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Erotica सोलवां सावन

komaalrani

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***** *****तैतीसवीं फुहार -

सुबह सबेरे अगली सुबह



पता नहीं, भाभी की चिकोटियां की तरह नटखट सुनहली धूप ने मुझे जगाया या बाहर से आ रही मीठी-मीठी गानों की गुनगुनाहट ने। लेकिन मुश्किल से जब मैंने अलसाते-अलसाते आँखें खोली, तो धूप काफी अंदर तक आ गई थीं। एक टुकड़ा धूप का जैसे मेरे बगल में बैठ के मुझे निहार रहा था।



मैंने इधर-उधर निगाह डाली, न तो कामिनी भौजी दिखीं, न भैय्या, यानी कामिनी भाभी के पति।

लेकिन जब मैंने अपने ऊपर निगाह डाली तो खुद लजा गई। एकदम निसुती, कपड़े का एक धागा भी नहीं मेरे ऊपर और रात के सारे निशान बाकी थे। खुले उभारों पर दांतों के और नाखूनों के निशान काफी ऊपर तक,

जाँघों के और चद्दर पर भी गाढ़ी सफेद थक्केदार मलाई अभी भी बह रही थी।



देह कुछ दर्द से कुछ थकान से एकदम चूर-चूर हो रही थी। उठा नहीं जा रहा था।



एक पल के लिए मैंने आँखें बंद कर लीं, लेकिन धूप सोने नहीं दे रही थी। दिन भी चढ़ आया था। किसी तरह दोनों हाथों से पलंग को पकड़ के, बहुत मुश्किल से उठी। और बाहर की ओर देखा। खिड़की पूरी तरह खुली थी। मतलब अगर कोई बगल से निकले और जरा सी भी गर्दन उचका के देखे तो, सब कुछ… मैं जोर से लजा गई।

इधर-उधर देखा तो पलंग के बगल में वो साड़ी जो मैंने रात में पहन रखी थी, गिरी पड़ी थी। किसी तरह झुक के मैंने उसे उठा लिया और बस ऐसे तैसे बदन पर लपेट लिया।



खिड़की के बाहर रात की बारिश के निशान साफ-साफ दिख रहे थे। भाभी की दूर-दूर तक फैली अमराई नहाईं धोई साफ-साफ दिख रही थी। और बगल में जो उनके धान के खेत थे, हरी चूनर की तरह फैले, वहां बारिश का पानी भरा था। ढेर सारी काम वाली औरतें झुकी रोपनी कर रही थीं और सोहनी गा रही थीं।




उनमें से कई तो मुझे अच्छी तरह जानती थीं जो मेरी भाभी के यहाँ भी काम करती थीं और रतजगे में आई थीं। बस गनीमत था की वो झुक के रोपनी कर रही थीं, इसलिए वहां से वो मुझे और मेरी हालत नहीं देख सकती थी।



बारिश ने आसमान एकदम साफ कर दिया था। जैसे पाठ खत्म होने के बाद कोई बच्चा स्लेट साफ कर दे। हाँ दूर आसमान के छोर पे कुछ बादल गाँव के आवारा लौंडों की तरह टहल रहे थे। हवा बहुत मस्त चल रही थी। हल्की-हल्की ठंडी-ठंडी। रात की हुई बरसात का असर अभी भी हवा में था।



किसी तरह दीवाल का सहारा लेकर मैं खिड़की के पास खड़ी थी। रात का एक-एक दृश्य सामने पिक्चर की तरह चल रहा था, किस तरह कामिनी भाभी ने मेरी कोमल किशोर कलाइयां कस-कस के बाँधी थीं, मैं टस से मस भी नहीं हो सकती थी। और फिर आधी बोतल से भी ज्यादा कड़ुवा तेल की बोतल सीधे मेरे पिछवाड़े के अंदर तक, घर के सारे कुशन तकिये, मेरे चूतड़ के नीचे।



लेकिन अब मुझे लग रहा है की भौजी ने बहुत सही किया। अगर मेरे हाथ उन्होंने बांधे नहीं होते तो जितना दर्द हुआ, भैय्या का मोटा भी कितना है, मेरी कलाई से ज्यादा ही होगा। और वो तो उन्होंने अपनी मोटी-मोटी चूची मेरे मुँह में ठूंस रखी थी, वरना मैं चीख-चीख के, फिर तो भैया अपना मोटा सुपाड़ा ठूंस भी नहीं पाते।



पीछे से तेज चिलख उठी, और मैंने मुश्किल से चीख दबाई। रसोई से कामिनी भाभी के काम करने की आवाज आ रही थी और मैं उधर ही चल पड़ी।
 
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****कामिनी भौजी



कामिनी भाभी भी मेरी ही धजा में थी, यानी सिर्फ साड़ी।

दरवाजे का सहारा लेकर मैं खड़ी हो गई और उनकी ओर देखने लगी। लेकिन एक बार फिर हल्की सी चीख निकल गई, वही पीछे से जहाँ रात भर भैय्या का मूसल चला था, जोर की चिलख उठी।



भाभी की निगाह मेरे ऊपर पड़ी और मुश्कुराते हुए उन्होंने छेड़ा-

“क्यों मजा आया रात में?”



