***** *****सैतीसवीं फुहार-
मोहे कुतिया बना के उर्फ गोलकुंडा पर चढ़ाई
खुली खिड़की से आ रही ठंडी हवा के बावजूद मेरी देह पशीने-पशीने थी।
"रुक काहें गई छिनरी चोदो न, घोंटो अपने भैया का लण्ड, "
भौजी खिलखिलाते बोलीं।
फिर तो जैसे बच्चे मस्ती से ट्रैम्पोलिन पे उछलते हैं बस उसी तरह से, बार-बार आलमोस्ट लण्ड के ऊपर तक से लेकर पूरे जड़ तक, उछल-उछलकर गाण्ड में लण्ड घोंट रही थी। लेकिन मेरी थकान की बात और कौन समझता, भौजी के अलावा।
उन्होंने भैया को चढ़ाया, बहुत देर आई रंडी बैठ ली गोदी में अरे कुतिया की तरह जब तक गाण्ड नहीं मारोगे न,
भैय्या ने उनको बात पूरा करने का मौक़ा भी नहीं दिया। ये बात भइया की माननी पड़ेगी, नंबरी चुदक्कड़ थे और गाण्ड मारने में तो एकदम एक्सपर्ट, इंच क्या एक सूत भी लण्ड टस से मस नहीं हुआ।
पूरा का पूरा लण्ड गाण्ड में और मुझे उन्होंने निहुरा के, और अब जो मेरी गाण्ड मराई शुरू हुई बस लग रहा था, अब तक जो था वो सिर्फ ट्रेलर था।
खूब दर्द, खूब मजा।
मेरी आधी देह बिस्तर पे थी, पेट के बल।
गोल-गोल, पथराई चूचियां बिस्तर से रगड़ती, चूतड़ हवा में उठा हुआ, भैय्या के दोनों हाथ मेरे चूतड़ों को थामे, और पैर मुश्किल से जमीन छूते, हाँ भाभी ने पेट के नीचे कुशन और तकिए लगा दिए थे ढेर सारे, इसलिए चूतड़ एकदम उठे हुए, डागी पोज में।
(मुझे राकी की याद आ गई)।
एक बात और, रात में तो चारों ओर सन्नाटा था, घुप्प अँधेरा था, कमरे में मुश्किल से लालटेन को रोशनी में कुछ झिलमिल-झिलमिल सा दिखता था, लेकिन इस समय तो दिन चढ़ आया था। सुनहली धूप खिड़की से होकर पूरे कमरे में पसरी थी, बाहर टटकी धुली अमराई, गन्ने और धान के खेत दिख रहे थे, धान के खेतों से रोपनी वालियों के गाने की मीठी-मीठी आवाजें सुनाई दे रही थी।
लेकिन मुझे न कुछ सुनाई दे रहा था, न दिखाई दे रहा था, न महसूस हो रहा था, सिवाय मेरी कसी कच्ची किशोर गाण्ड में जड़ तक घुसा हुआ, गाण्ड फाड़ू, भैय्या का खूब मोटा लण्ड। गाण्ड इतनी जोर से परपरा रही थी, फटी पड़ रही थी, की बस।
और भैय्या को भी मेरी कसी कम उम्र वाली गाण्ड के अलावा कुछ भी नहीं दिख रहा था। डागी पोज में भी पूरा रगड़ते दरेरते अंदर तक जाता है। एक बार डागी पोज सेट करने के बाद, भइया ने धक्के लगाने शुरू किये और अब मेरी गाण्ड को भी उनके लण्ड की आदत पड़ती जा रही थी। उनके हर धक्के का जवाब मैंने भी कभी धक्के से तो कभी गाण्ड को सिकोड़ के, कभी निचोड़ के, उनके लण्ड को दबोच के देती थी।
लेकिन दो चार मिनट के बाद कामिनी भाभी ने उन्हें पता नहीं क्या उकसाया?
