- 22,186
- 57,732
- 259
पुष्पधन्वा
छुटकी की आखिरी पोस्ट, होलिका माई में कामदेव और रति से जुड़े, कुछ फर्टिलटी रिचुअल से संबंधित और कुछ तंत्र प्रतीक हैं। मुझे पूरा विश्वास है की मेरे सुधी पाठक अच्छी तरह समझ गए होंगे,
लेकिन फिर भी मैं थोड़ी बहुत बात इस पोस्ट के बारे में फिर से दुहराना चाहूंगी।
कहानी में भी यह बात मैंने कहि थी की होलिका के दहन के बारे में कहीं कहीं उसे कामदेव के दहन से भी जोड़ कर देखा जाता है। होली को बसंतोत्स्व या मदनोतस्व से भी एक जमाने में जोड़ा जाता था और इस प्रसंग में वही विम्ब हैं,
कहानी की यह लाइन देखें
और फिर एक अजीब सी फूलों की मिली जुली महक,.. किंशुक, आम के बौर और चमेली के साथ जैसे पोखर के ताजे कोपल खोल रहे, सरोज और कुमुदनियाँ हों,... वो महक तेज हो रही थी,
कामदेव को हम पुष्प धन्वा भी कहते हैं उनके पांच शर पुष्पों से ही बने है और उसी के चार बाणों का यहाँ जिक्र हैं. पांच बाण है, आम्रमंजरी, चमेली, दो प्रकार के कमल और अशोक के फूल, ... और वह सुगंध उनमें से चार बाणो की याद दिलाती है, तो वह सुगंध पुष्पधन्वा के तीरों का असर है और उस के साथ किंशुक या पलाश ( टेसू ) की गंध भी जुडी है जिसके बिना हम होली को कौन कहे फागुन की कल्पना नहीं कर सकते।
और कामदेव और होली से जुड़े इन पुष्पों की गंध बार बार इस कहानी में आती है।
वह चांदनी, वह संगीत, वह फूलों की गमक, ... बढ़ती ही जा रही थी,...
---
मेरी आंखे झुकीं, वो सिद्धासन में बैठीं, उनकी नाभि तक देख रही थी, फिर थोड़ा सा सर उठाया तो उन्नत उरोज भभूत ऐसे होली की राख में लपटे जैसे दग्ध मन्मथ का देहांश हो, ...
एक बार वही फूलों की महक, किंशुक, आम्र मंजरी, चमेली,... भीनी भीनी,... मेरी देह मेरे काबू में नहीं थी, और भीतर से कोई बोल रहा था कोमल अब इसे काबू में करने की जरूरत भी नहीं,... जैसे माँ की गोद में बचपन में, अभी भी सहज हो जाती हूँ, बिलकुल वैसे ही,...
उन्होंने दुलार से मेरे सर पर हाथ फेरा,... फिर ठुड्डी पकड़ कर मेरा चेहरा हलके से ऊपर किया,... मेरी आँखे अभी भी नीचे लेकिन तब भी मैं उनकी ग्रीवा तक देख रही थी, एक दिव्य रूप,... वह स्पर्श, जैसे मस्तिष्क, मन से लेकर पूरे तन में एक फुरहरी सी फ़ैल गयी, रोम सारे खड़े,... मेरी सारी इन्द्रियाँ चैतन्य, जैसे बारिश हो रही हो और मैंने एक छोटी बच्ची की तरह अंजुरी रोपे अमृत बूंदो को इकठ्ठा करने की कोशिश कर रही हूँ,...
---
कुछ देर में एक बार फिर से वही मदन समीर किंशुक आम्र मंजरी की महक वाली महुआ के रस से भी तेज और अबकी सिर्फ हम पांचो को नहीं सारी औरतों, लड़कियों को,... चांदनी भी निकल आयी थी, हमें नहला रही थी,... थोड़ी देर में हम सब सामान्य हो गए,... सब से पहले सास लोग निकल गयीं कल की होली भौजाई देवर और नंदों की होती उसमें घर का कोई भी बड़ा, सास नहीं होती थीं,...