यहाँ दर्द के मारे जान निकल रही थी। किसी तरह मुश्कुराते हुये दर्द के निशान मैंने चेहरे से मिटाये और कुछ बोलने की कोशिश की, उसके पहले ही भाभी खड़ी हो गईं और आके उन्होंने कस के मुझे अपनी बाँहों में भींच लिया। कामिनी भाभी हों तो बात सिर्फ अंकवार में भरने से नहीं रुकती ये मुझे अच्छी तरह मालूम था और वही हुआ।



उन्होंने सीधे से लिप-टू-लिप एक जबरदस्त चुम्मी ली। देर तक उनके होंठ मेंरे कोमल किशोर होंठ चूसते रहे और फिर सीधे गाल पे, कुछ देर उन्होंने चूमा, चाटा, फिर कचकचा के काट लिया, और अपने होंठों पे जीभ फिराते बोलीं- “बहुत नमकीन माल हो…”



लेकिन उन्होंने अगली बात जो बोली वो ज्यादा खतरनाक थी-

“एक बार भौजी लोगन का नमकीन शरबत पिए लगोगी न तो एहु से 100 गुना ज्यादा नमकीन हो जाओगी, हमर बात मान लो…”


अब मुझे समझाने की जरूरत नहीं थी कि इससे उनका क्या मतलब था, जिस तरह से बसंती और गुलबिया मेरे पीछे पड़ी थीं और ऊपर से कल तो लाइव शो देख लिया था मैंने, कैसे जबरन नीरू के ऊपर चढ़ के गुलबिया ने, और बसंती ने, कैसे उस बिचारी को दबोच रखा था।

नीरू तो मुझसे भी एक साल छोटी थी।

उधर कामिनी भाभी का एक हाथ साड़ी के ऊपर से मेरे छोटे-छोटे किशोर चूतड़ों को दबा दबोच रही थी। और उनकी उंगली सीधे मेरी गाण्ड की दरार पे। जैसे ही उन्होंने वहां हल्के से दबाया एक कतरा भैय्या की गाढ़ी मलाई का मेरे पिछवाड़े से सरक कर, मेरी टांगों पे। लेकिन भाभी की उंगली साड़ी के ऊपर से ही वहां गोल-गोल घूमती रही।


बात बदलने के लिए मैंने भाभी से पूछा- “भैया कहाँ हैं?”



भाभी- “नंबरी छिनार भाईचोद बहन हो। सुबह से भैया को ढूँढ़ रही हो?”



मैंने हमले का जवाब हमले से देने की कोशिश की-
“आपका भरता है क्या?”

लेकिन हमला उलटा पड़ा, कामिनी भाभी से कौन ननद जीत पाई है जो मैं जीत पाती।


भाभी-

“एकदम सही कहती हो, नहीं भरता मन। सिर्फ मेरा ही नहीं तेरे भैय्या का भी मन नहीं भरा तुमसे, सुबह से तुझे याद कर रहे हैं। लेकिन इसके लिए तो तेरे ये जोबन जिम्मेदार हैं…”

निपल की घुन्डियां साड़ी के ऊपर से मरोड़ती वो चिढ़ाती बोलीं,





फिर जोड़ा- “और तेरी भी क्या गलती, तेरे भैया बल्की तेरे सारे मायकेवाले भंडुए मर्द ही, बहनचोद, मादरचोद हैं…”

बहनचोद तो ठीक, रात भर तो भैय्या मेरे ऊपर चढ़े थे, लेकिन मादरचोद?--मेरी समझ में नहीं आया

और कामिनी भाभी खुद ही बोलीं- “अरे इतना मोटा और कड़ा है तेरे भैय्या का, भोसड़ीवालियों को जवानी के मजे आ जाते हैं। और खेली खाई चोदी चुदाई भोसड़े का रस अलग ही है। और फिर तेरी तरह वो भी बिचारे किसी को मना नहीं कर पाते, जहाँ बिल देखा वहीं घुसेड़ा…”



साथ-साथ भाभी का हाथ मेरे चूतड़ों को सहला रहा था और उनकी उंगली गाण्ड की दरार में घुसी गोल-गोल, साड़ी हल्की-हल्की गीली हो रही थी।