उन्होंने एक बार फिर मेरे चूतड़ों को हवा में जोर से उठाया, पूरे ऊपर तक, लण्ड को आलमोस्ट सुपाड़े तक बाहर निकाला और फिर एक धक्के में ही, पूरा जड़ तक,
मेरी बस जान नहीं निकली। हाँ चीख निकल गई, बहुत जोर से,-
“उई माँ, ओह्ह्ह… आह्ह… उईईई… उई माँ…”
यहाँ दर्द से जान निकल रही थी, और उधर भौजी खिलखिलाते हुए मुझे चिढ़ाने में लगी थी-
“अरे ओनके काहें याद कर रही हो, का उन्हु क गाण्ड मरवाने का मन है अपने भैय्या से? ले आना अगली बार, उन्हु के ओखली में धान कुटवाय दूंगी, तोहरे भैय्या से…”
चिढ़ाने में वो किसी को नहीं छोड़ती थी तो अपने सैयां को क्यों छोड़ती, उनसे बोली-
“अरे सिर्फ बहनचोद बनने से काम नहीं चलेगा, ये तुझे मादरचोद बनाने पे तुली है। बोलो है मंजूर, मादरचोद बनना?”
भैया ने एक बार फिर अपना मोटा मूसल आलमोस्ट एकदम बाहर निकाला धीमे-धीमे, मेरी गाण्ड के छल्ले से रगड़ते दरेरते, और हँस के कहा-
“एकदम, अरे जिस भोसड़े से ये मस्त सोने की गुड़िया, मक्खन की पुड़िया निकली है, वो भोसड़ा कितना मस्त होगा। उसको तो एक बार चोदना ही होगा, और मैं एक बार छोड़ भी देता लेकिन तुम्हारी छुटकी ननदिया, खुद बार-बार बोल रही है, तो अब तो बिना मादरचोद बने…”
और ये कह के उन्होंने पहली बार से भी करारा धक्का मारा।
दर्द से मेरी जोर से चीख निकल गई।
जवाब भौजी ने दिया-
“अरे बिचारी कह रही है, तो सिर्फ एक बार क्यों, उस छिनार की जिसकी बुर से ये जनी है एक लण्ड से… और एक बार से काम नहीं चलता। फिर सिर्फ भोसड़े से काम थोड़े ही चलेगा, हचक-हचक के उसकी गाण्ड भी कूटनी होगी…”
भैय्या के धक्कों की रफ़्तार अब बढ़ गई थी, और साथ में वो बोल भी रहे थे-
“एकदम सही बोल रही है, और जब इस नई कच्ची बछेड़ी के साथ इतना मजा मिल रहा है तो घाट-घाट का पानी पीकर, न जाने कितने लौंड़े घोंटी होगी, उसके भोसड़े में कितना रस होगा? एक बार क्यों बार-बार, और गाण्ड भी… एक बार इस गांव में आएंगी न अपने समधियाने, तो बस अपने सारे पुराने यारों को भूल जाएंगी…”
भैय्या के इन धक्कों में दर्द के मारे जान निकल जा रही थी
लेकिन एक बात और हो रही थी, न भौजी, न भइया कोई भी न मेरी क्लिट छू रहा था, न मेरी चूची। लेकिन एक अलग ढंग की मजे की लहर मेरी देह में दौड़ रही थी, मेरी चूत बार-बार सिकुड़ रही थी, अपने आप। अच्छी तरह पनिया गई थी। बस जैसे झड़ते समय होता है, वैसे ही। मुझे लग रहा था मैं अब गई तब गई।
पिछ्वाडे भैय्या के न धक्के कम हुए न उनका जोर। दर्द, छरछराहट भी वैसी ही थी, लेकिन अब अच्छा लग रहा था, मन कर रहा था और जोर से, और जोर से।
ये बात चम्पा भाभी ने भी बोली थी और बसंती ने भी, कि गाण्ड मरवाने का असली मजा तो दर्द में है, जिस दिन उस दर्द का मजा लेना आ जाएगा न… खुद गाण्ड मरवाने के लिए पीछे-पीछे दौड़ोगी।
भैय्या ने लण्ड बाहर निकाला, लेकिन अबकी अंदर नहीं घुसेड़ा, रुक गए। मैंने मुड़ के देखा, भौजी उनके कान में… और वो भी एकदम जोरू के गुलाम, मुश्कुरा के हामी भर रहे थे। डाला उन्होंने, लेकिन अबकी खूब धीमे-धीमे, मेरे दोनों पैरों को उन्होंने अपने पैरों के बीच डालकर जोर से सिकोड़ लिया और अब मेरी गाण्ड और भिंच गई। और आधा लण्ड घुसेड़ के वो रुक गए।
फिर एक हाथ से अपने खूंटे के बेस को पकड़ के गोल-गोल घुमाना शुरू कर दिया, पहले धीमे-धीमे, फिर जोर-जोर से चार पांच बार क्लाक वाइज, फिर एंटी क्लाक वाइज। चार पांच मिनट के बाद, मेरे पेट में जो घुड़मुड़ शुरू हो गई और कुछ देर में तो जैसे तूफान।
मैंने इशारे से भाभी को बुलाया और अपनी हालत बताई, बोला भी- “बस दो मिनट, पेट में गड़बड़ हो रहा है, भइया से बोलो न रुक जाएं…”
भाभी-
“धत्त, ऐसे समय कोई मर्द रुकता है क्या? घबड़ा मत तेरी गाण्ड में इतनी जोर की डाट लगी है, इतनी मोटी, एक बूँद भी बाहर नहीं आएगा। न तेरा मक्खन न उनकी मलाई…”
उन्होंने शायद भैया से कुछ बोला और उन्होंने फिर गोल-गोल घुमाना रोक के मुझे फिर से रगड़-रगड़ के गाण्ड मारना शुरू कर दिया।
मेरी देह बिस्तर से रगड़ रही थी मैं एकदम झड़ने के करीब थी। बीच-बीच में वो रोक के जैसे कोई मथानी से माखन मथे, उसी तरह से अपने हाथ से पकड़ के मेरी गाण्ड में। मेरी हालत खराब थी, मैं भी उनका लण्ड निचोड़ रही थी, दबा रही थी।
और कुछ देर में मेरी चूत को बिना कुछ किये मैं झड़ने लगी, खूब जोर-जोर से, इतना तो मैं चुदते समय भी नहीं झड़ती थी। मेरी देह काँप रही थी, मैं जोर-जोर से बोल रही थी-
“हाँ भैय्या हाँ… मार लो मेरी, चोद दो मेरी, मार लो गाण्ड, हो हो उह्ह्ह्ह्ह… आह्ह्ह्ह्ह…” कहकर मैं पलग पर ढेर हो गई, साथ में मेरी गाण्ड भी जोर-जोर से लण्ड निचोड़ रही थी, दबा रही थी।
और उसका असर उनपर भी पड़ा, दो चार धक्के पूरी ताकत से मार के, वो झड़ने लगे। खूंटा एकदम अंदर तक धंसा था। देर तक हम दोनों साथ-साथ झड़ रहे थे। दो कटोरी मलाई उन्होंने मेरी गाण्ड में तो छोड़ी ही होगी। वो मेरे ऊपर लेटे रहे और मैं बिस्तर पर पेट के बल।
मैं कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर पड़ गई, संज्ञा शून्य, शिथिल, निश्चल, मेरी पलकें मूंदी हुई थीं, सांसें लम्बी लम्बी धीमे-धीमे चल रही थीं। पूरी देह में एक मीठे-मीठे दर्द की चुभन दौड़ रही थी। बस सिर्फ एक चीज का अहसास था, अभी भी मेरे पिछवाड़े धंसे, अंदर तक गड़े, मोटे खूंटे का।
कुछ देर में धीमे-धीमे हल्के से वो बाहर सरक गया, जैसे कोई मोटा कड़ियल सांप सरकते फिसलते हुए, बिल से निकल जाय। और मैंने अपना छेद भींच लिया, जोर से सिकोड़ के। साजन के जाने बाद जैसे कोई सजनी, अपने घर की सांकल बंद कर ले।
एक तूफान जो अभी-अभी मेरे ऊपर से गुजर गया था, उसका अहसास बस समेट के संजो के, बचा के मैं अपनी बंद पलकों में रखे हुए थी। आँखें भले बंद थी लेकिन मैं महसूस कर सकती थी।
“एकदम, अरे जिस भोसड़े से ये मस्त सोने की गुड़िया, मक्खन की पुड़िया निकली है, वो भोसड़ा कितना मस्त होगा। उसको तो एक बार चोदना ही होगा, और मैं एक बार छोड़ भी देता लेकिन तुम्हारी छुटकी ननदिया, खुद बार-बार बोल रही है, तो अब तो बिना मादरचोद बने…”
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