कामदेव के तीर तो फूल से जुड़े हैं और उनका धनुष गन्ने का है और होलिका के आशीर्वाद में गन्ने का भी जिक्र आया
---
पुष्पधन्वा के इन पुष्पशर के साथ साथ होलिका रति का रूप इस प्रसंग में थीं। और वह भभूत दग्ध कामदेव के देहांश का रूप. रति के विलाप के बाद आशीष मिला था यह राख होने के बाद तो पुनर्जीवित नहीं हो सकते, लेकिन सूक्ष्म रूप में मन में रहेंगे इसलिए मन्मथ कहलाये।
रति के साथ तो सारी काम क्रिया ही जुडी है, काम क्रिया को रति क्रिया भी कहते हैं. और सीधे रति रूपा का आशीष।
जैसे आग की भट्ठी,... कितनी ऊर्जा, लेकिन गर्मी ऐसी जो शीतलता दे,... बर्फ को छूने पर जैसे कई बार हाथ जलता लेकिन धीरे धीरे मेरा हाथ भी उसी तरह,... और उनकी उँगलियों ने मेरी उँगलियों को अपने भगोष्ठों पर,.... अमृत कुंड में कोई स्नान कर ले, रति रस का वो स्पर्श,... निर्झर स्रोत,... और मेरी उँगलियों से होते हुए मेरे तन मन में ,
इस तरह के अनेक प्रतीक इस भाग में हैं
उसी के साथ फर्टिलिटी सिंबल जो लोक कलाओं में खास तौर से विवाह से जुडी जहाँ सिर्फ औरतें रहती हैं, जैसे कोहबर,... वहां सिर्फ पुरुषों में दूल्हा ही जाता है, कोहबर के चित्र में बांस, बँसवाड़ी पुरुष प्रतीक हैं ( जो आप सोच रहे हैं वो कारण तो है ही ) क्योंकि माना जाता है की बांस की आयु बहुत होती है उसी तरह महिला प्रतीक चिन्ह के तौर पर कुमुदनी बनती है और कहानी के इस पार्ट में दोनों आते हैं
उन पेड़ों के पीछ सैकड़ों साल पुरानी बँसवाड़ी, ... जिसके बांस सिर्फ शादी में मंडप के लिए, किसी जाति की बाइस पुरवा में लड़की की शादी हो या लड़के की बांस यहीं से, लेकिन बांस काटने के पहले भी खूब पूजा विधान,... और शादी के अलावा कोई उस बँसवाड़ी की ओर मुंह भी नहीं करता था,... उसी बँसवाड़ी के घने झुरमुट में,....
हां मालूम था उसके अंत में एक पोखर है लेकिन गाँव की बड़ी बूढ़ियों ने, गुलबिया की सास ने, सबने बरजा था, बल्कि कभी सपने में उसकी बात भी नहीं करनी थी,...
---
जैसे पोखर के ताजे कोपल खोल रहे, सरोज और कुमुदनियाँ हों
तंत्र प्रतीकों का उल्लेख अगले भाग में
छुटकी की आखिरी पोस्ट, होलिका माई में कामदेव और रति से जुड़े, कुछ फर्टिलटी रिचुअल से संबंधित और कुछ तंत्र प्रतीक हैं। मुझे पूरा विश्वास है की मेरे सुधी पाठक अच्छी तरह समझ गए होंगे,
लेकिन फिर भी मैं थोड़ी बहुत बात इस पोस्ट के बारे में फिर से दुहराना चाहूंगी।
कहानी में भी यह बात मैंने कहि थी की होलिका के दहन के बारे में कहीं कहीं उसे कामदेव के दहन से भी जोड़ कर देखा जाता है। होली को बसंतोत्स्व या मदनोतस्व से भी एक जमाने में जोड़ा जाता था और इस प्रसंग में वही विम्ब हैं,
कहानी की यह लाइन देखें
और फिर एक अजीब सी फूलों की मिली जुली महक,.. किंशुक, आम के बौर और चमेली के साथ जैसे पोखर के ताजे कोपल खोल रहे, सरोज और कुमुदनियाँ हों,... वो महक तेज हो रही थी,
कामदेव को हम पुष्प धन्वा भी कहते हैं उनके पांच शर पुष्पों से ही बने है और उसी के चार बाणों का यहाँ जिक्र हैं. पांच बाण है, आम्रमंजरी, चमेली, दो प्रकार के कमल और अशोक के फूल, ... और वह सुगंध उनमें से चार बाणो की याद दिलाती है, तो वह सुगंध पुष्पधन्वा के तीरों का असर है और उस के साथ किंशुक या पलाश ( टेसू ) की गंध भी जुडी है जिसके बिना हम होली को कौन कहे फागुन की कल्पना नहीं कर सकते।
और कामदेव और होली से जुड़े इन पुष्पों की गंध बार बार इस कहानी में आती है।
वह चांदनी, वह संगीत, वह फूलों की गमक, ... बढ़ती ही जा रही थी,...
---
मेरी आंखे झुकीं, वो सिद्धासन में बैठीं, उनकी नाभि तक देख रही थी, फिर थोड़ा सा सर उठाया तो उन्नत उरोज भभूत ऐसे होली की राख में लपटे जैसे दग्ध मन्मथ का देहांश हो, ...
