरह खुली थी। मतलब अगर कोई बगल से निकले और जरा सी भी गर्दन उचका के देखे तो, सब कुछ… मैं जोर से लजा गई।
इधर-उधर देखा तो पलंग के बगल में वो साड़ी जो मैंने रात में पहन रखी थी, गिरी पड़ी थी। किसी तरह झुक के मैंने उसे उठा लिया और बस ऐसे तैसे बदन पर लपेट लिया।
खिड़की के बाहर रात की बारिश के निशान साफ-साफ दिख रहे थे। भाभी की दूर-दूर तक फैली अमराई नहाईं धोई साफ-साफ दिख रही थी। और बगल में जो उनके धान के खेत थे, हरी चूनर की तरह फैले, वहां बारिश का पानी भरा था। ढेर सारी काम वाली औरतें झुकी रोपनी कर रही थीं और सोहनी गा रही थीं।
उनमें से कई तो मुझे अच्छी तरह जानती थीं जो मेरी भाभी के यहाँ भी काम करती थीं और रतजगे में आई थीं। बस गनीमत था की वो झुक के रोपनी कर रही थीं, इसलिए वहां से वो मुझे और मेरी हालत नहीं देख सकती थी।
बारिश ने आसमान एकदम साफ कर दिया था। जैसे पाठ खत्म होने के बाद कोई बच्चा स्लेट साफ कर दे। हाँ दूर आसमान के छोर पे कुछ बादल गाँव के आवारा लौंडों की तरह टहल रहे थे। हवा बहुत मस्त चल रही थी। हल्की-हल्की ठंडी-ठंडी। रात की हुई बरसात का असर अभी भी हवा में था।
किसी तरह दीवाल का सहारा लेकर मैं खिड़की के पास खड़ी थी। रात का एक-एक दृश्य सामने पिक्चर की तरह चल रहा था, किस तरह कामिनी भाभी ने मेरी कोमल किशोर कलाइयां कस-कस के बाँधी थीं, मैं टस से मस भी नहीं हो सकती थी। और फिर आधी बोतल से भी ज्यादा कड़ुवा तेल की बोतल सीधे मेरे पिछवाड़े के अंदर तक, घर के सारे कुशन तकिये, मेरे चूतड़ के नीचे।
लेकिन अब मुझे लग रहा है की भौजी ने बहुत सही किया। अगर मेरे हाथ उन्होंने बांधे नहीं होते तो जितना दर्द हुआ, भैय्या का मोटा भी कितना है, मेरी कलाई से ज्यादा ही होगा। और वो तो उन्होंने अपनी मोटी-मोटी चूची मेरे मुँह में ठूंस रखी थी, वरना मैं चीख-चीख के, फिर तो भैया अपना मोटा सुपाड़ा ठूंस भी नहीं पाते।
पीछे से तेज चिलख उठी, और मैंने मुश्किल से चीख दबाई। रसोई से कामिनी भाभी के काम करने की आवाज आ रही थी और मैं उधर ही चल पड़ी।
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