भाभी- “सुबह से तेरे भैया पीछे पड़े थे, बस एक बार। वो तो मैंने मना किया अभी बच्ची है, रात भर चढ़े रहे हो। जैसे तुम सुबह से भैय्या, भैय्या कर रही हो न वो गुड्डी गुड्डी रट रहे थे…”
मैं क्या बोलती। ये भी तो नहीं कह सकती थी की अरे भाभी कर लेने दिया होता ना।

 

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***** *****पिछवाड़े का खेल




भाभी ने कलाई की पूरी ताकत से गचाक से अपनी मंझली उंगली साड़ी के ऊपर से ही दरार के अंदर ठेलने की पूरी कोशिश की। फिर मुश्कुरा के वो बोलीं-


“एकदम ऊपर तक बजबजा रहा है…” और ये कह के वो मेरी हामी के लिए चुप हो गईं।



मैंने हामी भर दी।



बात उनकी सही थी, मैं खुद महसूस कर रही थी, भैया ने जो कटोरी भर रबड़ी मेरे पिछवाड़े डाली थी और फिर डाट की तरह अपना मोटा कसी-कसी गाण्ड में ठूंसे-ठूंसे सो गए थे। उसके पहले आधी बोतल कड़ुवा तेल भी तो भौजी ने वहां उड़ेला था। लेकिन उसके अलावा, ये क्या, मेरी समझ में नहीं आया।



समझाया कामिनी भाभी ने गाण्ड में गोल-गोल उंगली करते-


“अरे सिर्फ तेरे भैय्या की मलाई थोड़ी, इस समय सुबह-सुबह तो तेरा मक्खन भी अंदर, पूरा नीचे तक, बजबज करता है। बस खाली एक बार पेलने की देर है, भले ही सूखा ठेल दो हचक के पूरी ताकत से, और जहाँ गाण्ड का छल्ला पार हुआ, बस… तेरी गाण्ड का मक्खन जहाँ लगा फिर तो सटासट-सटासट, गपागप-गपागप। इससे बढ़िया चिकनाई हो नहीं सकती…”



मैं शर्म से लाल हो रही थी, लेकिन कुछ भाभी की बातों का असर और कुछ उनकी उंगली का… मेरी गाण्ड में फिर से जोर-जोर से कीड़े काटने लगे थे।



तभी उनकी उंगली कुछ इधर-उधर लग गई और मेरी जोर से चीख निकल गई।



भाभी ने उंगली हटा ली और बोलीं-

“इसकी सिर्फ एक इलाज है मेरी प्यारी ननद रानी, तेरी इस कसी कच्ची गाण्ड में चार पांच मर्दों का मोटा-मोटा खूंटा जाय। और घबड़ाओ मत, मैं और गुलबिया मिल के इसका इंतजाम कर देंगे, तेरे शहर लौटने के पहले। गाण्ड मरवाने में एकदम एक्सपर्ट करा के भेजंगे तुझे, चलो बैठो…”

मैं भाभी के साथ पीढ़े पर रसोई में बैठ गई। मुझे बसंती की बात याद आ रही थी बार-बार गुलबिया के मर्द के बारे में और भरौटी के लौंडों के बारे में।



मैं भाभी का काम में हाथ बटा रही थी और भाभी ने काम-शिक्षा का पाठ शुरू कर दिया। कल उन्होंने लौंडों को पटाने के बारे में बताया था तो आज पिछवाड़े के मजे के बारे में। कामिनी भाभी की ये बात तो एकदम ठीक थी की मजा लड़के और लड़कियों दोनों को आता है तो बिचारे लड़के लाइन मारते रहें और लड़कियां भाव ही न दें। लौंडों को पटाने, रिझाने, बिना हाँ किये हाँ कहने की ढेर सारी ट्रिक्स उन्होंने कल रात मुझे सिखाई थी और तब मुझे लगा था मैं कितनी बेवकूफ थी।



स्कूल क्या पूरे शहर में शायद मेरे ऐसी कोई लड़की न होगी, ऐसा रूप और जोबन। लड़के भी सारे मेरे पीछे पड़ते थे, लेकिन ले मेरी कोई सहेली उड़ती थी, फिर उसके साथ कभी पिक्चर तो कभी पार्टी। और ऊपर से मुझे चिढ़ातीं, मुझे सुना-सुना के बोलतीं, मेरे पास तो चार हैं, मेरे पास तो पांच है। और जानबूझ के मुझसे पूछतीं, हे गुड्डी तेरा ब्वयफ्रेंड।



अब मैं अपनी गलती समझ गई थी। मुझे भी उनके कमेंट्स का, लाइन मारने का कुछ तो जवाब देना पड़ेगा। अबकी लौटूँगी शहर तो बताती हूँ,




 

komaalrani

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***** *****गुदा ज्ञान




लेकिन भाभी अभी पिछवाड़े के मजे के गुर सिखा रही थीं- “लड़कों को जितना आगे में मजा आता हैं न उससे ज्यादा पिछवाड़े में खसस तौर से जो खेले खाए मर्द होते हैं उन्हें…”



“लेकिन भाभी, दर्द बहुत होता है…” मैंने अपनी परेशानी बताई।



“अरी छिनरो इसी दर्द में तो मजा है। गाण्ड मरवाने वाली को जब दर्द का मजा लेना आ जाए न तब आता है उसे सच में गाण्ड मारने का मजा। वो तुम मेरे और गुलबिया के ऊपर छोड़ दो, अब चाहे तुम मानो चाहे जबरदस्ती, 6-7 मर्दों का मोटा-मोटा खूंटा अपनी गाण्ड में ले लोगी न, तो खुद ही गाण्ड में चींटे काटेंगे। लेकिन दो तीन बातें हैं…”



मैं कान फाड़े सुन रही थी।



“पहली बात है मन से डर निकाल दो। अरे तोहसे कम उम्र के लौंडे, नेकर सरकाय सरकाय के गाण्ड मरौवल खेलते हैं।

(मुझे भी अजय की बात याद आई की उसने सबसे पहले वो जब क्लास नौ में पढ़ता था किसी लड़के की मारी थी जो उससे भी छोटा था)


और तोहार चूतड़ तो इतने मस्त हैं की सब मर्द ललचाते हैं, तो डरने की कोई बात नहीं है।



और न एहमें कोई गड़बड़ है… एकरे लिए जब नहाती हो न, और रात में सोते समय। आज नहाते समय मैं सिखा दूंगी, उंगली से पहले छेद को सहलाओ, दबाओ बिना घुसेड़े। शीशे में अपने पिछवाड़े के छेद को देखो ध्यान से, फिर उंगली की टिप में नारियल का खूब तेल लगाकर या कड़ुआ तेल लगाकर, बहुत हल्के से गाण्ड में डालो। ज्यादा नहीं सिर्फ एक पोर…”




ये बोल के भाभी किसी काम में लग गई।



लेकिन मेरी उत्सुकता बनी हुई थी।



“फिर, उंगली गोल-गोल घुमाओ, आगे-पीछे नहीं, सिर्फ गोल-गोल। कम से कम चार-पांच मिनट। गाण्ड को मजा आने लगेगा और तोहार डर भी कम हो जाएगा।

मेरे मन ने नोट कर लिया, ठीक है आज से ही।



“लेकिन असली खेल है गाण्ड के छल्ले का, सबसे ज्यादा दर्द वहीं होता है…” वो बोलीं।



मुझसे ज्यादा कौन जानता था ये बात जब भैया ने कल रात सुपाड़ा गाण्ड के छल्ले में पेला था, उस समय भाभी ने अपनी चूची भी निकाल ली थी मेरे मुँह से, कितना जोर से चिल्लाई थी मैं। आधा गाँव जरूर जाग गया होगा। वो तो मेरे हाथ कामिनी भाभी ने कस के बाँध रखे थे वरना,



“उसके लिए भी जरूरी है मन को तैयार करो। खुद ही उसको ढीला करो। एकदम रिलैक्स। एही लिए पहले उंगली गोल-गोल घुमाओ, फिर गाण्ड के छल्ले को ढीला छोड़ के हल्के-हल्के उंगली ठेलो अंदर तक। कुछ दिन में ही गाण्ड के छल्ले को आदत पड़ जायेगी, उंगली के अंदर-बाहर होने की और उससे भी बढ़के तोहार दिमाग की बात मानने की, की कौनो डरने की बात नहीं है, खूब ढीला छोड़ दो, आने दो अंदर…”

कामिनी भाभी बता रही थीं।



और मैं ध्यान से सुन रही थी एक-एक बात।



“सबसे जरूरी है मन बना लो, फिर डर छोड़ दो और मारने वाले का बराबर का साथ दो। रात में भी प्रैक्टिस करो लेकिन कभी भी एक उंगली से ज्यादा मत डालो और उंगली के अलावा कुछ भी नहीं, वो काम लौंडों के ऊपर छोड़ दो…” भाभी मुश्कुराते हुए बोलीं।

मैं शर्मा गई।

“हाँ एक बात और, जब आता है न तो खूब ढीला छोड़ दो लेकिन एक बार जब सुपाड़ा अच्छी तरह अंदर घुस जाए न तो बस तब कस के भींच दो, निकलने मत दो साल्ले को, असली मजा तो मर्द को भी और तोहूँ को भी तभी आयेगा, जब दरेरते, फाड़ते, रगड़ते घुसेगा अंदर-बाहर होगा।