एक बार वही फूलों की महक, किंशुक, आम्र मंजरी, चमेली,... भीनी भीनी,... मेरी देह मेरे काबू में नहीं थी, और भीतर से कोई बोल रहा था कोमल अब इसे काबू में करने की जरूरत भी नहीं,... जैसे माँ की गोद में बचपन में, अभी भी सहज हो जाती हूँ, बिलकुल वैसे ही,...
उन्होंने दुलार से मेरे सर पर हाथ फेरा,... फिर ठुड्डी पकड़ कर मेरा चेहरा हलके से ऊपर किया,... मेरी आँखे अभी भी नीचे लेकिन तब भी मैं उनकी ग्रीवा तक देख रही थी, एक दिव्य रूप,... वह स्पर्श, जैसे मस्तिष्क, मन से लेकर पूरे तन में एक फुरहरी सी फ़ैल गयी, रोम सारे खड़े,... मेरी सारी इन्द्रियाँ चैतन्य, जैसे बारिश हो रही हो और मैंने एक छोटी बच्ची की तरह अंजुरी रोपे अमृत बूंदो को इकठ्ठा करने की कोशिश कर रही हूँ,...
---
कुछ देर में एक बार फिर से वही मदन समीर किंशुक आम्र मंजरी की महक वाली महुआ के रस से भी तेज और अबकी सिर्फ हम पांचो को नहीं सारी औरतों, लड़कियों को,... चांदनी भी निकल आयी थी, हमें नहला रही थी,... थोड़ी देर में हम सब सामान्य हो गए,... सब से पहले सास लोग निकल गयीं कल की होली भौजाई देवर और नंदों की होती उसमें घर का कोई भी बड़ा, सास नहीं होती थीं,...
कामदेव के तीर तो फूल से जुड़े हैं और उनका धनुष गन्ने का है और होलिका के आशीर्वाद में गन्ने का भी जिक्र आया
---
पुष्पधन्वा के इन पुष्पशर के साथ साथ होलिका रति का रूप इस प्रसंग में थीं। और वह भभूत दग्ध कामदेव के देहांश का रूप. रति के विलाप के बाद आशीष मिला था यह राख होने के बाद तो पुनर्जीवित नहीं हो सकते, लेकिन सूक्ष्म रूप में मन में रहेंगे इसलिए मन्मथ कहलाये।
रति के साथ तो सारी काम क्रिया ही जुडी है, काम क्रिया को रति क्रिया भी कहते हैं. और सीधे रति रूपा का आशीष।
जैसे आग की भट्ठी,... कितनी ऊर्जा, लेकिन गर्मी ऐसी जो शीतलता दे,... बर्फ को छूने पर जैसे कई बार हाथ जलता लेकिन धीरे धीरे मेरा हाथ भी उसी तरह,... और उनकी उँगलियों ने मेरी उँगलियों को अपने भगोष्ठों पर,.... अमृत कुंड में कोई स्नान कर ले, रति रस का वो स्पर्श,... निर्झर स्रोत,... और मेरी उँगलियों से होते हुए मेरे तन मन में ,
इस तरह के अनेक प्रतीक इस भाग में हैं
उसी के साथ फर्टिलिटी सिंबल जो लोक कलाओं में खास तौर से विवाह से जुडी जहाँ सिर्फ औरतें रहती हैं, जैसे कोहबर,... वहां सिर्फ पुरुषों में दूल्हा ही जाता है, कोहबर के चित्र में बांस, बँसवाड़ी पुरुष प्रतीक हैं ( जो आप सोच रहे हैं वो कारण तो है ही ) क्योंकि माना जाता है की बांस की आयु बहुत होती है उसी तरह महिला प्रतीक चिन्ह के तौर पर कुमुदनी बनती है और कहानी के इस पार्ट में दोनों आते हैं
उन पेड़ों के पीछ सैकड़ों साल पुरानी बँसवाड़ी, ... जिसके बांस सिर्फ शादी में मंडप के लिए, किसी जाति की बाइस पुरवा में लड़की की शादी हो या लड़के की बांस यहीं से, लेकिन बांस काटने के पहले भी खूब पूजा विधान,... और शादी के अलावा कोई उस बँसवाड़ी की ओर मुंह भी नहीं करता था,... उसी बँसवाड़ी के घने झुरमुट में,....
हां मालूम था उसके अंत में एक पोखर है लेकिन गाँव की बड़ी बूढ़ियों ने, गुलबिया की सास ने, सबने बरजा था, बल्कि कभी सपने में उसकी बात भी नहीं करनी थी,...
---
जैसे पोखर के ताजे कोपल खोल रहे, सरोज और कुमुदनियाँ हों
तंत्र प्रतीकों का उल्लेख अगले भाग में
Last edited: