शीला भाभी और होली की साँझ
गुड्डी वापस मुड़ी और रंजी से बोली- “यार तू स्कूटी निकाल मैं जरा पर्स भूल गई हूँ लेकर आती हूँ…” वो वापस मुड़ी, मुझे भी इशारा किया और मैं उसके पीछे-पीछे।
“क्या भूल गई थी?” मैंने गुड्डी से पूछा।
मुश्कुराकर मुझे बाहों में लेकर वो बोली- “एक बात और एक काम…”
फिर मुझे किस करके गुड्डी ने कहा-
“बात ये है कि आज तुझे मेरी कसम, शीला भाभी की खूब रगड़-रगड़कर हचक के करना, मेरे नाम का सवाल है। मेरा नाम मत डुबोना समझे और उन्हें गाभिन जरूर करना। पंद्रह दिन के अंदर अच्छी खबर आनी चाहिए। एक बात तुम्हें समझानी थी, भाभी ही असली चाभी हैं। सिर्फ मेरे घर में ही नहीं पूरे गाँव में उनकी चलती है और अगर एक बार तूने उनको फिट कर लिया ना तो समझ लो, चाहे मेरे मायकेवालियां हों या तेरी, सबका आगे-पीछे दोनों छेद पक्का…”
और जब तक मैं कोई सवाल करता, वो अलमारी की ओर मुड़ी, चंदा भाभी के दिए हुए हर्बल वियाग्रा वाले लड्डू निकाले, एक नहीं दो, और मेरे मुँह में डाल दिए। और अब तो मेरे बोलने का सवाल नहीं था। मुँह लड्डू से भरा था।
वही बोली- “यही काम मैं भूल रही थी। डबल डोज इसलिए कि सिर्फ उनकी लेना नहीं बल्की गाभिन भी करना है। और मैं इसलिए रंजी के साथ जा रही हूँ की फिर तुम निश्चिंत होकर रात भर उनकी लो। दूसरे इस छिनार तेरी बहन कम माल कि मुझे निगरानी भी करनी है। इसकी चूत में इत्ते चींटे काट रहे हैं तो कहीं किसी और से अपनी सील न तुड़वा ले। अब तो उसकी सील टूटेगी तो तेरे मूसल से और वो भी इतनी जबरदस्त कि उसकी चीख, पूरे मुहल्ले में सुनाई देनी चाहिए की उसकी फट गई। फिर तो उसके बाद देखना तुम्हारी किस-किस मायकेवालियों का नंबर लगवाती हूँ…”
बाहर से रंजी की आवाज आई और गुड्डी एक बार फिर जंगबहादुर को दबाकर, रंजी के साथ स्कूटी पे निकल गई। मैं और शीला भाभी दोनों को देख रहे थे। लेकिन रंजी के जाने के पहले शीला भाभी ने उसे मन भर अशीशा।
भाभी ने कसकर रंजी को अंकवार में बाँध रखा था। उनके हाथ प्यार से उसके गाल और बाल सहला रहे थे। पहली बार वो रंजी से अबकी मिली थी, लेकिन पक्का ननद भौजाई का रिश्ता बन गया था। और रंजी भी उनसे दुलार से चिपकी थी। फिर अचानक शीला भाभी ने रंजी को छेड़ने वाली निगाह से देखा और रंजी ने उसी तरह मुश्कुराती चिढ़ाती निगाह से जवाब दिया।
फिर क्या था अब तो शीला भाभी चालू हो गईं। अपने बड़े-बड़े जोबन से उसके किशोर उभार दबाती, मसलती, बोली-
“अरे रंडी, हमार मतलब रंजी रानी, जल्दी से जल्दी अपनी बुरिया में, अपने भइया का लण्ड ठोंकवाओ, अगवाड़े पिछवाड़े, (और गुड्डी ने वहीं मुझे अंगूठा और तरजनी मिला के चुदाई का इंटरनेशनल सिंबल दिखाया और रंजी ने भी पहले तो लम्बी सी जीभ निकालकर चिढ़ाया, और फिर फ्लाइंग किस), दिन रात चुदवाओ इस बहनचोद से, फिर अपने भय्या के साल्लों का नंबर लगवाओ, बनारस जाओ तो एक से एक मोटे लण्ड मिलें, मजे ले लेकर बुर चुदवाओ, गाण्ड मरवाओ, महीने में सौ का नंबर पार लग जाए तब पता चले कि हमार छिनार रंडी ननद है…”
रंजी भी कम नहीं थी, मुझे आँख मारकर बोली- “भाभी आपके मुँह में घी शककर, आपकी सब बात एकदम सही हो…”