और एक प्रैक्टिस और, अपनी गाण्ड के छल्ले को पूरी ताकत से भींच लो, सांस रोक लो, 20 तक गिनती गिनो और फिर खूब धीमे-धीमे 100 तक गिनती गिन के सांस छोड़ो और उसी के साथ उसे छल्ले को ढीला करो, खूब धीमे-धीमे। कुछ देर रुक के, फिर से। एक बार में पन्दरह बीस बार करो। क्लास में बैठी हो तब भी कर सकती हो। सिकोड़ते समय महसूस करो की, अपने किसी यार के बारे में सोच के कि उसका मोटा खूंटा पीछे अटका है…”



वास्तव में कामिनी भाभी के पास ज्ञान का पिटारा था। और मैं ध्यान से एक-एक बात सुन रही थी, सीख रही थी। शहर में कौन था जो मुझे ये बताता, सिखाता।



अचानक कामिनी भाभी ने एक सवाल दाग दिया- “तू हमार असली पक्की ननद हो न?”
 
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***** *****तैतीसवीं फुहार -

सुबह सबेरे अगली सुबह



पता नहीं, भाभी की चिकोटियां की तरह नटखट सुनहली धूप ने मुझे जगाया या बाहर से आ रही मीठी-मीठी गानों की गुनगुनाहट ने। लेकिन मुश्किल से जब मैंने अलसाते-अलसाते आँखें खोली, तो धूप काफी अंदर तक आ गई थीं। एक टुकड़ा धूप का जैसे मेरे बगल में बैठ के मुझे निहार रहा था।



मैंने इधर-उधर निगाह डाली, न तो कामिनी भौजी दिखीं, न भैय्या, यानी कामिनी भाभी के पति।

लेकिन जब मैंने अपने ऊपर निगाह डाली तो खुद लजा गई। एकदम निसुती, कपड़े का एक धागा भी नहीं मेरे ऊपर और रात के सारे निशान बाकी थे। खुले उभारों पर दांतों के और नाखूनों के निशान काफी ऊपर तक,

जाँघों के और चद्दर पर भी गाढ़ी सफेद थक्केदार मलाई अभी भी बह रही थी।



देह कुछ दर्द से कुछ थकान से एकदम चूर-चूर हो रही थी। उठा नहीं जा रहा था।



एक पल के लिए मैंने आँखें बंद कर लीं, लेकिन धूप सोने नहीं दे रही थी। दिन भी चढ़ आया था। किसी तरह दोनों हाथों से पलंग को पकड़ के, बहुत मुश्किल से उठी। और बाहर की ओर देखा। खिड़की पूरी तरह खुली थी। मतलब अगर कोई बगल से निकले और जरा सी भी गर्दन उचका के देखे तो, सब कुछ… मैं जोर से लजा गई।

इधर-उधर देखा तो पलंग के बगल में वो साड़ी जो मैंने रात में पहन रखी थी, गिरी पड़ी थी। किसी तरह झुक के मैंने उसे उठा लिया और बस ऐसे तैसे बदन पर लपेट लिया।



खिड़की के बाहर रात की बारिश के निशान साफ-साफ दिख रहे थे। भाभी की दूर-दूर तक फैली अमराई नहाईं धोई साफ-साफ दिख रही थी। और बगल में जो उनके धान के खेत थे, हरी चूनर की तरह फैले, वहां बारिश का पानी भरा था। ढेर सारी काम वाली औरतें झुकी रोपनी कर रही थीं और सोहनी गा रही थीं।




उनमें से कई तो मुझे अच्छी तरह जानती थीं जो मेरी भाभी के यहाँ भी काम करती थीं और रतजगे में आई थीं। बस गनीमत था की वो झुक के रोपनी कर रही थीं, इसलिए वहां से वो मुझे और मेरी हालत नहीं देख सकती थी।



बारिश ने आसमान एकदम साफ कर दिया था। जैसे पाठ खत्म होने के बाद कोई बच्चा स्लेट साफ कर दे। हाँ दूर आसमान के छोर पे कुछ बादल गाँव के आवारा लौंडों की तरह टहल रहे थे। हवा बहुत मस्त चल रही थी। हल्की-हल्की ठंडी-ठंडी। रात की हुई बरसात का असर अभी भी हवा में था।



किसी तरह दीवाल का सहारा लेकर मैं खिड़की के पास खड़ी थी। रात का एक-एक दृश्य सामने पिक्चर की तरह चल रहा था, किस तरह कामिनी भाभी ने मेरी कोमल किशोर कलाइयां कस-कस के बाँधी थीं, मैं टस से मस भी नहीं हो सकती थी। और फिर आधी बोतल से भी ज्यादा कड़ुवा तेल की बोतल सीधे मेरे पिछवाड़े के अंदर तक, घर के सारे कुशन तकिये, मेरे चूतड़ के नीचे।



लेकिन अब मुझे लग रहा है की भौजी ने बहुत सही किया। अगर मेरे हाथ उन्होंने बांधे नहीं होते तो जितना दर्द हुआ, भैय्या का मोटा भी कितना है, मेरी कलाई से ज्यादा ही होगा। और वो तो उन्होंने अपनी मोटी-मोटी चूची मेरे मुँह में ठूंस रखी थी, वरना मैं चीख-चीख के, फिर तो भैया अपना मोटा सुपाड़ा ठूंस भी नहीं पाते।



पीछे से तेज चिलख उठी, और मैंने मुश्किल से चीख दबाई। रसोई से कामिनी भाभी के काम करने की आवाज आ रही थी और मैं उधर ही चल पड़ी।
पता नहीं, भाभी की चिकोटियां की तरह नटखट सुनहली धूप ने मुझे जगाया या बाहर से आ रही मीठी-मीठी गानों की गुनगुनाहट ने। लेकिन मुश्किल से जब मैंने अलसाते-अलसाते आँखें खोली, तो धूप काफी अंदर तक आ गई थीं। एक टुकड़ा धूप का जैसे मेरे बगल में बैठ के मुझे निहार रहा था।👌👌👌👌
 
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***** *****तैतीसवीं फुहार -

सुबह सबेरे अगली सुबह



पता नहीं, भाभी की चिकोटियां की तरह नटखट सुनहली धूप ने मुझे जगाया या बाहर से आ रही मीठी-मीठी गानों की गुनगुनाहट ने। लेकिन मुश्किल से जब मैंने अलसाते-अलसाते आँखें खोली, तो धूप काफी अंदर तक आ गई थीं। एक टुकड़ा धूप का जैसे मेरे बगल में बैठ के मुझे निहार रहा था।



मैंने इधर-उधर निगाह डाली, न तो कामिनी भौजी दिखीं, न भैय्या, यानी कामिनी भाभी के पति।

लेकिन जब मैंने अपने ऊपर निगाह डाली तो खुद लजा गई। एकदम निसुती, कपड़े का एक धागा भी नहीं मेरे ऊपर और रात के सारे निशान बाकी थे। खुले उभारों पर दांतों के और नाखूनों के निशान काफी ऊपर तक,

जाँघों के और चद्दर पर भी गाढ़ी सफेद थक्केदार मलाई अभी भी बह रही थी।



देह कुछ दर्द से कुछ थकान से एकदम चूर-चूर हो रही थी। उठा नहीं जा रहा था।



एक पल के लिए मैंने आँखें बंद कर लीं, लेकिन धूप सोने नहीं दे रही थी। दिन भी चढ़ आया था। किसी तरह दोनों हाथों से पलंग को पकड़ के, बहुत मुश्किल से उठी। और बाहर की ओर देखा। खिड़की पूरी तरह खुली थी। मतलब अगर कोई बगल से निकले और जरा सी भी गर्दन उचका के देखे तो, सब कुछ… मैं जोर से लजा गई।

इधर-उधर देखा तो पलंग के बगल में वो साड़ी जो मैंने रात में पहन रखी थी, गिरी पड़ी थी। किसी तरह झुक के मैंने उसे उठा लिया और बस ऐसे तैसे बदन पर लपेट लिया।



खिड़की के बाहर रात की बारिश के निशान साफ-साफ दिख रहे थे। भाभी की दूर-दूर तक फैली अमराई नहाईं धोई साफ-साफ दिख रही थी। और बगल में जो उनके धान के खेत थे, हरी चूनर की तरह फैले, वहां बारिश का पानी भरा था। ढेर सारी काम वाली औरतें झुकी रोपनी कर रही थीं और सोहनी गा रही थीं।




उनमें से कई तो मुझे अच्छी तरह जानती थीं जो मेरी भाभी के यहाँ भी काम करती थीं और रतजगे में आई थीं। बस गनीमत था की वो झुक के रोपनी कर रही थीं, इसलिए वहां से वो मुझे और मेरी हालत नहीं देख सकती थी।



बारिश ने आसमान एकदम साफ कर दिया था। जैसे पाठ खत्म होने के बाद कोई बच्चा स्लेट साफ कर दे। हाँ दूर आसमान के छोर पे कुछ बादल गाँव के आवारा लौंडों की तरह टहल रहे थे। हवा बहुत मस्त चल रही थी। हल्की-हल्की ठंडी-ठंडी। रात की हुई बरसात का असर अभी भी हवा में था।



किसी तरह दीवाल का सहारा लेकर मैं खिड़की के पास खड़ी थी। रात का एक-एक दृश्य सामने पिक्चर की तरह चल रहा था, किस तरह कामिनी भाभी ने मेरी कोमल किशोर कलाइयां कस-कस के बाँधी थीं, मैं टस से मस भी नहीं हो सकती थी। और फिर आधी बोतल से भी ज्यादा कड़ुवा तेल की बोतल सीधे मेरे पिछवाड़े के अंदर तक, घर के सारे कुशन तकिये, मेरे चूतड़ के नीचे।



लेकिन अब मुझे लग रहा है की भौजी ने बहुत सही किया। अगर मेरे हाथ उन्होंने बांधे नहीं होते तो जितना दर्द हुआ, भैय्या का मोटा भी कितना है, मेरी कलाई से ज्यादा ही होगा। और वो तो उन्होंने अपनी मोटी-मोटी चूची मेरे मुँह में ठूंस रखी थी, वरना मैं चीख-चीख के, फिर तो भैया अपना मोटा सुपाड़ा ठूंस भी नहीं पाते।



पीछे से तेज चिलख उठी, और मैंने मुश्किल से चीख दबाई। रसोई से कामिनी भाभी के काम करने की आवाज आ रही थी और मैं उधर ही चल पड़ी।
बारिश ने आसमान एकदम साफ कर दिया था। जैसे पाठ खत्म होने के बाद कोई बच्चा स्लेट साफ कर दे। हाँ दूर आसमान के छोर पे कुछ बादल गाँव के आवारा लौंडों की तरह टहल रहे थे। हवा बहुत मस्त चल रही थी। हल्की-हल्की ठंडी-ठंडी। रात की हुई बरसात का असर अभी भी हवा में था।

👌👌👌👌👌
 
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****कामिनी भौजी



कामिनी भाभी भी मेरी ही धजा में थी, यानी सिर्फ साड़ी।

दरवाजे का सहारा लेकर मैं खड़ी हो गई और उनकी ओर देखने लगी। लेकिन एक बार फिर हल्की सी चीख निकल गई, वही पीछे से जहाँ रात भर भैय्या का मूसल चला था, जोर की चिलख उठी।



भाभी की निगाह मेरे ऊपर पड़ी और मुश्कुराते हुए उन्होंने छेड़ा-

“क्यों मजा आया रात में?”



यहाँ दर्द के मारे जान निकल रही थी। किसी तरह मुश्कुराते हुये दर्द के निशान मैंने चेहरे से मिटाये और कुछ बोलने की कोशिश की, उसके पहले ही भाभी खड़ी हो गईं और आके उन्होंने कस के मुझे अपनी बाँहों में भींच लिया। कामिनी भाभी हों तो बात सिर्फ अंकवार में भरने से नहीं रुकती ये मुझे अच्छी तरह मालूम था और वही हुआ।



उन्होंने सीधे से लिप-टू-लिप एक जबरदस्त चुम्मी ली। देर तक उनके होंठ मेंरे कोमल किशोर होंठ चूसते रहे और फिर सीधे गाल पे, कुछ देर उन्होंने चूमा, चाटा, फिर कचकचा के काट लिया, और अपने होंठों पे जीभ फिराते बोलीं- “बहुत नमकीन माल हो…”



लेकिन उन्होंने अगली बात जो बोली वो ज्यादा खतरनाक थी-

“एक बार भौजी लोगन का नमकीन शरबत पिए लगोगी न तो एहु से 100 गुना ज्यादा नमकीन हो जाओगी, हमर बात मान लो…”


अब मुझे समझाने की जरूरत नहीं थी कि इससे उनका क्या मतलब था, जिस तरह से बसंती और गुलबिया मेरे पीछे पड़ी थीं और ऊपर से कल तो लाइव शो देख लिया था मैंने, कैसे जबरन नीरू के ऊपर चढ़ के गुलबिया ने, और बसंती ने, कैसे उस बिचारी को दबोच रखा था।

नीरू तो मुझसे भी एक साल छोटी थी।

उधर कामिनी भाभी का एक हाथ साड़ी के ऊपर से मेरे छोटे-छोटे किशोर चूतड़ों को दबा दबोच रही थी। और उनकी उंगली सीधे मेरी गाण्ड की दरार पे। जैसे ही उन्होंने वहां हल्के से दबाया एक कतरा भैय्या की गाढ़ी मलाई का मेरे पिछवाड़े से सरक कर, मेरी टांगों पे। लेकिन भाभी की उंगली साड़ी के ऊपर से ही वहां गोल-गोल घूमती रही।


बात बदलने के लिए मैंने भाभी से पूछा- “भैया कहाँ हैं?”



भाभी- “नंबरी छिनार भाईचोद बहन हो। सुबह से भैया को ढूँढ़ रही हो?”



मैंने हमले का जवाब हमले से देने की कोशिश की-
“आपका भरता है क्या?”

