टिप टिप बरसा पानी
लेकिन तभी जोर की आवाज हुयी कहीं पेड़ की डाल गिरी, और बिजली चली गयी. हम लोगों के कमरे में जल रही नाइट लैम्प की रौशनी गुल हो गयी और पंखा बंद।
एकदम घुप्प अँधेरा,
असल में एकदम अँधेरा तो नहीं था, जैसे झड़ झड़ के मैं थेथर हो गयी थी वही हालत मेरी सहेली कजरारी बदरियों की भी हो गयी थी और चांदनी का सांवला आवरण हल्का हो गया था, हलकी हलकी चांदी, बादलों के परदे को भेदकर छिटक रही थी जैसे नयी दुल्हन का रूप घूंघट के पार छलकता रहता है, देवरों नन्दोईयों को ललचाता रहता है,
एक पल के लिए ऊपर अपने कमरे के बारे में बता दूँ, एक दरवाजा तो था , जो सीढ़ी वाले कमरे से लगा था, जिस सीढ़ी की ओर इनके मायके आने के अगले दिन से ही मैं निहारती थी कब मौक़ा मिले और धड़ धड़ चढ़के मैं इस शैतान लड़के के पास आ जाऊं, एक खिड़की जो घर के पिछवाड़े की ओर थी, जिस ओर पेड़, थोड़ा सा खेत, एक छोटा सा पोखर , और एक दरवाजा था जो छत की ओर खुलता था, पर हमेशा बंद रहता था। पहले दिन से ही मुझे जेठानी ने दस बार बताया होगा , छत पर जाने की कोई जरूरत नहीं। आस पास कुछ घर भी थे , लेकिन हम लोगों के घर से सटे नहीं थोड़ी दूर, एक मकान सड़क के उस पार,...
आज वो दरवाजा भी खुला था, ... और बस थोड़ी देर में ये मुझे अपनी गोद में उठाकर छत पर,
घटाटोप अँधेरा, बूँद बूँद बरसता पानी, अँधेरे में छलकती हलकी हलकी चांदनी, और बड़ी सी छत पर भीगते हम दोनों, एक दूसरे को पकडे, एक दूसरे में डूबे,
और मैंने हलके हलके गाना शुरू कर दिया मेरा इनका दोनों का फेवरिट,
टिप टिप बरसा पानी
आहा हा हा हा आहा.. टिप-टिप बरसा पानी
टिप-टिप बरसा पानी
पानी ने आग लगाई
जल उठा मेरा भीगा बदन अब तू ही बताओ साजन मैं क्या करूं..
और उस दुष्ट लड़के के होंठ मेरे होंठों से सरक कर कुछ देर तक तो मेरे उभारों पर, मेरे कड़े खड़े पथराये निप्स पर, और फिर सीधे शहद के छत्ते पर
उसके हाथ कस के मेरे दोनों नितम्बों को पकडे थे , उसके दोनों होंठ मेरे मेरे भीगे कुछ पानी से कुछ रस से गीले निचले होंठों से चिपके
मुझे पागल करने को ये बारिश ही कम थी क्या की उसके होंठ भी,
बारिश एक बार फिर तेज हो गयी, मेरी सहेली लजीली बदरियों से चाँद की ये शरारत भरी लुका छिपी नहीं देखी गयी और एक बार फिर उन्होंने ने कस के उस की आँखे मूँद दी, ...
भीगते पानी में मैं छत पर लेटी , ये लड़का मेरा छाता बना मेरे ऊपर छाया,
मैंने कस के अपने भुजबंध में इसे बाँध रखा था,
कितनी बार, कैसे क्या, ... मुझे कुछ अहसास नहीं , बस मुझे अपने भीतर अपने चारों ओर इस लड़के का अहसास था, छत पर टप टप बरसती बूंदों का,
हाँ सुबह मेरी नींद खुली तो बस पंखा चल रहा था,बिजली आ गयी थी, दरवाजे खिड़किया अभी भी वैसे ही, ... ये पलंग पर नहीं थे ,... और अलसाते हुए सामने लगी मैंने मैडम टिकटिकी पर निगाह डाली
साढ़े नौ बज रहे थे।