“एकदम होगी, अरे हमको होलिका रानी का आशीर्वाद है, जौने ननद के होली के दिन आशीर्वाद दे दिया, ओकरे बुर में इतना लण्ड घुसंगे कि वो साल्ली छिनार गिनती भूल जायेगी…”
रंजी और गुड्डी स्कूटी से रंजी के घर की ओर निकल पड़ी और मैं और शीला भाभी किचन की ओर। शीला भाभी किचेन में खाना लगा रही थी और मैं उन्हें निहार रहा था।
पुष्ट उरोज, दीर्घ नितम्ब, मांसल देहयष्टि, कसी-कसी पिंडलियां और चपल चंचल नैन, एकदम पक्की प्रौढ़ा नायिका। शीला भाभी के चूतड़ जैसे दो तरबूज, कसर मसर करते, वो जरा भी हिलती तो उनकी गाण्ड की दरार एकदम साफ दिखती। और साड़ी भी कूल्हों के नीचे बंधी, तगड़ी मासंल जंघाएं जैसे याद दिला रही हों कितनी ताकत, कितनी मस्ती होगी इनके बीच।
रंजी और गुड्डी, शीला भाभी के मुकाबले मुग्धा नायिका कि श्रेणी में आती हैं, हिरनी की तरह चपल चंचल किशोरियां। कैशोर्य एक ऐसी उमर, बचपन और जवानी के बीच कि दहलीज पे खड़ी, जहाँ से कोई उन्हें हाथ पकड़कर जवानी कि रसीली गलियों में खींच ले। मुग्धा नायिका की पहचान ही यही है कि उसका थोड़ा मन करेगा, थोड़ा शर्मायेगी। काम का रस जैसे यौवन घट में लाज के भारी ढक्कन के नीचे बंद हो और मेरे जैसा कोई आकर उस ढक्कन को हटाकर, आज का घूघट खोलकर छक के उस रस का पान करे और उन किशोरियों को जवानी के सुख से परिचित कराये।
वहाँ आनंद उंगली पकड़कर उन्हें काम गली में चलना सिखाने का है। लेकिन रति का असली आनंद तो प्रौढ़ नायिका के ही साथ है, जो काम कला में प्रवीण हो, नैनों के साथ देह कि भाषा भी अच्छी तरह समझती हो और अखाड़े में बराबर कि टक्कर दे। और शीला भाभी सोलहो आना ऐसी ही लग रही थी तन से भी मन से भी।
केलि कला में अति चतुर, रति अरु पति सों हेत।
मोहि जाहि आनन्द ते, प्रौढ़ा वरनी सुचेत।
प्रौढ़ा के साथ काम मात्र देह का मिलन नहीं बल्की सभी इंद्रियों का सुख, सुनने का, बोलने का, नख क्षत, दन्त क्षत सब कुछ, यानि सम्पूर्ण काम रस है। वह केलि कला में चतुर होती है, प्रेमी को रति का आनंद देना जानती हैं। वह मदन के वशीभूत होकरलि काल में लज्जा पूरी तरह त्याग देती हैं।
शीला भाभी जब कुछ निकालने के झुकती तो उनके लो-कट चोली से जोबन, छलक-छलक बाहर आ रहे थे। उन गोरी मांसल बड़ी-बड़ी गोलाइयों के बीच कि खायीं देखकर जंगबहादुर की हालत खराब हो रही थी। और ऊपर से उनके कसर मसर करते चूतड़।, मैं और भाभी दोनों खाना निकालकर बाहर लाये। और सबसे बाद में मैंने भाभी को ही उठा लिया और बरामदे में ले आया।
हँसती खिलखिलाती भाभी बोली- “अरे लल्ला आई का कर रहे हो?”
“अरे भाभी, स्वीट डिश तो आप ही हो इसलिए आपको भी उठाकर खाने की मेज पे ले जा रहा हूँ…” मैंने जवाब दिया।
खाना खाने के लिए हम दोनों तख़्त पे बैठे थे लेकिन शीला भाभी मेरी गोद में थी, मेरी ओर मुँह किये हुए।
“भाभी आज खाना आपके हाथ से खाऊंगा…” मैंने बड़े अंदाज से शीला भाभी से कहा।
“ये कौन सी बड़ी बात है, अरे खिला दूंगी न देवर को, लेकिन क्यों?” उन्होंने भी बहुत प्यार से कहा।
“एक तो भाभी आपके हाथ से खाना दूना मीठा हो जाएगा, और दूसरे मेरे हाथ को कुछ और भी काम हैं…” मैंने छेड़ते हुए कहा, और अगले ही पल हाथ उनके लो-कट ब्लाउज़ में था। चट-चट करते हुए चुटपुटिया बटन सारी टूट के खुल गईं, और मेरे दोनों हाथ में लड्डू।