लेकिन हमला उलटा पड़ा, कामिनी भाभी से कौन ननद जीत पाई है जो मैं जीत पाती।


भाभी-

“एकदम सही कहती हो, नहीं भरता मन। सिर्फ मेरा ही नहीं तेरे भैय्या का भी मन नहीं भरा तुमसे, सुबह से तुझे याद कर रहे हैं। लेकिन इसके लिए तो तेरे ये जोबन जिम्मेदार हैं…”

निपल की घुन्डियां साड़ी के ऊपर से मरोड़ती वो चिढ़ाती बोलीं,





फिर जोड़ा- “और तेरी भी क्या गलती, तेरे भैया बल्की तेरे सारे मायकेवाले भंडुए मर्द ही, बहनचोद, मादरचोद हैं…”

बहनचोद तो ठीक, रात भर तो भैय्या मेरे ऊपर चढ़े थे, लेकिन मादरचोद?--मेरी समझ में नहीं आया

और कामिनी भाभी खुद ही बोलीं- “अरे इतना मोटा और कड़ा है तेरे भैय्या का, भोसड़ीवालियों को जवानी के मजे आ जाते हैं। और खेली खाई चोदी चुदाई भोसड़े का रस अलग ही है। और फिर तेरी तरह वो भी बिचारे किसी को मना नहीं कर पाते, जहाँ बिल देखा वहीं घुसेड़ा…”



साथ-साथ भाभी का हाथ मेरे चूतड़ों को सहला रहा था और उनकी उंगली गाण्ड की दरार में घुसी गोल-गोल, साड़ी हल्की-हल्की गीली हो रही थी।

भाभी- “सुबह से तेरे भैया पीछे पड़े थे, बस एक बार। वो तो मैंने मना किया अभी बच्ची है, रात भर चढ़े रहे हो। जैसे तुम सुबह से भैय्या, भैय्या कर रही हो न वो गुड्डी गुड्डी रट रहे थे…”
मैं क्या बोलती। ये भी तो नहीं कह सकती थी की अरे भाभी कर लेने दिया होता ना।


भाभी- “नंबरी छिनार भाईचोद बहन हो। सुबह से भैया को ढूँढ़ रही हो?”



मैंने हमले का जवाब हमले से देने की कोशिश की-
“आपका भरता है क्या?”

लेकिन हमला उलटा पड़ा, कामिनी भाभी से कौन ननद जीत पाई है जो मैं जीत पाती।


भाभी-

“एकदम सही कहती हो, नहीं भरता मन। सिर्फ मेरा ही नहीं तेरे भैय्या का भी मन नहीं भरा तुमसे, सुबह से तुझे याद कर रहे हैं। लेकिन इसके लिए तो तेरे ये जोबन जिम्मेदार हैं…”

निपल की घुन्डियां साड़ी के ऊपर से मरोड़ती वो चिढ़ाती बोलीं.


जवान बहन से मन कभी नहीं भरें।
🔥🔥🔥
 
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भाभी- “नंबरी छिनार भाईचोद बहन हो। सुबह से भैया को ढूँढ़ रही हो?”



मैंने हमले का जवाब हमले से देने की कोशिश की-
“आपका भरता है क्या?”

लेकिन हमला उलटा पड़ा, कामिनी भाभी से कौन ननद जीत पाई है जो मैं जीत पाती।


भाभी-

“एकदम सही कहती हो, नहीं भरता मन। सिर्फ मेरा ही नहीं तेरे भैय्या का भी मन नहीं भरा तुमसे, सुबह से तुझे याद कर रहे हैं। लेकिन इसके लिए तो तेरे ये जोबन जिम्मेदार हैं…”

निपल की घुन्डियां साड़ी के ऊपर से मरोड़ती वो चिढ़ाती बोलीं.


जवान बहन से मन कभी नहीं भरें।
🔥🔥🔥


Thanks so much...
 

komaalrani

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बारिश ने आसमान एकदम साफ कर दिया था। जैसे पाठ खत्म होने के बाद कोई बच्चा स्लेट साफ कर दे। हाँ दूर आसमान के छोर पे कुछ बादल गाँव के आवारा लौंडों की तरह टहल रहे थे। हवा बहुत मस्त चल रही थी। हल्की-हल्की ठंडी-ठंडी। रात की हुई बरसात का असर अभी भी हवा में था।

👌👌👌👌👌
मुशायरे में शायर के अच्छे शेर पर वाह वाह मिलने से जिस तरह से शायर का सीना चौड़ा हो जाता है , उसी तरह कहानी के उन पंक्तियों को, शब्दों कोचिन्हांकित करने से , जो लिखने ने वाले ने दिल से लिखें हों , लिखने की मेहनत वसूल हो जाती है।
 

komaalrani

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Next part soon
 
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